अभिनन्दन
मेरे आजाद देश की
पचासवीं साल गिरह पर
लोगों ने खूब गाया
बहुत जश्न मनाया
फिर मेरे ही मस्तिष्क में क्यों
आज एक तूफान-सा उठा है
जो मेरे हृदय को लपेटता
अस्तित्व को ही ले उड़ा है
दूर बहुत दूर नदी-नाले
समुंदर पहाड़ सब पार करता
उस देश, उस धरती की ओर
जो मेरा घर था, घर है
मेरा अपना भारत देश
माना कि धीरे-धीरे
मेरे सब निशान
मिटते जा रहे हैं
और बंजारे सी अपनी
इस नई पहचान के संग
खड़ी मैं सोच रही हूँ –
कैसे तुम मुझे भला अब
इससे दूर-दूर रख पाओगे
मैं तो इसी मिट्टी से बनी हूँ
और यह मिट्टी कनकन ही
मेरे पूर्वजों के खून से सिंची है
इसी ने तो मुझे
सर्वस्व दिया है
और इसी ने
मेरा हर सुख चैन
सबकुछ लिया है
मैं इसकी पहचान हू
यह मेरा अभिमान
क्या हुआ जो दूर
मुझसे बहुत दूर
मेरा देश महान!
स्वराज लेकर भी
सुराज का सपना देखने वाली
हर आँख क्यों आज भी
बस खून के ही आँसू
रो रही है
क्यों गरीबी
और भ्रष्टाचार के
बिस्तर पे लेटी
मेरे आजाद भारत की
किस्मत आजतक
सो रही है
क्यों दुराचारी दशानन के
दसों सर कट-कटकर
बार बार उग आते हैं
देखो विभीषण के संग
राम, लक्ष्मण और हनुमान
जाने कब कहाँ और कैसे
वापस मिल पाते हैं
सफेद हरे और वसंती
रंग में लिपटा
यह तिरंगा
शान्ति, सौहाद्र और
संयम का प्रतीक है
हमने माना
अमन हमे प्यारा है
यह भी हमने जाना
भटके तो यदा-कदा
पर भूले नहीं
बसंती चोले पर
जब-जब
खून के छींटे पड़े
हजारों प्राण आज भी
कर्तव्य-पथ पर ही
साथ-साथ आगे बढ़े
शस्त्रों के संग लड़ने वाले
सब वे सेनानी वीर हैं
सिर्फ आत्म-बल पे
जो लड़े, मेरे देशवासी
वीर ही नहीं महावीर हैं
राम, कृष्ण, बुद्ध और
नानक जैसे महात्मा
पैगम्बर पीर हैं
मेरे हाथों में श्रद्धा के फूल
और आँखों में
कर्तव्य का पानी है
मेरे प्यारे देश बता
आज मैं तुझ पर
कौनसा फूल चढ़ाऊँ
देश-परिवेश की
परिधियों से परें
हम-तुम तो
अभिन्न और अविच्छेद हैं
जो कुछ भी मेरा
तन-मन-धन सब
तुझको ही अर्पण
आशीष यही चाहूँ
अब तो
जब भी जन्मूँ
सिर्फ भारती
बनकर ही आऊँ
मैं तेरी पहचान हूँ
तू मेरा अभिमान
क्या हुआ जो दूर
मुझसे बहुत दूर
मेरा देश महान!
-शैल अग्रवाल
जब जब अंधेरा आँखो में घिरा
सूरज बनकर यही तो सामने उगा
अगर उबर न पाई काली अंधेरी रातों से
चांद बनकर इसने ही तो सहारा दिया
इसको जाना तो खुद को जाना मैंने
आज भी परदेश में यही मेरी पहचान
मेरी खोज भारत की खोज
और भारत की खोज
सत्य शिव और सुंदर की खोज
भव्य भारती है हमारी
तारों के रहस्यों से लेकर
सूरज चांद की अनबूझी चाल
शून्य का अविष्कार और
मानवता का देवत्वमय श्रुति गान
पृथ्वी से लेकर आकाश तक
कर डाली सारी गणना
इसके जैसा न किसी को ज्योतिष ज्ञान
ऋषि-मुनियों का देश हमारा
तप और संयम हैं इसके चारो धाम
भारत की खोज
हमारे अस्तित्व और जड़ों की खोज
शिव राम और कृष्ण की खोज
जन्मे यहीं बुद्ध और गांधी
कबीर तुलसी और नानक महान
सत्य शिव और सुंदर जो
वही तो हमारी संस्कृति
भूगोल और इतिहास
चेतना हमारी प्रेरणा हमारी
देश रहता साथ हमारे
इसमें ही तो बसते अपने प्राण।
शैल अग्रवाल
भारत की खोज
कहाँ है भारत सोचती हूँ मै
लोगों की भावनाओं में इसे खोजती हूँ मै
कहाँ से है आप पूछने पे
लोगों ने यू पी,बंगाल ,महाराष्ट्र ,पंजाब बताया
कुछ ने एम पी तमिलनाडु ,गुजरात ,मद्रास बताया
सबने अपना छेत्र बताया
किसी ने भी न हिंदुस्तान बताया
आ के यहाँ सभी ने अपना संगठन बनाया
विदेशी धरती पे भारत को टुकडों में बिछाया
पता नही ये कब कैसे हो गया
देश प्रदेशों में खो गया
लोगों की जमा भीड़ मेंदेश को तलाशती रही मै
दूर तक फैले अंधकारों में
बहुत देर तक टटोलती रही मै
पर धर्म ,जाति,भाषा के अलावा
कुछ भी मेरे हाथ नही आया
प्रान्तीयता के सामने मैने देश को झुका पाया
दुःख तो इस बात का है के
भारतीयों में भी कंही भारत को न पाया
देश नही होगा तो प्रदेश साँस कैसे लेगा
कट गया पेड़ तो बसेरा कहाँ होगा .
क्या प्रदेश से पहले देश नही है दोस्तों
एक बार बस शान्ति से इतना सोचना दोस्तों
-रचना श्रीवास्तव,
हिन्दू
मेरा देश बस साँप-सपेरे
और मदारियों का ही देश नहीं
जहां जादू से रस्सी चढ़कर
साधू गायब हो जाए
ना ही पुनर्जन्म
और अंधविश्वासों की यह कोई लम्बी रोमांचक गाथा है
मैने तुमसे कब कहा था
कि तुम सर मुड़ाकर
राम-नामी दुपट्टा ओढ़े
किसी नदी किनारे जा बैठो
तभी सच्चे हिन्दू बन पाओगे
ज्ञानी ही कहलाओगे
मेरा धर्म कोई विधिवत्
सन्यास नहीं, जीवन है
जीने की एक आदत है
जो जिओ और जीने दो ‘
का मूलमंत्र सिखलाता है
अन्दर से जो जगे
वही बुद्द है
वरना समस्त ज्ञान लेकर भी
ज्ञानी नेति-नेति चिल्लाता है
यह किसी प्रभु द्वारा लिखा
पराधीनता का दस्तावेज नहीं
निष्कर्म बना मानव को
जो बारबार
अपना ही नाम रटवाए…
कर्म-धर्म है यह
हर कर्म-योगी का
बादल, पवन, पक्षी-सा
हवा में उड़ता बस
एक खयाल नहीं।
हिन्दू, मुसलमान
सिख, ईसाई क्या
तुम पक्षी पौधे तक
कुछ भी बनकर
आ सकते हो
जैसे कर्म करोगे
वैसी योनि पाओगे
सीदे-सादे मेरे देश की
हर बात बड़ी ही सीधी है
गोदी में जो बिठलाए
भूख, प्यास मिटाए
वह धरती, नदिया, गैया
आज भी माता ही कहलाए ।
-शैल अग्रवाल
हस्ताक्षर
हस्ताक्षर भी
हम करते हैं
एक विदेशी
भाषा में
कैसे हम
आजाद हो गए
बोलो किस
परिभाषा में?
राजेश चेतन
प्रगतिशील
प्रगतिशील मेरा यह देश
प्रगति कर रहा है
विकासशील देशों से हटकर
विकसित देशों की कतार को उन्मुख है
विकसित देशों की तरह
शान्ति को भूल
मूल्यों को भूल
जीना सीख रहा है।
लूटमार , व्यभिचार, हिंसा
धोखाधड़ी की खबरें
अब यहां भी चौंकाती नहीं
आम बातें हैं यहाँ पर
ये खूनी डाकू…
और बाहुबली जो लेते यहां
संरक्षण ही नहीं, ताकत भी…..
चोरी डकैती फिरौती का
नियमित राजसी भत्ता भी !
जरूरी हो शायद यह भी
इस नयी पहचान हेतु,
जितना विकसित देश
उतना ही खून-खराबा
आदर्शों का, इन्सानों का
कुर्सी ही आज सबसे बड़ी
अधीन मुद्दा, देश या इन्सान नहीं
उत्तेजना का युग है यह
पुराने से आदमी ऊब जो जाता है
ज्ञान, प्रतिभा, भाईचारा
सहज सेवा जैसी किताबी
बेहद पुरानी बातों से हटकर
खेत खलिहान
गांवों से निकल कर
(अहिंसा…कैसी अहिंसा
किस युग के आदमी हो तुम)
यह अब विध्वंसक शस्त्रों की
खोज में प्रगतिशील है।
तर्क है कि आज भी तो
लाठी वाला ही भैंस हांकता है
पर पहले भी तो ऐसा ही था …
फिर भी पानी को पानी कहते थे
राम, कृष्ण व गौतम के स्वर में
वेदों की वाणी सुनते थे!
-शैल अग्रवाल
आम के पत्ते
वह जवान आदमी
बहुत उत्साह के साथ पार्क में आया
एक पेड़ की बहुत सारी पत्तियां तोड़ीं
और जाते हुए मुझसे टकरा गया
पूछा-
अंकल जी, ये आम के पत्ते हैं न
नहीं बेटे, ये आम के पत्ते नहीं हैं
कहां मिलेंगे पूजा के लिए चाहिए
इधर तो कहीं नहीं मिलेंगे
हां, पास के किसी गांव में चले जाओ
वह पत्ते फेंककर चला गया
मैं सोचने लगा-
अब हमारी सांस्कृतिक वस्तुएं
वस्तुएं न रह कर
जड़ धार्मिक प्रतीक बन गयी हैं
जो हमारे पूजा पाठ में तो हैं
किन्तु हमारी पहचान से गायब हो रही हैं।
-डॉ. रामदरश मिश्र
देश मांगता
देश मांगता तुमसे निज इतिहास पुराना
वही स्वर्णयुग, गुप्तकाल का वही जमाना
तुमने देखी हैं भारत की स्वर्णिम सदियां
सोने के प्रासाद, दूध की बहती, नदियां
फिर से वही महान समय तुमको है लाना
वही स्वर्ण युग, गुप्तकाल का वही जमाना !
दृढ़ प्रतिज्ञ चाणक्य बने देश का हर नर
समर छेड़ दे स्वाभिमान-हित अखिल धरा पर
वही विश्व-सम्मान तुम्हें फिर से है पाना
वही स्वर्णयुग, गुप्तकाल का वही जमाना
ज़रा क्रांतिवीरों की याद करो गाथाएँ
अजर-अमर हो गईं जिन्हें जनकर माताएँ
आज़ादी का वही गीत फिर से है गाना
वही स्वर्णयुग, गुप्तकाल का वही जमाना !
तुम्हें भूत को ला रखना है वर्तमान में
और भविष्यवत् भी रखना है सदा ध्यान में
तुम्हें इसी धरती पर फिर से स्वर्ग बसाना
वही स्वर्णयुग, गुप्तकाल का वही जमाना।
-डॉ ब्रह्मजीत गौतम
ध्यान दें
बेड़ियाँ गुलामी की क्या यूं ही काट पाए थे
अनगिनत ही शीश मातृभूमि पे चढ़ाये थे
अब हमारा फ़र्ज़ है के अपना योगदान दें
सिर्फ अपने देश के विकास पर ही ध्यान दें
स्वतंत्र अपना देश हो ये हर किसी का ख्वाब था
गांधी नेहरु बोस लोकमान का ख़िताब था
देश जो आहुति मांगे जान की, तो जान दें
सिर्फ अपने देश के विकास पर ही ध्यान दें
हिन्दू हैं मुसलमा हैं के सिख हैं के ईसाई हैं
हिंद के हैं वासी जितने सारे भाई भाई हैं
भेद भाव धर्म जात अब न इन पे कान दें
सिर्फ अपने देश के विकास पर ही ध्यान दें
– आदिल रशीद
आज़ादी का त्योहार
लज्जा ढकने को
मेरी खरगोश सरीखी भोली पत्नी के पास
नहीं हैं वस्त्र,
कि जिसका रोना सुनता हूँ सर्वत्र !
घर में, बाहर,
सोते-जगते
मेरी आँखों के आगे
फिर-फिर जाते हैं
वे दो गंगाजल जैसे निर्मल आँसू
जो उस दिन तुमने
मैले आँचल से पोंछ लिए थे !
मेरे दोनों छोटे
मूक खिलौनों-से दुर्बल बच्चे
जिनके तन पर गोश्त नहीं है,
जिनके मुख पर रक्त नहीं है,
अभी-अभी लड़कर सोये हैं,
रोटी के टुकड़े पर,
यदि विश्वास नहीं हो तो
अब भी
तुम उनकी लम्बी सिसकी सुन सकते हो
जो वे सोते में
रह-रह कर भर लेते हैं !
जिनको वर्षा की ठंडी रातों में
मैं उर से चिपका लेता हूँ,
तूफ़ानों के अंधड़ में
बाहों में दुबका लेता हूँ !
क्योंकि, नये युग के सपनों की ये तस्वीरें हैं !
बंजर धरती पर
अंकुर उगते धीरे-धीरे हैं !
इनकी रक्षा को
आज़ादी का त्योहार मनाता हूँ !
अपने गिरते घर के टूटे छज्जे पर
कर्ज़ा लेकर
आज़ादी के दीप जलाता हूँ !
अपने सूखे अधरों से
आज़ादी के गाने गाता हूँ !
क्योंकि, मुझे आज़ादी बेहद प्यारी है !
मैंने अपने हाथों से
इसकी सींची फुलवारी है !
पर, सावधान ! लोभी गिद्धो !
यदि तुमने इसके फल-फूलों पर
अपनी दृष्टि गड़ाई,
तो फिर
करनी होगी आज़ादी की
फिर से और लड़ाई !
-महेन्द्र भटनागर
मेरा वतन
विविध रंग भरता ये मेरा चमन है.
कोई प्यारा नगमा सा मेरा वतन है.
न हिन्दू है कोई न कोई मुस्लमान,
बस ममता लुटाती मेरी भारती माँ
उस माँ की आँखें ज्यों गंगा जामुन हैं,
कोई प्यारा नगमा सा मेरा वतन है.
ये मंदिर और मस्जिद के झगड़े पुराने,
क्यों भूले हम, रिश्तों के दिन वो सुहाने,
अब भाई से भाई का छूता मिलन है.
कोई प्यारा नगमा सा मेरा वतन है.
वो बापू की धरती, वो झांसी की रानी,
नहीं भूला जग उन शहीदों की कहानी,
जिन कुर्बानियों से हर एक आँख नाम है,
कोई प्यारा नगमा सा मेरा वतन है.
ये किसकी सदा थी क़ि जागे थे हम भी,
ये किसने दुआ की नई रोशनी की,
उस माँ के चरणों में मेरा नमन है,
कोई प्यारा नगमा सा मेरा वतन है.
-पद्मा मिश्रा
अपनी आजादी के नाम
भूले बिसरे संबंधों के सूनेपन में,
नवयुग की किरणों का अद्भुत पैगाम भरें,
एक दिन’ तो अपनी आजादी के नाम करें.
जो धूल भरी आंधियां छ गयी हैं नभ में,
खो गया उजाला जिनसे जग के आँगन में ,
आओ हम नई क्रांति का सूरज एक गढ़ें,
जन-मन के अंतर में एक नया प्रकाश भरें,
‘एक दिन ‘तो अपनी आजादी के नाम करें.
जो छोटी छोटी राहों से होकर गुजरे,
अब राजमार्ग पर भटक गए मेरे साथी,
अपनी माटी की प्यार भरी भाषा भूली,
अब सपनो का संसार बुना करते साथी.
हम सत्ता क़ि उन अंधी गलियों से चलकर ,
एक नव प्रभात के नए सूर्य के साथ बढ़ें,
‘एक दिन’ तो अपनी आजादी के नाम करें.
हमने अपनी पहचान नहीं खोई अब तक,
अब भी जागे हैं, ऊँचे पर्वत शिखरों पर,
बर्फीले झंझावातों के सूनेपन में,
हम देश प्रेम के सपने बुनते हैं मन में,
जो लुटा गए प्राणों का बलिदानी सावन,
उनमर शहीदों क़ि गाथाएं याद करें
‘एक दिन तो अपनी आजादी के नाम करें.
नन्हीं आखे पूछा करती हैं सवाल,
कब तक मिल पायेगा अपना अधिकार हमें?
हम नहीं चाहते ऊँचे महलों क़ि दुनियां,
अपनी छोटी सी कुटिया ही स्वीकार हमें.
हम नव युग क़ि इन भोली आशाओं में,
उनके सपनो का एक सुदृढ़ आधार बनें,
‘एक दिन ‘तो अपनी आजादी के नाम करें?
पद्मा मिश्रा
दीया अंतिम आस का
[ एक सिपाही की शहादत के अंतिम क्षण ]
दीया अंतिम आस का, प्याला अंतिम प्यास क
वक्त नहीं अब, हास परिहास उपहास का
कदम बढाकर मंजिल छु लुं, हाथ उठाकर आसमाँ
पहर अंतिम रात का, इंतज़ार प्रभात का
बस एक बार उठ जाऊं, उठकर संभल जाऊं
दोनों हाथ उठाकर, फिर एक बार तिरंगा लहराऊं
दुआ अंतिम रब से, कण अंतिम अहसास का
कतरा अंतिम लहू का, क्षण अंतिम श्वास का
बस एक बुंद लहू की भरदे मेरी शिराओं मे
लहरा दूँ तिरंगा मे इन हवाओं मे
फहरा दूँ विजय पताका चारों दिशाओ मे
महकती रहे वतन की मिटटी, गुँजती रहे गुँज जीत की
सदियों तक इन फिजाओं मे
सपना अंतिम आँखों मे, ज़स्बा अंतिम साँसों मे
शब्द अंतिम होठों पर, कर्ज अंतिम रगों पर
बुंद आखरी पानी की, इंतज़ार बरसात का
पहर अंतिम रात का, इंतज़ार प्रभात का
अँधेरा गहरा, शोर मंद
साँसें चंद, होसलां बुलंद,
रगों मे तुफ़ान, जस्बों मे उफान
आँखों मे ऊँचाई, सपनो मे उड़ान
दो कदम पर मंजिल, हर मोड़ पर कातिल
दो साँसें उधार दे, कर लु मे सब कुछ हासिल
जस्बा अंतिम सरफरोशी का, लम्हा अंतिम गर्मजोशी का
सपना अंतिम आँखों मे, ज़र्रा अंतिम साँसों मे
तपिश आखरी अगन की, इंतज़ार बरसात का
पहर अंतिम रात का, इंतज़ार प्रभात का
फिर एक बार जनम लेकर इस धरा पर आऊं
सरफरोशी मे फिर एक बार फ़ना हो जाऊं
गिरने लगूँ तो थाम लेना, टूटने लगूँ तो बांध लेना
मिट्टी वतन की भाल पर लगाऊं
मे एक बार फिर तिरंगा लहराऊं
दुआ अंतिम रब से, कण अंतिम अहसास का
कतरा अंतिम लहू का, क्षण अंतिम श्वास का
-दिनेश गुप्ता
क्या हो गया ज़रा देश का हाल तो देखो
बहुत हुआ अपना अपना घर बार, माँ का प्यार दुलार
क्या हो गया ज़रा देश का हाल तो देखो
क्या कर लेगा अकेला अन्ना, कहते थे सियासी गलियारे
एक बुढे ने बदल दी युवाओं की चाल तो देखो
होसलों के खजानों को खंगाल कर तो देखो
अपनी रगों के लहू को उबाल कर तो देखो
झुक जाएगा आसमाँ, कदम चूमेगी मंजिले
अपनी आँखों मे सपनो को पाल कर तो देखो
सत्ता के नशे मे चूर कितना इन्सान तो देखो
भ्रस्टाचार की अग्नि मे जल रहा अरमान तो देखो
इरादों मे होती है जीत, ताकतों मे नहीं
बुंद बुंद बढता, होसलों का तूफान तो देखो
सत्तायें पलट सकती है, तस्वीरें बदल सकती है
भटके हैं रास्ते मगर, मंजिले फिर भी मिल सकती है
ज़रा बदल कर अपनी चाल तो देखो क्या हो गया ज़रा देश का हाल तो देखो।
-दिनेश गुप्ता
कवि अपना कर्तव्य निभा
छा रहे निराशा के बादल,
अंधियारा बढ़ रहा प्रतिपल ।
घुट-घुट कर जी रहा आदमी
आदमी नचा रहा आदमी ।
आशा के कुछ गीत सजा तू,
कवि अपना कर्तव्य निभा तू।
मानवता लहू लुहान पड़ी,
बुद्धि चेतना से बनी बड़ी ।
रक्त पिपाशा है पशु समान,
हेय मनुज अन्य, निज अभिमान ।
सुन धरती का यह रोना तू,
कवि अपना कर्तव्य निभा तू।
कर्म क्रूर, पाखण्ड, धूर्तता,
विध्वंस, वासना, दानवता ।
लुप्त मानव का जन से प्यार,
निज स्वार्थ वश करता संहार ।
जागरण के अब गीत गा तू,
कवि अपना कर्तव्य निभा तू।
भोग में है खॊया इंसान,
भूल गया है स्नेह, बलिदान ।
उन्माद, शोषण, कुमति विचार,
बना यही मानव व्यवहार ।
पथ मानव को उचित बता तू,
कवि अपना कर्तव्य निभा तू।
है जेबें भर रहे कुशासक,
जनता पिस रही क्यों नाहक ।
सुविधाओं की खस्ता हालत,
पग-पग, पल-पल जीवन आहत।
उनींदी आँखे खोल अब तू,
कवि अपना कर्तव्य निभा तू ।
अर्थ सभी कृत्यों का तल है,
ज्ञान, तेज, तप सब निर्बल है ।
विस्मित सभ्यता, मौन आघात,
कैसे मिटे यह काली रात ?
ज्योति पुंज कोई बिखरा तू,
कवि अपना कर्तव्य निभा तू ।
वाणी – अमृत, अंतर – विष है,
जीवन बना छल साजिश है ।
धमनी रक्त श्वेत हुआ है,
प्रस्तर मानव हृदय हुआ है ।
प्राणों में नव रुधिर बहा तू,
कवि अपना कर्तव्य निभा
-कवि कुलवंत सिंह
मुद्दे
मुद्दों की बात करते-करते
वे अक्सर रोने लगते हैं.
उनका रोना उस वक्त
कुछ ज्यादा बड़ा आकार लेने लगता है
जब कटोरी में से दाल खाने के लिए
चम्मच भी नहीं हिलाई जाती उनसे,
मुद्दों की बात करते-करते
कई बार वे हंसने भी लगते हैं
क्योंकि उनकी कुर्सी के नीचे
काफी हवा भर गयी होती है
मुद्दों की बात करते-करते
वे काफी थक गए हैं फिलहाल
बरसों से लोगों को
खिला रहे हैं मुद्दे
पिला रहे हैं मुद्दे
जबकि आम आदमी उन मुद्दों को
खाते-पीते काफी कमजोर
और गुस्सैल नजर आने लगा है
मुद्दों की बात करते-करते
उनकी सारी योजनाएं भी साल-दर-साल
असफलताओं की फाईलों पर चढी
धूल चाटने लगी हैं
जबकि आम आदमी गले में बंधी
घंटी को हिलाए जा रहा है
मुद्दों की बात-करते
उन्हें इस बात की चिंता है कि
आने वाले समय में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर
आम लोगों की भूख को कैसे
काबू में रखा जा सकेगा ?
मुद्दों की बात करते-करते
वे कभी-कभी बडबडाने भी लगते हैं कि
उनके निर्यात की योजना
आयात की योजना में उलझ गयी है
रुपये की तरह हर साल अवमूल्यन की स्थिति में खडी
उनकी राजनीति लालची बच्चे की तरह लार टपका रही है
आजकल मुद्दे लगातार मंदी के दौर से गुजर रहे हैं ।
-अशोक आंद्रे
जब से मेरे देश में
जब से मेरे देश में स्वराज हो गया,
सस्ता हो गया आदमी मंहगा प्याज हो गया,
कितनी ईमानदारी से करते है बेईमानी देखो,
भ्रष्टाचार में नंबर वन हिन्दुस्तान हो गया,
और बारिश से अब डरने लगे है लोग,
क्यों की पिछली बरसात में पूरा शहर टाइटेनिक जहाज… हो गया,
दुहाई देते है सब इंसानियत की मगर,
न जाने कितने बच्चो का कत्ले आम हो गया,
सुन कर अब तालियाँ मत बजाओ लोगो,
मेरा ये पैगाम भी बदनाम हो गया,
मल्टीमिडिया सेट अब बच्चे भी रखते है जेब में,
इसीलिए तो मित्रो नेटवर्क जाम हो गया,
अब तो स्कूल में होता है बलात्कार,
ये कैसी शिक्षा का प्रचार हो गया,
कटे हांथो से देश की पकडे हो बागडोर,
तभी तो कही संसद भवन कही अक्षरधाम हो गया,
हवाओ में भी यारो घुल रहा है अब जहर,
फिर भी मेरा भारत महान हो गया.
-राजेन्द्र अवस्थी
व्यथा की आत्मकथा
(एक ढाई वर्ष की बालिका के साथ हुए
दुष्कर्म की करुण कथा )
ऐ सजल नयनों बताओ,
क्योंकर बिलखती है व्यथा?
जब बुझे नयनों ने छेड़ी,
यन्त्रणा की दारुण कथा.
सुनने वालों थाम लो दिल,
मैं सुनाती उसकी कथा.
थर्रायेगा पाषाण भी सुन,
एक दानव ने जो किया.
ढाई बरस की बालिका थी,
प्यारी सी मुस्कान मुख की.
नादान थी वह मासूम थी,
थी तोतली ज़ुबान उसकी.
भोली थी न जानती थी,
आ गई है विपदा बड़ी.
छल,छद्म से अनजान थी,
संग परिचित के चल पड़ी.
जानकर आत्मीय उसे वह,
खिलखिला कर हंस पड़ी.
टौफ़ी पकड़ लीं हाथ में,
गलबहियां डाल चुम्मी जड़ी.
हाय रे वह वहशी दरिन्दा
उसे ले गया एकान्त में.
कुकृत्य कर छोड़ा उसे जब,
कैसे बताऊं किस हाल में?
थी रक्त से लथपथ बालिका,
आंख भर न जिसने जग देखा.
इन्द्रियों से अन्भिग्य तन का,
बन चुका था लोथ मांस का.
तड़प-तड़प जब प्राण निकले,
अश्रुओं ने लिख दी थी कथा.
थे नयन चकित, पथरा चले,
अधरों ने पढ़ी थी चिर व्यथा.
उन चकित नयनों से बही जब,
तड़प- तड़प कर दारुण व्यथा,
काश पढ़ पाता वो कामुक,
बिलखती व्यथा की आत्मकथा.
– नीरजा द्विवेदी
नारी की द्रोही नारी है
देखो दहेज की बलिवेदी पर,
धू-धू जलती वह नारी है.
जो पीड़ित करती वह नारी है,
जो पीड़ित होती वह नारी है.
जो सास बनी वह नारी है,
जो बहू बनी वह नारी है.
नारी के हाथों ही देखो,
प्राण त्यागती वह नारी है.
आज बनी है मां पिशाचिनी,
भ्रूणों की हत्यारी नारी है.
जो शोषण करती वह नारी है,
जो शोषित होती वह नारी है.
दुर्दैव! भारतीय समाज में,
नारी की द्रोही नारी ही है.
-नीरजा द्विवेदी
एक स्लम की व्यंग्योक्ति
किसी महानगर में प्रवेश करती
रेलगाड़ी के डिब्बे से निहारते हुए
अथवा
उतरते जहाज़ से नीचे झांकते हुए
आप ने मुझे देखा होगा
भंवें सिकोड़ी होंगी
नाक बंद की होगी
और
पास में बैठी पत्नी या मित्र से
सहानुभूति के स्वर में कहा होगा
कैसे जीते हैं इस स्लम में लोग?
फिर कुछ राजनीतिग्यों, कुछ नौकरशाहों पर
अपने मन की भड़ास निकालकर
किसी दुःस्वप्न की तरह भूल गये होंगे मुझे
और प्रारम्भ कर दी होगी
उद्देश्यहीन वार्ता
देश की ग़रीबी एवं भ्रष्टाचार पर.
पर क्या कभी आप ने जानने का प्रयत्न किया
कि मैं
क्या हूं, क्यों हूं और किसके लिये हूं?
क्यों बसा हूं मैं नगर के गंदे नाले के किनारे?
क्यों प्रत्येक तीन गुणे तीन मीटर के क्षेत्रफल में
बना है एक झोपड़ा मुझ पर?
सर्कंडों की दीवालों पर रखी है एक तिरपाल,
जो बीरबल के चिराग़ की तरह,
केवल मानसिक सांत्वना देती है
वर्षा, शीत या सांप से सुरक्षा की.
क्यों रहते है प्रत्येक नौ वर्गमीटर के झोंपड़े में
नौ प्राणी
कुत्तों और पिल्लों की तरह,
और गाय भैंस भी जिस पानी को सूंघकर
नथुने फैलाकर आगे बढ़ जाते हैं
ये कपड़े धोते और नहाते हैं उसी में.
मैं जानता हूं कि तुम मुझे
महानगर की सुंदरता में बदनुमा दाग़ समझकर
स्वर्गलोक के बीच श्मशान मानकर
भुला देना चाहते हो
और अपने भावलोक से
मिटा देना चाहते हो मेरा अस्तित्व.
पर चाहे तुम्हारी प्रगति ने
या तुम्हारी स्वार्थी संचयी प्रवृत्ति ने
छोड़ा है मेरे लिये एक छोटा सा भूखंड,
फिर भी मेरे प्रत्येक वर्गमीटर में
बसता है एक प्राणी.
क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर से ही
तुम्हारे सम बना है उसका शरीर.
वह शरीर जो बचपन से ही बीनने लगता है
गंदे ढेरों में कुछ रद्दी टुकड़े
जो नित्य क्रिया हेतु
बैठता है सड़क के किनारे
जो चलाता है रिक्शा और ढोता है बोझा
अथवा तुम्हारे घरों में लगाता है पोंछा.
नहीं तो पेट भरने हेतु
तरह तरह के नाटक कर मांगता है भीख
या स्वयं को बेचता है तुम्हें कुछ टकों के लिये.
कितनी बार सोचा है तुमने
तुम्हारी प्रगति ने, तुम्हारी सभ्यता ने
कि मेरे इन प्राणियों के शरीरों में भी
बसती है एक आत्मा.
इन्हें भी शीत, ग्रीष्म व बर्षा
सताती है तुम्हारी ही तरह.
भूख प्यास की इनकी भी तड़प
तुमसे कम नहीं है.
इन्हें भी लगती है चोट
इनका भी होता है क्लांत शरीर
इनका भी दुखता है मन
रोग क्लेश और मृत्यु से
भयभीत होते हैं ये तुम्हारी ही तरह.
और चांद पर उतरने की इनकी भी कामना
तुमसे कम नहीं,
इन्हें भी भाते हैं सुस्वादु भोजन
गद्देदार बिस्तर, टी. वी. और फ़र्नीचर.
इन्हें है भान कि
ये तुम्हारी बीस मंज़िली अट्टालिका
बनाने में अपना पसीना तो बहा सकते हैं
पर उसमें विश्राम नहीं कर सकते हैं.
पर यह तो न समझो
कि ये निःस्प्रह हैं, निर्लिप्त हैं, मृतप्राय हैं
और सुख पाने की इच्छा भी नहीं कर सकते हैं.
इन्हें भी सताता है काम,
आता है क्रोध
लगता है मोह
और कामना है मोक्ष की.
यदि यह बात याद रख सको
तो जाकर लिख देना
विधान भवन की दीवारों पर
न्यायालयों की चौखटों पर
मंत्रियों के घरों पर
अफ़सरों की कालोनियों पर
और सेठों की कोठियों पर
कि
हर महानगर के बाहर एक स्लम है
जो मृतकों का श्मशान नहीं है
वरन उसी में रहने वाले लोगों ने ही
बनायी हैं तुम्हारी
कालोनियां कोठियां और महल.
क्या तुम उन्हें एक आउटहाउस भी नहीं दी सकते हो?
क्या सचमुच तुम उनका
कीड़ों मकड़ों की तरह जीना ही उचित समझते हो?
क्या इस कृतघ्नता पर नहीं धिक्कारती है
कभी तुम्हारी चेतना तुम्हें?
और क्या समाज के आभिजात्य समूह
अपने अपने में एक माफ़िया गिरोह हैं
जो आते हैं एक दिन
हूणों और चंगेज़ों की तरह,
लगाते जाते हैं आग
मेरे हर झोपड़े में
जला देते हैं
इन इन्सानों की जीवन भर की कमाई.
जो हैं कुछ चीथड़े, टोकरे और दो-चार बर्तन.
कुछ इन्सान भी जल-भुन जाते हैं
चीखते हैं
पुकारते हैं बहरे ईश्वर को
अंधे न्याय को
और भाग जाते हैं बसाने एक नया स्लम
जहां बहता होता है
किसी फ़ैक्टरी से निकलता
बदबू भरा एक नाला.
और फिर यही इन्सान खड़ी करते हैं
इसी स्थान पर
ऊंची सी अट्टालिकायें.
अपने ही लहू से
अपने ही उजाड़े घरों पर.
फिर भी नहीं पसीजता है तुम्हारा हृदय
तुम्हारी आत्मा;
रहते हो तुम इसके एक एयर-कन्डीशंड फ़्लैट में
ऊचाई से देखते हो मुझे
और बोलते हो पत्नी या मित्र से
जाने कैसे ये लोग इस स्लम में जीते हैं?
और पुनः प्रारम्भ कर देते हो
बढ़ती आबादी, ग़रीबी एवं भ्रष्टाचार पर एक अर्थहीन वार्ता.
– महेश चन्द्र द्विवेदी
असीम आरक्षण
भारत में शासन चाहे किसी दल का हो,
आरक्षण का क्षेत्र व सीमा बढ़ाये जाते हैं;
श्रेष्टता व परिश्रम हैं यहां टके सेर बिकते,
आरक्षित भ्रष्ट-कनिष्ठ ज्येष्ठ बनाये जाते हैं;
ऐ चुनाव! कहां तक तेरा गुणगान करुं, देश
जाति-धर्म में बांटकर वोट कमाये जाते हैं.
भ्रष्ट नेता और अफ़सर सीना तानकर चलें,
सत्यनिष्ठ अफ़सर सब मुंह छिपाये जाते हैं;
पेट हैं जिन लोगों के फटने तक भरे हुए,
ऐसे अफ़सर ग़रीबों का गेंहूं खाये जाते हैं;
ऐ आरक्षण! धन्य है तू और तेरा जातिवाद,
घोटालेबाज़ नेता तेरे कारण जिताये जाते हैं।
-महेश चन्द्र द्विवेदी
सीमा
मेरे देश के
पहाण और धरती
आज भी जैसे
गरीब की लुगाई
खंगाल रहे, रौंद रहे
आते जाते हक जताते
बुरी नजर से देख रहे लोग
और यह सब सहती ,
आग-पानी के सहारे
कोप जताती,
अस्तित्व, उर्वरता…
अपना हरियाला संतुलन
जैसे-तैसे बचाती
जिए जा रही है
माना सीमा नहीं इसकी
सहनशक्ति और धैर्य की
परन्तु हमारा प्रण और संकल्प
समवेत है एक ही स्वर
आत्म गौरव से भरपूर
रक्षा करेंगे मां की
स्वाभिमान और ईमान की
सदियों से चली आती
विश्व बन्धुत्व की धरोहर
और अनूठी हमारी
भारतीय पहचान की।
-शैल अग्रवाल
सोने की चिड़िया
परदेश में देश ढूँढती
भटकी सालों साल
अपना देश जो विदेश बना
आए ना अबतो मुझे पहचान
वक्त की मांग यह
या स्वार्थ का चोला
रश्मिरथी तुम कहाँ छुपे हो
तोड़ो भ्रम आकर मेरा
पराधीन सपनेहु सुख नाही
कहगए ज्ञानी ध्यानी
पर स्वाधीनता ताज जिम्मेदारी का
बात ना हमने यह जानी
स्वाधीन यह सिंहासन
फिर वही त्याग और हिम्मत मांगता
न्याय और बलिदान मांगता
देता जितना उतना ही अनुराग मांगता
संयम और विवेक को
ढूँढ रही हूँ देश के कोने कोने
अत्याचारी यहाँ पर मौज उड़ाते
भरभर घूस के दौने
रोज खबर है व्यभिचार की
यह तो मेरा देश नहीं
जिसके लिए दीवानों ने
स्वप्न सँजोए,शीश कटाए
कर्मवीर हों फिर युवा हमारे
भूलें ना अपने कर्तव्य सारे
सोचें और चाहें कुछ ऐसा
देश मेरा फिर गौरवमय होजाए
वही रामराज्य हो फिरसे
भूखा-नंगा कोई नहीं यहाँ पर
इतना खाना हो घर-घर में कि
देश छोड़कर बाहर ना जाएँ
गौतम बुद्ध का ज्ञान हो यहाँ
राम-सा संयम और त्याग हो यहाँ
भ्रष्ट शाषक और नेता के हाथ
न अब कोई सिंहासन हो यहाँ
अन्याय नहीं बस न्याय ही न्याय
फिर बिगुल बजे संतोष और शांति का
दिवा स्वप्न ही सही, एकबार फिर
देश मेरा सोने की चिड़िया कहलाए।
शैल अग्रवाल
“पंद्रह अगस्त” का दिन कहता, आज़ादी अभी अधूरी है
सपने सच होना बाकि है, रावी की शपथ न पूरी है|
जिनकी लाशों पर पग धर कर, आज़ादी भारत में आई
वे अब तक है खानाबदोश, गम की काली बदली छाई |
कलकत्ते के फुटपाथो पर, जो आंधी पानी सहते है
उनसे पूछो, “15 अगस्त के बारे में क्या कहते है”||
भूखों को गोली, नंगों को हथियार पहनाये जाते है
सूखे कंठो से जेहादी नारे लगवाये जाते है|
लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया
पख्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन गुलामी का साया |
बस इसलिए तो कहता हूँ, आज़ादी अभी अधूरी है
कैसे उल्लास मनाऊ मै, थोड़े दिन की मजबूरी है|
दिन दूर नही खंडित भारत को, पुन अखंड बनाएंगे
गिलगित से गारो पर्वत तक, आज़ादी पर्व मनाएंगे |
उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसे, बलिदान करे,
जो पाया उसमें खो न जाये, जो खोया उसका ध्यान करें||
अटल बिहारी बाजपेयी
‘भारत के गौरव-दीप,
जाग्रति के नव स्वर,
है नमन तुम्हें ओ राष्ट्र ध्वजा उन्नत भास्कर.
सागर की लहराती लहरों के नर्तन पर,
तुम अडिग हिमालय से ,अखंड एकता -शिखर.
जन-मन की आशाओं के कोमल भाव सुमन,
तुमने ही दिया विश्व को नव जीवन-दर्शन
जो तीन रंग में लहराता वैभव तेरा,
है स्नेह सुधा सिंचित भारत की पुण्य धरा.
अभिमान शहीदों की बलिदानी गाथा. ,
केशर रंजित तव, उन्नत करते हो माथा.
लहराती हरियाली खेतों की सीमा पर,
गुन गुन गाती समृद्धि, शक्ति के गीत प्रखर.
वह सत्य अहिंसा प्रतिबिंबित तेरे पट पर,
तुम शांति दूत ,सादगी, प्रेम के जीवित स्वर,
इतिहास, सभ्यता का करते हो अभिनन्दन,
है चक्र सुदर्शन करता सबका दिग्दर्शन.
है गूंज रहा सब और समीरण के रथ पर,
जन-गण-मन अधिनायक जय हे!” दीपित स्वर.
तुम अमर,समय के पथ पर, तेरा ही वंदन,
हे क्रांति!,तव अभिनन्दन, चिर अभिनन्दन.
—पद्मा मिश्रा
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