न हम कहानीकार हैं, न व्यंगकार, न कवयत्री, न निबंधकार, न लधुकथाकार और न उपन्यासकार। हम साहित्य की सभी विधाओं में हाथ डाल चुके हैं ।कहानी, लघु कथा, निबंध, आलेख, प्रहसन, रिपोतार्ज, संस्मरण, यात्रा संस्मरण यहाँ तक कि पुस्तक समीक्षा भी लिख चुके हैं। सबसे पहले तो हमें यह निर्णय लेना था कि पुस्तक किस विधा की प्रकाशित करवायें। अब भानुमति के पिटारे की तरह एक ही किताब में सभी विधाओं को छपवाना तो उचित नहीं लगा।
बाज़ार को देखें तो सबसे ज़्यादा उपन्यास बिकते हैं फिर कहानियाँ, उपन्यास तो नही पर कुछ कहानियाँ तो लिखीं थीं ,कुछ छोटी कुछ बड़ी पर इतनी नहीं थी कि एक पुस्तक छप सके। व्यंग और लेख अधिकतर सम सामयिक विषयों पर लिखे थे, उन को हटा कर न इतने व्यंग्य बचते न लेख जिनसे पुस्तक बन सके। हमारी उम्र हो चुकी है, पर तजुरबा नहीं है, यहाँ तो 80-90 पृष्ठ के पेपर पैक भी खूब छपते हैं, जो किसी ट्रैवल एजैंसी के ब्रौशर जैसे दिखते हैं ,बुक शैल्फ़ में खड़े रहने की भी ताक़त नहीं होती है। हमें तो सुन्दर सी आकर्षक सी कम से कम 200 पृष्ठों की पुस्तक छपवाने की चाह थी इसलिये कविता संग्रह छपवाने के अलावा कोई विकल्प बचा ही नहीं था, कविता के बाज़ार में हमेशा मंदी का आलम रहता है, फिर भी हमने कविता संग्रह ही छपवाने का निर्णय लिया।
किताब छपवानी ही है, तो सबसे पहला क़दम तो पाण्डुलिपि तैयार करने का ही होगा।अब हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का ज़माना तो है नहीं, यह हम अच्छी तरह जानते हैं।हमारी सारी कवितायें पहले से ही देवनागरी लिपि टंकित हमारे कम्प्यूटर पर सुरक्षित हैं। हमने अपनी कविताओं को विषयानुसार अलग अलग अध्यायों में बाँट कर सिलसिलेवार एक नया फोल्डर बना लिया।भूमिका भी लिख ली और अनुक्रमणिका भी बना ली। कुछ कवि मित्रों से अपनी प्रशंसा में कुछ पंक्तियाँ भी लिखवाली ,वो प्रस्तावना हो गई।। हमारी पाण्डुलिपि तैयार हो गई।
अब अगला क़दम प्रकाशक को ढूँढना था। कुछ साहित्यकार मित्रों ने प्रकाशकों के नाम दिये, कुछ गूगल से ढूँढे फिर उन सबसे फोन पर बात करके ऐसा लगा कि उनमे से तीन प्रकाशकों में से हमें किसी एक से पुस्तक छपवानी है, आगे उन ही से संवाद करना है। तीनो ने लगभग एक ही बात अलग अलग शब्दों में कही। उनका कहना था कि किसी भी लेखक या कवि की पहली किताब वो अपने ख़र्च पर नहीं छापते।यदि पहली किताब की बिक्री अच्छी हो जाये तो वे दूसरी किताब ख़ुद छाप भी देंगे और पुस्तक बेचने की ज़िम्मेदारी भी लेगे। उन्होने बताया कि हमारी कवितायें अच्छी हैं, पर हर अच्छी चीज़ बिक भी जाये ये ज़रूरी नहीं है।
हमने उनसे पूछा ‘’किताब छपवाने में कितना ख़र्चा आयेगा ?’ तो उन्होने कोई सीधा सा उत्तर न देते हुए कहा ‘’ये ख़र्च बहुत सी बातों पर निर्भर करता है जैसे काग़ज और छपाई की गुणवत्ता, किताब के पन्नो की संख्या और आपको कितनी प्रतियाँ छपवानी है इत्यादि, कम से कम 300 प्रतियाँ तो छपेंगी ही, जितनी ज़्यादा प्रतियाँ छपेंगी मूल्य उतना ही कम होता जायेगा।‘’ किताब छपवाने का जब मन बना ही लिया था तो काग़ज और छपाई की गुणवत्ता से हम कैसे कोई समझौता करते!आख़िर हमारी अंतिम इच्छा थी।
हमारे कुछ वरिष्ठ मित्रों ने हमें समझाया कि कविता आजकल कम बिकती है…….. हमने कहा कि आजकल क्या कविता तो हमेशा से कम बिकती है।हम तो निर्णय ले चुके थे, जब हमारी इस इच्छा का अंदाजा वरिष्ठ मित्रों को हुआ तो उन्होंने हमें बहुत प्रोत्साहित भी किया, प्रकाशक आसानी से मिल गये पर आधी पुस्तकों को हमें उनसे ख़रीदकर बेचना था, आधी पुस्तकें उन्हें बाज़ार में उतारनी थीं हम जानते थे कि कविता संग्रह आजकल बड़े बड़े कवि नहीं छपवा पा रहे हैं, जब तक कि वो किसी सरकारी पद पर आसीन नहों तो, हमें अपनी इच्छा या यों कहें अंतिम इच्छा पूरी करने के लिये कुछ राशि का पर जोखिम उठाना ग़लत नहीं लगा।
कुछ महीनों में हमारी और प्रकाशक की कड़ी मेहनत के बाद किताब छपकर तैयार हो गई, किताब बहुत आकर्षक छपी थी,कभी हम किताब देखते तो कभी उसपर छपा अपना नाम ! हमने साहित्य जगत के कुछ मित्रों और पारिवारिक मित्रों के साथ पुस्तक का लोकार्पण भी कर दिया, सभी को हमने पुस्तक भेंट की , इसके बावजूद बहुत सारे लोगों ने अतिरिक्त प्रतियाँ हमसे ख़रीद भी ली दूसरों को उपहार में देने के लिये ।हम बेहद ख़ुश थे।
अगले दिन लोकार्पण के चित्रों के साथ हमने अपनी पुस्तक का संक्षिप्त विवरण फ़ेसबुक पर भी डाल दिया हमें लगा कि 5000 मित्रों में से 50 लोग पुस्तक ख़रीदने में रुचि दिखायेंगे , इसके अलावा हमारे पास फॉलोअर्स भी हैं, जो कि विशेषकर हमारे लेखन या यों कहें कि कविताओं की वजह से ही हमसे जुड़े थे पर ये क्या………. वहाँ तो लाइक्स और बधाई के अलावा कुछ था ही नहीं! केवल दो तीन लोगों ने पुस्तक ख़रीदने की इच्छा व्यक्त की। फोन भी आये ई मेल भी आये बधाइयाँ झोली भर भर के मिलीं।पुस्तक ख़रीदकर पढ़ने की इच्छा कम ही जताई गई थी । कुछ स्वयं भू समीक्षक पुस्तक मुफ्त में लेकर मुफ़्त में समीक्षा लिखने को संपर्क साध रहे थे। हमने फेसबुक मित्रों की संख्या 3000 के नीचे पहुँचा दी है और 500 तक पहुँचाने का लक्ष्य था ।हमने अपनी सोसायटी से भी दो तीन पड़ौसियों को लोकार्पण में बुलाया था उन्हें किताब बहुत पसन्द आई पर प्रचार करने की बजाय उन्होंने वही किताबें पूरी सोसायटी में घुमा दीं, शायद अभी भी घूम रही हैं!
अब हमें कुछ किताबें अपने नजदीकी रिश्तेदारों को भेजनी थीं, साहित्य जगत के उन वरिष्ठ लोगों को उपहार में भेजनी थीं जो हमें प्रोत्साहन देते रहे थे या फिर वो जिनके लेखन से हम प्रभावित थे, जिन्हें हमने किताबें भेजी उनमें से कुछ ने अतिरिक्त किताबों की माँग की तो हमने साफ़ कह दिया कि अतिरिक्त किताब तो उन्हें हम से ख़रीदनी होगी अब हमें ढेरों किताबें कोरियर से भेजनी थीं, उपहार वाली भी और ख़रीद वाली भी। कई लोगों ने किताब मिलने की सूचना दी, कई चुपचाप बैठ गये। किसे किताब मिली किसे नहीं हम कभी नैट पर चैक करते, कभी लोगों को फोन करके पता करते रहे थे। जिन्होंने किताबें ख़रीदीं उनको पैसे देने की याद दिलाते तो वो हमसे ऐसे पेश आते थे मानो हम ही ने उनसे कुछ उधार लिया हो! आख़िर कब तक तकाज़े करते, चुप बैठ गये!
इधर एक और कांड हुआ कि हमारे सात कोरियर ग़ायब हो गये जिनका कोई सुराग नहीं मिला ।कोरियर कंपनी वाले भी मुफ्तख़ोर पाठक होंगे ये हमने कभी नहीं सोचा था। क्या कभी इतने सारे कोरियर एक साथ ग़ायब होते हैं! वो फोन नहीं उठाते , मेल के बेतुके जवाब देते और हम धमकी देते रहे थे। हम इस चक्कर से थक चुके थे और बेचने की ज़िम्मेदारी अमेज़न पर डाल दी थी है। अमेज़न तो बहुत बड़ी नदी है हमारी एक एक किताब को बहा कर शायद सागर(पाठक )तक पहुँचा दे! अब ‘मैं सागर में एक बूँद सही’ बची हुई 15 प्रतियाँ हमारी बुक शैल्फ के एक ख़ाने में समा गई है!
इसके बाद हमने पक्का निर्णय लिया कि न हम साझा संग्रह में अपनी रचनायें छपवायेंगे न एकल संग्रह छपवायेंगे जब तक प्रकाशक हमारी पुस्तकों को शत प्रति शत बिना हमारे आर्थिक सहयोग के छापने को तैयार हों। अब सहयोग राशि कहो या कुछ पुस्तकें ख़रीदने की बात हो, या डिपौज़िट की बात हो हम इस झमेले में नहीं पड़ने वाले । लिखना हमने न कम किया न छोड़ा बल्कि और अधिक उत्साह से लिखा और पिछले वर्षों में हमारी दो पुस्तकें निशुल्क छपी भी, कई ई बुक भी बनी हैं।
कवियत्री, लेखिका
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