पिछले 12-13 साल में भारत बदला है और तेजी से बदल रहा है। कई परिवर्अतन और कई नीतियाँ देश के सुधार को मद्दे नजर रखकर सामने आई हैं और कभी सफल तो कभी असफल या परिणाम हीन भी रही हैं।
अद्भुत नजारा था वह दैनिक खबरों का-कहीं गंगा की लहरों पर हजार और पांच सौ के नोट बह रहे थे तो कहीं खेतों और सड़कों और चौराहों पर खुले आम जलाए जा रहे थे और देश के प्रधानमंत्री हंस-हंसकर जनता को आश्वस्त कर रहे थे कि जल्दी ही सारा काला धन बाहर आ जाएगा और देश भृष्टाचार से मुक्त हो जाएगा। । क्या आम जनता, क्या राजनेता सबके पास अचानक बातों का, कहानी किस्सों का अकूत खजाना था। कैसे कैसे लोग सोने की सिल्लियों और हीरे जवाहरात में अपना काला धन खपा रहे थे, देखकर एक गरीब नहीं , तिकड़मी और भृष्ट भारत ही सामने आ रहा था। कहीं दामाद के हाथ पर क्रेडिट कार्ड रखकर बेटी की शादी हुई तो किसी नेता ने 500 करोड़ रुपए खर्च किए, जी हाँ पांच सौ करोड़। जिसका जैसे बस चलता इसमें भी लूटपाट ही चल रही थी। कहीं बैंक मैनेजर घूस में कमीशन ले रहे थे तो कहीं एजेंट। सुनते हैं दिल्ली और मुंबई के कुछ ज्वालर्स ने तो एक ही रात में अरबों का लेन देन कर डाला।
आँखों का मन से भी उतना ही गहरा रिश्ता है जितना कि बुद्धि से। द्वारपाल हैं ये । सब जानती-और समझती हैं, तभी तो बात बात पे हंसती और रोती हैं।
दुर्भाग्य ही था कि एक कठिन समय से गुजरते, प्रतिबद्ध कहूँ या पंक्तिबद्ध भारत को पहले दिन ही ( 10 नवंबर ) को देखने जा पहुंचीं। एक दो दिन नहीं, फिर तो पूरे चार हफ्ते देखा इन्होंने वह असमंजस पूर्ण भारत का नजारा, मानो सुख को तलाशता बीहड़ जंगल में जा फंसे बंजारा।
बहुत उम्मीद और उत्साह के साथ चले थे ब्रिटेन से अपनी वार्षिक छुट्टियाँ मनाने पर वहाँ तो चारो तरफ उलझनें ही उलझनें थीं, प्रश्न ही प्रश्न थे और समाधान चन्द या नगण्य । रेस्टोरैंन्ट और यात्राओं के दौरान एक कप चाय भी पीना समस्या बन चुका था क्योंकि बड़ी मुश्किल से ही वे पर्स में पड़े चन्द 2000 का नोट भुन पाते, जिन्हें हम जैसे तैसे बैंक से तो ले आए थे। रेजगारी के जुटते ही लोग इतने दयनीय होकर मांगते कि हमारे पर्स में अंततः वही हजार या पांच सौ के नोट ही रह जाते। पर यह तो वर्ष का वह वक्त था जब खुशियों के छलकते जामों के साथ पुराने का लेखा जोखा लिया जाता है , और नए की शुरुवात का संकल्प। उत्साह और उमंग रहती है चारो तरफ। तो क्या यह खुशियाँ मनाने की परंपरा भी अब बस निभाने के लिए ही निभाई जाएगी, एक रस्म की तरह…रेत में सिर छुपाए शुतुरमुर्ग के स्वप्न-सी बस्स !
देश में एक नई शुरुवात तो हुई पर संकल्प व विचार सब आपस में ही गुत्थम गुत्थ ही लगे। भारत का यह अपाहिज करता नोटबंदी का फैसला जाने किसके हित में है…कैशलेस भारत के परिणामों का अनुमान तो आने वाला वक्त ही बता पाएगा। आशय चाहे कितने ही नेक हों अभी तो पूरा भारत ही एक कठिन और विवादग्रस्त फैसले के परिणाम को ही भुगतता दिखा, विशेषतः छोटे और मध्यमवर्गीय व्यवसायी व किसान आदि जिनका कैश फ्लो पूर्णतः अवरुद्ध हो चुका था।
इस नई नीति के दबाव में अमीर गरीब सब हड़बड़ाए हुए दिखे। टेलिफोन की घंटियाँ चुप होने का नाम नहीं लेतीं। सबको अपने नोट खपाने हैं। गरीब रिश्तेदार तो विशेषतः मानसिक तनाव में हैं । उनके आदर्श, संकल्प और ईमान, सब परीक्षा के कड़े वक्त से गुजर रहे हैं। जिनके खातों में हजार पांचसौ मुश्किल से रहते थे उन्हें लाखों का प्रलोभन दिया जा रहा है, लाख वाले तो आराम से करोड़ों बना सकते हैं। कई कई विनोद भरी या दुखभरी कहानियाँ जमी भाप सी चारो तरफ हैं और दूरदृष्टि को अवरुद्ध कर रही हैं। सबके मन में एक अबूझ और अशुभ भय ही अधिक नजर आया- – कहाँ जाकर अंत है इस हड़बड़ी पूर्ण नीति का ? कहीं राजनेताओं ने प्रगति उन्मुख देश के पैरों में गोली तो नहीं मार ली और आगे बढ़ते भारत को जकड़कर पंक्तियों में बेबस स्थिर तो नहीं कर दिया! आर्थिक विकास की जगह कई वर्ष पीछे तो नहीं धकेल दिया देश को ! कहीं इक्कीसवीं सदी का प्रगति उन्मुख भारत वाकई में वापस अंगूठा छाप भारत ही तो नहीं रह जाएगा…कहीं यह भी एक तरह की जनता के धन और विश्वास की चोरी ही तो नहीं, वह भी उसकी अपनी ही बहुमत से चुनी सरकार द्वारा! …
हम जो मात्र मौज-मस्ती और मिलने-जुलने की यात्रा पर भारत में थे पूरी तरह से इस नई व्यवस्था की उलझनमें में फंस चुके थे। हमारे जैसे जो भारत को , यहाँ के लोगों को इसके चरित्र को भलीभांति जानते थे , जिसके इतने नाते रिश्तेदार थे, जब परेशान हो सकते हैं तो आम पर्यटकों का क्या हाल हो रहा होगा, सोचना भी कष्टप्रद था। चारो तरफ ही अवसरवादी बिचौलियों की भरमार थी जो हर समस्या-समाधान के चूल्हे पर रोटियाँ सेकने के लिए बेहद उतावले और उत्सुक थे और उनकी गिद्ध दृष्टि पर्यटकों के पौंड और डौलर पर ही लगी रहती थीं।
आम भारतीयों के लिए तो परिस्थिति वाकई में विषम और कष्टकारक थी फिर भी सब स्वीकारते कतार बद्ध थे क्योंकि लोग समझ रहे थे कि फैसला देश के हित में है। देर-सबेर हमने भी इसे स्वीकारा और व्यवस्था में रम गए। हाथ में थोड़ा कम कैश रहे, शौपिंग और मौज-मस्ती थोड़ी कम कर पाएँ , तो भी चलेगा पर दुख उनके लिए सोचकर हो रहा था जिनकी रोटी रोजी रोज-रोज की तनख्वाह या दिहाड़ी से ही चलती है। एक दिन कमाई ना हो तो परिवार में सब भूखे ही सोते हैं। खबरों की मानें तो लाचारी के रहते कुछ हताश निराशों ने तो आत्महत्या तक कर ली और कई निर्बल और वृद्धों ने नोट बदलने की लाइन में लगे-लगे ही दम तोड़ दिया।
धीरे धीरे देश के सब्र का बांध टूटता-सा दिख रहा था। क्योंकि रोज चार हजार बदलने और निकालने वालों की लाइनें लम्बी पर लम्बी होती जा रही थीं और कैश मशीन की तो छोड़ें, बैंकों तक में पैसे नहीं थे देने को, या गायब कर दिए गए थे भृष्ट अधिकारियों द्वारा, मानो जबर्दस्ती ही पूरे देश को एक असह्य भूखे संयम में बांधने की कोशिश की जा रही हो। हाँ चोरी छुपे 35 और चालीस प्रतिशत के कमीशन के रेट पर पुराने नोट धड़ल्ले से बदले जा रहे थे यानी कि जिनके पास बोरियाँ भर भरकर नोट हैं , उन्हें न तो नोटबन्दी के पहले परेशानी थी और ना अब।
सुना तो यह भी था कि यह सब इसलिए किया गया था कि कैशलेस भारत डिजिटल हो कर आगे बढ़े और कालाधन देश की व्यवस्था से हट जाए। मित्र तेजेन्द्र शर्मा की सोशल मीडिया की फेसबुक वॉल पर पढ़ा कि मोदी सरकार के इस फैसले का असर पड़ोसी देशों पर भी पड़ रहा है-
‘ भारत में नोटबन्दी का असर अलग अलग तबकों पर अलग अलग हुआ है। मगर इसका असर सीमा पार पाकिस्तान में भी महसूस किया जा रहा है।
पाकिस्तान के सबसे बड़े आलोचक तारेक फ़तह ने ट्विटर एक ट्वीट जारी किया है जिसमें उन्होंने दावा किया है कि भारत सरकार की नोटबन्दी की घोषणा का असर पाकिस्तान में भी हुआ है। वहां के नकली नोट बनाने वाले बादशाह और दाऊद इब्राहम के सिपहसालार जावेद खनानी ने आत्महत्या कर ली है। भारत में करोड़ों की संख्या में नकली नोट भेज कर खनानी आतंकवाद और नक्सलवाद को बढ़ावा देता था…’
तो क्या भारत सरकार का यह प्रयास देश के लिए एक बड़ा सुरक्षा कदम भी सिद्ध हो सकता है? साथ साथ यह भी सुनने और समझ में आता है कि भारत में इन लम्बी-लम्बी कतारों की वजह भी तो यही काला धन ही है जिसे गरीब और मजदूरों वाला तबका सौ पचास के लालच में लाइनों में लगकर चार चार हजार रुपए के रूप में अपने अपने मालिकों के लिए बदल रहा था। यही उनका रोज का धंधा और दैनिक वेतन रहा है इस कठिन समय में। आश्चर्य नहीं कि सब कुछ जान-समझकर शीघ्र ही सरकार जगी और कतार में खड़े व्यक्तिओं का पुनर्आगमन न हो इसलिए उनकी उँगलियों पर निशान लगाने शुरु कर दिए ।
अब जब जैसे तैसे इस कठिन परीक्षा के पचास दिन पूरे हो चुके हैं तो भारत में प्रसारित भीम एप की ताकत और सुचारुता पर ही अब देशवासियों की पूरी उम्मीदें टिकी हुई हैं।