माह के कविः मुकेश कुमार सिन्हा

क्या रे,
अब आए तुम?
मेरे घर की बूढ़ी आवाज कौंधी
जैसे ही दाखिल हुआ, पुराने घर में

गाँव की सौंधी मिट्टी, उड़ती धूल
बड़ा सा कमरा, पुराने किवाड़
ठीक बीच में, बड़ा सा पुराना पलंग
सब शायद कर रहे थे इंतज़ार

लगा ऐसे जैसे
सब ठठा कर हंस पड़े, भींगी आंखो से
मुककु, आए न तुम
इंतज़ार था तुम्हारा

खुशियों से आंखे छलकती ही है
अंगना, बीच में बड़ा सा तुलसी चौरा (पिंडा)
जो मैया के मार से
देती थी, बचने का मौका
वो भी मुसकायी

चूल्हे के धुएँ से रसोई की
काली पड़ चुकी दीवारें
जिसने देखा था
मुझे व दूध रोटी की कटोरी
छमक कर हो गई सतरंगी

कमरे के सामने का ओसरा,
वहाँ लगी चौकी
यहाँ तक की घर के पीछे की बाड़ी
बारी में झाड व लहराती तरकारी
अमरूद, नींबू, नीम, खजूर के वो सारे पेड़
चहकते हुए खिलखिलाए

लगा, जैसे, वैसे ही चिल्लाये
जैसे खेलते थे बुढ़िया कबड्डी
और होता था मासूम कोलाहल
आखिर एक आम व्यक्ति भी
होता है खास, जब होता है घर में

खुद-ब-खुद कर रहा था अनुभव
नम हो रही थी आँखें, खिल रही थी स्मृतियाँ
मैंने भी मंद मंद मुसकाते हुए
इन बहुत अपने निर्जीव/सजीव से
मन ही मन कहा
ढेरों प्यार, और
भीगते आँखों से बस मुस्काया

बहुत दिनों बाद पहुंचा हूँ गाँव अपने….
जाने कितनी भूली बिसरी सुधियों की पोटली सहेजता..
अब ज़रा सा आगे ही रुकेगी बस
और, दूर दिखाई दे रहा है वो ढलान
चौक कहते थे सब ग्रामवासी
कूद के बस से उतरा और निगाहें खोजने लगीं
वो खपरैल जिसमें चलता था
“चित्रगुप्त पुस्तकालय”
कहाँ गया वो .?

कहाँ गयी वो लाईब्रेरी
जिसने हमें मानवता का पहला पाठ पढ़ाया
हमें मानव से इंसान बनाया था
बचपन के ढेरों अजब-गजब पल
खुशियां-दर्द-शोक, हार-जीत
सहेजा था इसके खंभे की ओट से झांकते हुए
धूम धूम धड़ाम धड़ाम
यादों के लश्कर दिमाग़ में अंधेरा कर गये
फिर स्मृति की मशाल लिये लौटा वही
जहाँ जीया था मैंने, मेरा बचपन
इन दिनों ‘मनरेगा’ ने बदल दी रंग रूपरेखा
नहीं दिखी वो अपनी पुरानी लाइब्रेरी!

यहीं तो पढ़ी थी प्रेमचंद की गोदान
कैसी टीस से भर गया था बालमन
और वो, राजन इकबाल सीरीज के बाल उपन्यास
अहा कैसे ढल जाते थे हम भी उन पात्रों में
यहीं चोरी से पढ़े थे इब्ने सफ़ी और
सुरेन्द्र मोहन पाठक के जासूसी, थ्रिलर नावेल
फिर खुद में फीलिंग आती शरलॉक होम्स की
की थी गांव की लड़कियों की जासूसी
ये लोकप्रिय उपान्यास
लुगदी साहित्य कहलाता है इन दिनों

हाँ, एक रूमानी बात बताऊँ तो
वहीँ सीखी, रानी को अपना बनाना
हर दिन घंटो कैरम पर फिसलती उंगलियां
और क्वीन मेरी हो, सबसे पहले
इसकी होती जद्दोजहद !
क्या क्या जतन करते थे उसे पाने के लिये
क्या करेगा उस शिद्दत से कोई आज का आशिक़
अपनी माशूक़ के लिये उस दर्ज़े की मशक़्कत
वही होती थी टारगेट
यहीं खेल-खेल में चमकी थी
क्वीन सी एक प्यारी सी लड़की
फ्रॉक व लहराते बालों में

हाँ इसके सामने हुआ करती थी
हमारी परचून की दूकान
जहां संतरे की गोली की मिठास…
वो हाज़में की चटकारा देती गोलियां
या लाल मिर्च से रंगी दाल मोठ
सब हासिल था चवन्नी में
दस पैसे की जीरा-मरीच
या अठन्नी का सरसो तेल भी बेचा
छोटे छोटे हाथों से
यहीं पर जाना था भूख दर्द देती है
और नमक की बोरी रहती थी बाहर पड़ी
वैसे ही
जैसे उनदिनों आंसुओं से बनता हो नमक

स्कूल से लौट कर या जाने से पहले
वजह बेवजह
जब भी *मैया* का अचरा नहीं मिला तो
उदासियों के आंसुओं को सहेजा था
इसके भुसभुसे से दीवाल में
एक दो तीन अल्हड़ फ्रॉक वाली लड़कियों को
निहारा भी, छिप कर यहाँ

और बताना भूल गया
यही है वो जगह जहां बसंत पंचमी झूमती
वीणावादिनी की मधुर तान अलापती
वो प्रसाद को ललचाती हमारी जिव्हायें
क्या भूलें क्या सुनायें
खेत-गाछी-टाल-नदी
जाते आते लोग
गाय-भैंस-बकरियां सूअर की संवेदनाएं भी
देखते हुए वहीँ घंटों बतियाते अपने से
कितनी हलचल… कैसा कोलाहल
तितली के पीछे भागते, जुगनू पकड़ते
तब किसे पता था क्या होती है हमिंग बर्ड

नम आँखों से बस् सोच रहे
जाने कहाँ खो गया बचपन हमारा
खुश्क है दम
आँख है नम.
काश.!!!
लौट आये
बचपन की
वो बयार पुरनम……।

आखिर इसी पुस्तकालय ने कहा था कभी
तू सच में बच्चा है !
सोचता हूँ, फिर ढूंढूं वहीँ बचपन !

घिसी हुई चप्पल
पड़ी थी पायताने में
थी एक उलटी पड़ी
एक थी सीधी

औंधा पडा था चेहरा मेरा
तकिये में दबी पड़ी थी आँखे
था आँखे मीचे
सोच रहा था देखूं कोई हसीं सपना
पर बंद आँखों के परिदृश्य में
नीचे पड़ी
घिसते चप्पल की बेरुखी
दिख ही जा रही थी
बता दे रही थी, अपने तलवे के प्रति बेरुखापन

तभी खुल गयी आँख
खुद से खुद ने कहा
लगता है जाना है किसी यात्रा पर
तभी तो दिख रही है चप्पल
पर ये टूटी चप्पल ही क्यों
क्योंकि बता रही मुझे
मेरे स्थिति की परिस्थिति

साम्राज्यवाद के प्रतीक पलंग पर लेटे हुए
मजदूरवाद को जीवंत करता हुआ
घिसा हुआ चप्पल
बार बार मस्तिष्क में डेरा जमा कर
खुलते बंद आँखों में पर्दा हटाते हुए
बता रहा था
कि चलो किसी यात्रा पर
झंडे का डंडा पकडे
ताकि सार्थक क़दमों के
एक दो तीन चार के कदमताल के साथ
हम भी समझ पायें
चप्पल की अहमियत

एक पल को मुस्काते हुए
हुई इच्छा कि खुद को कहूँ
मत चलो नंगे पाँव
चुभ जायेंगे कील या कोई नश्तर
पर
वीर तुम बढे चलो – के देशभक्ति शब्दों से
मर्द के दर्द को पी जाने व्यथा
आ गयी चेहरे पर

नींद टूट चुकी थी
पहन ली थी चप्पल
जा रहा था ………!
नए चप्पल को खरीदने
ताकि
चेहरे की इज्जत बरकरार रहे पांवों में !

जूता पिता का
पहली बार पहना था तीन दशक पहले
जब उन्होंने कहा था –
टाइट है, काटने लगा है पैर
तुम ही पहन लो
पापा का संवाद था बड़े होते बेटे के साथ
अधिकार को कमी की पैकिंग में लपेट कर
कहा गया था शायद
पर सुन ही नहीं सका था ‘मैं’

पहली बार
बांधते हुए जूते
दिल कह रहा था
मर्द वाली फ़ीलिंग के लिए
ज़रूरी है
4 नंबर के सैंडल के बदले
7 नंबर के लेस वाले
पिता के या पिता जैसे जूते पहने ही जाएं

चमकते पुराने जूते और
आल्टर करवाए हुए पुरानी पैंट पहने
साईकल पर
उनके साथ
करते हुए सफ़र
उनसे ही बतियाते हुए बता रहा था
पहली बार
घर के खर्चे कम करने की जरुरत और तरीके
अपनी परचून की दुकान की लाभ-हानि
स्वयं के पढ़ाई की अहमियत और पढने के सलीके

पिता की हूँ-हाँ से बेखबर
7 नंबर के जोड़े ने शुरू जो कर दिया था दिखाना असर
तभी तो चौदह-पंद्रह वर्षीय छोकरे को
पहली बार समझ में आई थी
अहमियत पिता की
उनके मेहनत की
और इन सबसे ऊपर
उनके होने की

तब से
ज़िंदगी भी जूते और जूते के लेस के साथ
भागती रही
बिना उलझाए, बिना रुके
उसी सात नंबर में
कभी कभी पिता के साथ
पर, अधिकतर समय उनसे दूर
बहुत-बहुत दूर

वो अंतिम दिन भी आया जब
उनकेे चले जाने के बाद
पिता के जूते देख
माँ से पूछा क्या, बस कह डाला
मैं ही पहन लूं इसको अब…… !!

एक बार फिर
पैर को जूते में डाल
खुद को पिता सा महसूस कर
नज़रे दौड़ा रहा था दूर तलक

है अब अजब सी सोच
जिस दिन भी भीतर
मन होता है डाँवाडोल
पिता के जूते पहन
दिल की धडकनों के ऊपर हलके से हथेली को रख कर
कह उठता हूँ
आल इज़ वेल, आल इज़ वेल
लक्की चार्म की तरह

शायद होता है एक संवाद
स्वर्गवासी पिता के स्नेह के साथ
जो बेशक है पूर्णतया आभासी
पर होती है आत्मिक संतुष्टि
होगा सबकुछ बेहतर
कहीं प्लेटोनिक आशीर्वाद तो नहीं
जिसका माध्यम भर है ये ख़ास जूता

हाँ
आज फिर
पॉलिश्ड, चकमक
पिता के जूते पहन
बढ़ता जा रहा हूं
जल्दी पहुँचना जो है काम पर।

फफक पड़ी थी
ख्वाहिशें……
आश्वासन तले
जब पूछा स्नेह से
आवश्यकताओं के
ओढ़ने बिछौने में
बन चुके अगणित छिद्रों ने
जीना दुश्वार जो कर दिया
दीवाल से चिपकी
थरथरा रही थी उम्मीदें
सपनों की रंगीनियों ने भी
पलकों के पर्दे में
ठिठकना उचित समझा
आखिर वर्तमान के
स्याह आसमान में
दर्द की मूसलाधार बारिशें
झेलना भी तो
एक अहम सलीका ही है
जिंदगी जीने का ….!

एकांत में बैठे-बैठे सोचा
काश! मैं होता ऐसा चित्रकार
कि हाथ में होती तक़दीर की ब्रश
और सामने होती, एक ऐसी कैनवस
जो होती खुद की ज़िन्दगी
जिसमें मैं रंग पाता अपनी चाहत
भर पाता वो कुछ खास रंग,
जो होते मेरे सपने, होते जो बेहद अपने

जरूरत होती कुछ चटक रंगों की
लाल, पीले, हरे, नारंगी
या सुर्ख सुफैद व आसमानी
जैसे शांत सौम्य रंग
ताकि मेरे तक़दीर की ब्रश
सजा पाए ज़िन्दगी को
जहाँ से झलके बहुत सारी खुशियाँ
सिर्फ खुशियाँ !!

तभी किसी ने दिलाया याद
इन चटक और सौम्य रंगों के मिश्रण में
है एक और रंग की जरूरत
जिसे कहते हैं “स्याह काला”
जो है रूप अंधकार का
जो देता है विरोधाभास
ताकि जिंदगी में हो सब-सब
मलिन, निराशाजनक, अंधेरा, विषादपूर्ण

तब आया समझ
जब तक दुःख न होगा
दर्द न होगा
नहीं भोग पाएंगे सुख
अहसास न हो पायेगा ख़ुशी का
और इस तरह
मैंने अपने सोच को समझाया
अब हूँ मैं खुश, प्रफुल्लित
अपनी ज़िन्दगी से
अपने इस रंगीन कैनवस से

जिसमें भरे है मैंने सारे रंग
दुःख के भी
दर्द के भी
साथ में सहेजे हैं,
खुशियों के कुछ बेहतरीन पल…………..!!!

मुकेश कुमार सिन्हा
प्रथम व्यैक्तिक सहायक
केंद्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स व आई टी राज्य मंत्री
(श्री एस.एस. अहलुवालिया)
भारत सरकार
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