कहानी समकालीनः एकबार फिरः शैल अग्रवाल

एकबार फिर…

श्रुति एक बार फिर स्कूल में खेले नाटक की वही एलिस थी जो आज तक वन्डरलैंड में ही घूम रही है।

कंचन, मधुर और रिया तीनों ही तो थीं उसके साथ, उसकी अभिन्न और प्यारी सहेलियाँ। तीस साल में पहली बार ऐसा हुआ था कि चारो एकसाथ थीं, एक ही शहर में थीं और एक ही छत के नीचे थी। गरिमा गर्ल्र्स कौलेज की चार होनहार छात्राएँ—- ऐसी छात्राएँ जिनसे हर शिक्षिका को कई कई अपेक्षाएं थीं, परन्तु हर अपेक्षा और महत्वाकाँक्षा को झुठलाती, अपनी अपनी गृहस्थी में ही रमी रह गई थीं, चारों। कला और प्रतिभा को पुरानी किताब और कौपियों की तरह ही वक्त की दराज में रखकर भूल चुकी थीं। इस मिलाप ने आजफिर उन्ही मीठे दिनों की यादों को तरोताजा कर दिया था। आखिर क्यों नही –पूरे तीस साल बाद जो मिली थीं वे और पुराने दिनों को पुन: साथ-साथ जी लेने का इससे ज्यादा खूबसूरत और क्या तरीका हो सकता था कि वक्त के उड़न खटोले में बैठकर, उन्ही पुराने दिनों, पुरानी यादों को ज्यों-का-त्यों वापस जी लिया जाए.,,

पुराना जादू फिरसे जग पाएगा या नहीं, नही जानती थीं वे परन्तु लक्ष्य तो बस एक वही था— पुरानी भूख को जगाना औरै तृप्त करना। जिम्मेदारियों और परिवार के दायित्वों को क्लोकरूम में टाँगे कोटों की तरह भूलकर वे पुरानी यादों में डूब चुकी थीं… पलपल का भरपूर आनन्द लेती और पुराने और बेफिक्र मस्त दिनों को एक-एक करके शीशे में उतारती।

पिछले तीन दिनों से ऐसे ही बस यादों में ही जिए जा रही थी वे। एक नही दो नही, पूरे चार दिन की छुट्टी ली थी चारो ने पति और परिवार से और उन चार दिनों का एक भरपूर और मनोरंजक, रंगारंग प्रोग्राम था उनकी डायरी में। छह से पचास का सफर उलटा पूरा करने की जो ठान ली थी चारो ने। परसों का पूरा दिन शहर के म्यूजियम और आर्टगैलरी में गुजरा था और कल जी भरकर शौपिंग और होटलबाजी की थी उन्होंने। एक दूसरे की पसंद नापसंद इस लंबे अंतराल के बाद भी नही भूल पार्इं थीं वे और ना ही कुछ खास बदली ही थीं। कंचन अभी भी पीले रंग से दूर नही हो पा रही थी और दिव्या गुलाबी से, और मधुर अभी भी बारबार उन्ही सफेद और काले रंगों पर ही अटकी रह जाती थी।

और तो और श्रुति तो यह भी साफ-साफ देख पा रही थी कि बोतल में बन्द जिन-सा चारो के अंतस में छुपा कलाकार, अब भी ना सिर्फ जिन्दा था अपितु और भी परिष्कृत और परिपक्व हो चुका था—– कला ही नही, उम्र के साथ-साथ आत्म विश्वास और संयम भी तो आ मिले थे अब उनके व्यक्तित्व में। घंटे चुटकियों में निकल रहे थे और दिन रात कहकहों में।

एक दूसरे के हाथ से फूलों का गुच्छा स्वीकारती चारो ही सहेलियों ने बेहद विशिष्ट महसूस किया था, खुद में —पूरी तरह से तृप्त थीं वे आज। ‘तो फिर कल घाट पर या नाव में क्या प्रोग्राम रखा है?’ चलते चलते मधुर ने याद दिलाया। “नहीं” तीनों ही एक साथ बोलीं, ” सारनाथ वाले श्रुति के बगीचे में। ”

रात अगले दिन की तैयारी में ही गुजरी। चारो के मन में बच्चों सा उत्साह था। वही दही-बूँदी, खस्ता कचौड़ी और पिंडी के छोले डब्बों में भरे गए जो तीस साल पहले हर इतवार को भरे जाते थे और साथ थीं वही दो, पहले के तरह ही रसगुल्लों से लबालब भरी हंडियाँ । कुछ भी नही बदलना चाहती थीं वे—कुछ भी पीछे नहीं छोड़ना चाहती थीं ।

चार दिनों में से तीन दिन कैसे चुटकियों में ही निकल गए याद नहीं। अब बस बारबार एक ही आशंका से दिल धड़क रहा था कि कल इस आयोजन का अंतिम दिन था और बस यही नही, कल तो रियाराजा भी आ रही थी, पूरा दिन साथ गुजारने। याद आते ही सिहरन की एक ठंडी लहर गरदन से नीचे उतरी और रीढ़ की हड्डी तक फैल गई। रियाराजा जिसके साथ बस दो ही साल तो थी श्रुति, पर हजार यादें बनी आज भी तो घेरे ही रहती है वह उसे। क्यों होता है अक्सर जीवन में ऐसा कि वक्त का कोई मतलब ही नहीं रह जाता—-कोई आजीवन साथ रहकर भी हम तक नहीं पहुँच पाता और कोई हजारों मील दूर बैठा भी पलपल साथ चलता रहता  है।

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बेहद खूबसूरत दिन था वह…दिन जो कई-कई रंगीन और खुशहाल संभावनाओं से भरपूर था। लॉन पूरा खुद खड़े होकर साफ करवाया था श्रुति ने और बगीचे में तरतीब से लगी वे प्लास्टिक की कुरसियाँ तक अब सफेद कबूतरों सी चहकने लगी थीं मेहमानों के इन्तजार में। पीछे खड़े फूलों से लदे-फंदे गुलमोहर और अमलताश के पेड़ वातावरण को एक तस्बीर सा सुन्दर माहौल दे रहे थे । डालियाँ मंद मंद सुहानी हवा में धीरे धीरे झूमतीं श्रुति की तरह ही कभी ठुमरी तो कभी कजरी, तो कभी गजल गा रही थीं। जरूर ही इन पेड़ों का आसमान से ही नहीं, इन्सानों से भी करीबी का रिश्ता है, श्रुति ने खुद को समझाया, तभी तो उसके से ही, ये भी इतने खुश हैं आज।

सूरज की सुनहरी, सिन्दूरी किरणें, सुबह से ही फूलों को ही नहीं, उसे भी आड़ी-तिरझी हो-होकर गुदगुदा जा रही थीं और हँसी-ठिठोली भी कोई ऐसी-वैसी नहीं, तुरंत वापस आसमान तक पहुंचे ऐसी… उन्ही गुलाबी ,सिन्दूरी और केसरिया रंगों से वापस आकाश तक को रंग दे रही थी।  वह खुद भी तो हवा में उड़ती-सी बारबार अंदर बाहर ही किए जा रही थी।

चोर नजर हॉल में टंगे आदमकद शीशे पर पड़ते ही श्रुति जान गई थी कि आज प्रकृति के सारे-के-सारे रंग उसकी आँखों और गालों से भी फूटे पड़ रहे हैं। जाने किस खुशियों के सातवें आसमान पर जा बैठी थी वह और जाने किन पुरानी यादों का उल्लास था, जो चारो तरफ ही उजाला बनकर फैल चुका था।

आनन-फानन नहाकर जल्दी-जल्दी चाय को शरबत की तरह एक ही घूँट में पी गई थी श्रुति। आज के दिन का एक पल भी बरवाद नही करना चाहती थी वह। अभी चाय की प्याली सिंक में रखकर लौटी ही थी कि सामने फूलों से लदी फंदी रियाराजा खड़ी थी। वही रियाराजा जिसे पिछले तीस सालों से देखातक नहीं था उसने –वही रियाराजा जो अक्सर ही उसकी बातों में, जिक्रों में, यादों में जबर्दस्ती ही घुस आया करती है। ज्यादा तो कोई फर्क नही था आजभी उसमें। वही बच्चों सी सरल और मनमोहिनी हंसी और वही जीवंत और हंसती हुई दो  आँखें। पीछे नौकरानी खड़ी थी, गोल मटोल प्यारे-प्यारे दो बच्चों की उंगली पकड़े। जुड़वा से लग रहे थे दोनों। गोलमटोल और फूल से प्यारे। जरूर नाती या पोते होंगे, परन्तु  रियाराज की गोदी में तो आज भी पालतू वे दो कुत्ते ही थे, वैसे ही, जैसे कि बचपन में लिए घूमती थी। तो रियाराजा भी उसकी तरह ही दादी या नानी बन चुकी है—आखिर क्यों नहीं–उससे पूरी चार साल बड़ी भी तो है। श्रुति की सोच हमेशा की तरह रुकने का नाम नही ले रही थी।

” अब अन्दर आने को भी कहोगी या यूँ दरवाजे पर ही सारा मुआयना कर डालोगी। बिल्कुल नही बदली तुम भी—वही सवाल पूछती,  बेधती, कौतुक भरी आंखें और आजभी वही बच्चों सी सरल हंसी ?” कहती रियाराजा, उसके थोड़े और पास आ गई।

इतने स्नेह और अपने पन की अपेक्षा नही थी रियाराजा से। तीस साल एक लम्बा अरसा होता है और तीस साल में सहेली की कौन कहे पूरी की पूरी जिन्दगी तक बदल जाती है।

“आओ रियाराजा, अंदर आओ।” सहेली को करीब करीब खुशी के मारे गोदी में उठाकर अंदर लाती श्रुति ने चहक कर कहा । उसे बाँहों में भरे खड़ी रियाराजा की खुशी भी तो अब श्रुति से कुछ कम नही थी-

” -यार तेरी तो हंसी भी, आज भी बड़ी ही संगीत मय है। क्या अभी भी दिनभर बस वायलिन ही बजाती रहती है—या फिर पति परिवार को कुछ खाना पीना भी कभी कभार दे दिया करती है। मैं भी तो सुनूँ जरा क्या क्या किया तूने पिछले इन तीस सालों में?”

सहेली को बेहद प्यार से देखते हुए रियाराजा ने बहुत ही अनौपचारिक ढंग से पूछा,  मानो जिन्दगी जिन्दगी न होकर एक अधबुना स्वेटर हो जिसे दोनों सहेलियों ने बुनते बुनते  अभी अभी वहाँ पर छोड़ा था और अब तुरंत ही सारे फंदे फिर से वापस उठा लेंगी दोनों।

” कुछ खास नही, बस तीन बच्चे और अदद आधे दर्जन पोते पोतियाँ– देख नही रही, पूरी दादी अम्मा बन गई हूँ।”

श्रुति ने भी उसी सहजता से जबाव कोक भरे गिलास के साथ सहेली के आगे सरका दिया।

” हद कर दी यार ! मैं एक पति और एक अदद बेटी न संभाल पाई और तू इतना कुछ संभाल ले गई?”

चाँदी की तश्तरी से भुने काजू को जल्दी जल्दी गटकते हुए रियाराजा ने अपने और परिवार के बारे में सबकुछ बता दिया था और  अब वह सहेली के बारे में सब कुछ जान लेना चाहती थी परन्तु श्रुति तो आदतन् जाने कहाँ गुम हो चुकी थी। अच्छा तो एक बेटी भी है रियाराजा की और दो प्यारे-प्यारे जुड़वा नाती। क्या नाम रखा होगा रियाराजा ने अपनी बेटी का —जरूर ही तन्वीराजा—हाँ यही नाम तो था जो उसे बहुत पसंद था। बच्चों को देखकर तो लगता है कि बेटी भी रियाराजा की तरह ही सुन्दर और समृद्ध होगी —अरे यह भी कोई सोचने की बात है, और नही तो क्या — आखिर राजकुमारी है रियाराजा और अब तक तो निश्चय ही किसी रियासत की राजमाता भी— आखिर, हाथी तो मरा हुआ भी सवा लाख का ही होता है। कितना समय निकल गया है  –कुछ भी तो नही जानती वह अपनी सहेली के बारे में—-परन्तु श्रुति को समझ में नही आ रहा था कि रियाराजा इतनी उद्वेलित क्यों लग रही है–अपनी तंद्रा से जागती-सी बोल पडी वह –

“-तू राजकुमारी है ना–बस इसलिए– तुझे कब कुछ संभालना या रखना आ पाया— ? हाँ, बस इसीलिए तो। ”

बातों के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए श्रुति ने कहा, ” हमेशा पानी तक के लिए तो तू दूसरों के भरोसे प्यासी ही बैठी रह गई। ”

बहुत ही सहजता से सहेली की बिखरी जिन्दगी के दर्द को समेटना चाहा था , पर रिया तो सुनते ही और भी बिफर गई।

” और तू,— क्या तुझे सँभालना आता था कुछ ?—तेरी हर दूसरी क्लास में छूटी वे किताब कौपियाँ अगर मैं न उठाती फिरती तो कोई इम्तिहान पास करना तो दूर, वहीं उसी दरजा चार में बैठी बस अपनी किताब कौपी ही ढूँढ रही होती, आज भी ।”

सहेली को छेड़ने की बारी अब रियाराजा की थी। वैसे तो बात सही ही थी। खुद में ही डूबी रहने वाली श्रुति कब कुछ संभाल या रख पाई है—वरना आज भी यूँ लाचार और मजबूर तो न होती,  दूसरों पर ही निर्भर— बस उन्ही के लिए जीती—पहले पिता फिर पति और अब बच्चे, कल उनके बच्चे—अपने लिए वक्त ही कहाँ बचता है उसके पास। परन्तु बचपन के वे अराजकता भरे मासूम दिन याद आते ही उनकी आंखों में एकबार फिर वही पुरानी बेफिक्र चमक वापस आ गई और दोनों सहेलियाँ एकबार फिर उस मूक कहकहे में डूब गर्इं जो मन में खुशियों की अनगिनित लहरें उठाए जा रहा था।

अब वैसे ही एक दूसरे का हाथ थामे निरुत्तर एक दूसरे को ही देखे जा रही थीं दोनों , जैसे कि बचपन में देखा करती थीं, मानो कुछ ढूँढ रही हों, खोया हुआ, कहीं वक्त की गर्त में उनकी नजर से जा छुपा वापस चाहिए था उन्हें और वह भी उसी वक्त। रियाराजा ने देखा कि मोटे चश्मे से झाँकती सहेली की आंखें आज भी उतनी ही मासूम और सहज थीं जैसे कि बचपन में हुआ करती थीं। आज भी हर खुशी, हर धूप छाँव बदली सी ही तैर रही थी उन आँखों में। उम्र के किसी पडाव की कोई थकान नही थी वहाँ पर , आजभी उसके साथ लुका -छिपी का वह पुराना खेल वैसे ही पूरी दुपहरी भर खेल सकती थी रिया ।

” तो हमारी गुड़िया तन्वीराजा कैसी दिखती है—तुझपर गई है या फिर जीजाजी पर—मैने तो अपने जीजू को देखा ही नही, कैसे दिखते हैं वे, कोई फोटो बगैरह साथ लाई भी है, या नही ?”

रियाराजा अब खिलखिलाकर हँस पड़ी, ” रुक रुक, साँस तो ले। सवालों की वही पुरानी रेलगाड़ी मत छोड़।  बिल्कुल नही बदली तू तो। आराम से धीरे धीरे, सब बताती हूँ। जरूरी तो नहीं कि हर सपना पूरा ही हो श्रुति, तन्वी तो कभी आई ही नही मेरी जिन्दगी में। हाँ, जिया बिल्कुल रणवीर की तरह ही लगती है और स्वभाव भी उनका ही है –स्मार्ट और उग्र। मेरे चेहरे की तो बस झलक मात्र है उसके चेहरे में, जिससे लोग जान लें कि मैं ही उसकी माँ हूँ— बस और कुछ नही है, ना स्वभाव और ना ही गुण ।—अपने हक और ख्वाइशों के लिए लड़ना जानती है वह । मेरी तरह समझदार और भीरू नहीं है वह।”

श्रुति की हिम्मत नही पड़ रही थी कि अजय थापा के बारे में कुछ पूछे रियाराजा से—क्या कभी मिली थी वह उससे—क्या अब भी वह अपने स्क्वाश के खेल को उसी गंभीरता से लेता है—वैसा ही छैल छबीला है और क्या आज भी वैसे ही उसके आगे पीछे डोलता है —या फिर कभी-कभी उसके सपनों में आता-जाता है ? ”

“बच्चे बड़े हो गए हैं और उनके साथ-साथ हम भी —अपनी अपनी दुनिया में अपना अपना जीवन जीते सब मस्त हैं, श्रुति।”  सहेली मानो उसके हर सवाल का जवाब बिना पूछे ही देने को बेताब थी।

” हाँ, ईशान और ऐश्वर्य जरूर मेरे पास हैं, जबसे पैदा हुए हैं। जिया को फुरसत ही नही कि इनके लिए वक्त निकाल पाए और ना ही उसे कभी इनकी जरूरत ही महसूस हुई है। यह तो हम ही हैं जो छोटी बड़ी, एक एक याद को भी संजोए बैठे हैं। इतनी भावुकता खोखला कर देती है अंदर से श्रुति—अब हम  बड़े हो गए है, चल कुछ बड़ों जैसी बाते करते हैं। अपनी बातें करते हैं। मनमानी करते हैं।”

रियाराजा ने मानो सहेली का मन पढ़  लिया था , ” आ आज इन बाल बच्चों को भूल जाएँ, अब तो उनके भी बालबच्चे हो चुके हैं, वह भी तो अब माँ बाप बन चुके हैं।”

आरपार बेधती  आँखों से सहेली को देखती श्रुति आगे झुकी और पैरों के पास पड़ी एक टूटी टहनी उठा ली उसने। अब सूखी मिट्टी में गहरी लकीरें खींचने लगी थी श्रुति जमीन पर।

” यह छोटा बड़ा क्या होता है रियाराजा ? सब दृष्टि का भ्रम या परिस्थितियों की पकड़ मात्र ही तो है। यह लकीरें देख रही हो रिया इनमें से कौन सी बड़ी है और कौन सी छोटी है, क्या तुम बता पाओगी मुझे ?”

रियाराजा नही समझ पाई दार्शनिक, आधी पगली सहेली का मन्तव्य —

-” हाँ, हाँ , क्यों नहीं, यह बड़ी है और यह छोटी।”

” और अब—-?” उन दोनों लाइनों से एक और बड़ी लाइन खींचते हुए श्रुति ने उतने ही रहस्यमय भाव से एकबार फिर पूछा,

” आखिर तुम कहना क्या चाहती हो श्रुति ? ” रियाराजा के धैर्य का बाँध टूटता जा रहा था।

” यही कि हमारी जिन्दगी भी इन्ही लकीरों की तरह ही होती है और जरूरत और परिस्थिति के अनुसार  ही  अहमियत भी कम या ज्यादा होती रहती है । छोटा बड़ा कुछ नही होता, यहां। हर बड़ा कभी छोटा होता है और हर छोटा सही वक्त और परिस्थितियाँ हों तो बड़ी से बड़ी उंचाइयों तक पहुँच जाता है। तुमने छोटे से छोटे बीज को भी बड़े से बड़े पेड़ों में परिवर्तित होते देखा है और बड़े से बड़ा पेड़ एक बेरहम हवा के छोंके से उखड़कर धूल धूसरित हो जाता है, यह भी अच्छी तरह से जानती हो तुम। फिर किस बड़े की बात कर रही हो रिया ?  वह जो लक्ष तक पहुँच चुका है, अपनी जिन्दगी जी चुका है, या वह जो आज भी सारी प्रतिभा और संभावनाओं के साथ इस प्रयास में संघर्षरत है?  असल में हमारी परिस्थितियाँ या भावनाएँ  ही हमें छोटा या बड़ा कर दिया करती हैं। असलियत तो यह है कि  हम तो कभी घटते बढ़ते ही नही। हाँ दिन महीने और साल जरूर निकलते जाते हैं । और यह बीज से पेड़ और पेड़ से बीज का क्रम यूँ ही चलता रहता है इस जीवन में—इस दुनिया में। हम  तो बस वही रहते हैं रिया जहाँ से चले थे। और इस जीवन को जीना और समझना भी ऐसे ही चाहिए हमें। इसका कोई भी सुख या दुख हमसे बड़ा नही हो सकता, क्योंकि लाइन खींचने वाली डंडी  भी तो हमेशा हमारे अपने हाथों में ही होती है । यह जिन्दगी जहाँ खुद अपनी विरासत है, खुद अपनी धरोहर भी तो है— और फिर इस वसीयतनामे को लिखने वाले भी हम ही हैं और जीने वाले भी। इस आज और कल के ताने बाने में —इस ख्वाइशों और कर्म की पटरियों पर चलते जीवन को जीना, बिना हारे या थके यही तो सार है सारा— जीत है हमारी। जब हम खुद ही कर्ता हैं और इसके और कर्म भी, तो फिर यह दुख और रोना धोना क्यों, हार जीत कैसी, बस एक खेल है यह भी, क्यों है ना? ”

” पर यह तो बस योगियों के लिए ही संभव है श्रुति।” उसकी बात बीच में ही काटते हुए दर्द से कटती रियाराजा बोल पड़ी।  उसकी आँखों से अब अविराम आँसू बह रहे थे ।

” हम किस योगी से कम हैं–देख मिलने की लगन थी तो एक दूसरे को पा ही लिया ना हमने ?”

श्रुति नही जानती थी कि सहेली कितनी आहत थी और कितनी उसकी बातों को समझ पा रही थी, पर रियाराजा जानती थी कि आज पहली बार उसने कुछ ऐसा सीख लिया था जो उसे बहुत हिम्मत दे रहा था, उसकी टूटी बिखरी जिन्दगी को समेट रहा था। अब रणवीर द्वारा पीठ पर पड़े चाबुकों के निशान और शयनकक्ष में की हुई ज्यादती की कहानियों सहेली को सुनाने की कोई जरूरत नही थी और ना ही अपने निजी जीवन की मवाद को सहेली के आगे कुरेदने की ही। अब तो कहीं भी क्लेश या द्वेष की परछाँई तक नहीं थी आसपास। एक ही पल में इतनी धूप जो खिल आई थी चारो तरफ।

रियाराजा उठी और सामने खड़े पीपल के पेड़ की जड़ों के बीच बनी खोतर के अन्दर हाथ डालकर कुछ टटोलने लगी। यह वही पेड़ था और वही खोतर थी जिसके अन्दर माचिसों से बने सोफे लगाकर, घंटों दोनों अपनी गुड़ियों के संग खेला करती थीं। यहीं से तो गुडिया की शादी की थी श्रुति ने कभी रियाराजा के उस छैल छबीले गुड्डे के साथ । एक से एक अच्छे गहने कपड़े सब बनवाए गए थे गुड़िया के लिए—और उसकी मम्मी ने ही तो खुद अपने हाथों से सिले थे सारे कपड़े। यही नही, कई कई रात बैठकर गोटे और सितारे माँ बेटी ने मिलकर ही तो टाँके थे उनपर। यहीं से तो वह दुखभरा वाकया शुरु हुआ था—याद आते ही आजभी, इतने साल बाद भी, श्रुति के मुँह पर दुख की एक अनचाही कालिमा फैल गई—विदा के बाद जाते समय पालकी से लुढ़क जाने पर उसकी प्लास्टिक की गुड़िया का सिर छटककर अलग हो गया था और तब यहीं इसी पेड़ के नीचे खड़े होकर रियाराजा ने बड़ी बेरहम और ठंडी आवाज में कहा था- “ श्रुति देख, तेरी गुड़िया तो मर गई , अब तो हमें इसे शमशान ले जाना होगा।“

और तब मारे डर और दुख के ग्यारह साल की श्रुति पलटकर अपनी गुड़िया को देख तक नही पाई थी। बन्द आंखों से ही बहती धारा में डूबी श्रुति, बस अपंगु सी जैसे-तैसे दस-दस मन के पैरों को उठाती वापस घर तक पहुँच पाई थी।

‘अभी अभी, कुछ समय पहले ही तो बेहद उल्लास और धूमधाम से शादी की थी उसने अपनी गुड़िया की —ऐसा कैसे हो सकता है–और फिर खिलौने कैसे मर सकते हैं ?अभी अभी तो उसने बरातियों को खिलाया पिलाया था–अभी तो  वह अपना मुँह तक नहीं पोंछ पाए थे। ‘

और फिर वह दिन था और आजका दिन, मन के जाने किस कोने में दफना दिया था उसने सबकुछ— खूबसूरत पेपरमैशे का वह लाल डब्बा, और बड़े चाव से दुल्हन के लिबास में सजाई गुड़िया, सबकुछ ही। डब्बा जो कभी बड़े चाव से उसने मम्मी पापा के साथ कश्मीर में खरीदा था –देखते ही जिद कर बैठी थी उसके लिए, कभी न जिद करने वाली श्रुति और मम्मी ने भी तो तुरंत ही डब्बा खरीदकर बेटी के हाथों पर रख दिया था—यह वही -डब्बा था जो कभी उसे उतना ही प्यारा था , जितनी कि वह गुड़िया—क्योंकि इसी डब्बे में ही तो सुलाती थी वह अपनी गुड़िया को और रोज रात गुडनाइट की किस भी देती थी वहीं उसे।

और उस दिन भी यही वह डिब्बा था जिसे रियाराजा ने चुना था गुड़िया को शमशान ले जाने के लिए। एक फीकी और बेबस मुस्कान के साथ बचपन में ही सूख गए उस घाव की ताजी कसक पोंछती, श्रुति सहेली की तरफ घूम गई—“‘क्या अभी भी तुम्हे वह सब सब याद है रियाराजा—इस लम्बे अरसे के बाद भी— तीस साल के बाद भी? कैसे हम घंटों खेला करते थे इसी पेड़ के नीचे दीन दुनिया से बेखबर?”

इसके पहले कि गुड़िया का नाम तक होठों पर आए. होंठ काटती श्रुति के मुँह से बरबस ही एक ठंडी आह निकल गई और उस आह का मर्म रियाराजा अच्छी तरह से जानती थी।

“हाँ, हाँ, मुझे सब याद है श्रुति और बचपन की तरह ही एकबार आज फिर तू जीत गई है।”

इसके पहले कि श्रुति रियाराजा की एक और पहेली बुझा पाए, रियाराजा आगे झुकी और श्रुति के हाथ  पर वही लाल पेपरमैशे का डिब्बा रखकर आग्रह और याचना भरी आँखों से उसे देखने लगी,

“जरा खोलकर तो देख ।”

डरी सहमी श्रुति उम्र का सारा लिहाज भूल, आज चालीस साल बाद भी, अपनी ही बंद पलकों के पीछे जा छुपी । हिम्मत नही थी कि डिब्बे में पड़े गुड़िया के उन छिन्न-विछिन्न, पुराने अवशेषों का सामना तक कर पाए—भले ही वे सोने-चाँदी के कीमती डिब्बी में ही क्यों न सुरक्षित हों—- क्यों किया था रियाराजा ने ऐसा—श्रुति नहीं जानती थी। टूटी गुड़िया का सिर फिर से जोड़ा भी तो जा सकता था !

…एकबार फिर रियाराजा की जिद के आगे श्रुति बिल्कुल वैसा ही महसूस कररही थी जैसा कि बचपन में कभी रियाराजा के घर में उसकी जिद पर, उन भूसे से भरे शेरों के मुँह में हाथ डालते समय उसने महसूस किया था। रियाराजा के पापा ने ही शिकार किए थे वे सारे शेर और उनसे उनके भव्य महल का कोना कोना सजा हुआ था–चारो तरफ शेर ही शेर सौ से भी ज्यादा —एक सौ सात बताती थी तब —-अब तक तो जाने कितने हो चुके होंगे, पर श्रुति को वे तब भी बहुत ही अजीब और विचलित करने वाले लगते थे और आज भी—जिन्दा और जंगल से भी ज्यादा डरावने व उदास। इसीलिए तो बजाय उसके यहाँ कभी खेलने जाने के वह सहेली को ही अपने यहाँ खेलने के लिए बुलाती थी और रियाराजा भी तो तुरंत ही आ जाती थी। उससे ही नही, अम्मा बाबा से भी तो खूब पटती थी उसकी सभी सहेलियों की—-

” याद है श्रुति, तुम्हे! ”  यादों की समाधि में डूबी श्रुति को जगाती रियाराजा कहे जा रही थी ” कैसे हम हर इतबार बस तुम्हारे यहाँ ही खेलने आ जाया करते थे, क्योंकि छोटा होने के बावजूद भी तुम्हारे घर में जो प्यार, जो माहौल था— हमारे यहाँ महलों में भी नही था। और यही वजह थी कि उसदिन तुम्हारी गुड़िया दुर्घटना वश नहीं, जान-बूझकर गिरा दी थी मैने। बारबार तुम्हारे घर आना चाहती थी मैं। सच पूछो तो जाना ही नही चाहती थी कभी तुम्हारे यहाँ से—तुम्हारे पास से, तुम्हारे अम्मा बाबा के पास से—पर तुम्हारा तो कोई भाई ही नही था—नही तो भाभी बनकर ही आ बैठती मैं तुम्हारे घर में।”

रियाराजा की वे झूठी सच्ची बातें सुख दे ही रही थीं, साथ साथ ही श्रुति की मन के अंदर की छुपी तहों में टीस—दर्द की एक उथल-पुथल भी मचा रही थीं। अचानक सब कुछ ही तो अनजाना और अटपटा-सा हो चला था—-सामने बैठी सहेली और उसकी बातें सभी कुछ। कैसे अक्सर जो हम देखते हैं इन्सान वह नही होता और जो होता है, वह हम देख क्यों नहीं पाते। महाराजा विक्रम सिंह की बेटी  इतनी अकेली अपने बड़े से घर में  — पच्चीस कुत्तों और सैकड़ों नौकर नौकरानियों के साथ भी–सारे सुख और ऐश्वर्य के बाद भी ? उसने तो कभी सोचा भी नही था कि रियाराजा भी कभी किसी से ऐसे स्पर्धा कर सकती है, विशेशत: उससे —राजकुमारी रियाराजा, जिससे कि साथ पढ़ने वाला हर बच्चा स्पर्धा किया करता था ?

“तुमसे और तुम्हारी खुशी से बेहद ईर्षा होती है मुझे आज भी-”

पर तुम तो मेरे बारे में कुछ भी नही जानती रियाराजा, पिछले तीस चालीस सालों में आज पहली बार हम मिल रहे हैं —इसके पहले कि श्रुति  सहेली की सोच को सुलझा पाए,  रियाराजा ने उसके होठों पर हाथ रख दिया और अपनी रौ में ही बोलती चली गई, “प्लीज श्रुति, सबकुछ कह लेने दो आज मुझे। इस अपराध बोध को सालों सहा है मैने। उस दिन गुड़िया की शादी में, मेरे सोने चाँदी के और कीमती कपड़ों के चढ़ावे के बाद भी, कीमती तोहफों के बाद भी, सब सहेलियाँ तुम्हारी ही साज-सज्जा और खातिर की तारीफ किए जा रही थीं   — मैं—राजकुमारी रियाराजा कहीं थी ही नही उनकी सोच में—-श्रुति ही श्रुति थी सबकी जुबाँ पर।  कैसे बर्दाश्त कर पाती मैं यह सब–?  जलन तो आजभी बहुत है तुमसे—जरूर ही कोई विशेष अरजी डाली होगी तुमने भगवान के यहाँ भी। फुसला लिया होगा उसे भी अपनी भोली सूरत और बड़ी बड़ी आंखों से। मीठे-मीठे शब्दों की तो तुम जादूगरनी हो ही। मुझे भी सिखा दो ना यह यूँ हमेशा ही मीठा ही बोलते जाना— विचलित न होना. प्यार ही करते जाना—यूँ सहज और शान्त रहने का अपना यह हुनर! तुम्हारा यह हरा भरा किलकता हुआ घर और तुम्हारे चेहरे पर फैली यह शाँत आभा—-बरदाश्त नही होती मुझसे। आई तो थी अपनी फीकी कहानी सुनाकर तुम्हे भी विचलित और उद्वेलित करने । तुम्हारे कान्धे पर सर रखकर एक बार फिर से सान्त्वना तलाशने, परन्तु तुम ने तो एक ही अनमोल उपहार देकर, सारे ही आंसू पोंछ डाले हैं मेरे। मेरे भटके जीवन को एकबार फिर नई और सुलझी दिशा दे दी है। अब तो मैं भी शायद अपने सुख दुख को तुम्हारी तरह ही मनचाहे रूप से छोटा बड़ा कर पाऊँगी। पर तुम भी तुरंत ही, मेरे सामने इस डिब्बे को अभी-अभी खोलकर जरूर देखो—प्लीज श्रुति,सिर्फ मेरे लिए।”

आँखों से बहते आँसू और जुड़े हाथों ने मजबूर कर दिया श्रुति को कि वह उन सभी पुराने घावों के घुरंट के साथ, एक बार फिर से उचेड़ ही दे–

” मैं तुम्हारे चेहरे पर खिलती हँसी देखना चाहती हूँ श्रुति। डरो मत। इस बेचैनी का भी अपना एक मजा होता है।”

और तब सहेली की अनगिनित मिन्नतों के नीचे दबी श्रुति ने कैसे भी हिम्मत करके, काँपते हाथों से डब्बा खोल ही डाला। सामने सजी सजाई उसकी गुड़िया ही नही,  रियाराजा का गुड्डा भी ज्यों का त्यों ही रखा था–पगड़ी मयान सबके साथ सजा सजाया दुल्हा और चूनर बिन्दी में लिपटी दुल्हन, दोनों बिल्कुल ही वैसे थे, जैसे कि उस दिन सजाए थे दोनों सहेलियों ने मिलकर।

समय के अन्तराल से परे, डब्बे के अंदर कुछ भी टूटा फूटा या डरावना नही हुआ था, मानो तीस साल पुरानी नही कल की ही बात हो वह–मानो अभी अभी दुल्हन को विदा करके लाया हो दुल्हा –और दुल्हन भी कोई ऐसी वैसी नही—-जिन्दगी की सबसे खूबसूरत दुल्हन, वि·श्वास और नेह की दुल्हन।– श्रुति ने भावातिरेक में सहेली की तरफ आंसू भरी आँखों से देखा।–

” उस दिन चाह कर भी मैं तुम्हारी गुड़िया तुमसे छीन नही पाई थी श्रुति। पलपल ही तुम्हारा आंसू भरा उदास चेहरा ही आँखों के आगे आता-जाता रहा। और फिर तब, अगले इतवार को ही आज से तीस साल पहले , सब कुछ खुद अपने इन्ही हाथों से ठीक-ठाक करके तुम्हारी गुड़िया ही नही, अपना गुड्डा भी तुम्हारे लिए मैं यहाँ पर छुपा गई थी,  इस उम्मीद में कि एक दिन शायद तुम खुद ही पा लोगी यह सब । और तब तुम खुशी में बावली हो जाओगी.।..तुम्हारी वह खुशी मैं खुद अपनी आंखों से देखना चाहती थी श्रुति, पर मुझे क्या पता था  कि मेरी यह सहेली इतनी भोली , इतनी निष्ठुर है कि चार आंसू बहाकर स्वीकार लेती है सबकुछ… सही गलत सभी कुछ। किसी के भी बहलावे में आ जाती है। फिर पीछे मुड़कर भी नही देखती, चाहे कितनी ही तकलीफ क्यों न हो उस विछोह से—कुछ भी जाहिर नही करती कभी किसी पर, याद तक नही करती, ना अपनी गुड़िया को और ना ही अपनी बिछुड़ी सहेली को।”

और तब अचानक ही बीच के वे तीस साल— शिकवे-गिले, सब पंख लगाकर कहीं उड़ गए।

” तूने यह सब कैसे जाना कि मैं तुझे याद ही नही करती। पगली याद तो उन्हें किया जाता है जो दूर हों।”

“तुम सब तो पलपल ही साथ रही हो मेरे।”  लपक कर रियाराजा ने वैसे ही पुराने शोखी भरे अंदाज से श्रुति का अधूरा वाक्य पूरा कर दिया।

“चल चल, बहुत सुनी हैं तेरी ये मीठी-मीठी बातें, अब कुछ खिलाएगी, पिलाएगी भी या यूँ ही बातों से ही पेट भरती रहेगी।”

अबतक तो श्रुति का गला भी पूरी तरह से रुँध चुका था ।

” जानती हो रिया,  जिन्दगी की यह उथल पुथल कितना ही तहस-नहस क्यों न कर दे – आकंठ डुबो क्यों न दे, परन्तु जीवन हारता नहीं —-हर तूफान के आगे डट कर खड़ा हो  जाता है—यह आदमी की मिट्टी ही कुछ ऐसी है ।”

और तब अचानक श्रुति की वह आँसूओं में भीगी मुस्कान बिजली से भी ज्यादा चमकती लगी रियाराजा को।

” हाँ जानती हूँ मैं श्रुति,  बस, उस वक्त को एक बार हम जैसे तैसे धैर्य पूर्वक निकाल दें, फिर तो सब अच्छा ही अच्छा रहता है, बल्कि दर्द में डूबकर और भी निखर और संवर जाता है– वैसे ही, जैसे कि बाढ़ में डूबकर बंजर से बंजर जमीं तक और भी हरी-भरी हो जाती है ?”

फसफसे गले से निकली सहेलियों की आवाजें अब बेहद अस्पष्ट और धीमी होती जा रही थी और मुश्किल से ही सुनी व समझी जा सकती थीं परन्तु श्रुति और रिया के बहते आंसुओं ने— अंतस में छुपे प्यार ने, जिन्दगी की हर तड़कती सच्चाई को आँसुओं से नम करके फिरसे सहने और जीने लायक बना दिया था। कहते हैं बाँटने से दुख आधा हो जाता है परन्तु मित्रता में तो अक्सर  ही कुछ बाँटने तक की जरूरत नही पड़ती, क्योंकि यादों और अनुभवों की एक साझी धरोहर जो होती है वहाँ ।–एक सच्ची पहचान—साझे अहसासों की अभिन्नता जो होती है वहाँ । वैसे भी दोस्त तो वही होते है न, जो मन में पैठ, खुद ही मन के सुख दुख समझ ले, पहचान और अपना ले— दुख-सुख ही नहीं,  मित्र के उस पल की जरूरत को भी।

सानिध्य के उस एक पल पर न्योछावर दोनों  सहेलियाँ शब्दों की मुहताज नही रह गई थीं। लड़खड़ाते कदमों से आगे बढ़कर एक दूसरे को संभाल लिया था दोनों ने—बाहों में भर कर गले से लगा लिया था, मानो अब कभी अलग नही होंने देंगी वे खुद को।

बरसों बाद अपनी और परिवार की हर परेशानी ही नही, राग-द्वेष, सभी कुछ भूल पूरी तरह से खुश नजर आ रही थी दोनों अब। कम से कम कुछ समय के लिए तो भूल चुकी थीं वे कि एक की बेटी घर के ड्राइवर के साथ भाग गई है और दूसरी की बाहर से सुन्दर दिखती जिन्दगी अन्दर ही अन्दर दम घोट रही है उसका— बेबस और मजबूर किए जा रही है उसे। खुशी और उन्माद के उस एक पल से, पूरा बचपन ही नही, खोया अपनापन तक वापस ले लिया था दोनों ने।

अगले पल ही गलबहियाँ डाले, दीन दुनिया से बेखबर, चाय की चुस्की के साथ-साथ जाने क्या -क्या मुस्कुरा-मुस्कुराकर बतियाए जा रही थीं दोनों—भूली बिसरी, हर मधुर तान गाती –गनगुनाती। एक हिलोर में डूबी तिनके-तिनके बही जा रही थीं, मानो अभी अभी कल शाम ही को बिछुड़ी हों, उसी पुराने स्कूल के हाते से।—

बीते दिनों की बेफिक्र और खुशनुमा यादों की ठंडी छाँह तले आराम से बैठी अब वे भूल चुकी थीं वे कि कल फिर श्रुति को इंगसैंड वापस जाना है, जहाँ पचास साल के थके प्रौढ़ शरीर के बावजूद भी, कामकाजी बेटे बहू की बिखरी गृहस्थी का कोना कोना बेसब्री से इंतजार कर रहा है उसका। और रियाराजा भी आज शाम ही, फिरसे वैसे ही अकेली हो जाएगी। बोर्डिंग स्कूल में पढ़ रहे ऐश्वर्य और ईशान तो सिर्फ इतवार को ही मिलने आते हैं उससे, वह भी बस चन्द घंटों के लिए ।—- बाकी जीवन तो हर दिन वैसा ही सूना और अकेला ही है उसका । कानों के लिए बस खुद अपनी ही आवाजों की प्रतिध्वनियाँ रहा करती हैं और रातभर वे ही , यादों के मेले में रोती भटकती परछाँइयों के रूप में तब्दील हो जाती हैं,  जिन्हें गले लगाकर अपना-अपना सूनापन बांट लेती हैं दोनों सहेलियाँ।

“आदत क्यों नही पड़ पाती हमें इस जीवन की ?”

सहेली के आंसू पोंछते, सवाल इस बार रियाराजा ने नहीं,  श्रुति ने किया था और जबाव दिया था रियाराजा ने,

” क्योंकि हम अभी तक बड़े जो नहीं हो पाए श्रुति…अभी भी छोटी-छोटी बातों में ही तो भटकते रह जाते हैं। आज कुछ सोच मत, कोई दुख, कोई घाव मत कुरेद। देख, आज का यह दिन, यह पल, सिर्फ हमारा है। क्यों है ना?  और इसे हमारी तरह से जीने से कम-से-कम आज तो कोई नही रोकेगा।”
” तू तो सोचने में उस्ताद है। बातों के लिए फिर कोई मस्ती भरा विषय छेड़ ना। ”

रियाराजा ने फिर से सहेली की एक और प्यार भरी चुटकी ली।

” रुक, बताती हूँ, अभी बताती हूं। पहले कोरम तो पूरा होने दे। दिन खतम नहीं , अभी शुरु हुआ है, रिया रानी।”  श्रुति ने उसी शोखी और शरारत से जंवाब दिया और दोनों सहेलियाँ एकसाथ सामने से आती कंचन मधुर और दिव्या के स्वागत में उठ खड़ी हुईं।….

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