विभाजन के प्रहार से दरकी हुई धरती, बँटे हुए देश, बँटी हुई भाषा, टूटे हुए मन, कराहते अंतर्मन, किन्तु संवेदनाओं के स्रोत्र वैसे के वैसे ही हैं। वह सिंध हो या हिन्द, आहत मन को राहत, प्यास को तृप्ति, धूप को छाँव इंसान को जीने के लिए चाहिए -मृदुल कीर्ति
विभाजन की विभीषिका के शिकार शरणार्थी…!
ज़िंदगी हादसों का एक पुलिंदा, परिवर्तनशील, गतिशील, अपने ही चुने हुए रास्तों पर चलने को अग्रसर, ठहराव के नाम पर अस्त-व्यस्त अवस्थाओं के बहाव में बहा ले जाती है. दिल की दीवारों पर यादों की परछाइयाँ रक्स कर रही हैं. स्टेशन पर विशाल जनसमूह के समंदर को देखकर शायद मेरे बालमन में यही ख़याल कौंधा होगा, कि इतने सारे लोग, अपने घर, अपनी खेती बाड़ी, ज़मीन-जायदाद छोड़कर अब एक नए आशियाने की तलाश में न जाने कहाँ, किस दिशा में जाकर अपनी एक नई पहचान बनाएँगे?
देश विभाजन के बाद दिलों के विभाजन की व्यथा, अमन चैन के लूट की पीड़ा का एक नया युग शुरू हुआ। आज़ादी के साथ ही देश भर में एक अशांति का माहौल कायम हो गया, गाँव-बस्तियाँ आग की लपटों में स्वाहा होने लगीं, सर्वनाशी तांडव चारों ओर बरपा रहा। दर्ज की हुई सच्चइयों में एक बयान यह भी पाया जाता है-“मानवता का मुखौटा पिघल रहा था, और अंदर सियार की आँखें उग आई थीं।“ आज़ादी पाने की खुशी बँटवारे के कारण पीड़ा और निराशा में तब्दील हो गई। एक सपना था जो बटंवारे के दौरान फ़क़त चकनाचूर ही नहीं हुआ बल्कि आज तक भी उसकी कर्चियां दिलों-दिमाग़ में ख़लिश का कारण बनती हैं।
विभाजन के परिणाम स्वरूप हिंसात्मक घटनाओं का विवरण पढ़ते-सुनते यही जाना है कि अत्याचार, अनाचार व दुराचार लोगों पर क़हर बनकर बरपा हुआ। देश विभाजन की घटना राजनीतिक थी, पर उसके परिणाम हिन्दू-मुसलिन इन दोनों मजहबों के लोगों को भोगने पड़े। देश का बंटवारा तो उन्होने नहीं किया, फिर भी वे किस गुनाह की सज़ा भुगतने के लिए मजबूर हुए, यह सवाल कई बार मन को कचोटता है।
भारत–पाकिस्तान विभाजन के परिणामस्वरूप विश्व के इतिहास में इतनी संख्या में लोगों का विस्थापन एवं पलायन कभी नहीं हुआ था। प्रताड़ना के रेखांकित किये हुए चिन्ह वक़्त की दीवारों में चुने जाने के बावजूद भी रह-रह कर सिसकियाँ भरते रहे हैं, अपने वजूद की तलाश में खामोश खंडहरो में भटकते रहे हैं। अपनी जन्मभूमि से दूर होने का संताप, अपने जड़ों से उखड़ जाने की यातना के फोफले मन में लेकर एक अपरीचित जगह, अपरीचित लोगों की बीच खुद को स्थापित करना कितना कठिन होता है, इसी दर्द भरी संवेदना को सिंधी के हस्ताक्षर अदीब लक्ष्मण भाटिया ’कोमल’ ने अपनी आत्मकथा “बही खाते के पन्ने” में अपने भीतर की भावनात्मक पीड़ा को ज़बान देते हुए लिखा है- “हम सिंध में जन्मे लोगों की आयु के ‘अर्द्धशती वृक्ष’ के सभी पते अब लगभग झड़ चुके हैं। टूटती दीवारों की भांति हमारी आत्माओं के साथ हमारे शरीरों की भी छाल उतर रही हैं। हमारी आत्माएँ खोखले शरीरों के ढांचों में छिपकली की कटी पूंछ की भांति तड़प-तड़प कर संघर्ष कर रही है!”
क्यों न महसूस होगी वह छटपटाहट? भाई- चारे के रेशों से सब जुड़े हुए थे, एक का दुख दूसरे का दर्द बन जाता था। चोट एक को लगाती, पीढ़ा दूसरा भोगता. पर वाही भाई-भाई आज अकेले हैं, भीतर की तन्हाइयों के सन्नाटे से घिरे हुए. अपने परिवारों, रिश्तेदारों और प्रियजनों से बिछड़कर कइयों की ज़िंदगानियों में एकाकीपन और सूनापन भर गया है। जीवन है पर कौन सी धरातल पर ? जवाब की तलब में आज भी हर सवाल प्रश्न चिन्ह की तरह सामने लटका हुआ है।
क़यामत-प्रलय के पश्चात भारत की आज़ादी पर बली के बकरे बने सिन्धी कौम के अनेक जांबाज़ सिन्धी अहसास दर्दे-दिल का लिए, खून की होली खेलने पर आमादा हो गए। अपनी जान की आहुति देने पर तुले हुए, मौत की होली खेल रहे थे। सियासी हलचल ज़मीन को ज़िलज़िले का स्वरूप देने में कारगर हो रही थी. रेलगाड़ियां गिराई जा रहीं थीं, डाक घरों के सामने स्थित पत्र-पेटियाँ को जलाया जा रहा था, ताकि संदेशों के आने-जाने का सिलसिला कायम न रह पाये. लोगों को सचेत करने के लिए रात रात भर गुप्त स्थानों से ये जाबाज़ नौजवान बुलेटीन निकलते रहे। कुछ नौजवान तो जुनूनी हद तक अपने परिवार की सलामती को खतरे में डालकर, टंडे आदम (एक शहर का नाम) में अपने घरों से सरकार के खिलाफ यह कार्य करते रहे। पुलिस उनके घरों में घुसकर शक़ की बुनियाद पर घर की हर चीज़ की तलाश के बहाने घर की बुनियाद हिला देती, कि वे वायरलेस का इस्तेमाल करके यहाँ की खबरें भारत में पहुंचाते हैं.
प्रलय के पश्चात के अंजाम के दौरान अगर एक नई सृष्टि का निर्माण हुआ होता तो यकीनन आदमियत फ़क्र के साथ उस दर्ज इतिहास के पन्ने पलटती।
मेरी यादों का आकाश
मेरी यादों का आकाश आज इतना मटमैला हुआ है कि साफ-शफाक़ तस्वीरें फिर से धुंधली हुई जा रही है. कुछ इसी तरह लड्पडाण (स्थानांतरण) की आधी अधूरी, टूटी फूटी स्मृतियाँ ज़हन की कोने कोने में रच-बस गई है, कुछ कर्चियों की तरह कि स्थापित होने के बावजूद भी आज जब मैं विदेश (प्रवास) में पुनः स्थापित हुई हूँ तो मुझे लगता है कि जहां मैं बसी हूँ, वही मेरा देस है और बाक़ी सारा का सारा परदेस! तब पाकिस्तान देश था, जन्मे, पले-बढ़े, नहीं कह सकती। फिर भारत में शरणार्थी बन कर शरण ली। परिवार ने अपने बल बूते पर, मेहनत, लगन, ईमानदारी के साथ संघर्षों के अंधेरों से एक नई उजली सुरंग खोदकर खुद को रोपा और फिर वही चक्कर! आखिर कौन सा मेरा असली गाँव, कौन सा प्रान्त, कौन सा मेरा असली देश है ?
0
विभाजन के बाद सभी शरणार्थी अपने वतन, अपनी ज़मीन, अपने घर-बार, अपने उजड़े-उखड़े ध्वस्त अस्तित्व के बोझ को लेकर दर-दर की ठोकरें खाने, यायावरों की तरह यहाँ वहाँ भटकने और पनाह पाने के लिए अभिशप्त थे। इस त्रस्त मानवता के कई विभाजित वर्ग थे, कई घराने, और परिवार, जो किसी न किसी तबके के तहत आगे बढ़ते रहे, कुछ प्रताड़ित, तो कुछ खाली हाथ. कुछ सियासी सुविधाएं पाकर सुखद यात्रा करके सुरक्षा के साथ भारत में अपने तय किए हुए इलाक़े में पहुंचाए गए, और कुछ इस तरह बेवतन हुए कि आज तक ज़मीन उन्हें ठिकाना देने में असमर्थ है। कई जमींदारों की शान शौकत व रईसी पर अंकुश लग गए। उन्हें विशेष अधिकार व सुविधाओं से वंचित कर दिया गया। उनकी खूबसूरत हवेली नुमा आलीशान घरों में शरणार्थियों को पनाह मिल जाया करती थी।
स्थानांतरण का दौर
इस लड्पडाण (स्थानांतरण) के दौर में लोग उडेरोलाल, सेवण, रोहिड़ी, सख्खर व लारकाणा से अलग-अलग दिशाओं में अपनी-अपनी क़िस्मत आज़माने निकल पड़े। कुछ हाँग-काँग, मनीला के ओर गए, तो कुछ गुजरात। कोई बड़ौदा, कोई मीरपुर खास, तो कोई सिकंद्राबाद, और बहुत से शरणार्थी उल्हासनगर कैम्प में जा बसे. यातायात और असबाब को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के उपलब्ध वसीले थे जहाज़, और ट्रेन ..!
ट्रेनों से सफर की एक अलग दास्ताँ है। जिस तरह सामान लादा जाता, उससे भी कुछ अधिक निषठुरता के साथ हाड़-मांस के प्राणी एक दूसरे से सटे हुए, सटे नहीं बल्कि चिपके हुए, कुछ खड़े, कुछ अपने जीवन को दाव पर लगाये उस रफ़्तार से दौड़ती गाडी से लटकते हुए नज़र आते, कुछ ऐसे जैसे मालगाड़ी में माल लादा गया हो। अपने जीवन की जमा पूंजी अपने बग़ल में दबाये, वे सरजमीं से निकल पड़े लावारिस लाशों की तरह, अपने अपने हिस्से की नई ज़मीन ढूँढने, अपने निराधार अस्तित्व को फिर से स्थापित करने की अनजान दिशा में।
इतने सारे परिवारों में से हमारा भी एक परिवार था… मेरे माता पिता, एक बड़ा भाई, मैं, एक छोटा भाई और बहन।
हमारा पहला पड़ाव रहा मीरपुर खास-जहां, ट्रेन से सफ़र करते कुछ ज़रूरी सामान और ज़मीन-जायदाद के दस्तावेज़ लेकर हम वहाँ पहुंचे, जहां शरणार्थियों के लिए स्थापित किए गए शरणार्थी शिविरों में शरण ली. उनके सामने ही राशन की दुकानों पर लम्बी कतारों में आटा और दाल लेने के लिए खड़े मेरे पिताजी आज भी मेरी आँखों में तैरते हैं. चार दिन से ज़्यादा वहाँ रहना नहीं हो पाया। पिताजी ज़मीनदारों के घराने से थे, हुकूमत चला करती थी. अब ऐसी नौबत आन पड़ी कि खाने के लिए हाथ आगे बढ़ाने पड़ रहे थे। शरणार्थियों की यह बद्दतर हालत, व बेसलूकी रास न आ पाने के कारण सामने दूसरी सूरत थी, अजमेर जाना। एक बार फिर निर्वासित से ट्रेन से बारमेर (Barmer) पहुंचे और वहाँ से फिर काफिले की तरह अजमेर में मदार गेट के पास मोती महल नामक एक सोसाइटी में शरण ली। मेरे बड़े मामा का वहाँ अपना पंसारी का कारोबार था। वे शक्कर और अनाज की थोक बिक्री किया करते थे, और रीटेल में छोटे व्यापारियों को माल दिया करते थे। पिताजी ने कुछ दिन काम किया- काम क्या था, बस दिन भर ट्रकों के सामने खड़े होकर अनाज व शक्कर के बोरों को उतरवाना, गिनना और हिसाब दर्ज करना। टंडे आदम में मेरे दादा कुंदनमल लालवानी मुखिया रहे। ऐसे में पिताजी को, जिन्होने राजसी शान शौकत का जीवन गुज़ारा, उन्हें यह मजदूरी भला कहाँ गवारा हो सकती? आखिर तय हुआ कि सिकंदरबाद में नई ज़िंदगी का आगाज़ किया जाय। पर जाना 1948 में हुआ। वजह थी, 30 जनवरी 1948 जिस दिन गांधी जी की शव यात्रा निकली उस दिन मेरी छोटी बहन पैदा हुई। बस फिर क्या था, जल्दी ही सिकन्द्राबाद पहुँचकर हम भाई- बहनों की पढ़ाई के लिए पाठशाला में दाखिला हुई और हम वहीं रच-बस गए।
अजमेर की यादों में एक विकृत याद आती है- जहां हम जैसे भाई बंधु शरणार्थियों के लिए सुरंगें बनाईं गई थीं। बड़े शाही चबूतरों के तले सुरंग की तरह बने ‘बुहरों’ (underground cells) में रह रहे शरणार्थी दिन को रात समझ कर जीते – वहीं, जहां रोशनी के लिए कोई रोशनदान न था, जहां रात का साया घना होते ही, सूरज के विलूप होने के बहुत पहले स्त्रियाँ तेल के दिये जलाकर खाना बना लेती और उस उजाले में और भी कई ज़रूरी कामों को अंजाम देतीं.
मेरी मामी के पिता ईदनमल छुगाणी ब्रिटिश राज्य के समय वहीं लारकाणा में कलेक्टर थे और उनके सुपुत्र राम छुगाणी ऑफिसर के पद पर। दंगे फसाद के दौर में राम छुगाणी ने अपनी बेटी रमोला (अमीताब के भाई अजीताब बच्चन की पत्नी) को और अपनी भाभी को उनकी बेटियों सहित जहाज़ में दो कैबिन रिजर्व करवा कर मुंबई के लिए रवाना किया। पर उन्हीं दिनों पंजू (एक जगह का नाम) में रह रहे उनके दादा, जो बहुत नामी जमींदार थे, उसे डाकुओं ने मार डाला। किसी तरह उनके परिवार को लारकाणा लाया गया और मामला ठंडा पड़ते ही जज परसराम करनानी की देखरेख में उन्हें बुर्के पहना कर भारत जाने के लिए जहाज़ में चढ़ाया गया. ये बातें मेरी स्मृति में सुने सुनाये किस्सों की तरह दर्ज होती रहीं.
0
मेरे दादा कुंदनमल लालवानी के संबंधी नानकराम वाधूमल तुलसियानी हैदराबाद सिंध के निवासी थे। विभाजन के बाद वे खुद दस बारह साल वहीं रहे। उनके बंगले के इर्द-गिर्द पाकिस्तान के कलेक्टर ने हिफ़ाजत के लिए पुलिस तैनात कर रखी। उनके सुपुत्र लीलराम अपने परिवार सहित जहाज़ में सामान के साथ मोरवी के लिए रवाना हुए। वीरावल बंदरगाह पर उतरे (कठियवार में)। वहीं से तीन ट्रेन –वीरावल से झूनागढ़, झूनागढ़ से वाकानेर, और वाकानेर से मोरवी, बदलते हुए ठौर पर पहुंचे। पहुँचने के पहले ही वहाँ उनके रहने के लिए पक्का मकान सभी सुविधाओं के साथ तैयार था। उन्होने नया व्यापार शुरू किया और खुद को पुनः स्थापित करने की हर संभावना को अमल में लाया। 1958 में उनकी ज्येष्ठ पुत्री गुणवंती का विवाह मेरे बड़े भाई मोहनदास लालवाणी से हुआ। शादी मोरवी में हुई थी, वहीं मैंने उनकी वह वैभवपूर्ण हवेली व रईसी ठाठ देखे। उस वक्त मैं दसवीं कक्षा में थी।
जब 1957 में नानकराम वाधूमल अपने जन परिवार के पास भारत लौटे तो वे हैदराबाद का अपना बंगला मेरे दादा के दोस्त मीर अली को दे आए, जिनकी वफादारी और सेवाओं का वे आज तक गुणगान करते रहते हैं।
याद की भूली-बिसरी परतों से झाँकती एक आकृति थी मेरे चचेरे भाई की, जो ‘लाहौर मेल’ (टंडे आदम, की कुछ दूरी पर शहदादपुर से रवाना हुई थी) में सफर कर रहे थे। उसे उडेरेलाल स्टेशन पर उतार कर फेंक दिया गया था, क्योंकि वह काँग्रेस की कार्यवाई में सहयोगी रहे। लाहोर मेल से उतारने की कोशिश असफल हुई क्योंकि उसने दरवाजे के बाहर के दस्ताने पकड़ लिए। पर क्रांतिकारियों ने निर्दयता से सुलगती हुई बीड़ी से उसके हाथों को जलाने की कोशिश की ताकि हाथ दस्ताने को छोड़ दे, और इस तरह वे अपने कुरूप मनसूबे में कामयाब हुए। मानवता की चौखट पर अमानुष होना ज्यादा आसान है!
यायावर सभी दर्द की झीनी चादर को ओढ़कर अपनी नई पहचान की तलाश में दर-बदर भटकते रहे। जिनकी संपति थी उन्होने क्लेम फॉर्म भरे। पर कहीं ऐसा भी हुआ कि जिन्हें वास्तव में क्लेम मिलना चाहिये था, उन्हें हाशिये पर धकेल दिया गया और जिन्होंने बेईमानी से फॉर्म भरे वे मलमाल हो गए। यही क्लेम की दास्तान है। जिन्होंने क्लेम भरे नोटिस के रूप में उन्हें ऑफ़िस से चिट्ठी आती-‘‘फलां तारीख़ की सुबह ग्यारह बजे तुम्हारी हाज़िरी नीचे दिये हुए पते पर तय हुई है। समय पर अपने दस्तावेज़, हस्ताक्षर काग़ज़ सबूत के तौर, गवाहों के साथ हाज़िर रहना। ग़ैर मौजूदगी की हालत में एक तरफ़ा फैसला किया जाएगा।’’ एक सरकारी फरमान… बस…!
कुछ लोगों का ज़मीनों का क्लेम भरा हुआ था, कुछ का घरों का भी। घरों की हाज़िरी का बुलावा दुविधा जनक स्थिति में बदल जाता। मेरे ताऊ काका लछमनदास लालवणी ने सिंध का हवेली नुमा घर अपने दो सेवादारों -झमटमल वाण्यो और खुर्शीद आलम को यह कहते हुए विदा ली- ”अगर लौट आए तो साथ रहेंगे, नहीं तो यह तुम्हारी!“ दस्तावेज़ होने के बावजूद भी उन्होंने क्लेम नहीं भरा। जानते थे कि किसी भी सूरत में अगर घर की क़ीमत यहाँ वसूल कर ली गई तो वहाँ रहने वाले हमवतनी बेघर हो जाएंगे। यह उन्हें गवारा न था। इंसान में भाईचारे का भाव अब भी बाक़ी है यह इस हवाले से सिद्ध होता है।
मेरे पिताजी को भी निज़ामाबाद में ज़मीन के क्लेम के रूप में मिले-गन्ने के खेत। दस साल तक वे भी गन्ने की फस्ल हासिल करने-कराने के सिलसिले में सिकंदराबाद व निज़ामाबाद के बीच लगातार आते-जाते रहे। पर उससे लाभ से अधिक क्षति होती रही, कारोबार को समय व तव्वजू न दे पाने के कारण उन्होंने आखिर वह ज़मीन एक लाख रुपये में बेच दी। उन दिनों एक लाख बड़ी रक़म होती थी। पिताजी ने उन पैसों से एक कपड़े की दुकान खोल ली और वहीं अपना स्थायी पड़ाव समझकर बस गए।
मेरे ताऊ वसंदाणी के जमाई हेमू (रत्ना के पति) भी सक्खर में एक कपास की फ़ैक्टरी में काम करते थे। उनका चार साल काम करने का कांट्रैक्ट साइन किया हुआ था-यह पहला साल था, इस लिए भारत लौटना नामुमकिन था। ताऊ परिवार सहित, पत्नी, छोटी बेटी विशनी और बड़ी लड़की रत्ना, को भी अपने साथ ले आए और आते ही मोरवी बस गए। यूँ दो ढाई साल बीत गये और हेमू के आने की उम्मीदें बंधी रही. आने वाले दिन हवाई जहाज़ के आने का समय तय था। पर चार घंटे पहले वसंदाणी जी को फोन द्वारा एक दिल दहलाने वाली खबर दी गई- हेमू के मौत की ख़बर। पूछताछ से ज़ाहिर हुआ कि काम करते वक़्त हेमू की मशीन खराब हो गई और और चलती हुई मशीन में उसके हाथ फंस गए. यही कारण बन गया और बस उनकी मृत्यु का ऐलान हुआ। यह भी एक सियासी षडयंत्र ही था, जहां हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई न होकर दुशमन बन गए। बस एयरपोर्ट जाकर ताऊ अपने दामाद की लाश का बोझ अपने काँधों पर उठा लाये।
ऐसी हृदय विदारक विभाजन की विभीषिका के वर्णन में विकृतियों की बाढ़ आ गई जहां क्रूर मानसिकता, वहशीपन, अमानवीयता, अनाचार, अत्याचार व बेदर्द बर्ताव के कारण मानवीय मूल्यों मेँ गिरवाट आने लगी, पुरानी पीढ़ी की मनोस्थिति आहत हुई, पुराने मूल्यों के स्थान पर नए जीवन मूल्यों की स्थापना हुई।
विभाजन के पश्चात स्थापन के दौर की विभीषिका भी सबके हिस्से में आई। आज तक सिंधी कौम को कोई प्रान्त नहीं है। जड़ से जुदा होकर अपने जीवन को संचारित रखना, तमाम मुश्किलों के बावजूद भी उनके लिए स्थापित होना कठिन ज़रूर था पर नामुमकिन कुछ भी नहीं. कोशिशें होती रही हैं और आज ७० वर्षों के बाद जो तस्वीर दिखती है वह कहीं उदास करती है तो कहीं तसल्ली देती है. हर हाल में जिंदा रहने की क़सम खाकर, सिन्धी हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहे हैं. व्यापार उनके ख़ून में है, ज़िंदादिली उनके सीने में है. गिर-गिर कर उठ खड़े होना उनका दिमाग़ी फितूर है. सिन्धु नदी उनके दिल की धड़कन है, झूलेलाल की झलकी, शाह, स्वामी, सचल का काव्य उनका अध्यात्म है. ज़मीन नहीं है पर हिंद की हवाओं में सिंध की खुशबू सांसों में भरना उनका जीवन है. अब सिन्धी शरणार्थी नहीं, विस्थापित वर्ग के सम्मानित शहर वासी हैं।
इस नए वातावरण मेँ सब कुछ नया था, और इस नए संसार को बसाने और खुद को स्थापित करने के कारण पुरानी परम्पराएँ विलीन सी होने लगी, हवाओं मेँ ज़हरीली आज़ादी के लक्षण घुल मिल गए। इस राजनीति की बिसात पर मोहरों की चाल-चलन मेँ मानवता ने क्या खोया, क्या पाया, उसकी तस्वीर आज के माहौल मेँ और देश विदेश की रणनीति मेँ दिखाई दे रही है। न जाने मानवता कितनी बार इस विस्थापन के दर्दीले दौर से गुज़रेगी?
देवी नागरानी