ब्रिटेन वापस लौटने के दिन नजदीक आ रहे थे पर गुजरात की धुंआधार यात्रा और अन्य कार्यक्रमों की वजह से इतना थक चुके थे कि कहीं निकलने को मन ही नहीं करता था। बिखरी यादों की पिटारी-सा बिखरा-बिखरा दिन था वह। समेटते-सहेजते याद आया कि अगले तीन दिन प्रिय भतीजे की शादी की मौजमस्ती मनाते पांचतारा होटल में ही निकल जाएंगे और उसके अगले दिन तो दिल्ली को वापसी है ही। पर यह कैसे हुआ कि घूमने-फिरने, सबसे मिलने-मिलाने और पसंदीदा अन्दाज में खरीददारी करने का वक्त ही नहीं मिला और ना ही ध्यान ही आया। बनारस अब मानो शिकायत करता-सा लग रहा था। अक्सर अपनों के बीच खड़ी अपनों को ढूँढने लग जाती हूँ- क्या यूँ ही लौट जाऊंगी इसबार बिना किसी से मिले, मन की करे। और उनका क्या होगा जो गंगा की लहरों में तिरोहित मेरे अपने मेरा इंतजार कर रहे हैं, जिनसे अंतिम विदा भी नहीं कह पाई। बस एक खबर मिली और धुँआ-धुँआ अदृश्य सभी गंगा में जा सिमटे। तबसे एक आदत-सी पड़ गई है कम-से-कम एकबार तो उस घाट पर जाकर लहरों से बतियाने की। भाई ने सुबह ही बताया था कि गंगा घाट पैदल भी बस दस मिनट ही दूर है। दशाश्वमेध न सही जो भी घाट पास में है, वही सही। कम से कम मन तो हल्का हो जाएगा। लहर लहर किनारे जुड़े हैं और बूंद-बूंद पानी समोए है सब कुछ। अंजुलि भर जल में ही चेहरे और यादें तैरने लग जाती हैं। मन बहलाने और समझाने की ही तो बात है सारी। आंखें नम थीं और मन बेहद ऊदा-ऊदा। गले में अटके पत्थर को झटपट निगलती बाहर निकल आई। वैसे भी जाड़े की वह गुनगुनी धूप बाहर निकलने को बार बार ही आमंत्रित कर रही थी। और तब हर अगर-मगर को पीछे छोड़ते, हम यूँ ही पैदल-पैदल घाट की ओर निकल पड़े।
सड़क पर धक्कम-धक्का के बीच कुत्ते, गाय-भैंस और विदेशी पर्यटक, मानो सभी हमारे साथ ही चल रहे थे। पर एक धुनभरी ललक में , कैसे भी खुदको बचाती संभालती, रास्ता पूछती, अनुमान लगाती, नाक की सीध में चलती चली गई। जबतक खुली चौड़ी सड़क थी और भीड़भाड़ भरा बाजार था, कोई दिक्कत नहीं हुई, पर गलियों के मोड़ पर पहुंचते ही पूरी तरह से भ्रमित थी। गनीमत थी कि नहाने नहीं, बस शाम की सैर पर ही निकले थे हम। ना तो कोई जल्दी ही थी और ना ही किसी तरह का बोझ ही था साथ में। अनजान मोहल्ला, तिसपर से बनारस की भूलभुलैया वाली गलियाँ, पर मन भी तो हठ समाधि ले चुका था। वैसे भी मन्दिर या किसी आधुनिक सुविधाजनक मॉल में जाने के बजाय घाट पर ही जाना है- सभी विकल्पों को छोड़कर खुद हमने ही तो चुना था। आदतें कभी नहीं बदलतीं, चाहे हम उन्हें बदलने की कितनी ही कोशिश करें। पहाणों की तरह ही नदियों और बहते जल का आकर्षण सदा से ही चुम्बकीय रहा है और भीड़भाड़ भरे शहर के बीच में तो यह अनुभूति पल भर में ही सारी ऊब और थकान मिटा देती है। फिर बनारस की यह गंगा ही तो अपनों का घर है अब…मेरे जैसों का असली मायका।
पर बनारस तो बनारस ठहरा। अस्त-व्यस्त और बेखबर, थकान या आराम से न इसका वास्ता था और ना ही मेरा। मोह त्यागने की और मोक्ष की नगरी है काशी, मोह में डूबने की नहीं, जानती थी। पर मोक्ष हरेक को तो नहीं ही मिलता। शिव की तीन लोक से न्यारी काशी में भी नहीं। गंगा तक तो उत्तरायण बहती है यहाँ पर अपने मूल को ही देखती। फिर मैं मां-बाप, बचपन को कैसे भूल जाती। जो समझ में आ जाए, या जिससे मन भर जाए वह मोह ही कैसा? धुंधभरी आंखों से चलती रही, ढूंढती रही वह अपनों का बस एक अदृश्य अहसास मात्र। एकबार फिर बनारस और गंगा से हलो और बॉय-बॉय दोनों ही कहने का समय आ चुका था मेरे लिए। किसी वाहन से भिड़ न जाऊँ इसलिए अब बरसी, तब बरसी आँखें कसकर पोंछ डालीं।
…
सरसरी नजर से तो सड़कों और गलियाँ ही नहीं, लोगों की मन-स्थिति और रख-रखाव सब कुछ वैसा ही था वहाँ पर, पर ध्यान से देखने पर चीजें तेजी से बदलती समझ में आने लगीं। खाने पीने में जगह-जगह चाट पकौड़ी और बंगाली मिठाइयों के साथ-साथ पीजा और बर्गर भी बिक रहे थे । क्षीरसागर के दूसरी तरफ ही भीड़भरे मैकडौनल्ड और पीजाहट थे। लड़कियों और युवाओं के कपड़े भी बड़े शहरों की तरह पाश्चात्य शैली के ही अधिक दिखे। यही नहीं, बौलीवुड की तर्ज पर उनकी काट-छांट भी अंगों को उभारने वाली या प्रदर्शन वाली ही अधिक थी। लगा भारत के संस्कार और संस्कृति दोनों ही कहीं छूट तो नहीं रहे? जैसे आदमियो की धोती की जगह अधिकांशतः पैंटों ने ले ली है, साड़ियों का प्रचलन भी लुप्तप्राय सा ही नजर आ रहा था। सहूलियत और आर्थिक दोनों हो वजहें हो सकती हैं। पार्टी में जाना हो या अधिक खूबसूरत महसूस करना हो तो भले ही मंहगी पारंपरिक साड़ियाँ निकल आए, किटी वगैरह में तो अब सभी वैस्टर्न या इंडो वैस्टर्न कपड़े ही पसंद करती हैं। वैसे भी सिल्क, जरी सभी कुछ इतना मँहगा हो चुका है कि यदि असली चाहिए तो हजारों नहीं अब तो बनारसी साड़ियों के दाम लाखों छूने लगे हैं। घर में भी साड़ी की जगह सूट और जीन्स ने ले ली हैं और अभिजात्य घरों में जूस और शर्बत की जगह बीयर, वाइन और मार्टीनी भी अब दिखने और पूछे जाने लगे है, विशेशतः अमीर युवाओं में। शराब लत नहीं, वैभव का प्रदर्शन बन चुका है । चारो तरफ बड़े-बड़े शो रूम बन चुके हैं। पर सड़कों पर आंखों के आगे वही पुराना बनारस था। चाट-पकौड़ी खाने वाले, बरात में नाचने वाले और पटरियल सामान बेचने वालों से बेवजह ही मोल-तोल करते तीर्थ यात्री और विदेशी पर्यटक तक, यहाँ आते ही किसीके पास इतनी फुरसत नहीं रहजाती, कि दूसरों की असुविधा और विलंब के बारे में सोचे तक या उन्हें थोड़ी सी भी जगह दे दें। हाँ, कई ठलुए और बच्चे अवश्य आ जुड़ते हैं इस रेलमपेल और भीड़ को बढ़ाने को। एक बड़ा और अच्छा बदलाव भी दिखा बनारस में, भिखारी नहीं थे। भीड़भाड़ इतनी थी कि कंधे से कंधा टकराए बगैर आदमी पैदल चल ही नहीं सकता था पतली-पतली और पुरानी इन सड़कों पर। आवारा कुत्तों और गाय भैंसों को अभी भी पहले सी ही खुली छूट थी आदमियों के साथ सड़क और गलियों पर टहलने-फिरने की। कूड़े के ढेर तो उतने नहीं दिखे, लिहाजा सिर भन्नाती वह तीव्र महक भी नहीं थी, जिसकी वजह से मेरे ब्रिटेन के पड़ोसी ने एक दशक पहले पूरे बनारस को ही खुले शौचालय की संज्ञा दे दी थी। पान की पीक और उसका जी मिचलाता भभका आज भी वैसे ही चारो तरफ सड़क और दीवारों को रंगे हुए था। अगल बगल के गद्दी वाले दुकानदारों से शिकायत की तो- ‘छोड़ें दीदी, जब हमन के मुँह से ही पनवा नाहीं छूटत तो औरन से का बोलेंगे। आदत पड़ चुकी है हम बनारसी लोगन को तो ई की।’ कहकर, वह पूरे बनारसी अंदाज में बड़ी ढिटाई से ठठाकर हंस पड़ा था। और तब हमारे बीच कहने-सुनने को कुछ नहीं बचा था।
वाहनों के जाम भी वैसे ही थे और व्यवस्था में भी कोई विशेष सुधार नहीं, खासकरके शहर के पुराने और व्यस्त बौटल नेक क्षेत्रों में । जबकि शहर के बाहरी और खुले क्षेत्रों में नए नए मॉल और डिजाइनर दुकानों के खुल जाने की वजह से युवाओं और गृहणियों की अफरा-तफरी में खूब वृद्धि हुई है और भीड़भाड़ के बावजूद आया-जाया जा सकता है। पर विश्वनाथ बाबा के दर्शन या विश्वनाथ गली घूमना तो मानसरोवर यात्रा जैसा ही कठिन और दुर्लभ महसूस हुआ मुझे। घंटों लम्बी लाइन थी चाहे जिधर से भी जाएँ, पर श्रद्धालु थे कि भरी दोपहरी भी, पसीना टपकाते अचल खड़े थे। कुंभ के मेले के दिन थे वे और साधु-संत, तीर्धयात्री व पर्यटक सभी इलाहाबाद के बाद बनारस ही तो आ जाते हैं दर्शन को। शिवरात्रि भी पास ही थी। तीनलोक से न्यारी काशी की आबादी कई गुना अधिक प्रतीत हो रही थी। जगह जगह लाउड स्पीकर पर एलान किया जा रहा था-बच्चों, वृद्धों का हाथ पकड़े रहें और गुम हो जाने पर तुरंत ही पुलिस को इत्तला करें। स्थानीय मीटिंग पौंइंट पर इंतजार करें । फिर हम तो बच्चे और वृद्ध दोनों ही थे। मन से बच्चे और शरीर से वृद्ध। हाथ पकड़े तो थे पर कौन किसको संभालता और खोने पर कैसे ढूँढता! फलतः मन-ही-मन हाथ जोड़कर ही दर्शन कर लिए थे विश्वनाथ जी के भी और संकट मोचन के भी। गली की मुहानी से ही प्रणाम करके दोनों का आशीर्वाद ले लिया। हालांकि दोनों छोटी बहनें दर्शन कर आई थीं। शायद उनकी श्रद्धा और मनोबल मेरे पास नहीं थे। यह तो था कल देखे चौक का वर्णन परन्तु यहाँ लंका के आसपास भी कोई ज्यादा फर्क तो नहीं। हमारी आबादी ही इतनी अधिक हो चुकी है फिर यह तो बनारस है, जहाँ चारो तरफ श्रद्धा और भक्ति का उमड़ता सैलाब रहता है। आदमी जहाँ जीने ही नहीं, मरने के लिए भी तो आता है। अब इसके लिए शाषक और नेता क्या कर सकते हैं! फिर शायद अर्थ व्यवस्था को बढ़ावा देने व व्यापार नीति के तहत यही अतिशय प्रयास और काशी का विज्ञापन भी तो था प्रशासन की ओर से।
ऐसा भी नहीं कि सुधार ही नहीं हुआ हो। बनारस की चमक-दमक बढ़ी है। बनारस से कियोटो की इस दौड़ में घाटों और गंगा के इस्तेमाल के भी नए और फायदे मंद तरीके ढूंढे जा रहे हैं। अर्थ व्यवस्था सुधरी है। जमीनों के दाम बढ़े हैं। बहुत कुछ बदल चुका है, बहुत कुछ बदल रहा है बनारस शहर ही नहीं, बनारसियों के भी अँदर-बाहर। विदेशी संस्कृति और बाजार दोनों ही इस छोटे शहर पर भी हावी होते से जान पड़े। विकास के लिए जरूरी भी है शायद। संचार और प्रचार के इस युग में अलग-थलग रहना तो वैसे भी संभव ही नहीं। इमारतें तो मानो पूरे शहर में ही नई शक्लें अख्तियार कर रही हैं, जो शहर की बढ़ती समृद्धि को परिलक्षित करती हैं। कई नई खड़ी थीं, पुरानी बिखरती हुई के बीच में शान से सिर उठाए… विकास और आधुनिकता व संपन्नता का एलान-सा करती। मानो नय़ा बनारस पुराने से मिलकर एक नयी पहचान लेने को तत्पर हो उठा हो। गंदगी और चमक-दमक की अद्भुत मिली जुली भेलपुरी-सी थी चारो तरफ और साथ ही भागती-दौड़ती, संघर्ष करती जिन्दगी की तीखी पसीने वाली महक भी। हर दो कदम पर झोपड़ झुग्गियों के बीच ही एक होटल खड़ा दिख जाता। बगल में ही पुराना और जर्जर अनाथ या विधवा आश्रम भी। नई विदेशी गाड़ियाँ थीं तो एक-एक ई रिक्शे में ठुंसे कई-कई लोग भी। और वहीं वाहनों के बीच हर चार कदम पर बरात या कोई जुलूस भी निकल आता और तब कहीं भी मीलों लम्बी लाइन लग जानी आसान बात है, वह भी मिनटों में।
मील डेढ़ मील का ही रास्ता था वह घर से घाट तक का। कार-वार के चक्कर में पड़ती तो शायद निकल ही नहीं पाते। फिर कार या रिक्शा कोई भी घाट तक तो नहीं ही ले जाता। फिर भी, दुर्घटना से बचना है तो पैदल ना ही चलें इन व्यस्त सड़कों पर वही बेहतर है। सुरक्षित पैदल पथों की बनारस को उतनी ही जरूरत है, जितनी कि वाहनों के लिए कुछ नई और चौड़ी सड़कों की। उसी अति व्यस्त माहौल में कैसे भी आती जाती कारों से तो कभी रिक्शों और ठेलों से खुद को बचाते-संभालते, हम उस त्रिमुहानी पर पहुंच तो गए जिसके आगे गली पार करते ही गंगा जी हैं- कुछ ऐसा ही सुबह बताया था भाई ने। पर त्रिमुहानी पर खड़ी किंकर्तव्य विमूढ़ थी। सामने तीन गलियाँ थीं और कौनसी घाट तक ले जाएगी-पता नहीं था। अचानक छाप तिलक लगाए वह व्यक्ति हनुमान जी-सा जाने कहाँ से उस सुनसान गली में हमारी मदद के लिए प्रकट हो गया। पर वह पंडित सा दिखता व्यक्ति हमारे प्रश्न के उत्तर में भी प्रश्न ही पूछ रहा था,
‘हनुमान घाट, तुलसी घाट, जानकी घाट या अस्सी घाट, कौन से घाट जाना है, आपको?’
‘कोई भी, जो करीब हो। ‘ शहर की भौगोलिक अज्ञानता पर असहज-सा महसूस कर रही थी अब मैं। एक नया अनुभव था यह भी,-अपने ही शहर में अजनबियों की तरह रास्ता पूछ-पूछकर घूमना और आगे बढ़ना। पर करती भी तो क्या …बनारस में पैदा होने और पलने-बढ़ने के बावजूद, इस मोहल्ले और क्षेत्र में पहली बार ही तो आई थी। और फिर बचपन में तो वैसे भी घूमना-फिरना चंद पहचानी गलियों और सड़कों तक ही सीमित रहता है, खास करके लड़कियों का। सामने वाला व्यक्ति भरोसे मंद लग रहा था।- मोहल्ला नया, तो पहचान भी तो नयी और धीरे-धीरे ही होगी इन गलियों से। गलत भी हो सकती थी पर चोर उचक्का नहीं, आसपास का ही रहने वाला लगा भलामानस। अंधेरे में ले जाकर लूटने वाला तो हरगिज ही नहीं। फिर भी अंगूठियाँ हथेली की तरफ घुमा दीं और खुद को समझाया- पति साथ हैं, डर किस बात का!
‘आइये, मेरे पीछे-पीछे आइये। उधर ही जा रहा हूँ । यहाँ से दूर नहीं है घाट। फिर एक घाट से दूसरे तक बहुत ही आसानी से पैदल-पैदल भी पहुंचा जा सकता है।‘
जवाब सुने बगैर ही वह हाथ से पीछे-पीछे आने का इशारा करके तीर-सा आगे निकल गया।
दुविधा और ठिठक को भांपते हुए मानो उसने मन ही पढ़ लिया था हमारा। पलट कर चुप्पी को तोड़ते हुए बातचीत की शुरुवात भी तब उसी ने की ।
‘ डरें नहीं। नए आए हैं क्या इस शहर में?’
फिर पतिदेव की अनमनी-सी ‘हाँ’ और मेरी ‘नहीं’ सुनकर तुरंत ही चुप भी हो गया वह। अब हम दोनों चुपचाप उस सुनसान संकरी-सी गली में हाथ भर की दूरी रखकर उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। निर्णय सही था या गलत, पर बढ़ते अंधेरे के साथ-साथ मन में एक भय-सा बैठता जा रहा था, पता नहीं कितनी दूर है घाट, पता नहीं कहाँ ले जा रहा है य़ह? काशी करवट भी तो वहीं कहीं आसपास ही था। बारबार वही बनारस के बारे में प्रचलित व बड़ों से सुनी ठगों और लूटपाट की कहानियाँ याद आ रही थी। कई बार खुद को मन-ही-मन कोसा, क्या जरूरत थी यह शौर्ट-कट लेने की।
राहत-सी देता, गली के अगले मोड़ के बाद ही गंगा का पाट दिखने लगा। गलियों वाला अंधेरा भी नहीं था अब। सामने डूबते सूरज की स्वर्णिम आभा से गंगा की लहरें जगर-मगर करती मानो बांहें फैलाए हमारा ही इंतजार कर रही थीं। अब बस चालीस पचास छोटी-छोटी सीढ़ियाँ ही रह गई थीं उनके और हमारे बीच। लहलहाती गंगा मैया और नहाते व नौका बिहार करते श्रद्धालुओं व पर्यटकों की मोहक छटा, भरी गर्मी के बीच पानी से उठता वह ठंडी बयार का झोंका, सबकुछ नयी ही स्फूर्ति दे रहा था थके मन और पैरों को- सारे संशय को दूर करता वही चिर-परिचित प्यार भरा आवाहन भी। उन्ही लहरों सा आलोड़ित मन अब उमग रहा था दौड़कर नदी तक पहुंचने को। हाथ पैर पानी में लटकाकर किनारे पर बैठने को। ख्याल मात्र से ही, शाम के उस धुंधलके में भी बच्चों की सी उतावली हो झटपट आगे बढ़ी, परन्तु अगले पल ही उम्र का लिहाज करती और फिसलने व गिरने के डर से रेलिंग पकड़ती धीरे-धीरे ही नीचे उतरी।
‘संभलकर बहन जी, सावधानी से। सीढ़ियों पर सावधानी से।‘
आगे-आगे चलता वह आदमी कबका नीचे की सीढ़ी तक जा पहुँचा था और मुंडेर पर बैठा वहीं से निर्देश और चेतावनी दिए जा रहा था। बीच-बीच में बड़ी तत्परता से देख भी लेता, मानो फिसलते ही दौड़कर संभाल लेगा। उसका यह अतिशय ध्यान अटपटा तो था परन्तु अपनत्व भरा और अच्छा लगा। आखिर अपने शहर में थी और हो सकता है उन सीढ़ियों पर कइयों को पहले गिरते देखा भी हो उसने । छोटे शहर और गांव के लोग, अभी भी चार कदम साथ चलते हैं तो रिश्ता कायम कर लेते हैं, जुड़ जाते है अजनबियों तक से ।
गंगा मैया के आशीर्वाद और सावधानी से हम दोनों उन सीधी खड़ी सीढ़ियाँ से सही -सलामत बिना किसी दुर्घटना के नीचे उतर आए। हाथ जोड़कर साभार विदा ली तब हमने अपने उस सद्य परिचित से। भदैनी घाट था वह और बगल में ही अस्सी घाट, जहाँ भीड़भाड़ ज्यादा थी और यहाँ के अपेक्षाकृत थोड़ी कम शांति। हमने यहीं इसी घाट पर रुकने का निर्णय लिया। घाट किनारे एक मनोरम जगह ढूंडकर बैठ गए हम। वैसे भी कोई विशेष कार्यक्रम तो था नहीं। आंखें अब आराम से अगल बगल का भी जायजा लेने लगीं। सामने लहरों पर गंगाचिल्ली झुंड में उड़ रही थीं। शायद मछलियों को ढूंढ रही हों, या फिर…मैंने सोच को वहीं रोक दिया और बहकने नहीं दिया। बगल में अस्सी घाट पर अच्छी चहल-पहल थी और सप्ताह के उस सामान्य बुधवार के दिन भी देहाती मेले जैसा माहौल था। गुब्बारे, नीबू पानी, चाय , भजन के सी.डी. और फूलमाला के साथ मइया की चूनर व प्रसाद सभी कुछ बिक रहा था । पर यहाँ ठीक हमारे सामने डूबते सूरज की स्वर्णिम किरणों में अटखेलियाँ करती गंगा की लहरें निर्मल थीं। बीसियों गंगाचिल्ली अभी भी सिंदूरी किरणों के नीचे लहरों पर मंडरा रही थीं और कई श्रद्धालु और कुछ पर्यटक अभी तक उन्ही के नीचे गंगा में डुबकियां ले रहे थे। कुछ बच्चे गोताखोरी का भी अभ्यास करते दिखे। उन्ही अधनंगे हुड़दंग मचाते बच्चों और किशोरों के बीच कुछ विदेशी पर्यटक भी थे जो गंगा की शीतल और शांत लहरों का जी भर-भरकर आनंद उठा रहे थे। संभवतः अनूठा और नया अनुभव था यह भी उनके लिए और किसी भी समुद्र तट से अधिक शांत व सुरक्षित भी। फिर आस्था के रहस्य से भी तो जुड़ा हुआ है गंगा में नहाना। मोक्षदायी है-अब तो यह बात देशी-विदेशी सभी को पता चल चुकी है। यहाँ की यह शांति और अलौकिकता ही तो असली आकर्षण है और शायद पर्यटन और अर्थ-व्यवस्था के लिए काशी का संतोषजनक प्रचार भी।
आँखें आभार में सामने बैठे उस अजनबी पर फिर जा अटकीं , वही तो हमें यहाँ तक लाया था।
अब वह पंक्तिबद्ध पर्यटकों से पैसे ले रहा था और उन्हें टिकट बांट रहा था। उत्सुकता जगी। देखते-देखते एक सुंदर सजी-धजी नाव भी किनारे आ लगी और तुरंत ही देशी-विदेशी पर्यटकों की भीड़ लग गई वहाँ उसके आसपास। नाव दशाश्वमेध घाट तक जा रही थी वहाँ आरती के लिए रुककर वापस ले आएगी उसी ने हमारी जिग्यासा को शांत किया।
तो दशाश्वमेध घाट ने बुला ही लिया। आँखें खुशी से भर गईं।
‘अगर आपको भी जाना है तो किनारे पर खड़ी हो जाइये और अंत में लौटकर पैसे दीजिएगा। इनके सामने तो हरगिज ही नहीं। स्पेशल रेट दूंगा मैं आपको।‘
बात समझ में नहीं आई- ऐसा क्यों? फिर भी कुछ पूछा नहीं। शायद कुछ-कुछ समझ में आ रही थी। वैसे भी, जो भी ले ठीक ही है। बनारसी होने का भाईचारा जुड चुका था हमारा।
आरती तो कई बार देखी थी पर दशाश्वमेध घाट का लोभ संवरण नहीं हो रहा था। पति की तरफ देखा तो बोले- चलो घूम ही लेते हैं, किनारे पर भी क्या बैठना।
जितनी बड़ी-बड़ी नावें आसपास घूम रही थीं उस हिसाब से नाव छोटी थी पर मोटर से चलने वाली और नई। हम दस बारह पर्यटकों के साथ दो मल्लाह भी बैठे। जरूरत पड़ने पर चप्पू भी तले में रखे दिखे। सामने बैठा युगल पूना से था और बगल में बैठा जर्मनी से। अपना परिचय मैंने स्थानीय ही कहकर दिया- पैदा बनारसी तो कहीं भी रह ले पर ताउम्र बनारसी ही तो। खुद पर ही हंसने की अब मेरी बारी थी। कौन कहेगा पचास साल हो चुके बाहर रहते-रहते।
हर हर महादेव के जयजयकारे के साथ हमारी नाव चल पड़ी। अब रामनगर और मुगलसराय को अस्सी से जोड़ता नया पुल दिख रहा था और लहरों में आग लगाती सी उसकी रौशनी भरी झिलमिल परछांई भी। पुल वाकई में शाम के उस धुंधलके में जगर-मगर कर रहा था। उधर जाने को अब पूरा शहर पार करने की और राजघाट के पुल तक जाने की जरूरत नहीं रह गई थी। गंगा के दोनों पाट यातायात और वाहनों के लिए जुड़ और खुल चुके थे। राजघाट के पुल से लेकर मैदागिन तक जो जाम लगा करता था, उसकी यादें शिशुबिहार के दिनों से ही परेशान करने वाली रही हैं मेरे लिए। स्कूल बस घंटों खड़ी रह जाती थी वहाँ पर और अक्सर चार साल की मैं पिताजी के मना करने पर भी पैदल ही मैदागिन घर के लिए विश्वेश्वर गंज से चल पड़ती थी । निश्चय ही कुछ तो आराम और सुविधा मिली ही होगी बनारस वासियों को इस नए पुल से।
चार कदम चलकर नाव अस्सी घाट पार करते ही वापस घूम गई। जानकी घाट, तुलसी घाट होते हम हरिश्चन्द्र घाट की तरफ बढ़ रहे थे। विजयानगरम घाट का रूप काफी बदला और संवरा दिखा दूर से। रंगी पुती कुछ नई मूर्तियाँ दूर से ही दिख रही थीं। पर हवा में फिर वही जलती चिताओं की महक थी, जिससे बचपन से ही बेचैन हो जाया करती थी। फिर भी हर इतवार को नौका विहार तो अवश्य ही करती ही थी। गंगा नहाने का शौक नहीं था पर गंगा से दूर नहीं रह पाती थी। तब भी थोड़ी देरतक आंखें बन्द रखने के बाद, अभ्यस्त हो जाती थी शायद इस तीखी गन्ध से भी और अपने मृत्यु और शवों के भय से भी। जलती चिताओं को भयभीत और निष्पलक घूरते रहना मानो आदत-सी पड़ चुकी थी। बनारस में नौका बिहार की, रहन सहन और जीवन दर्शन की, मौत हमेशा से एक अभिन्न हिस्सा रही है। भलीभांति जानता और पहचानता है हर बनारसी इसे। फिर वैसा ही हुआ। बन्द आंखें खुलीं तो सामने अद्भुत दृश्य था। लगा लपटों के बीच कोई कुत्ता वगैरह है वह, टांगे ऊपर को उठाए सीधा पड़ा जल रहा है। पर यह कैसे संभव है, जानवरों का तो शवदाह नहीं होता! फिर दोबारा ध्यान से देखा तो दूर से भी आकार स्पष्ट हो चला। चिता में बैठी हुई लाश थी और ताप से टेढ़ी मेढ़ी लुढ़क रही थी। जिन्दगी भी कितना छलती है- किसीको सबकुछ देगी, किसीको ढंग का अंतिम पल भी नहीं। पर यह कैसे संभव है? अनायास ही मुंह से निकला। लावारिश होगा, ऐसे ही बैठे-बैठे प्राण निकल गए होंगे और पड़ी पड़ी लाश ऐंठ गई होगी। किसीने बताया या खुद ही सोच लिया याद नहीं, पर अब आंसू भरी आंखों से बेवकूफ न लगूँ , इसलिए दूसरी तरफ मुंह घूमाकर बैठ गई और सुरमई अंधेरे में मिली हरी-नीली शीतल लहरों को देखने लगी, जहाँ एक ताजी कटी पतंग लहराती-सी नाव की तरफ बही चली आ रही थी। पतंग सुंदर थी। मल्लाह ने लपक कर बच्चों की सी व्यग्रता से चप्पू के साथ उठा लिया उसे। परन्तु आश्चर्य तो तब हुआ, जब मांझे को उंगलियों पर लपेटकर तोड़ा और फिरसे पतंग को वैसे ही गंगा में वापस बहा दिया।
‘चीनी कांच लगा तीखा माझा है यह। छूते ही मछलियों का गला काट देता है।‘ मेरी विस्मित आंखों को देखकर उसने स्पष्टीकरण भी दिया मुझे। हवा के साथ आती तीखी महक बता रही थी कि आसपास बहुत मझलियाँ थीं। शायद लाशों के गोश्त की वजह से या फिर मछलियों की खेती होती हो यहाँ पर। रूमाल न होने की वजह से मैंने पर्स को ही अपनी नाक पर रख लिया था। हाँ, उसकी जागरुकता और पर्यावरण के प्रति सतर्कता अवश्य बहुत ही अच्छी लगी । अचानक ही गंगा में हलचल बढ़ गई। बीसियों नावें आ चुकी थीं चारो तरफ, सैकड़ों यात्रियों से लदी-फंदी। दो तीन बड़े और सभी सुख-सुविधाओं से लैस बजड़े भी दिखे जो कि खचाखच भरे हुए थे। बहुत किराया है इनका। सरकारी बजड़े हैं। मोदी जी ने चलवाए हैं। कुछ प्राइवेट भी हैं। पर सबकी खपत है यहाँ बाबा विश्वनाथ की दया से- इनकी भी और हमारी भी। वह पलपल ज्ञान वृद्धि कर रहा था हमारी। कौन आएगा, इसबार ? फिर से मोदी जी? पति अब उसके साथ आगामी चुनाव और राजनीति की बहस में पड़ चुके थे। मैंने देखा बनारस जितना भी बदला हो , जितना भी विकास हुआ या नहीं हुआ हो, परन्तु गंगा और इसके घाट अवश्य बदल रहे थे। तीर्थ स्थली के साथ-साथ मनोरम पर्यटक स्थल भी बनते जा रहे हैं ये। आध्यात्म और दर्शन के नाम पर भी कई नई इमारतें थीं सामने। मुरारी बापू की तो ठीक गंगा के बीच में ही। बेहद व्यवहारिक और व्यापारिक होती जा रही है अपनी गंगा और काशी। अगली बार आई तो शायद और भी बहुत कुछ नया देखने को मिले। विश्वनाथ कौरिडोर के बाद तो शायद कचौड़ी गली और विश्वनाथ गली, ठठेरी बजार जैसी जगहों की शकल ही बदल जाए। मछलियों की खेती, चारो तरफ मशरूम की तरह उगते होटल और ये तैरते बजड़े व नावें सब समर्थन कर रहे थे मेरी सोच का । शायद अब ये बनारसी मल्लाह और पंडे भी शीघ्र ही ठग नहीं सफल और संपन्न व्यापारी हो जाएँ। असर तो था। कई जगह घाट के किनारे खड़ी फूस की छतरियों की जगह नारंगी हरे नीले पीले त्रिपाल भी लगे दिखे पंड़ों की चौकी पर, जो नाव से देखने पर भद्दे लग रहे थे और आँखों में गड़ रहे थे। याद दिला रहे थे कि सभी परिवर्तन सुधार नहीं। कुछ बस सुविधाजनक ही कहे जाएंगे। नाव पंचगंगा पर पहुँच चुकी थी। यह वही घाट था जहाँ माँ ताउम्र करीब करीब हर सुबह ही माँ और चाची डुबकी लगाती थीं। पैदल-पैदल गलियों-गलियों ही आ जाती थीं। गाड़ी या रिक्शा वैसे भी नहीं पहुँच सकते उन गलियों में। यही असली बनारस मस्ती थी तब। बनारसियों की मौर्निंग वॉक भी और आत्मशुद्धि भी। बिल्कुल अपने रहे है ये घाट, बचपन की सैकडों यादों से जुड़े।
पंचगंगा घाट से हमारी नाव मुड़ी और पचासों नावों के बीच जगह ढूंढती दशाश्वमेध घाट और शीतला घाट के बीच आ लगी। पंडे ने बताया शीतला घाट की आरती बेहतर है। मेरे लिए तो सभी कुछ बेहतर था , यहीं पर तो सभी को विदा किया था। इन्ही सीढ़ियों पर बैठकर मणिकर्णिका से आती लहरों में ढूँढा था उन्हें। मन ही मन जी भरकर लाड-प्यार और शिकवे-शिकायत किए थे कभी। सात बजने वाले थे और आरती शुरु होने वाली थी।
शंखनाद हो चुका था और कपूरी दियों ने हवा को महकाना शुरु कर दिया था। हमें दशाश्वमेध और शीतला दोनों ही घाटों की आरती दिख रही थी। कभी इधर सुनती और उधर देखती तो कभी उधर देखती और इधर का सुनने की कोशिश करती। मन तितली-सा उड़ रहा था, कभी कुछ ढूंढने की कोशिश करता , कभी बस उस दिव्यता में डूब जाता। हवा में उड़ता वह मंजीरों और घंटों की ताल पर गूंजता श्लोक-महकता आरती का समवेत और उच्च स्वर एक श्रद्धा से भरा उत्तेजित वातावरण पैदा कर रहा था। मानो उनके साथ-साथ हवा में उड़ रही थी मैं भी, लहरों में बह रही थी। भूले बिसरे सबसे गले मिल रही थी। एक जगह पांच और दूसरी तरफ 11 लड़के भव्य और प्रज्वलित दियों से शंखनाद और मंत्रोच्चार के साथ गंगा आरती कर रहे थे। सब कुछ बेहद दर्शनीय और वातावरण कलात्मक व भक्ति की उर्जा से ओतप्रोत था। बहुत धार्मिक या कर्मकांडी न होते हुए भी अब मन को अद्भुत शांति मिल रही थी। उस आध्यात्मिक और उर्जामय पल को कुछ तस्बीरों में कैद किया और फिरसे आँखें बन्द करके भजन का आनंद लेने लगी। कपूर और धूप की उड़ती महक और श्री रामचन्द्र कृपालु भजमन हरण भवभय दारुणम् की गूंजती वे स्वर लहरियाँ तन और मन दोनों को ही आराम दे रही थीं। मैंने देखा पति के चेहरे पर भी संतुष्ट मुस्कान थी। कुछ लोग अब आरती देने नावों पर भी उतर आए थे और एक एक यात्री को आरती देते सभी नावों पर घूम रहे थे। देखकर अच्छा लगा। हमारा भी नंबर आया। अब हम पूजा में न होकर भी पूरी तरह से पूजा में शामिल और इसका हिस्सा थे। थोड़ी देर बाद ही, उस भीड़ और दृश्य से खुद को काटती, हमारी नाव मुड़ने लगी। मैंने भी स्मृति तंद्रा से जगते हुए प्रणाम किया और गंगा व उसकी गोदी में समाए प्रियजनों से फिर आने का वादा करके मन ही मन विदा ले ली।
अगला पल रोमांचक था । गंगा की लहरों पर सड़कों सा ट्रैफिक जाम। बारबार ही नाव के अंदर हाथ पैरों को रखने को कहा जा रहा था ताकि चोट न लगे परन्तु श्रद्थालु अभी भी गंगाजल ले और भर रहे थे । माथे और आँखों से लगा रहे थे। एक दूसरे के मस्तूलों से टकराती , चप्पू से परे धकेलती, हमारी नाव भी निकल ही आई वहाँ से और अगले दस मिनट में हम वापस भदैनी घाट पर पहुंच गए थे।
वादे अनुसार सबके उतरने के बाद ही हमने पैसे दिए। वाकई में उसने आधे ही पैसे लिए। फिर हंसकर बोला- ‘ जीजी पहचाना , हम मगरू हैं। शैला जीजी ही न हैं आप और यह जीजा जी? बहुत दिन बाद आईं इसबार इधर। ‘
वह बोले जा रहा था और मैं चुपचाप यादों के पन्ने पलटती, उसे पहचानने की कोशिश कर रही थी।
‘अच्छा जीजी प्रणाम। अब आप गली के रास्ते से नहीं, अस्सी घाट से ही लौटिएगा। रोशनी भी है और सवारी भी आराम से मिल जाएगी।‘
जाने किस नेह और परवाह में डूबा वह अभी भी एक हितौषी-सा मशवरे पर मशवरे ही दिए जा रहा था, पर वह गूंजती महकती यादगार शाम अब अपने आखिरी पड़ाव पर जा रहुंची थी। शायद बातचीत के दौरान उसने पति के मुंह से नाम सुन लिया था। या फिर घर या कारखाने में काम करने वाला कोई नौकर -मजदूर रहा होगा कभी। या किसी मल्लाह का बेटा हो , जिसकी नाव में बचपन में घूमी थी! कई ‘शायद’ थे जो अब बचपन की गलियों बीच रंग बिरंगे गुब्बारों से घूम रहे थे। तरह-तरह से बहला-भटका रहे थे। पर मैंने फूटने के डर से एक को भी नहीं पकड़ा। पीछे छूटी लहरों की तरह बिना कुछ बोले बस हाथ जोड़े-जोड़े ही पलट ली। रास्ते भर सोचती रही- कौन था यह मगरू? फिर भी, याद न आने पर भी, जैसा उसने कहा वैसा ही किया हमने और अस्सी घाट से ही लौटे। अंधेरा वाकई में शायद उन अनजान गलियों में बहुत रहा होगा। यह बात दूसरी थी कि घर पहुँचने के लिए रास्ता थोड़ा ज्यादा लम्बा और भीड़-भरा हो गया था हमारे लिए, और वह रास्ते का चक्का जाम तो बहुत ही जबरदस्त और भयानक ही मिला था हमें उस रात, जब हम जाने कितनी देर औटो में बैठे बरात और बरातियों का नाच ही देखते रह गए थे। शायद ऐसे ही किसी पल में तो कबीरदास ने कहा था-माया महा ठगनी हम जानी…
शैल अग्रवाल