कहानी समकालीनः कायरः शैल अग्रवाल/लेखनी-मार्च-अप्रैल 17

रोज-रोज की चिकचिक और बीबी के उलाहनों से शिवचरन का दिमाग खराब था। पत्नी की बात सुनें या माँ की?  … किसे मनाएं, किसे रूठा रहने दें, दिमाग में चिड़चिड़ाहट बढ़ती  जा रही थी। सतत् प्रयासों के बावजूद भी, न तो माँ की ममता ही छूट रही थी अपने घर-परिवार से और ना ही बीबी की गृहस्वामिनी बनने की उद्दंड वह  ख्वाइश ही कम  कर पा रहे  थे वह।    चमत्कारों में विश्वास नहीं था फिर भी अक्सर ही सोचते रह जाते  कि काश् ऐसा भी हो एकदिन जब वे सोकर उठें  और माँ  व  पत्नी, आपस में  हंस-हंसकर बात करती दिखलाई  दें उन्हें। आम लोगों-सा उनका भी घर-परिवार हो।

घर परिवार तो दूर, एक-एक वस्तु से माँ पलभर को  भी अपना ध्यान नहीं हटा पाती थीं  और कमरे से लेकर जेवर, चौका; हर चीज से मां को बेदखल करके  अपना हक़ जमाने का पत्नी का  दुराग्रह दिन-पर-दिन और-और बेध़ड़क और बेशर्म होता  चला जा रहा  था।

‘ भाग्यशाली हैं जिन्हें भगवान जल्दी बुला लेता है। इन्हें देखो, दिन-पर-दिन और भी मलंग ही होती जा रही हैं, महारानी । जाने कबतक छाती पर बैठकर मूंग दलेगी। ऐसे तो अभी बीसियों साल बैठी रहेगी, यह बुढ़िया।‘

‘छोड़ो।’ ‘ जाने दो।’  ‘ होगा।  तुम्हें क्या फर्क पड़ता है। ‘ -जैसे उनके मान-मनौव्वल भरे शब्द दोनों के कानों पर जूँ भर न रेंगते।  त्रिशंकु-से माँ और पत्नी के बीच लटके शिवचरन कभी माँ की तरफ से सोचना शुरु करते तो कभी पत्नी की बातें  गुस्सा और झल्लाहट…एक बेचैन छटपटाहट भर देतीं मन में।

जले-कटे उलाहने आम हो चले थे उनके घर में । एक कौर तक बिना आंसुओं के न निगल पातीं राजरानी। ‘ क्या आदमी इसी लिए बड़ा करता है…पालता-पोसता है औलादों को! ‘ गुस्से में बहते आंसुओं को पोंछती और सब अनदेखा , अनसुना करती,  शिवधाम ( कमरा  जिसकी हर दीवार को शिव-परिवार की तस्बीरों से सजा रखा था उन्होंने)  में घंटों जा छुपतीं । पूजा-पाठ के बहाने किताबों को घूरती चुपचाप बैठी रह जातीं उस बन्द कमरे में। पति के जाने के बाद बस यही एक दिनचर्या रह गई थी उनकी। कोई कर्तव्य, कोई जिम्मेदारी…कोई बन्दिश नहीं, बस सांसों की धौंकनी ही जिन्दगी का अहसास थी । फिर भी जीने का मोह नहीं छूटा था और ना ही बहू-बेटा किसी पर बोझ ही थीं वह अभीतक। सारा काम कर ले जाएं, इतनी सामर्थ थी बूढ़े हाथ पैरों मे अभी। सच कहें तो बड़ा बनना, अपना काम करवाना आता ही नहीं था उन्हें, उलटे उनका ही एकाध काम कर देतीं,  चलती-घिसटती राजरानी। वक्त-बेवक्त बेटे-बहू को कहीं जाना होता तो उनके सहारे बच्चों को छोड़कर बेफिक्र चले जाते। आराम से रख लेती वह। फिर भी एक छत के नीचे बुढ़िया की उपस्थिति बहू को खलती रहती। सामना होते ही परछाई तक से बचकर निकलती वह। बालों में कनस्तर भर तेल चुपड़कर बुढ़िया जब नहाने जाती तो गुसलखाने को साफ करते-करते न सिर्फ बहू परेशान हो जाती, बच्चों तक के नाक भौं सिकुड़ जाते।

फिर आया वह मनहूस दिन जब साबुन की टिक्की पर फिसल कर  कूल्हे की हड्डी तोड़ ली और हाथ-पैरों तक से लाचार हो गई राजरानी।

अब बात खाने-पीने की ही नहीं, हर बात पर आ अटकी थी। बुढ़िया टट्टी-पेशाब तक के लिए दूसरों पर लाचार थी। बहू ने अल्टीमेटम दे दिया । मुझसे नहीं होगा यह सब। वृद्धाश्रम में छोड़कर आओ, नहीं तो मैं घर छोड़ती हूँ।

उसने काशी के विधवा आश्रमों के बारे में सुन रखा था जहाँ ऐसी परित्यक्त वृद्धाओं को लोग थोड़ी-सी राशि दान करके छोड़ आते हैं। गरीब-लाचारों को तो बिना दान-राशि के भी रख लिया जाता है वहाँ पर।

‘ अमर होकर तो कोई नहीं आया इस दुनिया में। जाना तो सबको ही है। क्या एकदिन आगे और क्या एकदिन पीछे। काशी इसलिए कह रही हूं कि तुम्हारा मन उचटे तो जाकर मिल सकते हो अपनी मां से।’

तर्क-कुतर्कों से पति की मति पूरी तरह से फेर दी पत्नी ने।

तीरथ के बहाने मां को ले जाना अच्छा तो नहीं लगा था शिवचरन को, पर घर की शांति के लिए मजबूरन करना ही पड़ा यह भी।

‘अस्पताल है।’ –कहकर छोड़ा था मां को और दो दिन बाद फिर आएँगे –कहकर ऐसा पलटे कि पीछे मुड़कर देखने की हिम्मत तक नहीं हुई कायर मन में । मानो मां, मां नहीं भूत-चुड़ैल हो, मुड़कर देखते ही चढ़ बैठेगी उन पर।

आते ही शिवचरन की बीबी ने सबसे पहले शिवधाम को बच्चों के पढ़ने के कमरे में तब्दील किया। रहना तो खुद ही  चाहती थी, पर कमरे के कोने-कोने से सास की आंखें पीछा करती-सी महसूस होने लगी थीं उसे। जिन जरी और रेशम के भारी साड़ी-दुशालों पर सालों  आंखें गड़ी रहती  थीं , अब वे सांप-बिच्छू-से भयभीत कर रहे थे।

गठ्ठर बांधकर नौकरों को पकड़ा दिया सब। सास के प्रति नफरत भय में तब्दील होकर खाज –खुजली बनी पूरे बदन से फूट पड़ी  ।  दमा ने पकड़ा सो अलग। फिर भी कुटिल बुद्धि के रहते बदनामी न होने दी। उलटे समझ मुताबिक औनी-पौनी सहानुभूति ही समेट लाई वह। पूरे गांव में रो-रोकर खबर फैला दी कि- ‘ तीरथ कराने ले गए थे, पर गंगा में डुबकी लगाते वक्त पैर ऐसा फिसला कि मुंह तक वापस देखने को नहीं मिला। भटकते ही रह गए हम। पता नहीं गंगा मां  खुद आकर  अपनी गोद में ले गईं या मगरमच्छों ने निगल लिया। ऐसे अभागे हैं हम तो कि कुछ भी पता नहीं चल पाया। बस, पैसा-पानी की तरह बहाकर लौट आए। रो-पीटकर ही सब्र करना पड़ा।‘

किसी ने विश्वास किया, किसी ने नहीं भी। हर मन में ही हजारों सवाल उफनते रहे, पर शिवचरन उदासी का मुखौटा ओढे चुप रहे। किसीकी किसी भी बात का कोई जबाव नहीं दिया उन्होंने। पत्नी शादी-व्याह वाले उत्साह से भी ज्यादा आगे बढ़-बढ़कर हर काम में हाथ बंटाती रही पति का और वह भी यंत्रवत् पत्नी के कहे मुताबिक सबकुछ  करते चले गए। तेरहवें दिन पूरे गांव को न्योता देकर वह जल्दी ही इस अध्याय को बन्द करना चाहते थे, हमेशा के लिए।

मूसलाधार बारिश में ढोल-ताशे के साथ जिन्दा मां का क्रियाकर्म करने गंगाजी गए तो अनजाने अशुभ की आशंका से मन कांप रहा था।  मंत्राचार के साथ सिंदूर से पुती उस फूस की बनी गुड़िया को जल समाधि देकर खड़े भी न हो पाए  थे कि वह अनहोनी हुई जिसकी उन्होंने क्या, पूरे गांव तक ने कल्पना नहीं की थी। बाढ़ के पानी संग बहकर आती माँ की असली लाश ने बेटे को ढूंढ ही निकाला था और उनसे टकराकर ही दम लिया – मानो कह रही हो-‘ना-ना ऐसा अधर्म मत कर बेटा।’

अब फूस की गुड़िया लाल गोटे लगे किमखाब में बाइज्जत दबी-ढकी और मां घुटनों तक उघड़े पेटीकोट और बटन टूटे ब्लाउज में उपेक्षित और अधनंगी साथ-साथ तैर रही थीं। एकबार फिर पत्नी ने ही पण्डित को दान देने के लिए लाई, सफेद मलमल की कोरी  धोती पूजा की थाली से लाश को उढ़ाकर परिवार की इज्जत ढकी और  झटपट भय व विस्मय से खुली हर आंख के आगे सच्चाई पर परदा डाल दिया।

अगले पल ही उसके बचाओ-बचाओ के शोर को सुनकर कैसे भी सबने आनन-फानन आंसुओ की झड़ी के पीछे जा छुपे बेटे और गठ्ठर बनी मां की विद्रूप लाश को किनारे तक खींचकर  गंगा से बाहर निकाल दिया।

‘ वह तो मां को आश्रम में छोड़कर आए थे फिर यहां पर इस तरह से, कैसे ? ‘  शिवचरन सन्न थे।  ‘ तो क्या हफ्ते भर भी न चल पाई  माँ वहां पर? पता नहीं आश्रम वाले ध्यान भी रखते थे या नहीं या यूँ ही घिसटता-भटकता मरने को छोड़ देते हैं अबला-अनाथों को ? ’

सैकड़ों गली-गली भीख मांगती, सिर पर उस्तरा फिरी और सफेद धोती में लिपटी उदास, कृशकाय बुढ़िया अब एकसाथ एक डरावने सपने-सी बारबार उनकी भयभीत आँख के आगे आ और जा रही थीं। मां के भी तो  सारे बाल नदारत थे। मां का सिर भी तो उस्तरा फिरा ही था। एक आध खरोंचों की आड़ी-तिरछी लकीरों को भूल जाए तो चिकना-सपाट ही था। हफ्ते दो हफ्ते के ही अन्दर ही शरीर का सारा गोश्त घुल गया था। चमड़ी हड्डियों पर चिपकी मात्र सी महसूसस हो रही थी। पता नहीं कुछ खाने-पीने को मिला भी था या नहीं, या यूँ ही  भूखी प्यासी रात-बिरात लुढ़क गई ?’

कलेजा मुँह को आ रहा था और अंतर्आत्मा तक धिक्कार रही थी उन्हें।

ग्लानि से दबे फूट-फूटकर रो रहे थे अब वह और गाँव वाले आपस में मां-बेटे के प्यार की दुहाई दे रहे थे।

‘ देखो ममता भी कैसी चीज होती है, मरी हुई ने भी आखिर ढूंढ ही लिया बेटे को। मीलों बहती-तैरती मुखाग्नि उससे ही दिलवाने यहाँ तक आ पहुँची।’

बेटे ने भी विधिवत् मां का दाहसंस्कार किया और जजमानों को भरपेट खिला-पिला  व दान-दक्षिणा देकर अपने अपराध बोध से मुक्ति पाने की  भरपूर  कोशिश की। फिर भी बेचैनी कम न हुई तो स्थानीय अस्पताल में मां की स्मृति में एक कमरा भी बनवा दिया। पूरे गांव में आदर्श बेटे के उस भव्य  धार्मिक अनुष्ठान की चर्चा थी । माँ-बेटे के अगाढ़ स्नेह की चर्चा थी, वरना लाश कैसे उन तक ही पहुंचती, वह भी तेरह दिन पहले डूबी हुई… बिना जरा भी सड़े-गले। मानो कोई दैवीय शक्ति का  हाथ हो इस सबके पीछे।

‘ दैवीय शक्ति ही तो थी। वह तो अच्छा है कि लाशें बोल नहीं पातीं।’ अब तो उन्हें भी मइया के प्रताप का अहसास होने लगा था। अक्सर चलते-फिरते मां दिखलाई दे जातीं। झाड़-फूंक सब करवाया पत्नी ने और उन्होंने खुद जाकर भी मां के नाम की विंद्यवासिनी पर चूनर और नारियल-बताशा सब चढ़ाए , दीप जलाया,  तब जाकर मन को थोड़ा-बहुत चैन मिला।

चार-पांच साल पुरानी हो चली थी बात । शिवचरन एकबार फिर अपनी घर गृहस्थी और व्य़ापार में रम चुके थे। काम-काज अच्छा चल रहा था। फैल-फूल रहा था। व्यस्तता में माँ और उनसे जुड़े प्रसंग को करीब करीब भूल चुके थे सेठ शिवचरन।  काम दिनदूना रात चौगुना बढ़ता जा रहा था। गांव वालों का कहना था-मां का पूरा आशीष जो है उनके परिवार पर।

अक्सर काम के चक्कर में इलाहाबाद और बनारस भी जाना पड़ता था। पिछले तीन चार बार से इलाहाबाद के पास हंडिया नामके गांव में जब भी वह अपनी पसंदीदा पान की दुकान पर पान खाने और चाय पीने के लिए गाड़ी रोकते,  तो सामने के घर से शिब्बो-शिब्बो की पुकार सुनाई पड़ने लग जाती। शिवचरन बेचैन हो उठते। आँख उठाकर देखते, तो सामने तीन-चार साल की बच्ची हाथ-पैर जंगले की जाली से बाहर निकाले बैठी दिखती । हाथ के इशारों से उन्हें अपनी तरफ बुलाती।

भ्रम होगा – सोचकर वह गाड़ी में वापस जा बैठते पर पूरे रास्ते मन कचोटता रहता। कौन है यह लड़की…कैसे उनका नाम जानती है, वह भी बचपन का नाम..?

छह-सात महीने इसी उहापोह में निकल गए । न पान खाना बन्द हुआ और ना ही बच्ची का उन्हें पुकारना।

पर, उस दिन गाड़ी के रुकते ही वह आदमी हाथ जोड़े इन्तजार करता मिला शिवचरन को।

‘बाबूजी आपको मेरे साथ, ज़रा घर तक चलना होगा, अभी। बस पांच मिनट की ही बात है। बच्ची की जिद है। पता नहीं क्या माया है, मेरी चार साल की बेटी आपसे मिलने की जिद पकड़े बैठी है। तेज बुखार के सन्निपात में भी बारबार आपको ही बुलाए जा रही है। आपकी गाड़ी के इन्तजार में बरांडे में बैठी-बैठी ही दिन-रात गुजारती है। चलें बाबूजी। आपसे बिनती है। मेरी बेटी की जान खतरे में है। ‘

उस अजनबी ने उनके पैर पकड़ लिए थे।

अब शिवचरन के पास टालने का कोई बहाना नहीं था। वैसे भी अगर एक बच्ची को उनसे मिलकर राहत मिल जाती है तो इसमें उनका क्या बिगड़ता है। चुपचाप चल दिए उस अजनबी के साथ।

देखते ही बच्ची दौड़ी और उनसे लिपट गई।

‘-शिब्बो मुझे अपने घर ले चल। मुझे एकबार जाना है अपने घर। ‘

‘अपना घर ..कौनसा घर…किस घर की बात कर रही हो तुम?’

‘ऐसा भौंचक्का-सा क्या देख रहा है, मुझे?  अपने उसी मिर्जापुर वाले घर में। पीतल बाजार वाले घर में, चल।‘

अब सकपकाने की शिवचरन की बारी थी। आंख के इशारे से ड्राइवर को गाड़ी का दरवाजा खोलने को कहा और बच्ची तुरंत ही मां-बाप के संग कार की पिछली सीट पर जा बैठी।

कौतुकवश ही सही, अब वह बात की तह में जाना चाहते थे।

इसके पहले कि वह खुद ड्राइवर से कुछ कह पाएँ –बच्ची रामदीन ड्राइवर से हालचाल पूछ रही थी। माना 15 साल से उसी घर में नौकरी करता था वह, पर यह अजनबी लड़की बाबूजी तो बाबूजी उसका भी नाम जानती थी? जरूर इसी पान की दुकान पर किसी को लेते-कहते सुन लिया होगा। अब ड़्राइवर के असमंजस का भी आरपार नहीं था।

पलपल बढ़ते आश्चर्य का और भी छोर नहीं रहा, जब गली में घुसते ही, ठीक अपने घर के दरवाजे पर ही उसने गाड़ी रोकने को कहा और दौड़कर इस अधिकार से घर में घुसी, मानो उसका अपना ही घर हो, कोने-कोने से परिचित हो वह। यही नहीं आंगन में पड़ी उसी चौकी पर बिल्कुल वैसे ही जा बैठी जैसे कि मां दिन भर चौकी पर बैठी पंखा झलती रहती थीं।

‘ तो, दरवाजे का रंग पीले से हरा कर लिया है तुमने। ’-बच्ची के इस वाक्य ने तो शिवचरन को इतना चौंका दिया कि वे लड़खड़ा ही गए और चौखट पर ठोकर लगते-लगते बची। संभलते-संभलते भी सिर दरवाजे से टकरा ही गया।

‘ संभलकर बेटा, संभलकर।‘ बच्ची की आवाज में माँ की ही गूँज थी।

‘कब, तू अपनी यह लापरवाही और उतावलापन छोड़ेगा शिब्बू !’ कहती वह नन्ही बच्ची पंजों के बल खड़ी अब छह फीट के शिवचरन का माथा सहला रही थी।

इसके पहले कि शिवचरन का आश्चर्य में खुला मुँह बन्द हो, मां के ही अन्दाज में डांटना भी शुरु कर दिया  उसने –‘ अब ऐसे ही मुंह बाए मुझे देखता रहेगा या छम्मन हलवाई के यहां से कुछ नाश्ता वगैरह भी मंगवाएगा…कचौड़ी, जलेबी और लस्सी। ‘

‘ हां, मां।‘

मुंह से निकला तो खुद ही बेखुदी में की गई इस हरकत पर दांतों तले उंगली चली गई उनकी । ‘तो छम्मन हलवाई तक की याद है इसे।’ वह तो वह, पत्नी तक का मुंह सफेद पड़ता जा रहा था। बिल्कुल सास के अंदाज में ही एक-एक बच्चे को नाम लेकर बुला रही थी वह अनजान और छोटी-सी बच्ची।

नाश्ता आते ही उसने बच्चों को ही नहीं , शिवचरन को भी गोदी में बिठाकर ही जलेबी खिलाई। अपराध बोध के अंदर दबे शिवचरन बाबू की आंखों से अब लगातार आंसू बह रहे थे। तब सबको वहीं छोड़, शिवचरन को कलाई से पकड़कर घसीटती-सी बच्ची दालान के अंदर ले गई।

फिर बच्ची ने मां की ही भारी और अधिकार भरी आवाज में फावड़ा लाने को कहा और बीच की पटिया पर खड़ी होकर उसे खोदने के लिए कहने लगी। मंत्रमुग्ध शिवचरन के एक ही वार पर पटिया खुल गई। अंदर लाल कंद की एक पोटरी में मां की छन, पायल, कंगन, हसली झुमके सब जस-के-तस रखे थे। बेटे के हाथ सौंपते हुए बोली- ‘ तीनों बच्चों की शादी में बराबर-बराबर बांट देना। पर ध्यान रहे,  इस डायन की छाया तक न पड़े इन पर। इसके और तेरे अपराधों को भूली नहीं हूँ,  मैं।‘

बहू को सामने देखते ही बच्ची के मुंह से मारे गुस्से के झाग निकलने लगे। जैसे-तैसे पत्नी को कमरे से बाहर कर वह मां के पैरों पर माफी मांगने के लिए गिर पड़े। पर बच्ची का शरीर तो बुरी तरह से ऐंठ रहा था और आंख की पुतलियां अनियंत्रित तेजी से इधर-उधर घूम रही थीं। उसे जबरदस्त दौरा पड़ा था।

तुरंत ही डॉक्टर को बुलाया गया। दवा, इंजेक्शन, सारा खर्च शिवचरन ने ही उठाया।

मां की विरासत, वह गठरी अभी तक सीने से चिपकी थी, पर मां जा चुकी थीं। तीन चार घंटे बाद सोकर उठी उस बच्ची ने शिवचरन की तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखा। अब वह उन्हें और उस घर को पूरी तरह से भूल चुकी थी। नए चोले में बसने के लिए उसकी आत्मा के लिए बेहद जरूरी था, यह। मां-बाप से चिपकी वह बच्ची, उनकी शक्ल तक देखकर रो रही थी अब तो , मानो उसका, इनसे , इस घर-परिवार से कोई नाता ही नहीं  था कभी।

परिचित-अपरिचित-से उस परिवार को भरे मन से विदा दी उन्होंने और उनके वहाँ से जाते ही,  एकबार फिर विधिवत् सारे कर्मकाण्ड और जात-बिरादरी का खाना-पीना किया। हैसियत और श्रद्धा से बढ़कर बाजे-गाजे के साथ मां का श्राद्ध किया ।  पांच तोले सोना व ग्यारह तोले चांदी का मां के नाम पर दान किया।

मंदिर तक न जाने वाले शिवचरन अब रोज सुबह उठकर पूजा-ध्यान सब करते हैं, फिर भी ‘ इसके और तेरे अपराधों को भूली नहीं हूँ,  मैं।‘  वाक्य भुलाए नहीं भूलता।

पूरे ही गांव में आज भी मां बेटे के अलौकिक प्यार के चर्चे हैं। गीत और बिदेसिया बन चुके हैं। हर एक शिवचरन जैसा लायक और मां को प्यार करने वाला, धर्मभीरू बेटा चाहता है पर शिवचरन अक्सर ही रात-बिरात अपने ही घर के दालान में घंटों उकड़ूँ बैठे, फूट-फूटकर रोते दिखते हैं ।
कायर तो कायर। धर्म-भीरू हो जाना अपराध से मुक्ति की गारंटी तो नहीं। मन की अदालत के  ये मुकदमे तो जन्म-जन्मांतर चलते  हैं, जान चुके थे वह।  स्वर्ग-नरक की कल्पना भले ही मरने के बाद की की हो  इन्सान ने , पर भुगतना तो यहीं पड़ता है। घर में अखंड पाठ और देवी का रतजगा चलता रहता और वे बेचैन छत पर टहलते रह जाते।
रोज गंगा में तड़के ही नहाते और चार भिखारियों को खाना खिलाते शिवचरन। शायद मुक्ति मिल ही जाए पर छूटा तीर और छूटा वक्त कब वापस आ पाया है?  जितना उबरने की कोशिश करते,  उतना ही डूबते चले जा रहे थे शिवचरन। मां से बिछुड़ने का दुख है, जो चैन नहीं लेने देता  या फिर खुद उनका अपना ही दबा-ढका वह असह्य अपराध-बोध,  जो अब आत्मा तक को कचोटने लगा  है,  कौन जाने !…

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2 Comments on कहानी समकालीनः कायरः शैल अग्रवाल/लेखनी-मार्च-अप्रैल 17

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