हास्य-व्यंग्यः चुटकी एक गुलाल कीः शैल अग्रवाल

होली-सो-होलीः चुटकी एक गुलाल की!  

Holi in capetown

बरसानेलाल ने जब से सुनी है कि ब्रिटेन और फ्रांस क्या अमेरिका की पार्लियामेंट तक में दिवाली मनाई गईं है, उनके  मन में खलबली  मच गई है। सर पर भूत सवार है कि इस बार तो विदेश  जा कर ही होली मनाएँगे, वह भी ऐसी कि दुनिया देखती रह जाए – याद रखे उन्हें और उनके भारत दोनों को ही – भारतीय सभ्यता के साथ-साथ  उनके यहां के इस रंग-बिरंगे त्योहार  को भी। बरसों तक ना भूले कि बस भाषण देना ही नहीं,  हम भारतीयों को हँसना-हँसाना…मस्ती करना भी आता है।

बाहर मोहल्ले के हुड़दंगिए टीन कनस्तर पीट-पीटकर होली के लिए चंदा माँग रहे थे। घर का लक्कड़-कबाड़ – टूटी कुरसी, फटा सोफा – पुराना और बेकार, सब दे दो। ‘क्यों जी, टूटी यह मेज़ दे दूँ क्या इन्हें इस बार?’ पत्नी बारबार  पूछे जा रही थी। ‘हाँ, हाँ, क्यों नहीं। और खुद को भी।’ मन ही मन वे बुदबुदाये।
‘जी क्या कहा?’ इसके पहले कि पत्नी कुछ समझ पाए उन्होंने बात पलट दी, ‘यह जो सामने दूरदर्शन पर मुँह में बिना दाँत और पेट में बिना आँत के मंत्री जी हाल ही में की अपनी विदेश यात्रा का वृतांत सुनाए जा रहे हैं, उन्ही की बात कर रहा था, मैं। सोचता हूँ, उन्हें  कोई क्यों नहीं दे देता इन लड़कों को!’

पत्नी हंसकर  ‘आप भी तो  …’ कहती, प्रसन्न मुद्रा में  चौके में वापस चली गईं और बरसाने लाल ने अपनी सोच पर लगाम लगा ली – ‘छी: छी:, ऐसा अभद्र तो मज़ाक भी शोभा नहीं देता। अबलाओं की रक्षा और बड़ों का आदर किया जाता है। पर अब यह रक्षा या आदर का तो नहीं, भारत की प्रतिष्ठा का सवाल था और विश्व के आगे भारत की सद्भावना की ज़िम्मेदारी थी बाँके बिहारी पर। नहीं, वो द्वापर का बाँके बिहारी नहीं, जो राधा के संग होली खेलने बरसाने जाता था और जिसे ब्रिजवासी आज भी गा-गाकर बुलाते नहीं थकते – ‘कान्हा बरसाने में आ जइयो, बुलाय गई राधा प्यारी।’ वह तो बात कर रहे थे अपने मित्र बाँकेबिहारी यादव की। बचपन से ही चोली दामन का साथ  जो ठहरा दोनों का… और यहीं  पड़ौस में, उन्हीं के गाँव में ही तो रहता है वह। वही, जिसके यहाँ पाँच सौ से भी ज़्यादा गाय भैसों का तबेला है और जिसकी माता जी की सूझबूझ से छाछ ही नहीं, गोबर की खाद भी अब तो पूरे गाँव को मुफ़्त ही मिलती है। आजके ज़माने में भाईचारे की ऐसी अनूठी मिसाल और कहाँ देखने को मिलेगी, भला? माताजी का आशीर्वाद और मित्र मंडली का सहयोग ही तो है कि आज न सिर्फ़ बाँकेबिहारी देश का  सांस्कृतिक मंत्री बना बैठा हैं, वरन खाद और समन्वय विभाग भी उसी के पास है। हाँ यह बात दूसरी है कि जबसे संस्कृत और समन्वय के साथ पर्यटन विभाग भी आ मिला है, रोज़ ही एक नई योजना लेकर मित्र-मंडली घेरे रहती है और सौभाग्यवश विदेश-भ्रमण के नए-नए संयोग भी  जुटते ही रहते हैं। आख़िर दोस्त के काम न आए,  तो  वो भी भला किस काम का दोस्त?

तुरंत ही मित्र की अनुमति से एक नयी ‘विश्व मैत्री संघ’ नामकी संस्था बना डाली गईं। आनन-फानन ही सदस्यों की सूची व योजना और कार्य-प्रणाली का खाका भी तैयार हो गया- शर्त, नियम और कानून सबके साथ मुकम्मल। अब होली से बढ़िया और कौन-सा त्योहार हो सकता हैं मित्रता और सद्भावना के लिए जिसमें न सिर्फ़ सारी ग़लतियों और विषमताओं को भूलकर दुश्मन के गले मिला जा सकता हैं अपितु विषमताओं और ग़लतियों का बदला भी लिया जा सकता है? मुँह काला पीला कर दो, गधे पर बिठाकर घुमा दो, बैंड बजवा दो, कोई बुरा नहीं मानता। मान ही नहीं सकता। आख़िर होली जो ठहरी। फिर  हो–ली सो होली,  बिल्कुल अपनी भारतीय परंपरा क्या, मानवीय और विश्व परंपरा की तरह ही- एक हाथ से थप्पड़ मारो और दूसरों से तुरंत ही गाल सहला दो – सौरी कह दो।-सब ठीक, पल भर में ही।

खुद बाँकेबिहारी की बैठकी में सब-कमेटी बनी और तुरंत ही समस्त कार्यभार सक्षम पी. ए. मथुरा प्रसाद जी के सूझ-बूझ भरे कंधों पर डाल दिया गया। वैसे भी बाँकेबिहारी जी अंगूठा लगाने से ज़्यादा कोई सरदर्द नहीं ही लेते थे। मथुरा प्रसाद ने भी बिना वक्त ख़राब किए तुरंत ही ना सिर्फ़ पूरी मित्र-मंडली, काशी प्रसाद, बिहारी लाल, अवध बिहारी, गया प्रसाद और ब्रिजरमण सभी को बुला लिया, बल्कि यह भी बता दिया कि अगली होली इंग्लैंड में ही मनानी है उन्हें, कैसे और कहाँ यह अभी मिल-जुलकर सोचना होगा। ब्रज की लठ्ठमार होली होगी या फिर कानपुर और लखनऊ की वार्निश पेंट-वाली…कनस्तर पीटकर होली का हुड़दंग होगा या सांस्कृतिक मेल-मिलाप कार्यक्रम …ऐसी अन्य छोटी-मोटी बातें भी तय होनी  बाकी थीं । हां, यह जरूर निश्चित था कि बाहर जाकर मौज-मस्ती में कोई कसर नहीं रहेगी।  अगर इस मनमोहन सरकार के नीचे, सोनिए के राज में भी यह न कर पाए तो कभी भी न कर पाएंगे वे …कड़क चासनी में लपेटकर बात प्रस्तावित की गयी  थी । फटाफट सभी अधिवेशन की तैयारी में जुट गए।

निश्चय किया गया कि होली भी ब्रिटिश पार्लियामेंट में ही होनी चाहिए…आखिर अब भारत और भारतीयों की इतनी साख तो है ही वहाँ पर। काशी प्रसाद जी ने प्रस्ताव रखा कि हमारी काशी में तो धुलहटी के साथ-साथ होली की शाम को एक मूर्खाधिवेशन का भी रिवाज़ है। जिसमें सारे नामी-गिरामी मूर्ख इकठ्ठे किए जाते हैं और उन्हें अनूठे-अनूठे नाम और सम्मान दिए जाते रहे हैं – जैसे कि घर फूँक तमाशा देख, मान न मान मैं तेरा मेहमान, बछिया का ताऊ, धूमकेतु आदि-आदि। सभापति के लिए सर्व सम्मति से बुश का नाम पास हो गया और महारानी एलिजाबेथ और ड्यूक सहित, ब्लेयर, सद्दाम व अपनी सोनिया…वगैरह के नाम तुरंत ही तीस-चालीस निमंत्रण पत्रों पर लिख भी डाले गए। ऊपर सत्यमेव जयते के साथ यह भी छापा गया कि बुरा ना मानो होली है। बाकी सब मेहमान तो आने को राज़ी हो गए परंतु चीन और पाकिस्तान ने आने में यह कहकर असमर्थता ज़ाहिर कर दी कि वे तो यह वाला अधिवेशन हर महीने ही करते हैं अपने यहां और इसी व्यस्तता के रहते आने में असमर्थ हैं।

बिहारी लाल का सुझाव आया कि इसबार ठंडाई में भांग, गुलाबजल, बादाम और सौंफ के संग थोड़ा भारतीय चारा भी ज़रूर ही घुटना चाहिए क्योंकि आजकल विदेशी मालों की भरमार होने के कारण भारत में भी देशी चारे की खपत बिल्कुल ही ख़तम हो गई है। गाय भैंस तक को अब बस विदेशी चारा ही चाहिए और यह माल खपाने का बढ़िया मौका है।  सुना है समिति अभी भी इस प्रस्ताव पर विचार कर रही है।
अवध बिहारी और गया प्रसाद ने हास्य कवि सम्मेलन का ज़िम्मा ले लिया और सुनाने के लिए नए-नए होली के गीत और रसिया रचे जाने लगे। जैसे कि होली खेलें अवध में रघुबीरा की अगली लाइन लिखी गई – ‘अल्लाह के हाथ कनक पिचकारी, जीसस के हाथ अबीरा’ क्योंकि उन्हें इस होली की ठिठोली में बेमतलब की और बेसुरी बाबरी और दरबारी नहीं चाहिए थी।बरसाने लाल ने होली के स्वांग के लिए लखनऊ से कुछ पुलिस अधिकारी और मंत्रियों को भी बुलवा लिया क्योंकि सुनते हैं वहाँ पर आजकल चारोतरफ   मुलायम ककड़ियों और भिंडियों की माया फैली हुई है।

इस तरह से सभी इस आयोजन से खुश थे, ख़ास करके अब जब कि खुद बिल क्लिंटन ने होली के उस स्वांग में ना सिर्फ़ कृष्ण कन्हैया बनना स्वीकार कर लिया था वरन सभी गोपिकाओं को लाने की ज़िम्मेदारी भी खुद ही अपने ऊपर ही ले ली थी।
अब जब होली की यह टीम समन्वित हो गई और पूरे ताम-झाम के साथ लंदन जा पहुँची, (अबीर गुलाल रंग, पिचकारी, कविता, चुटकुले सभी कुछ तो था उनके पास) तो ऐन वक्त पर कमबख़्त कस्टम ऑफ़िसर ने ही रोड़ा डाल दिया। पिछले चार घंटों से हीथ्रो के हवाई अड्डे पर ही ता-ता थैया करवाने लगा वह तो उनसे। मथुरा प्रसाद बार-बार कह रहे थे कि हम पी. ए. हैं और वह कह रहा था कि अगर आप पीए हैं तो हम आपको पार्लियामेंट में तो हरगिज़ ही नहीं जाने दे सकते क्योंकि वहाँ पर ईराक के बाद ईरान के पास रासायनिक हथियार हैं या नहीं के साथ-साथ अगले सत्र में महिला विधायकों की स्कर्ट की लंबाई जाँघ तक हो या एड़ियों तक या फिर उनकी लिपिस्टिक का रंग गर्मियों में हो रहे जी सेवेन के अधिवेशन में गुलाबी रखा जाए या नारंगी जैसे कई मुख्य और गंभीर मुद्दों पर बहस चल रही हैं।

उस चुस्त-दुरुस्त ऑफ़िसर के आगे विपदा के मारे मथुरा प्रसाद जब गिड़गिड़ाते-गिड़गिड़ाते थक गए तो झल्लाकर बृजभाषा में ही रोने लगे,
“अरे भइया, मैं तो बस पी.ए. हूँ मेरे पीछे चौं पड़ गए हो  – कछू दुस्मनी  तौ नायै हमते – हाँ मोए तौ जेई मामलौ दीखै अब, वरना का ज़रूरत थी यौं परेशान करने की, कोई पहली बार तो विलायत आए ना ऐँ हम ?”
“इतना पीकर एयरपोर्ट पर तमाशा करोगे तो क्या मैं तुम्हें छोड़ दूँगा?” ऑफ़िसर लाल आँखों से तर्राया।
“बो पीए नायैं, हम तौ बस पी. ए. हैं यानी की मंत्री जी के प्राईबेट असिस्टैंट। जे देख लल्ला, सातौ ब्लैक हौर्स अभी खोली भी नाएं हमनै तौ। वैसै थोरी-भौत अंगरेज़ी तौ पढ़ी ही होगी तैने भी?”
”क्या मंत्री जी सात काले घोड़े भी लाए हैं।” टी टोटलर अवध बिहारी जोश में आ गए।
“ना बे गधे तेरे लिए शेरबानी और सेहरा भी। बारात जो सजानी है हमें तेरी यहां पर। पाँच मिनट कू चुप ना रह सकौ का तुम सब।” बरसाने लाल को विश्वास नहीं हो रहा था कैसे-कैसे अकल के मद्दों से यारी निभ रही है उनकी।
“अच्छा तो अब मंत्री जी के पी. ए. बन गए तुम।” गुस्से से भी ज़्यादा हँसी आ रही थी लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट पर खड़े कड़क सरदार को अब तो।

ज़रा भी डरे या विचलित हुए बगैर, बेख़बर पांडे जी  अभी भी हाथ ऊपर उठाए वैसे ही गोल-गोल घूमे जा रहे थे, और भांग के नशे में ज़ोर-ज़ोर से गा रहे थे, “कान्हा ने कीन्हीं बरज़ोरी रे, होरी पर/भीज गई मोरी सारी चेली रे, होरी पर।” बीच-बीच मैं खुद ही ‘जय राधे’ की टेक लगाकर एकाध ठुमका भी ले लेते थे। आज भी राधेरानी पर ही तो पूरा ध्यान था उनका! होठों पर लाली, कान में बारी, माथे पर बिंदिया, और सर पर लाल चुन्नी, कौन कह सकता था कि वह भी कभी ऐसे ही एक कड़क ऑफ़िसर थे पुलिस में। आता-जाता हर यात्री कौतूहलवश रुक जाता, बिना टिकट के पूरा लबालब मनोरंजन जो हो रहा था सबका।
काशी प्रसाद, अयोध्या दास और बरसाने लाल सभी आँख बंद किए माथे पर हाथ रखे चुपचाप एक कोने में जा बैठे। साँस रोके प्रतीक्षा करने लगे मित्र मंत्री जी का और मन ही मन कोसने लगे खुद को कि क्या ज़रूरत थी वे भांग के लड्डू खाने की, पर यह काशी प्रसाद भी तो नहीं मानता बात ही ऐसी कह देता है। अब भला बाबा भोलेनाथ के प्रसाद को कैसे मना कर पाते वे। वह भी शिवरात्रि का प्रसाद? वैसे भी फगवाड़ा तो शुरु ही हो चुका है। ऑफ़िसरों को भी तो समझना चाहिए इस बात को। कुरसी के नशे में धुत रहते हैं सब-के-सब। होली पर ऐसी छोटी-मोटी ठिठोली तो होती ही रहती है। पर अब तो बस इंतज़ार ही करना होगा उन्हें बाँकेबिहारी जी का और कोई चारा भी तो नहीं उनके पास। वही ढिबरी टाइट करेगा इनकी। चारे की याद आते ही याद आया कि बिहारी लाल सही ही कर रहा था, अगर चारा मिला देते तो एक-आध लड्डू इस ऑफ़िसर के लिए भी बच ही जाता और फिर क्या पता यह भी बरसने की बजाय पांडे जी की तरह ही, नाच ही रहा होता उनके साथ?

“अरे भाई पर हम भी तो होली जैसा गंभीर त्यौहार मनाने सात समंदर पार  तुम्हारे देश, यहां आए हैं।” मथुरा प्रसाद जी ने इस बार हाथ जोड़कर दाँत निपोरे।
“ओह तो सिर्फ़ पीए ही नहीं, ‘होली’ भी हो आप। कौन से सेक्ट को बिलांग करते हो? परेशान कर रखा है इन होली मेन और उनके सर्मनों ने हमें तो। अबू सलेम के बाद हमारी सरकार की यही पौलिसी है कि हर होली मैन को चौबीस घंटे के ऑबज़रवेशन और हर तरह की जाँच पड़ताल के बाद ही देश में आने दिया जाए।”
सुनते ही धैर्य छूट गया उनका। सबकुछ भूल गए मथुरा प्रसाद। सर पकड़कर धम से वहीं बैठ गए। मुँह बाए एकटक देखते रह गए। बड़ी गुस्सा आ रही थी उन्हें मित्र बाँकेबिहारी पर जो कि ओरिजिनल पत्नी को सास की सुरक्षा में छोड़कर, कॉपी की जुगाड़ में कल ही आ पहुँचा था यहांपर। पर अब उसे दोष भी तो नहीं दिया जा सकता, … विदेश मंत्रालय का सख्त आदेश भी तो ठहरा,

” कृपया विदेश-यात्रा   दौरान  अनिवार्य चीजों की कॉपी अवश्य साथ लें।”….

शैल अग्रवाल
संपर्क सूत्रः shailagrawal@hotmail.com

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