फुहारें/लेखनी संकलन

सावन की गंगा जैसी गदरायी तेरी देह।
बिन बरसे न रहेंगे अब ये काले-काले मेह॥
मन की नाव बहक जाती
अक्सर जाने किस ओर
पाल बनी जबसे तेरी
कोरे आंचल की कोर
पग-पग पर टोकता उभरते भंवरों का संदेह।
बिन बरसे न रहेंगे अब ये काले-काले मेह॥
बड़े-बड़े चेतन मधुकर भी
कर बैठेंगे भूल
अधर बिखेरेंगे तेरे जब
पारिजात के फूल
थाले में परिचय के पनपा है नन्हा-सा नेह।
बिन बरसे न रहेंगे अब ये काले-काले मेह।
सुलगे क्यों न छुवन की
पीड़ा में पल्लव का अंक
कांटों से भी जहरीले
होते फूलों के डंक
तपती रेत डगर की जलकर मन्मथ हुआ विदेह।
बिन बरसे न रहेंगे अब ये काले-काले मेह॥
-बुद्धिनाथ मिश्र
(जाल फेंक रे मछेरे)

याद बन-बनकर गगन पर
सांवले घन छा गए हैं

ये किसी के प्यार का संदेश लाए
या किसी के अश्रु ही परदेश आए।

श्याम अंतर में गला शीशा दबाए
उठ वियोगिनी देख घर मेहमान आए।

धूल धोने पांव की
सागर गगन पर आ गए हैं

रात ने इनको गले में डालना चाहा
प्यास ने मिटकर इन्हीं को पालना चाहा

बूंद पीकर डालियां पत्ते नए लायीं
और बनकर फूल कलियां खूब मुस्काईं

प्रीति रथ पर गीत चढ़ कर
रास्ता भरमा गए हैं

श्याम तन में श्याम परियों को लपेटे
घूमते हैं सिंधु का जीवन समेटे

यह किसी जलते हृदय की साधना है
दूरवाले को नयन से बांधना है

रूप के राजा किसी के
रूप से शरमा गए हैं ।

रमानाथ अवस्थी

उस पार कहीं बिजली चमकी होगी
जो झलक उठा है मेरा भी आँगन ।

उन मेघों में जीवन उमड़ा होगा
उन झोंकों में यौवन घुमड़ा होगा
उन बूँदों में तूफ़ान उठा होगा
कुछ बनने का सामान जुटा होगा
उस पार कहीं बिजली चमकी होगी
जो झलक उठा है मेरा भी आँगन ।

तप रही धरा यह प्यासी भी होगी
फिर चारों ओर उदासी भी होगी
प्यासे जग ने माँगा होगा पानी
करता होगा सावन आनाकानी
उस ओर कहीं छाए होंगे बादल
जो भर-भर आए मेरे भी लोचन ।

मैं नई-नई कलियों में खिलता हूँ
सिरहन बनकर पत्तों में हिलता हूँ
परिमल बनकर झोंकों में मिलता हूँ
झोंका बनकर झोंकों में मिलता हूँ
उस झुरमुट में बोली होगी कोयल
जो झूम उठा है मेरा भी मधुबन ।

मैं उठी लहर की भरी जवानी हूँ
मैं मिट जाने की नई कहानी हूँ
मेरा स्वर गूँजा है तूफ़ानों में
मेरा जीवन आज़ाद तरानों में
ऊँचे स्वर में गरजा होगा सागर
खुल गए भँवर में लहरों के बंधन ।

मैं गाता हूँ जीवन की सुंदरता
यौवन का यश भी मैं गाया करता
मधु बरसाती मेरी वाणी-वीणा
बाँटा करती समता-ममता-करुणा
पर आज कहीं कोई रोया होगा
जो करती वीणा क्रंदन ही क्रंदन ।
-गोपाल सिंह नेपाली

तन तुम्हारा अगर राधिका बन सके,
मन मेरा फिर तो घनश्याम हो जायेगा।
मेरे होठों की वंशी जो बन जाओ तुम,
सारा संसार बृजधाम हो जायेगा।

​​
तुम अगर स्वर बनो राग बन जाऊँ मैं
तुम रँगोली बनो फाग बन जाऊँ मैं
तुम दिवाली तो मैं भी जलूँ दीप सा
तुम तपस्या तो बैराग बन जाऊँ मैं
नींद बन कर अगर आ सको आँख में,
मेरी पलकों को आराम हो जायेगा ।

मैं मना लूँगा तुम रूठकर देख लो
जोड़ लूँगा तुम्हें टूट कर देख लो
हूँ तो नादान फिर भी मैं इतना नहीं
थाम लूँगा तुम्हें छूट कर देख लो
मेरी धड़कन से धड़कन मिला लो ज़रा,
जो भी कुछ खास है आम हो जायेगा।

​​

दिल के पिंजरे में कुछ पाल कर देखते
खुद को शीशे में फिर ढाल कर देखते
शांति मिलती सुलगते बदन पर अगर
मेरी आँखों का जल डाल कर देखते
एक बदरी ही बन कर बरस दो ज़रा,
वरना सावन भी बदनाम हो जायेगा।

डा़. विष्णु सक्सैना

आज वारि लो झरता झर-झर
भरे हुए मेघों से हैं;
फोड़ गगन आकुल जल-धारा
थमती नहीं कहीं भी है।

शाल विपिन में दल के दल हैं
मेघों से लग गई झड़ी;
झूम-झूम मैदानों में है
इधर-उधऱ वर्षा होती।
जटा बिखेरे मेघों की यों
कौन आज है नाच रही!
अजी, खुला है मन मेरा यह
लुटा झड़ी में हो जैसे !
वक्षस्थल-पूरित तरंग है
पड़ती पांवों पर किसके?
अंतस् में कलरव यह कैसा?
खुला द्वार का पट ज्यों;
हृदय-बीच जागा पागल-सा
मास भाद्रपद में हूं यों!
आज रात-भर बाहर ऐसा
कौन मत्त हो रहा भला?
– रवीन्द्रनाथ टैगोर

मैं सैलानी तुम सैलानी
गति दोनों की ही मनमानी
पलती है दोनों के भीतर
एक कुंआरी पीर अजानी।

दोनों में है घुटन भरी
दोनों में है पानी
बादल! मेरी और तुम्हारी
है एक कहानी ।

अनगिन रूप धरे जीने को
लिए लिए छलनी सीने को
कहां कहां भटके हैं हम तुम
लेकर अपना यौवन गुमसुम।

फिर गांव, बस्ती में बन में
कुछ न कहीं पाया जीवन में
फिर भी हंसते रहे सदा-
है कैसी नादानी।

हमने जितने स्वप्न संजोए
मौसम पर बंधक हैं सारे
कितने ही दिन हम रोए
ऋतुओं केआगे हाथ पसारे।

कहकर सबसे दुआ बंदगी
धुंआ धुंआ हो गई जिन्दगी
हम पर बची नहीं है
कोई भी नेह निशानी ।

-कन्हैयालाल बाजपेयी

आषाढी संध्या घिर आई, दिन अब बीत गया;
लगातार हो रही वृष्टि है, रुक-रुककर देखो।
घर के कोने में बैठो एकाकी,
क्या-क्या सोच रहा हूं मन में !
सजल वायु क्या जाने, क्या कह जाती,
पैठी इस जुही के वन में!
लहर उठी है आज हृदय में मेरे,
खोज नहीं पाता हूं कूल कहीं;
प्राण रुला जाता है सौरभ आके,
भीग रहे हैं वन के फूल कहीं।
रात अँधेरी, पहर-पहर को भर दूं,
किस स्वर से कुछ सोच नहीं पाता;
सब कुछ भूले आकुल हूं मैं
भूल कौन-सी है?
(क्या जानूं मैं!)
– रवीन्द्रनाथ टैगोर

आती ही है जब वर्षा
तो ढूँढने लग जाता हूँ मैं
अपना बचपन…

जैसे ढूँढते है लोग
कभी बरसाती
या गमबूट
या अपना छाता।

मानता हूँ मैं
मिल जाए सबको छाता
जो छाता चाहते हैं
बरसाती
जो बरसाती चाहते है
बूट…
खोज है जिन्हें बूट की

लेकिन कभी
मुझे मेरा बचपन भी
किलकारता… वर्षा में नहाता
कागज़ की नाव चलाता
हुआ बचपन
-सीतेश आलोक

घाटियों से घाटियों तक
दौड़ता उजला हरापन
एक चादर झलमलाती
तानती उनई घटाएँ।

पगडंडियों के पांव में
जो घाव थे पिछले दिनों
एक फाहा रख गया है
पोखर उलंगकर पास से
अंखुए खोलती-सी आंख
फैलता है सुनहरापन
खेत, सपने लगे बुनने
ठूंठ वीराने लगें खास से !

छूटती-सी बोगदे में- रेलगाड़ी
उड़ती हुई बदली हुई
लालटेनों को हिलाता पेड़
पोस्टर-सा
कि जुगनू दिपदिपाए !

बज रही ओरी छलक कर
आंगन समेटे और कब तक
खट रही जो जोगिया खपरैल
छू रहीं उसको बिजलियां ;
पांव अटके गांव-गलियारों में
आंख अटकी खिड़कियों पर
मेंहदी रचाए अंगुलियां
सौंपती हैं हलदिया रंग की
कजलियां !

जंगलों में एक सरगम
छेड़ती हैं रात-दिन बूंदें
संगीत की महफिल हुआ मौसम
आर्केस्ट्रा मेघ-मालायें बजायें !

– श्याम सुंदर दुबे

मैं सदा बरसने वाला मेघ बनूँ
तुम कभी न बुझने वाली प्यास बनो।

संभव है बिना बुलाए तुम तक आऊँ
हो सकता है कुछ कहे बिना फिर जाऊँ

यों तो मैं सबको बहला ही लेता हूँ
लेकिन अपना परिचय कम ही देता हूँ।

मैं बनूँ तुम्हारे मन की सुन्दरता
तुम कभी न थकने वाली साँस बनो।

तुम मुझे उठाओ अगर कहीं गिर जाऊँ
कुछ कहो न जब मैं गीतों से घिर जाऊँ

तुम मुझे जगह दो नयनों में या मन में
पर जैसे भी हो पास रहो जीवन में ।

मैं अमृत बाँटने वाला मेघ बनूँ
तुम मुझे उठाने को आकाश बनो।

हो जहाँ स्वरों का अंत वहाँ मैं गाऊँ
हो जहाँ प्यार ही प्यार वहाँ बस जाऊँ

मैं खिलूँ वहाँ पर जहाँ मरण मुरझाये
मैं चलूँ वहाँ पर जहाँ जगत रुक जाये।

मैं जग में जीने का सामान बनूँ
तुम जीने वालों का इतिहास बनो।
-रमानाथ अवस्थी

सावन लगा हुई हरियाली
कू-कू कोयल करती डाली
पड़ी फुहार मंद मुस्कानी
सब खेतों में भर गया पानी

मुड़ तालाबों की धुन देखो
मेंढ़क कहते मेघों बरसो
ऐसी घटा अँधेरी छाई
मंद-मंद चलती पुरवाई

डाल-डाल पर पड़ गए झूले
अब कुम-कुम के मन है फूले
सावन मास सुहावन लागे
घर से योगिन बाहर भागे

ये सुंदर वर्षा ऋतु आई
प्यासी धरती की प्यास बुझाई
जंगल में कैसा है शोर
मस्त मगन हो नाचे मोर

सब बच्चों के मन को छू लें
आओ सखियों झूला झूलें
चिड़िया चीं-चीं करती डाली
सावन लगा हुई हरियाली।

– शंभुनाथ

आज गहन सावन-घन-प्रेरित
चरणों से तुम आ धमके हो।
नीरव रजनीवत् चुपके-से
सब लोगों की दृष्टि बचाए।
आज नयन मूंदे प्रभात है,
पवन वृथा करता पुकार है,
निलज नील आकाश ढंके यह
सघन मेघ किसने प्रेरा है?
कूजनहीन पड़ा है कानन,
द्वार बंद हैं सभी घरों के;
पथिक कौन तुम, भला, अकेले
पथिक -शून्य पथ पर आ धमके!
मेरे सखा, प्राणप्रिय मेरे!
द्वार खुला है मेरा, देखो;
स्वप्न-सरीखे होकर सम्मुख,
मुझे उपेक्षित कर मत जाओ।।
– रवीन्द्रनाथ टैगोर

बादलों की बेटी
वर्षा के झूले पर
धरती पर आई
कच्ची माटी के आँगन में
पोर-पोर समाई।

पर बदले रूप में
बड़ी ही इठलाई
जब पकी ईटों पर आई
वही बूँद,
बूँद-बूँद छितराई।

ममता भी
कभी रूप बदलती है
कभी शालीन
कभी उन्मुक्त होती है।

उसकी गाथा
उसके मिलन पर
उसकी अनुभूति होती है।

– केसरी नाथ त्रिपाठी

आज झड़ी की रात हुआ आगमन तुम्हारा हैः
रोता है आकाश हतास्-सा, नहीं नींद है नयनों में मेरे;
द्वार खोलके हे प्रियवर!बार-बार मैं तुम्हे निहार रहा।
प्राण-सखा, हे मेरे बन्धु!
बाहर कुछ मैं देख न पाता,
सोचा करता हूं कि भला, पथ किधर तुम्हारा है!
किस सुदूर सरिता के पार,
किस दुर्गम जंगल के पास,
किस गंभीर तमिसा होकर हो जाते हो पार, भला, तुम?
प्राण-सखा हे मेरे बंधु
– रवीन्द्रनाथ टैगोर!

जब बरसे बादल
जाने कैसी बूंदे बरसी ,मेरे आँगन में,
भींग गया तन मन जीवन सब
भींगे सावन में.
कजरारे मेघों ने कैसा जादू कर डाला,
रिमझिम बूंदों ने, जीवन का,
हर पल रंग डाला .
शाम सुहानी आती है,सन्देश नया लेकर,
सपने सजते हैं पलकों पर,
ले इन्द्रधनुष के पर,
शीतल हवा सुना जाती है,
बात किसी पल की,
नन्हीं बूंदें दोहरा जातीं, बातें जो कल की.
जावा कुसुम के पात खिल गए,
कलियाँ मुस्काईं,
लहराया अशोक ,चमेली, –
जाने क्यों शरमाई?
तुलसी के पत्तों से बूंदें टपक रहीं टप टप,
भींगी धरती के आँचल में,
मौन हो गया सब
पद्मा मिश्रा

राजा वसन्त वर्षा ऋतुओं की रानी
लेकिन दोनों की कितनी भिन्न कहानी
राजा के मुख में हँसी कण्ठ में माला
रानी का अन्तर द्रवित दृगों में पानी

डोलती सुरभि राजा घर कोने कोने
परियाँ सेवा में खड़ी सजा कर दोने
खोले अंचल रानी व्याकुल सी आई
उमड़ी जाने क्या व्यथा लगी वह रोने

लेखनी लिखे मन में जो निहित व्यथा है
रानी की निशि दिन गीली रही कथा है
त्रेता के राजा क्षमा करें यदि बोलूँ
राजा रानी की युग से यही प्रथा है

नृप हुये राम तुमने विपदायें झेलीं
थी कीर्ति उन्हें प्रिय तुम वन गयीं अकेली
वैदेहि तुम्हें माना कलंकिनी प्रिय ने
रानी करुणा की तुम भी विषम पहेली

रो रो राजा की कीर्तिलता पनपाओ
रानी आयसु है लिये गर्भ वन जाओ

रामधारी सिंह ‘ दिनकर’

वर्षा ने
बादलों की ताल पर
जलतंरग बजाया
पत्तों ने
रह-रह कर तालियाँ बजाईं
पेड -पौधों ने
झूमकर सिर हिलाया

देखते रह गये कान
सुनता रहा तन
पानी पर बरसता पानी
रिमझिम पर लहरों की रवानी

बरसते रहे स्वर
भीगता रहा मन।
-सीतेश आलोक

क्या संदेशा लाये बादल
क्या सन्देशा लाये बादल,
विकसित सुमन हृदय आंगन में
नव हरीतिमा मन प्रांगण में,
स्मृतियों की बूंदें बरसीं ,
मधुरिम गीत सुनाये पायल
क्या संदेशा लाये बादल !
विरहाकुल मेहा बन नैना ,
शून्य क्षितिज की ओर निहारें,
शरद चन्द्रिका के वितान सा,
पुलकित यह अंतर्मन पागल
क्या संदेशा लाये बादल !
नभ मंडल में चपला नर्तन ,
तमसावृत मेघों का गर्जन ,
स्मृतियों का यह आवर्तन
सिहर उठा विरहिन का आंचल
क्या संदेशा लाये बादल !
पद्मा मिश्राा

नया सन्देश लेकर !
बरसता है नेह का बादल-
नया सन्देश लेकर !
गूंजती बजती
मिलन की बांसुरी
आस की राधा मचलती बावरी,
भींगता अनुराग का आंचल,
नया सन्देश लेकर !
कौंधती है घन घटा
ज्यों याद पिय की,
चटकी मन में ,
विरह की ज्वाल धधकी ,
बिखरता है रूप का काजल
नया सन्देश लेकर !
श्याम वर्णी बादलों ने ,
गीत क्या गाया ?
सिहरता हर अंग ,
मन का मीत हरषाया ,
झूमता हर द्वार आंगन ,
एक नया सन्देश लेकर !
यह पावस अमृत हो जाये
धरती के भींगे अंतर में,
नव-स्नेह अंकुरित हो पाए,
और बूंद बूंद नभ कोरों पर,
गीतों की छटा उमड़ जाये.
तुम बरसा दो नव रस कण में,
वह प्रेम गुंजरित हो जाये.
तुम मेघ दूत बन आ जाओ,
मेरा संसार बुलाता है,
रिमझिम बूंदों की तान लिए,
पावस हास बुलाता है.
तुम छू लो मन के तार आज,
जीवन का राग संवर जाये,
शूलोंसे बिंध कर भी खिलती ,
कोमल गुलाब की कलिकाएँ,
संघर्षों में भी पलती है,
दुर्गम राहों पर लतिकाएँ.
तुम बनो बांसुरी कान्हा की,
मधुबन की प्रीत मुखर गाये.
गीतों के कोमल स्वर लय पर ,
मेरी कविता के भाव बनो,
अंतर में पलती प्रीति मधुर ,
तुम रसवंती जल-धार बनो,
बूंदोंशके संग बिखर जाओ
यह पावस अमृत हो जाये .–
पद्मा मिश्रा

क्षणिकाएँ

पी की याद
ज्यों बारिश की बूंदे
हथेली पर संभालूँ तो
रोकूँ तो भीगे तन मन।
शैल अग्रवाल

आज हवा में
गुनगुन सी है
नभ पर बिचरते
पंक्षियों की चहचह
मीठी धुन-सी है
रेशे रेशे बिखरे
मचले हैं ये बादल
जाने कहां-कहाँ घूमकर
घर लौटे हैं बादल
भूला बिसरा जो संदेशा लाए
याद पिया की मन भरमाए
शैल अग्रवाल

यादें थीं या वो फिर
उमड़ी एक बदली थी
अभी-अभी आंगन में
जमकर जो बरसी थी
प्यार में जाने किसके
डूबी भीगी पगली थी
उड़ती थी मस्त पवन संग
भीगती-भिगोती चुपचाप
जाने कबकी दखो
घर से निकली थी
शैल अग्रवाल


बादल ये मनचला उड़ चला है पाखी की तरह
अटका भटका लहराए धरती पे आँचल की तरह
मेघ सांवरे बरसेंगे धरती का आंचल भर देंगे
तैरे हो तुम फिर आंखों में प्रेम की फुहार बन
आकाश ज्यों छाता जाए फैली फुनगियों पर…
शैल अग्रवाल

कागज की ये नाव हमारी
मौजों पर जो बह चली
किनारों के अब तुम चर्चें ना करना
मन के समन्दर की ही तो बात है
डूबकर ही उबरेगी यह
उबरकर इसे किधर है जाना …
शैल अग्रवाल

सावन और साजन
मन को ना भाएँ
इक आए दूजा जब जाए
कौन किसका यूँ मन बहलाए

तारों की चूनर
ना चंदा की टिकुरी
चौबारे में टपटप रोई
रात बिरहनी।

-शैल अग्रवाल

छपक-छपक गंदले पानी में
कागज की एक नैया
ले डूबी पूरा जंगल
बरसाती सब ताल-तलैया

रोया फिर हरियाली बीच
बंजर धरती का चटका कोना
बूँद-बूँद से हुलसा जंगल
एक बूंद ना मेरे पास
ना आस ही मिटती मेरी
ना बुझती है यह प्यास
शैल अग्रवाल

बूँद-बूँद बरसा है फिर
सपनों-सा तप-तप
जलता जो आकास
भटका बहुत है बादल
अपने ही अंधियारे में
रोया कितना दिन रात

पागल था वह बादल भी
मेरे मन-सा ही
गरजा बरसा और बिखरा
सब कुछ ही जो इक साथ

शैल अग्रवाल

प्रणय निवेदन लेकर उतरा
बादल अम्बर से धरती तक
डाल डाल और पात-पात
आतुर कम्पित प्यासा बहुत था
धरती का भी विह्वल अंतस।

अंतस में ले यादों की बिजुरी
भटक रही पिया बावरी बदरी
निर्मोही चंदा-सा प्रियतम पर
दिखता ना पअँधियारी रात।

माही और चोका

पुष्प झड़ता
फिर से खिल जाता
शुष्क जंगल
हरा भरा हो जाता
कोयल कूक
सावन को बुलाती
वर्षा बूंदे भी
ताल बजा के गातीं
मन के भाव
अल्पनाएँ रचते
घर- आँगन
मोहक -से लगते
झूले बैठके
नवयौवना गाती
भेजी क्यों नहीं
प्रिय ने प्रेम पाती
ठंडी फुहारें
परदेस से लाती
सन्देश “पी” का
तब पाखी- सा मन
चहचहाता
सावन के रसीले
मधुर गीत गाता !
सरस्वती माथुर

घटा के मृगछौने
तैरें नभ के
कोने- कोने
दिवस प्यासे
धूप बीडी पी
खर्र- खर्र खांसे

भौंचक देखें
नयन -सलोने
निगोड़े बादल

गहराते जाएँ
हवा के आँचल
लहरा के गाये
बूंदों के भर दोने

मन भरमायें
मिल दामिनी संग
करें जादू- टोने
हरियाला हो लहके
बागों में सावन
मन के मौसम महके

-सरस्वती माथुर

बरखाः चन्द हाइकू

दूर निगोड़े
साजन से बादल
तरसे गोरी

बादल आते
लेकर जो संदेश
पीर बढ़ाते

जरे धरती
प्यासा तनमन
बरसात में

शैल अग्रवाल

मन मयूर
बन नाचे बन-बन
देख बदरी

सखी-सहेली
समझे ना बतियां
गाएँ कजरी

पड़े फुहार
भीगे बदन पर
जले गतरी

आस लगाये
“लाल” संग बैठी
भेज पतरी ।

सावन मास
कण कण बौराए
खोल गठरी

– लाल बिहारी लाल

लोकगीतों में सावन
देखो सावन में हिंडोला झूलैं मन्दिर में गोपाल।
राधा जी तहाँ पास बिराजैं ठाड़ी बृज की बाल।।

सोना रूपा बना हिंडोला, पलना लाल निहार।
जंगाली रंग, सजा हिंडोला, हरियाली गुलज़ार।।

भीड़ भई है भारी, दौड़े आवैं, नर और नार।
सीस महल का अजब हिंडोला, शोभा का नहीं पार ।।

फूल काँच मेहराब जु लागी पत्तन बांधी डार।
रसिक किशोरी कहै सब दरसन करते ख़ूब बहार।।


झूला पड़ा कदम की डारी
झूलें कृष्ण मुरारी
कौन काठ का बना हिंडोला
का की लागे डोरी
चनन काठ का बना हिंडोला
रेशम लागे डोरी
के हो झूले के हो झुलावे
के हो देवे तारी
राधा झूलें कृष्ण झुलावें
सखियां देवें तारी ।

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