बाबूजीः श्री श्रीनाथ गुप्ता जी
(19 अगस्त 1915-1अप्रैल 1992)
निरंतर
बूढ़ी कांपती आवाज
बुलाती थी रोज
दूर बहुत दूर से
और रोज ही चुपचाप
मन सात समंदर उड़ता
चरणों तक हो आता था
बहुत मन दुखाया
पर तुमने सदा गले लगाया
धूप छांव सा वो रिश्ता
आज भी तो
छतरी–सा तना
आशीष एक याद
निरंतर
छांव देता…
तुम थे, तुम हो मेरे साथ !
मां बाप का जाना जाना नहीं होता क्योंकि वह जाकर भी नहीं जाते, यादों में रगरग में बसे हम पलपल उन्हें जीते हैं अपनी यादों में…अपनी आदतों में।
पहली अप्रैल का वह मूर्ख दिवस ही था, जब नियति के हाथों भरपूर मूर्ख बनी थी। एक फोन मात्र से बाबूजी ‘हैं’ से ‘थे’ हो गए थे। वह पल…असह्य दुखद पल जब मेरे संरक्षक, शिक्षक , गाइड , आदर्श , मित्र, हितैषी, मेरे लिए सबकुछ, हर पल मुझ पर न्योछावर होने को तत्पर, मेरे बाबूजी भौतिक रूप से छीन लिए थे क्रूर काल ने और उन कठिन अंतिम पलों में मैं उनके पास नहीं, सात समंदर दूर बैठी थी।
जिन्दगी कितने रंग बदलती है और कितनी जल्दी बदलती है…जिन्दगी ने बहुत कुछ सिखा और समझा दिया है। अपने छोड़ जाते हैं, पराए आ जुड़ते है और पल पल जीवन नाटिका के दृश्य बदलते रहते हैं। ढाई वर्ष के अन्दर ही मांबाप दोनों को ही खो दिया था मैंने और मेरे लिए यह दुनिया पूरी तरह से बदल चुकी थी । एक डरावना सपना जिससे बचपन से ही डरती थी, पसीने-पसीने हो जाती थी पूरी तरह से सच होकर सामने था। लाडली नहीं, अब अनाथ, अकेली और बड़ी होकर खड़ी थी मैं । अब कोई राह नहीं देखेगा, उदास नहीं होगा मेरे बिना… रोज-रोज हर पल तो हरगिज ही नहीं, जानती थी मैं। दो दशक से अधिक हो चुके पर मन है कि आज भी स्वतः ही बेहद उदास और उन्मन हो उठता है, ढूँडने लगता है, मानो वे हैं, यहीं आसपास ही। मुझे ढूँढते, मिलने को लौटते है। इस दिन और मेरे जन्म दिन पर…हर मंगल को, असल में दिन में कई-कई बार , हर दिन ही।
मंगल की कहानी भी अजीब है। सत्तर के दशक की बात है जब बाबूजी मेरे पास यू.के. आए थे मां को साथ लेकर। और एक छोटे से औपरेशन के बाद अचानक किडनी फेलियर में चले गए थे। बहुत विकट परीक्षा का समय था वह हमारे लिए। बाबूजी को ठीक होना ही था- हम दिनरात प्रार्थना में थे । माँ तरह तरह की मनौती मान रही थी और तब मैंने भी सच्चे दिल से प्रार्थना की थी और एक वादा किया था प्रभु से कि बाबूजी को ठीक कर दोगे तो मैं आज के दिन आजीवन व्रत रखूंगी, मैं जो कभी व्रत नहीं रखती। घूस में विश्वास नहीं करती उन असहाय पलों में यह शर्त और वादा कर बैठी थी भगवान से। हमारी दुआ प्रार्थनाएँ भगवान ने सुन ली। बाबूजी ठीक हो गए। और मैं धन्यवाद स्वरूप आज तक व्रत रख रही हूँ।
मंगल का ही दिन था वह भी।
(एक पुरानी चित्रः माँ और बाबूजी- लंदन के ट्रैफेल्गर स्क्वायर पर। माँ की गोदी में- कुछ महीनों का छोटा बेटा अब डॉ. नमित अग्रवाल, मुझे पकड़े ढाई वर्ष का बडा बेटा डॉ. संजीत अग्रवाल और कबूतरों को दाना खिलाती छह वर्षीय बेटी अब डॉ. सपना दसा।
जाने कितने वर्ष हो गए हैं बिना बाबूजी के जीते। ‘बेटू जी’ सुने बगैर, उनकी बगल में बैठे बगैर। पर दुख कब वयस्क होता है ! या तो मचल-मचल कर दस्तक देता रहता है, या फिर मन में ही समाधि बनाकर लेट जाता है। फिर जी भर-भरकर धोते, बुहारते रहते हैं हम इसे। यादों के अगरू जला आंसू व मुस्कानों से सींचते व धोते- सुखाते है। स्मृति मेले में बिचरने और भटकने के अलावा और कुछ बस में भी तो नहीं।
खबर अप्रत्याशित थी । कोई बीमारी, कोई तैयारी, कुछ नहीं। हाँ, एक भय जरूर रहा था आजीवन, जानकर भी कि जीवन नश्वर है इन्सान का- डरती थी इससे। सबको ही जाना पड़ता है- बाबूजी अक्सर ही समझाते। परन्तु बाबूजी के लिए तो ऐसा सोचना भी कल्पनातीत ही था मेरे लिए।
एक बेहद सहृदय , बड़े दिल वाले व्यक्ति के दिल ने ही धोखा दिया उन्हे और हमें। 31 मार्च की सुबह लम्बी बातचीत की थी बाबूजी ने। आने को पूछा था। और तब जुलाई में बच्चों की छुट्टी होते ही आने का वादा भी किया था मैंने। ‘जुलाई किसने देखी है ‘ कहकर चुप हो गए थे वह, पर। कुछ ऐसा था जो पता था उन्हे और छुपा ले गए थे मुझसे। दिव्य पुरुष थे बाबूजी। बहुत याद किया था उन्होंने भी शायद उस अंतिम दिन। मुझे ही नहीं, सबको ही। सुना है सभी को फोन किया था। विदा के पल में स्वास की असह्य तकलीफ के बावजूद भी, संयुक्त परिवार के एक-एक व्यक्ति को कमरे में शैया के इर्द-गिर्द एकत्र कर लिया था। ढाई वर्ष की सोती बच्ची को भी नहीं भूले थे वह। उसे भी सोते से जगवाकर बुलवा लिया था उन्होंने अपने पास । सबको आंखों में भरकर ही विदा ली थी। आखिरी सांस में भी एक यही वादा लेना था कि बेटियों का मायका मत खतम होने देना। पर मायका तो मां बाप से ही होता है , कैसे भूल गए बाबूजी? और मैं तो अपने माँ बाप दोनों को ही खो चुकी थी !
यदि पता होता कि तीन दिन बाद ही भारत जाना पड़ेगा, तो उसी वक्त चल देती जब वह बुला रहे थे – कम-से-कम यह भटकन, यह दुख और ग्लानि तो पीछा न करते आजीवन। मन तो नहीं था फिर भी गई, जाने क्या देखने, जानने या मात्र एक रस्म निभाने, नहीं पता। ढाई साल पहले जाना चाहती थी, तब बाबूजी अकेले हो गए थे माँ के जाने पर। पर अब ऐसी कोई बात नहीं थी। मेरी जरूरत नहीं थी वहाँ पर। आश्चर्य है कि फिर भी हर वक्त ऐसा लगा मानो बाबूजी साथ रहे। उनका हाथ सदा कांधे पर महसूस होता रहा। वैसे ही ‘ चल बेटा ‘ कह-कहकर वे मुझे बुलाते रहे, संयमित और सहज रहने को प्रोत्साहित करते रहे, पलपल साथ रहे थे बाबूजी मेरे हर कर्म-कांड के दौरान।
मां जो बातबात पर जिद्दी बेटी से कहती थी –…’मान जा, खा ले बस यह आखिरी ग्रास, नहीं तो मेरा मरा मुंह देखे’। शायद मान ही ली थी मैंने उनकी हर बात। खा लिया था उनके द्वारा परोसा हर आखिरी कौल, तभी तो नहीं देखा किसी को भी, न माँ का न बाबूजी को । शायद सह भी न पाती वह रूप।
(नवजात नमित के साथ माँ ब्लैकपूल, इंगलैण्ड।)
पूछने पर कि तबियत तो ठीक है न ! हंस पड़े थे बाबूजी उस दिन –‘ बाबरी है तू तो, मेरी ही फिक्र रहती है हरदम ।‘
‘सच-सच बताओ, कोई दर्द, कोई तकलीफ तो नहीं।‘
‘ नहीं, बेटा। वहीं बैठा मिलूंगा तुझे जहाँ तू छोड़कर गई थी।‘
बस यही अंतिम वार्तालाप था । उनकी आवाज का सूनापन अन्दर तक काट गया था, एक भय ने जकड़ लिया था मुझे। पहली बार वादा तोड़ा था बाबूजी ने, पर मौत पर किसका बस चलता है! फिर बाबूजी नहीं मिले थे मुझे। छुपा ले गए थे वह अपना सारा दर्द और छुप गए थे खुद भी। उम्र भर ढूंढना और भटकना ही नियति है अब । ज्यादा दुख हो तो दिन, महीने, तारीखें गिन लो, बस।…
रात को 11 बजे के करीब ( भारत का बृह्म महूर्त) था वह, और हिन्दू तिथियों के हिसाब से त्रयोदशी, जिसे जीवन परित्याग के लिए अच्छा महूर्त बताते हैं पंडित। पर मेरे चारो तरफ तो न बुझने वाली एक अदृश्य आग धधक उठी थी जिसकी जलन और तपन मिटती ही नहीं।
मात्र एक फोन की घंटी थी और रात भर ढूँढती रह गई थी वह हाथ जिसे पकड़ते ही भय, सारी असुरक्षा गायब हो जाती थी। साल भर से तैयार कर रहे थे बाबूजी, परन्तु स्वार्थी मन कुछ सुनना-समझना और जानना ही नहीं चाहता था। मेरे लिए तो बाबूजी चिर और शाश्वत थे, सदा मेरे साथ रहना था उन्हें। पिछली तो पूरी चिठ्ठी ही इसी निर्देश पर थी –‘ सबको जाना है एकदिन। बाबूजी को भी जाना होगा। अगर कुछ सुनो, तो खुदको संभाल लेना। ज्यादा दुख न मानना। बहादुर बेटी है न मेरी।‘ शायद उन्हें भी कम दुख नहीं था विदेश में बैठी अपनी इस पगली, दुनियादारी से बेखबर बेटी को छोड़कर जाने का। खुद को भी तो तैयार कर ही रहे थे वह इस विछोह के लिए। वीतराग होना चाह रहे थे शायद बाबूजी। मैंने तो उन्हें कभी अलविदा तक नहीं कहा। नमस्ते तक नहीं कहती थी इसी डर से। कितनी भी दूर चली जाऊँ, अलग कब होती थी ।
अपनी बहादुर बेटी की सामर्थ पर विश्वास नहीं था उन्हें पर। सुना है घर में सबसे कहते फिर रहे थे- ‘बहुत सारी चिठ्ठियाँ लिखकर छोड़ देता हूँ उसके लिए। हर हफ्ते एक डाल दिया करना। बताना नहीं। बर्दाश्त नहीं कर पाएगी।‘ बहुत सारी तो नहीं, मात्र एक पता लिखा अंतर्देशीय पत्र अवश्य मिला, चतुरसेन शास्त्री के एक उपन्यास के अंदर, जिसे वह अपने अंतिम दिनों में शायद पढ़ रहे होंगे। और दीवार पर उनकी उंगलियों के कुछ निशान, जिन्हें बाद में लिपवा-पुतवा कर साफ भी करवा दिया गया। उन्ही निशानों पर हाथ रखे घंटो बैठी रह गई थी। लगा बाबूजी वहीं आसपास हैं मेरे। कोई आता तो हाथ हठा लेती, पागल न समझें इस डर से।
यह पढ़ने लिखने का शौक भी बाबूजी की नकल के खेल में ही लगा था, उस उम्र से जब सीधी और उलटी किताब तक का फर्क नहीं पता था। रात देर तक पढने की आदत थी उन्हें। जबतक बाबूजी पढ़ते, मैं भी एक किताब हाथ में लिए, उन्ही की तरह एक पैर को दूसरे पर टांगे पन्ने घूरती रहती। जब वह पन्ना पलटते, पन्ना पलट देती। मां दोनों को देखकर हंसती रहतीं और बाबूजी को भी बेहद लाड़ आता अपनी लाडली पर। हम दोनों एक दूसरे को देखकर बेवजह ही हंस पड़ते। तब मुस्कुराकर वे उठते और हाथ में पकड़ी उलटी किताब को सीधा कर देते, ‘ऐसे नहीं ऐसे’ कहकर । गंगा नहाने जाते तो डरपोक बेटी पानी में न उतरती, तो मिट्टी से खिलौने बना लेते और मैं सारा भय भूल तुरंत ही कमर तक पानी में उनके बगल में जा खड़ी होती, जहाँ वह नाक पकड़कर डुबकी दिलवाकर ही मानते। सबकुछ बाबूजी से ही तो सीखा…क्या क्या नहीं आता था उन्हे। लिखना, पढ़ना, चित्र बनाना, कागज मोड़कर तरह तरह की चीजें बनाना, सिलाईृबुनाई, खाना बनाना सबकुछ और बेहद व्यवहार कुशलता व सतर्कता भी जो चाहकर भी न सिखा पाए मुझे। बेटी की इस कमजोरी का दुख रहा उन्हें आजीवन। भावुक होना बुरा नहीं, पर वेवकूफी की हद तक नहीं। अक्सर सोचती उन्हीसे तो विरासत में ली है यह भावुकता। मां को तो लाड़ करने से ही फुरसत नहीं थी। बेटी को जीने की कलाएँ भी सिखानी चाहिएँ कभी ध्यान ही नहीं आया इन बातों का उन्हें। वह थीं न मेरी हर जरूरत, हर देखभाल के लिए। तिसपर से किस्मत ऐसी कि बीस साल की उम्र से जिनदगी के आंधीपानी में बिल्कुल अकेली। मेरी ही तरह वह भी पूर्णतः अव्यवहारिक थीं जो बेटी को कभी आंचल से बाहर ही नहीं किया उन्होंने। परिवार के कई सदस्य हैरत और हिराकत से भी देखते थे मां के इस बेइन्तिहां प्यार को, पर हम तीनों बेहद खुश थे अपनी उस सुरक्षित और छोटी-सी दुनिया में।
पहला इम्तहान…पहले पढ़े शब्द को मेरे मुंह से सुनने के बाद उनकी आँखों की वह चमक…आज भी याद है मुझे । शिवरात्रि का दिन था, अकेला दिन जब बाबूजी गंगा नहाते थे, विश्वनाथ मंदिर जाकर दर्शन करते थे और व्रत रखते थे। आखिर शिव जी और उनकी काशी ने ही तो दिया था उन्हें सब कुछ…शादी के सोलह साल बाद यह पगली बेटी भी। सुबह का वक्त था वह भीड़भरा और धुंधला सा और मेरी चार साल की उम्र। बाबूजी की उंगली पकड़ कर चलते-चलते अचानक सामने एक दुकान के बोर्ड पर लिखे भारी भरकम भारत परफ्यूमरी मार्ट को जैसे ही मैंने पढ़ा-बाबूजी को विश्वास ही नहीं हुआ। गोदी में उठाकर कसकर सीने से लगा लिया उन्होंमे । बेटी को पढ़ना जो आ गया था। प्यार और आशीर्वाद की बौछार कर दी। फिर तो हर काम को बहुत जल्दीजल्दी सीख रही थी, कोशिश कर रही थी। कत्थक, भरतनाट्यम, संस्कृत, वेद पुराण , सितार और चित्रकारी । दिन के वे 12 घंटे उन्ही की इच्छानुसार बीतते। उसी चमक को उनकी आंखों में देखने के लिए ही तो जीवन के हर मोड़ पर प्रयत्नरत रही मैं। आज भी जीवन की सबसे सुखद स्मृति वही है जब 14 वर्ष की उम्र में स्कूल के एक कार्यक्रम में महामना टैगोर के ऊपर लिखे एक आलेख के एवज हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि धन्य हैं वह जनक जिन्होंने इस पुत्री को जन्म दिया और मेरी आँखें तुरंत बाबूजी की ओर चली गई थीं। उनका चेहरा गर्व से दीप्त था और आँखें खुशी से छलक रही थीं।
बावरे ही तो थे पर बाबूजी भी। बहलाने फुसलाने के नए-नए बहाने ढूंढते रहते थे। कन्यादान नहीं किया इकलौती बेटी का। बाद में समझाया-दान की हुई वस्तु से कोई मतलब नहीं रखा जाता और मैं यह तेरे साथ कैसे कर सकता था! पूरी शादी पर गायब रहे और विदा के समय आए तो भगवान की मूर्तियों को हथेली पर रखकर, उनके सुपुर्त करके विदा कर दिया, बस। अब उनकी उन चिठ्ठियों को कौन मेरे लिए संभालता, कौन भेजता, माँ भी तो जा चुकी थीं पहले ही, उन्ही की तरह से अचानक ही। माँ के हाथ की तो चिठ्ठी तक उनकी मृत्यु के बाद भारत से लौटने के बाद ही मिली थी मुझे, जिसमें ठंड से बचने, कपड़े ठीक से पहनने, बच्चों का ध्यान रखने आदि की जी भरकर कई-कई हिदायतें थीं। एकबार ठंड लग जाए तो छाती पर कफ जम जाता है-जो बहुत तकलीफ देता है, मुश्किल से जाता है, लिखा था उन्होंने। माँ को शायद ठंड लग चुकी थी और वह तकलीफ में भी थीं। पर शायद हमेशा की तरह ही किसी को कुछ नहीं बताया था उन्होंने, किसीने नहीं समझा था उनका दर्द…उनकी बेटी ने भी नहीं।
वह चिठ्ठी नहीं, मानो खुद माँ ने ही घर लौटने पर गले से लगाया था मुझे। यह चिठ्ठियाँ आज मेरी सबसे बड़ी धरोहर, दर्द और सम्बल, दोनों ही हैं।
फोन पर पति के –‘ अरे… कब कैसे ? भेजता हूँ तुरंत। छुट्टी मिल पाई तो कल ही संग आते हैं हम दोनों।‘ कहते ही समझ गई थी कि अवश्यंभावी अनहोनी हो ही गई है-जिससे सर्वाधिक डरा करती थी। मन-ही-मन प्रार्थना करती थी कि भगवान यह दिन कभी न दिखलाना। पर कुछ नहीं हुआ मुझे, सब सह गई।
–स्तब्ध निर्वीकार रातभर उनके जीवन के उस आखिरी एक-एक असह्य कष्टमय पल से चलचित्र-सी गुजरती, कभी दर्दभरी मायूस आंखें दिखतीं तो कभी निर्वीकार और शांत । बाबूजी ने ही कभी बताया था, कि प्राण बहुत तकलीफ से निकलते हैं…मैं अकेली-अकेली उनकी तकलीफ को नापती रही, सहती रही। कभी मुंह से निकलते छाग पोंछती तो कभी छटपटाते पैरों को तसल्ली देना चाहती। हर डरावने सपने के बीच से खुद को जगा लेने वाली मैं आज भी तो नहीं जग पाई उस दुस्वप्न से।
अश्रुहीन आँखों से पाषाणवत् बैठी माँ को 19 वर्षीय बेटे ने ही खुद पिता बनकर संभाला था तब, -‘ कहीं नहीं गए नानाजी। 50 प्रतिशत आप में और 25 प्रतिशत मुझमें हैं। देखो, 75 प्रतिशत जिन्दा हैं वे हम दोनों में।‘ और तब अचानक पहली बार स्वभाव के अलावा, अपने दोनों के पैरों की बनावट तक एक लगी थी। बिल्कुल उन्हीके पैरों की तरह ही दिखे थे हम दोनों के पैर ।
क्या पता था कि 75 नहीं, शत् प्रतिशत जिन्दा रहेंगे बाबूजी हम में। आज भी हर सुख-दुख, परेशानी और उलझन में उतने ही साथ हैं वे जितने कि तब थे जब छोटी थी, उनकी गोदी में खेलती थी, उँगली पकड़कर चलती थी । इतना भरोसा था कि सोती-सोती भी चल लेती थी उनके सहारे तो। देखने वाले हंसने लग जाते थे। ढाई पौंड की इस मृतप्राय सतमासी बेटी को बाबूजी का अनन्य प्यार और दिन रात की मेहनत ही तो थी जो जिन्दा रख पायी थी, वह भी 1947 में जब एन्टी बायटिक तक नहीं मिलते थे, चिकित्सक व घर के अन्य सदस्य तो हार मान ही चुके थे, परन्तु बाबूजी ने कभी विषम से विषमतः परिस्थिति में भी हार नहीं मानी, ना ही तकलीफों के डर से कर्तव्य पथ से ही मुड़े, फिर चाहे वह परिवार की पुकार हो या देश की. या फिर समाज की। दादी बताती हैं जब 16 वर्ष की उम्र में अपने गांव के क्रांतिकारी दल के नेता की तरह निकले तो स्थानीय राजा ने पगड़ी रख दी थी उनके कदमों पर। उन्हें धन, पदवी, सम्मान किसी का लालच नहीं था। ना तो कोई चुनाव ही लड़ा, ना ही अपने नाम से बैंक में कभी कोई निजी एकाउंट ही रखा। जो भी था परिवार का था। खूब कमाया और पूरे परिवार को आजीवन जोड़े रखा। जो भी आया तन मन धन से जी खोलकर मदद की। परिवार, समाज सभी से बेहद इज्जत पाई बाबूजी ने। बेताज बादशाह की तरह रहे आजीवन। बेहद गर्व है मुझे अपने बाबूजी पर।
बाबूजी मेरी तरफ प्यार से देखते हुए अपने मित्रों को जब मेरे शैशव के जीवन के लिए किए गए कठिन संघर्ष की कहानी सुनाते , तो मैं लपककर उनकी गोदी में जा बैठती थी। सबसे सुरक्षित जगह थी वह मेरे लिए। और अब जीवन की इस लड़ाई में वह अभेद सुरक्षा कवच नहीं है मेरे पास, फिर भी मोर्चे पर तो हूँ ही।…
‘ आज से आप मुझे ही नानाजी समझना-कहकर बेटे ने उस रात सिर गोदी में रखकर सहलाया था। चन्द मिनटों को तो वही सान्त्वना मिली थी, जो हर दुख के पल में बाबूजी के बगल में बैठने मात्र से मिलती थी। ज्यादा बोलने की , भावों के आदान प्रदान की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी। बिना बोले ही सदा मन की बात सुनी और जानी है हमने। भाग्यशाली हूँ , जो भगवान ने इतने समझदार, स्नेही और साथ निभाने वाले बच्चे दिए। जो हर सुख दुख में न सिर्फ साथ है बल्कि समझते हैं मुझे।
आज बाबूजी को याद करते हुए हृदयस्थ उनकी हर स्मृति को पुनः पुनः नमन, इसी प्रार्थना के साथ कि त्याग,परोपकार व संयम जैसे उनके गुणों का अंश इस परिवार में भी बना रहे। सब कुछ होते हुए भी बेहद सादगी से आडंबर हीन और निस्वार्थ जीवन जीते बाबूजी के बताए आदर्शों पर हम भी चल सकें।…
शैल अग्रवाल