साहित्यकार श्री अमृतलाल नागर जीः लावण्या शाह

जन्म : १७ अगस्त १९१६ / २३ फ़रवरी, १९९० सुप्रसिध्ध साहित्यकार श्री अमृतलाल नागर जी का जन्म सुसंस्कृत गुजराती परिवार में सं १७ अगस्त १९१६ को गोकुलपुरा, आगरा, उत्तर प्रदेश में इनकी ननिहाल में हुआ था। इनके पितामह पण्डित शिवराम नागर जी ई. सं १८९५ से लखनऊ आकर बस गए। इनके पिता पण्डित राजाराम नागर की मृत्यु के समय नागर जी कुल १९ वर्ष के थे।
शिक्षा : अमृतलाल नागर की विधिवत शिक्षा अर्थोपार्जन की विवशता के कारण हाईस्कूल तक ही हुई, किन्तु निरन्तर स्वाध्याय द्वारा इन्होंने साहित्य, इतिहास,पुराण , पुरातत्त्व, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि विषयों पर तथा हिन्दी, गुजराती, मराठी, बांग्ला एवं अंग्रेज़ी आदि भाषाओं पर अधिकार प्राप्त किया। अपने एक उपन्यास ‘ भूख ‘ की भूमिका में श्रध्धेय नागरजी लिखते हैं ~ भूमिका : आज से इकहत्तर वर्ष पहले सन् १८९९ -१९०० ई० यानी संवत्१९५९ – १९५६ वि० में राजस्थान के अकाल ने भी जनमानस को उसी तरह से झिंझोड़ा था जैसे सन्’४३ के बंग दुर्भिक्ष ने। इस दुर्भिक्ष ने जिस प्रकार अनेक साहित्यकों और कलाकारों की सृजनात्मक प्रतिभा को प्रभावित किया था उसी प्रकार राजस्थान का दुर्भिक्ष भी साहित्य पर अपनी गहरी छाप छोड़ गया है। उस समय भूख की लपटों से जलते हुए मारवाड़ियों के दल के दल एक ओर गुजरात और दूसरी ओर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नगरों में पहुँचे थे। कई बरस पहले गुजराती साहित्य में एक वरेण्य कवि, शायद स्व० दामोदरदास खुशालदास बोटादकर की एक पुरानी कविता पढ़ी थी जो करुण रस से ओत- प्रोत थी। सूखे अस्थिपंजर में पापी पेट का गड्ढा धंसाए पथराई आँखों वाले रिरियाते हुए मारवाड़ी का बड़ा ही मार्मिक चित्र उस कविता में अंकित हुआ है। सन ’४७ में आगरे में अपने छोटे नाना स्व० रामकृष्ण जी देव से मुझे उक्त अकाल से संबंधित एक लोक-कविता भी सुनने को मिली थी जिसकी कुछ पंक्तियां इस समय याद आ रही हैं
‘ आयो री जमाईड़ों धस्क्यों जीव कहा से लाऊ शक्कर घीव-
छप्पनिया अकाल फेर मती आइजो म्हारे मारवाड़ में।’
( १९४६ ) पँचु गोपाल मुखर्जी एक पाठशाला के निर्माण के बाद हेड मास्टरी करते हुआ, बँगाल की भूखमरी को जीते हैँ। जिसे पाठक उन्हीँ की नज़रोँ से देखता है। इस उपन्यास को आजतक, हिन्दी के खास दस्तावेज की तरह आलोचक व पाठक उतनी ही श्रध्धा से पढते हैँ जितना कि जब उसे पहली बार पढा गया होगा !

अमृत और विष
कन्नड “अमृत मट्टु विष” पी. अदेश्वर राव द्वारा लिखित कथा का हिन्दी अनुवाद – जिसे साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। किस्से कहानियाँ,लघु कथाएँ, नाटक, निबँध, आलोचना आदि लिखनेवाले हिन्दी के सुप्रसिध्ध साहित्यकार, जिन्हेँ भारत सरकार ने “पद्म भूषण” पुरस्कार से नवाज़ा है तथा सोवियत लेन्ड अवार्ड सन १९७० मेँ मेरे चाचाजी को मिला है। उस वक्त चाचाजी प्ररशिया के प्रवास से लौट कर एसए तब बम्बई भी रुके थे। वे, पापाजी से मिलने आये थे और रशिया से एक बहुमूल्य रत्न ” ऐलेक्ज़ान्ड्राइट” लाये थे । यह एक बेहद सुन्दर रत्न होता है जो सूर्य की किरणों में अपनी आभा व रंग बदलता रहता है।मेरे चाचाजी को पापाजी के विस्तृत रत्न व ग्रहोँ के ज्ञान के बारे मेँ पता था। आज, वह “ऐलेक्ज़ान्ड्राइट ” रत्न, मेरी बड़ी बहन स्व.वासवी मोदी के पुत्र मौलिक के पास है !
मेरे चाचाजी भी ऐसे ही बहुमूल्य “रत्न ” थे !
हिन्दी साहित्य जगत के असाधारण प्रतिभाशाली साहित्यकार थे वे ! आदरणीया चाचीजी “प्रतिभा जी” के पतिदेव ! लखनऊ शहर के गौरव स्तँभ !अनगिनत उपन्यास,कथा कहानियाँ, संस्मरण, बाल वार्ताएं, फ़िल्मी पटकथाएं, फिल्म के संवाद क्या कुछ उनकी कलम ने नहीं लिखा ! अरे ,कविताएँ भी लिखा करते थे मेरे परम आदरणीय नागर जी चाचा जी !

आपको अचरज हो रहा होगा पर मेरी बात सोलहों आने सच है! अपने मित्र ज्ञानचन्द्र जैन जी को वे बंबई और पुणे प्रवास के दौरान नियमित पत्र लिखा करते थे और पुस्तक ‘ कथा शेष ‘ में ज्ञानचंद जैन जी ने उनकी एक पत्र रूपी कविता प्रकाशित की है। नवलकिशोर प्रेस के प्रकाशन विभाग अथवा ‘ माधुरी ‘ में प्रवेश न मिल पाने पर श्री अमृतलाल नागर जी ने
अपनी मनोदशा इस तरह अभिव्यक्त करते हुए एक पत्र – कविता रूप में लिखा था.. ‘
” ज्ञान मेरे, खत तुम्हें मैं लिख रहा हूँ
जब है खता औसान मेरे
माधुरी की धुरी टूटी
मैं गिरा अनजान
एकदम कह दिया प्रोपराईटर ने
रख नहीं सकते तुम्हें हम
वह खर्च घटाते अपना
सूखते हैं प्राण मेरे ! ‘
-अमृतलाल नागर
अब, अगर आप सोच रहें हैं कि हिन्दी साहित्य जगत के विलक्षण लेखक, एक असाधारण प्रतिभाशाली साहित्यकार, श्री अमृतलाल नागर जी से भला,
मेरा परिचय कब हुआ होगा ? तब उत्तर में, मैं , यही कहूँगी कि, जब से मैंने होश सम्भाला था तभी से उन्हें प्रणाम करना सीख लिया था!
मेरे नन्हे से जीवन का एकमात्र सौभाग्य यही है कि मैं लावण्या, पंडित नरेंद्र शर्मा जैसे संत कवि की पुत्री बन कर इस धरा पर आयी! पूज्य पापा जी और मेरी अम्मा सुशीला की पवित्र छत्र छाया में पल कर बड़े होने का सौभाग्य मुझे मिला!
पापा जी के बम्बई आगमन के बाद कवि शिरोमणि श्रध्धेय सुमित्रानंदन पन्त जी दादा जी भी उनके संग रहने के लिए सन १९३६ से बम्बई आ गये थे। पापाजी और पन्त जी दादा जी तैकलवाडी माटुंगा उपनगर में शिवाजी पार्क उद्यान के करीब पहले मंजिल के एक फ्लैट में कई वर्ष साथ रहे। बंबई में हिन्दी फिल्म निर्माण संस्थाएं विकसित हो रहीं थीं और साहित्यकार श्री अमृतलाल नागर जी, श्री भगवती चरण वर्मा इत्यादी भी बंबई में रहते हुए फिल्मों के लिए कार्य कर रहे थे। उस समय भारत स्वतन्त्र नहीं हुआ था। परन्तु अंग्रेज़ी सरकार के शोषणकारी अध्याय का अंतिम अध्याय लिखा जा रहा था।
चित्रलेखा उपन्यास के सर्जक श्री भगवती चरण वर्मा जी, श्री अमृतलाल नागर जी, श्रध्धेय सुमित्रानंदन पन्त जी तथा नरेंद्र शर्मा की साहित्यिक , सांस्कृतिक मित्रता भरे बंबई शहर में गुजरे इन दिनों के क्या कहने ! कुछ समय के लिए मद्रास में भी ये लोग साथ साथ यात्रा पर गये थे। श्री अरविन्द आश्रम पोंडिचेरी तक आदरणीय नागरजी ने उस दौरान यात्रा की थी। फलस्वरूप इन सभी का आपस में सम्बन्ध और अधिक घनिष्ट हो गया ।
बंबई के प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूजियम के क्यूरेटर , भारतीय पुरातत्व और संस्कृति के उदभट विद्वान भार्तेन्दु हरीश्चंद्र के प्रपौत्र , अपने व्यक्तित्व में बनारसी मौज – मस्ती के साथ विद्वत्ता का घुला मिला रूप लिए कला मर्मज्ञ और साहित्यिक मनीषी, डा.मोतीचंद्र जी भी बंबई के माटुंगा उपनगर में रहते थे जहां भगवती बाबू उनके पडौसी थे और अमृतलाल नागर, भगवती बाबू, मोतीचंद्र जी , नरेंद्र शर्मा जी की गोष्ठीयां कई बार प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूजियम से सटे हुए एक बंगले पर जमती उस वक्त वातावरण अत्यंत साहित्यमय, कलामय व संस्कृतिनिष्ठ हो उठता !
आदरणीय पन्त जी दादा जी के आग्रह से ही एक गुजराती परिवार की कन्या सुशीला से , प्रसिध्ध गीतकार नरेंद्र शर्मा का विवाह १२ मई १९४७ के शुभ दिन हुआ था।
उसी वर्ष पराधीन भारत माता, देश भक्त भारतीयों के अथक प्रयास से और सत्याग्रह आन्दोलन के अनूठे प्रयास से सफल हो , गुलामी की जंजीरों से आज़ाद हुईं थीं!
पूज्य अमृत लाल नागर चाचाजी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि,’ जिस दिन भारत स्वतन्त्र हुआ वे और उनके परम सखा कवि गीतकार नरेंद्र शर्मा, ( मेरे पूज्य पापाजी ) बाहों में बाहें डाले, बंबई की सडकों पर, बिना थके, प्रसन्न मन से, पैदल, बड़ी देर तक घूमे थे। उसी पावन क्षण, उन्होंने प्रण लिया था कि अब से वे अपना समय, साहित्य सेवा, या हिन्दी लेखन को समर्पित करेंगें। चाहे जो बाधा आये वे इस निर्णय से नहीं डीगेंगे !’
तब तक नागरजी चाचा जी फिल्मों के लेखन से ऊब चुके थे। जहां ४ या ५ फिल्मों के लिए संवाद , पटकथा लेखन करते हुए पैसा तो मिल जाता था पर मन की शांति और चैन छीन गया था। एक जन्मजात साहित्यकार और नित नया सृजन करनेवाले रचनाकार के लिए स्वान्त: सुखाय लेखन ईश्वर आराधना से कम नहीं होता। इस पवित्र धारा प्रवाह से विमुख होकर वे क्षुब्ध थे और एकमात्र यही मार्ग उन्होंने आने वाले अपने समय के लिए निश्चित करने का संकल्प किया था!
हमारी आँखें ना जाने क्या क्या दृश्य देखतीं रहतीं हैं और मन ना जाने कितनी सारी स्मृतियाँ संजोये रखता है! डायरी में बंद पन्नों की तरह! अगर हम इन पन्नों को एक बार फिर खोल कर नजरें घुमाएं, तब बीता हुआ अतीत, फिर सजीवन होकर स्पष्ट हो जाता है।
यही हम इंसानों के जीवन का रोमांचकारी रहस्य है और जीवन वृन्तात का कुल जमा उधार है।
आप इस दृश्य से एकाकार हो लें तब आपको मेरे शैशव की कुछ अनमोल स्मृतियों के दृश्य जो अभी मेरे अंतर्मन में उभर रहे हैं उनसे परिचित करवाऊं !
मेरे शैशव के दिनों की याद, मेरे साथ है जहां चाचा जी , जो अक्सर बम्बई आया करते थे वे भी यादों के कोलाज में सजीव दीखलाई देते हैं।
कई बार नागर जी चाचाजी बंबई की उमस भरी गर्मियों के ताप को सहर्ष स्वीकारते हुए उनके बंबई के आवास ‘ सेरा विला ‘ से पैदल चलते हुए पापा जी के घर तक आ जाया करते थे।
मेरे पापा जी पंडित नरेंद्र शर्मा का घर, खार उपनगर में १९ वें रास्ते पर स्थित है। खार उपनगर का छोटा सा , एक स्टेशन भी है जहां बंबई की लोकल ट्रेन रूकती है। वहीं से चल कर, रेलवे स्टेशन से कुछ दूरी पर, श्रीमान मोतीलाल बनारसी जी की मिठाई की दूकान ‘बनारसी स्वीट मार्ट ‘ भी है। इनके रसगुल्ले और समोसे बड़े प्रसिध्ध हैं! हाँ याद आया, रबडी भी! इसी दूकान से अक्सर नागर जी चाचाजी कोइ रसीली मिठाई भी मिट्टी की हँड़िया में भरवा कर कि जिस हांडी पर एक हरा पात मुख को ढांके रहता था, हाथों में उठाये, हमारे घर आ पहुँचते थे। पसीने से तरबतर, भीषण गर्मी में चल कर आते आते , उनका श्वेत कुर्ता भीग जाता था ! उन्हें देखते ही हम सब ‘ नमस्ते चाचा जी ‘ कहते और वे ‘ खुश रहो ‘ कहते हुए आशीर्वाद देते। घर के भीतर आकर स्वागत कक्ष में पंखा खोल देने पर, चाचा जी आराम से बैठ जाते और उनके चेहरे पर मुस्कान खिल उठती! सारा परिश्रम तेज घुमते पंखे की हवा के साथ हवा हो जाता! रह जाता सिर्फ उनका वात्सल्य और सच्चा स्नेह!
मेरी अम्मा ने ही हम से कहा था ‘ अरे , रे रे.. देखो तो, मीलों पैदल चल कर आये हैं नागर जी! पर बस से या टेक्सी से नहीं आये और अपने मित्र के लिए मिठाई लेते आये। कैसा निश्छल स्नेह करते हैं। ‘
मेरी अम्मा श्रीमती सुशीला नरेंद्र शर्मा और पापा जी किसी अभिनन्दन समारोह में शामिल होने के लिए एक बार लखनऊ गये थे। अम्मा ने लौटने के बाद हमे बतलाया था कि उन्हें इतना स्नेह मिला था सौ. प्रतिभा जी व पूज्य नागर जी चाचा जी के घर के अम्मा,पापा जी अभिभूत हो उठे थे। उनके आतिथ्य का बखान करते मेरी अम्मा थकतीं न थीं! वहां ( लखनऊ ) उस समय, आम का मौसम था और एक एक आम अपने हाथों से घोल कर स्नेह पूर्वक, आग्रह करते हुए नागर दम्पति ने उन्हें आम खिलाये थे। यह भी समझने की बात है कि आम खाने से भी अधिक प्रसन्नता, उन चारों को एक दुसरे के साथ मिलकर हुई होगी! उन चारों में, प्रगाढ़ स्नेह था। चूंकि जब मेरी अम्मा , कुमारी सुशीला गोदीवाला का विधिवत पाणिग्रहण संस्कार हुआ था तब सारा कार्य भार भी नागर जी चाचा जी और प्रतिभा जी ने ही अपने जिम्मे सहर्ष स्वीकार कर लिया था। मेरी अम्मा सुशीला अत्यंत रूपवती थीं और गुजराती कन्या सुशीला गोदीवाला को दुल्हन के भेस में देख सभी प्रसन्न थे। प्रतिभा जी ने नव परिणीता नव वधु को गृह प्रवेश करवाया तब सुकंठी सुरैया जी और दक्षिण की गान कोकिला एम. एस. सुब्भालक्ष्मी जी ने मंगल गीत गाये थे! इस मित्रों से घिरे परिवार के बुजुर्ग थे हिन्दी काव्य जगत के जगमगाते नक्षत्र कविवर श्री सुमित्रा नंदन पन्त जी !
हिन्दी साहित्य, बंबई की फ़िल्म नगरी के गणमान्य प्रतिनिधि जैसे चेतनानन्द जी, दिलीप कुमार, अशोक कुमार जैसे कई महानुभाव इस शानदार बरात में शामिल हुए थे। श्रीयुत सदाशिवम,सुब्भालक्ष्मी जी की नीली शेवरलेट गाडी को सुफेद फूलों से सजाया गया। उसी फूलों से सजी कार में सवार होकर शर्मा दम्पति अपने घर तक आये।
बहुत बरसों बाद जब हम बड़े हुए, अम्मा ने आगे ये भी बतलाया था कि प्रतिभा जी ने उस रात उन्हें फूलों के घाघरा ओढ़नी पहनाकर उन्हें सजाया था। तो पन्त जी दादा जी ने कहा था कि ‘ मैं सुशीला जी को एक बार देखना चाहता हूँ ‘ और मुंह दीखाई में आशीर्वाद देते हुए कहा था ‘ शायद वनकन्या शकुन्तला भी ऐसी ही सुन्दर रहीं होंगीं ! ‘
बरसों बीत गये ! हम चार भाई बहन बड़ी वासवी, मैं लावण्या, मंझली, छोटी बांधवी और हमारा अनुज परितोष बड़े हुए। हम वयस्क हो गये तब अम्मा ने हमे यह अतीत के भावभीने संस्मरण सुनाये थे। सुनाते वक्त, अम्मा, अपने युवावस्था के उन सुनहरे पलों में खो सी जातीं थीं।
अम्मा और पापा जी की शीतल छत्रछाया का एक आश्रय स्थान , हमारा घर, जो १९ वे रस्ते पे आज भी खड़ा हुआ है , उस घर के संग, अनेक स्वर्णिम स्मृतियाँ जुडी हुईं हैं और जब कभी नागर जी चाचा जी हमारे यहाँ पधारे तब उन्हें , पापा जी के घर के स्वागत कक्ष में बिछे मैरून रंग के पर्शियन कारपेट पर , पालथी मारे बैठे हुए, आज भी मैं मन की आँखों से देख पाती हूँ। यह पर्शियन कारपेट युसूफ खान माने दिलीप कुमार जी तोहफे में अम्मा पापा जी की शादी पर दे गये थे। अपनी कार में वे , कई सारे कारपेट लाये थे और पापा जी ने अम्मा से इशारा कर मना किया था परन्तु जब युसूफ अंकल ने बहोत आग्रह किया तब अम्मा ने जो सबसे छोटी कारपेट थी वही युसूफ अंकल के अनुनय के बाद ले ली थी।
श्रध्धेय नागर जी चाचा जी की उन्मुक्त , निर्दोष हंसी भी सुनाई देती है और बातों का सिलसिला , जो परम – स्नेही सखाओं के बीच जारी था, जिसे समझने की उमर तो मेरी कदापि न थी पर यादें हैं जो एक स्वर्णिम आभा में रँगी हुईं आज भी चटख रंग लिए, दमक रहीं हैं। बीते हुए पल , आज मुझे जादुभरे क्षणों से जान पड़ते हैं।
प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दीरा गांधी के लिए उनका प्यार भरा संबोधन भी स्मृति की शाखों पे महकते फूल सा आज भी टिका हुआ है और चाचा जी का स्वर सुनाई पड़ता है,’ हमारी बिटिया सरकार ‘ … ऐसा घना अपनत्व, कोमल ममता से गूंथे पलछिन, मेरे जीवन के अनमोल धरोहर रूपी वरदान की तरह मेरे साथ हैं। आज वे पल , मेरे ह्रदय में पवित्रता बिखेरते हुए सुरक्षित हैं। काश मैं,अपने प्यारे नागर जी चाचा जी की विद्वत्ता या साहित्यिक अवदान के बारे में आप से कुछ कह पाती! परन्तु ये कार्य और ज्ञानी जन के हवाले करती हूँ ! उनके साहित्य पर, उनके अवदान पर, सांस्कृतिक मूल्यों वगैरह पर विद्वान लोग चर्चा करते रहेंगें इस बात का मुझे विशवास है। मेरे लिए तो उनकी और मेरे पापा जी की मित्रता, एक घर के सदस्यों सी घनिष्टता ही मुझे बरबस याद आती है। उनके भाई श्री रतन नागर जी अच्छे कलाकार थे और मेरी अम्मा भी हलदनकर इंस्टीटयूट से ४ साल चित्रकला सीखीं थी। श्री रतनलाल नागरजी श्री साउंड स्टूडियो में फोटोग्राफर थे और तीन दिनों की बीमारी में चल बसे थे। श्री रतन नागर जी का बनया हुआ एक चित्र ‘ अर्धनारीश्वर ‘ शायद आज भी पापा जी के घर के सामान में कहीं अवश्य होगा।
एक बार मद्रास यात्रा का एक रोचक किस्सा भी सुनाया था जिसे आप भी सुनें !
पापा जी और नागर जी एक मद्रासी सज्जन के घर , अतिथि बन कर पहुंचे थे। भिन्न प्रकार के खाद्यान्न परोसे गये थे जिनमे एक शायद नीम के पत्तों का पानी था! बेहद कडुवा और कसैला! तब चाचाजी और पापा जी , दोनों ने सोचा कि , पहले इसे ही पी कर समाप्त किया जाए फिर बाकी की बानगी खायेंगें। परन्तु जैसे ही वे कडवे पानी की कटोरी को पी लेते , उनकी कटोरी दुबारा भर दी जातीं! तब तो दोनों बहुत घबडाए और बंबई आने के बाद उस प्रसंग को याद कर काफी हंसी मजाक होता रहा।ये किस्सा भी मुझे याद है और पापा जी का कहना कि, ‘ बँधुवर
उस बार तो हम चीं बोल गये !’ आज भी चेहरे पे मुस्कराहट ला देता है।
हम बच्चों से हमारी स्कूल के बारे में, मित्रों के बारे में, हम कौन सी पुस्तक पढते हैं, हमारी पसंद,नापसंद इत्यादी के बारे में भी चाचा जी प्रश्न पूछते और हम से बहुत स्नेह पूर्वक बात करते उस वक्त हमे लगता जैसे हमारे परिवार के वे बड़े हैं, हमारे अपने हैं!
हाँ, एक बात बतला दूं, उनका लिखा उपन्यास ‘ सुहाग के नुपूर ‘ जिस दिन मैं ने पूरा पढ़ लिया था उस दिन से आज तक, वही मेरा सर्वकालिक- सर्व प्रिय उपन्यास है और मेरी ये भी दिली ख्वाहिश है कि मेरी बड़ी बहन पूज्य अचला दीदी इस उपन्यास की पटकथा लिखें और उस पे एक बढिया फिल्म बने। उनकी बडी सुपुत्री, डो. अचला नागर जी ने फिल्म “निकाह” की पटकथा लिखी है और ऋचा नागर ने अपने प्रिय “दद्दु” से प्रेरणा लेकर,’आओ बच्चोँ नाटक लिखेँ’ बाल नाट्य अकादमी संस्था स्थापित की है- लिंक http://www.tc.umn.edu/~ nagar/index.html
जिस तरह आज भी मन तो यही चाहता है कि मैं फिर लौट जाऊं उन बचपन की सुनहरी गलियों में, जहां मेरे पापा जी का घर उसी दिन की तरह हमारे आदरणीय पूज्य नागर जी चाचा जी, पन्त जी दादा जी जैसी विभूतियों से जगमगाता, दमकता मेरी स्मृतियों में झांकता रहता है। पर बीते दिन क्या कभी किसी के लौटे हैं ? हाँ, यादें रह जातीं हैं जिन्हें आज आप से साझा करने का सुअवसर मिला है जिसके लिए मैं कृतज्ञ हूँ!
मेरे शत शत प्रणाम एक सच्चे साहसी वीर, धीर साहित्य मनीषी को !
मेरा ढेर सारा प्यार मेरे पूज्य नागर जी चाचा जी को।

– लावण्या दीपक शाह

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