जैसे मौसम के अनुसार पक्षी एक स्थान से उड़कर दूसरे स्थान पर चले जाते हैं वैसे ही मेरी भी आदत बन गई है। जाड़े में जब उत्तर भारत में कड़ाके की ठंड पड़ती है, लोगों की कपकपी छूटती है तो मैं दक्षिण भारत की ओर सरक जाता हूँ। इस बार वाराणसी से उड़कर मैं चेन्नई आ गया हूँ। यहाँ मेरी पुत्री पूनम रहती है। उसके पति नितिन पांडेय यहाँ नेस्ले कंपनी में कर्यरत हैं। यहाँ पूनम का परिवार वाल्मीकि नगर में रहता है। यहाँ से समुद्र का किनारा पास में ही है। समुद्र की ध्वनि पूनम के आवास (श्रीकृपा) से सुनाई पड़ती है। समुद्र की यही ध्वनि ब्राह्म मुहूर्त में मुझे जगाती है। बिस्तर पर पड़ा-पड़ा मैं समुद्र-गीत सुनता रहता हूँ। फिर बिना किसी को जगाए चल पड़ता हूँ समुद्र दर्शन के लिए। ज्ञातव्य है कि बाहर जाते समय दरवाजा ओठ जाने पर स्वचलित रूप से उसमें ताला लग जाता है।
मैं समुद्र के किनारे आ जाता हूँ। क्या बताऊँ कैसा लग रहा है वहाँ, सबकुछ वर्णातीत है। समुद्र के किनारे टहलता हूँ। ठँडी-ठँडी हवाएँ मुझे स्पर्श करके आगे बढ़ जाती हैं। समुद्र के किनारे बालू की राशी से लहरें टकराती हैं। इस टकराव से उनका नीलापन समाप्त हो जाता है, वे सफेद हो जाती हैं। अरे, यह तो गुणात्मक परिवर्तन है। कहाँ नीलापन, कहाँ सफेदी! सबकुछ ‘ टकराहट’ का परिणाम है। ऐसा माना जाता है कि टकराहट से नए गुणों की उत्पत्ति होती है। वस्तु में प्रच्चन्न गुणों का उद्भव टकराहट से ही तो होता है। किसी उर्दू शायर ने ठीक ही कहा है— ‘ सुर्खरू होता है इन्साँ ठोकरें खाने के बाद/रँग लाती है हिना पत्थर पे पिस जाने के बाद।’ अरे हाँ, कार्ल मार्क्स ने भी तो कुछ ऐसी ही बात कही थी। उसने कहा था -टकराव (संघर्ष) की स्थिति में मात्रात्मक से गुणात्मक परिवर्तन होता है। समुद्र के नीले जल का सफेद होना गणात्मक परिवर्तन ही तो है। मुझे लगता है। मुझे ऐसा लगता है कि कार्ल मार्क्स का यह सिद्धाँत जड़-जगत में तो लागू होता है, पर चेतन जगत्, मानव जगत् इस सिद्धांत की सीमा से बाहर पड़ता है। चेतन जगत् का व्यापार जड़-जगत की भांति यंत्र चलित नहीं होता। इसलिए जड़-जगत् से संबंधित उक्तियों एवं दृष्टांतों को चेतन-जगत् पर आरोपित नहीं करना चाहिए। मार्क्स ने अपने सारे दृष्टांत जड़-जगत् से उठाकर चेतन् जगत के मस्तक पर चस्पाँ कर दिए हैं। दृष्टांतों की यही तो कमी है। इनकी सहायता से बात तो झट से समझ में आ जाती है, पर इनसे विषय की यथार्थ व्याख्या नहीं हो पाती।
साहित्य और दर्शन में तो दृष्टांतों की भरमार है। दृष्टांतों के माध्यम से लोगों के मस्तिष्क में ऐसी-ऐसी बातें भर दी जाती हैं, जो यथार्थ से कोसों दूर होती हैं। इस संबंध में साहित्य से एक उदाहरण। ‘उत्तररामचरितम्’ में भवबूति कहते हैं— ‘ जैसे एक ही जल भँवर, बुदबुद और लहरों का रूप धारण कर लेता है वैसे ही करुण रस निमित्त भेद से भिन्न-भिन्न रसों में रूपान्तित होता है।’
एको रसः करुण एव निमित्तभेदाद्
भिन्नः पृथक् पृथगिवाश्रयते विवर्तान्।
आवर्तबुदबुदतरड्गमयान् विकारा
नम्भो य़था सलिलमेव हि तत्समस्तम्।।
यहाँ कवि ने यह मान लिया है कि तत्वतः रस अनेक नहीं, एक है करुण। इसी एक करुण रस का रूपांतरण विभिन्न स्थितियों में होता रहता है जिससे अन्य रसों की सृष्टि होती है। मुझे ऐसा लगता है कि करुणरस को महिमामंडित करने के लिए कवि ने जल के दृष्टांत का सहारा लिया है। यह दृष्टांत यथार्थ पर परदा डालता है। वास्तविकता यह है कि विभिन्न रसों की अपनी अलग-अलग सत्ता होती है। हाँ, इनका अधिष्ठान एक होता है, मानव-चित।
अरे, मैं कहाँ से कहाँ चला गया। कहाँ समुद्र का यह मनोरम दृश्य, कहाँ मार्क्स की नीरस व्याख्या और भवभूति की कल्पनात्मक उड़ान। हाँ, तो समुद्र के किनारे मुझे केकड़े दिखते हैं। लहरें आती हैं, उनका घरौंदा बिगाड़ देती हैं। थोड़ी देर में किलबिलाते हुए वे अपने बालू-घर से बाहर आते हैं और तीर की तरह दूसरी ओर भाग जाते हैं। इतने छोटे जीव को भी अपने प्राण-रक्षा का ढंग आता है। कितना गहरा है प्रकृति का रहस्य। किसने इन क्षुद्र जीवों को बताया है कि खतरे की स्थिति में क्या करना चाहिए। मेरे पैर मुझे ढोकर आगे ले जा रहे हैं। एक जगह कुछ मछुआरे मिलते हैं। वे समुद्र में अपना जाल फैलाते हैं। जाल का एक सिरा एक के हाथ में और दूसरा सिरा दूसरे के हाथ में। कुछ देर बाद वे जाल लिए-दिए बाहर आते हैं। उनके जाल में कुछ मछलियाँ फँस जाती हैं। जाल किनारे पर फैलाकर एक मछुआरा उसमें फँसी मछलियों को बीनता है। कमर में लटके अपने छोटे जाल में उन्हें डालकर समुद्र में फिर उतरता है। कमर के जाल में रखी मछलियों को शायद यह भ्रम हो सकता है कि वे पुनः अपने घर आ गई हैं, पर जाल की सीमा उन्हें यथार्थ का बोध कराती होगी। अब उनका निस्सीम घर ससीम हो गया है। वे जल में रहते हुए भी जल में नहीं हैं, जाल में हैं। ‘जल’ और ‘जाल’ इन दोनों शब्दों में अंतर तो एक मात्रा का ही है, पर मात्रा का यह अंतर अर्थ में, यथार्थ में कितना अंतर पैदा कर देता है, यह तो आप मछलियों से ही पूछें।
हाँ, तो मछुआरों का मत्स्य व्यापार चल रहा है। लहरों का अपना व्यापार चल रहा है। मैं समुद्र के किनारे टहलते-टहलते आगे बढ़ रहा हूँ। फिर पास में दिखता है एक शिव-मन्दिर। किनारे से चलकर मैं शिव-मन्दिर पर पहुँच जाता हूँ। वहाँ मूर्ति के सम्मुख ‘शिवमहिम्नस्त्रोत’ का सस्वर पाठ करता हूँ। आस-पास के तामिल-भाषी लोग मुझे सस्वर पाठ करते देख मेरी ओर आकर्षित होते हैं और मुझे ध्यान से सुनते हैं। भारतीय संस्कृति का यह विस्तार मेरे मन में आल्हाद पैदा करता है। आपको शिव-मन्दिर कश्मीर में मिलेगा, कन्याकुमारी में मिलेगा , राजस्थान -गुजरात में मिलेगा, असम में भी मिलेगा, पूरे भारत में मिलेगा।
प्रार्थना के बाद मैं मंदिर के चबूतरे पर बैठ जाता हूँ। सामने विशाल समुद्र लहरा रहा है। मछुआरों की छोटी-छोटी नौकाएँ दूर समुद्र में तैरती दिखती हैं। नौकाओं से उछलकर मेरी दृष्टि लहरों पर चली जाती है। मन अतीत की ओर बेतहाशा भागता है। कौतुहल जगता है, आखिर कब से यह समुद्र लहरा रहा है? इसके किनारे बसी कितनी पीढ़ियाँ इन लहरों को देखते-देखते मृत्यु की गोद में समा गईं। क्या कभी ये लहरें सोती भी हैं? जब दिन-रात ये चलती ही रहती हैं तो आखिर सोती कब हैं? आदमी रात में सोकर प्रातः समुद्र के किनारे आता है पर लहरें तो रात में भी जागती रहती हैं। ये कभी सोती ही नहीं। विगत हजारों-लाखों वर्षों से इसी प्रकार जाग रही हैं। ये लहरें साक्षी हैं मानव विकास की। हजारों-लाखों वर्ष पूर्व मानव का क्या रूप था, आज क्या रूप है, लहरें दोनों स्थितियों की साक्षी हैं। समुद्र की छाती पर पहले नाव चलती थी, बेड़े चलते थे, आज जलयान चल रहे हैं। समुद्र के आकाश पर वायुयान उड़रहे हैं। समुद्र सारा कुछ देखता आ रहा है और आगे भी देखता रहेगा। मानव-संस्कृति की विकास यात्रा का असली साक्षी तो समुद्र ही है। वैसे वस्तुस्थिति का यह उज्ज्वल पक्ष है। दूसरा एक घिनौना पक्ष भी है, जो पहले भी था और आज भी है। आज भी समुद्र के किनारे नंग-धड़ंग लोग पेट-खलाए घूमते रहते हैं। आज भी झोपड़ियां हैं। इन झोपड़ियों में आधुनिक युग की किसी सुख-सुविधा का नामोनिशान तक नहीं है। हजारों-लाखों वर्ष पूर्व जिस स्थिति में लोग रहते थे उसी स्थिति में रहने वाले आज भी यहाँ हैं।
मंदिर में बैठे-बैठे एक बार फिर समुद्र का नीलापन मेरे मन पर छा जाता है। फिर तो राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त की पंक्तियाँ मेरे होठों पर इठलाने लगती हैं—
नीलांबर परिधान हरित पट पर सुंदर है,
चंद्र-सूर्य युग मुकुट मेखला रत्नाकर है।
करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की,
हे मातृभूमि तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की।
समुद्र से दृष्टि समेटता हूँ तो क्या देखता हूँ कि मन्दिर के पास पोलाव के कुछ कण बिखरे पड़े हैं। कौए उन्हें चुगने के लिए आपस में लड़ते हैं। उनके साथ उनके छोटे बच्चे भी हैं। छोटे बच्चे स्वयं दाना नहीं चुगते। मादा कौआ दानों को अपनी चोंच में भरकर बच्चों के खुले मुँह में डालती है। बच्चे दानों को गटककर फिर अपनी चोंच खोल देते हैं। अब मादा कौआ खुद खाए या बच्चों को ही खिलाती रहे। मैं देखता हूँ, मादा कौआ खिलाती ही जा रही है बच्चों को, स्वयं नहीं खाती। तो यह है ममता का जाल। मादा कौए को उसकी माता ने खिलाया और वह अपनी संतान को खिला रही है, यह है प्रकृति। इसमें किसी संस्कृति, किसी ज्ञान की आश्यकता नहीं, यह प्राणिणात्र की प्रवृत्ति है। जलचर, थलचर, नभचर, पशु-पक्षी, अंडज, पिंडज सभी में यह प्रवृत्ति पाई जाती है। संभवतः स्वेदज और उदिभज जगत इस प्रपंच से मुक्त है।
संतति की ममता प्रकृति है, सहज प्रवृत्ति है। संस्कृति इस प्रवृत्ति में थोड़ा सौष्ठव लाती है। संस्कृति पूर्वजों, अग्रजों की भी सेवा का पाठ पढ़ाती है। स्वाभाविक रूप से लोग अपनी संतान का भरण-पोषण करते हैं। सांस्कृतिक प्रभाव के कारण इस वृत्ति में प्रतिलोमता आ जाती है। जब लोग संस्कृति की उपेक्षा करते हैं तो समाज में विकृति का वातावरण पैदा होने लगता है।
मैं मंदिर के चबूतरे पर बैठे-बैठे ऊबने लगता हूँ और पास में सड़क पर टहलने के लिए चल पड़ता हूँ। सड़क के किनारे सीमेंट की कुछ बेंचे बनी हैं। इन्हें ए. राम सुब्बू ने बनवाया है। सभी बेंचों पर उसका नाम उत्कीर्ण है। मैं रामा सुब्बू द्वारा बनवाई गई एक बेंच पर बैठ जाता हूँ। समुद्र-दर्शन के साथ-साथ मैं मानव-स्वभाव की पहेली से भी जूझने लगता हूँ। यह पहेली मुझसे उत्तर चाहती है। कहती है, ‘ बताओ, मेरा असली रूप क्या है?’ अब मैं क्या उत्तर दूँ। फिर भी प्रयास करता हूँ। मनुष्य स्वार्थी होता है या परोपकारी? यदि मात्र स्वार्थी होता तो समुद्र के किनारे लोगों की सुख सुविधा के लिए बेंचें क्यों बनवाता? लोग गरीबों में भोजन क्यों बंटवाते हैं? अन्न-क्षेत्र क्यों चलवाते हैं? वस्त्रहीनों को वस्त्रदान क्यों करते हैं? दूसरों का जीवन बचाने के लिए अपने जीवन की बाजी क्यों लगा देते हैं? मेरा उत्तर कुछ इस प्रकार है —मनुष्य के स्वार्थ दो प्रकार के होते हैं—स्थूल और सूक्ष्म। जब व्यक्ति मात्र अपनी अपनी सुख-सुविधा तक सीमित हो जाता है, तो वह स्थूल स्वार्थ में प्रवृत्त होता है। जब वह वस्त्रदान करता है , भूखों को भोजन देता है, दूसरों को बचाने में अपनी जान गंवा देता है तो वह परोपकार तो करता है, पर इसमें उसका सूक्ष्म स्वार्थ भी सन्निहित रहता है। सूक्ष्म स्वार्थ है यश की कामना। उसे लगता है, परोपकार करने से लोक में यश मिलेगा। भारतीय चिंतक ऐसा मानते हैं कि व्यक्ति में तीन एषणाएँ हैं — पुत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकैषणा। प्रथम दो एषणाएँ तो स्थूल स्वार्थ की कोटि में आती हैं और तीसरी एषणा सूक्ष्म स्वार्थ की कोटि में आती है। यदि सूक्ष्म एषणा का आकर्षण समाप्त हो जाए तो शायद लोग परोपकार करना छोड़ दें। रामा सुब्बू ने समुद्र के किनारे बेंचें क्यों बनवाईं और उनपर अपना नाम क्यों खुदवाया, इस प्रश्न का उत्तर मेरे उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है।
जो लोग ऐसा मानते हैं कि निःशेष स्वार्थ बिना परोपकार संभव है, वे मुगालते में हैं। वस्तुतः स्वार्थ का मूल वास-स्थान अहं है। अहं एक ऐसा तत्व है, जो प्राणिमात्र के स्वत्व का मूलाधार है। जब तक अहं रहेगा तबतक स्वार्थ रहेगा, अतः स्वार्थ भी सर्वदा रहेगा।
अब इसी प्रश्न का उत्तर एक कथा के माध्यम से। एक थे ऋषि। उन्होंने गुरुकुल में छात्रों को सम्पूर्ण शिक्षा दी। क्षात्रों ने शिक्षा कितनी गृहण की, यह जानने के लिए ऋषि ने उनकी व्यावहारिक परीक्षा लेने का मन बनाया। उन्होंने क्षात्रों को आमने-सामने करके दो पंक्तियों में बैठा दिया। पंक्तिबद्द छात्रों के सामने पत्तल पर भोजन परोसा गया। इसके बाद उनके उनके दाहिने हाथ की केहुनी से लगाकर डंडा बांध दिया गया। इतना सब होने के बाद ऋषि छात्रों से बोले, ‘अब आप लोग भोजन प्रारंभ करें।’ भोजन की अनुमति के बाद जब छात्र पत्तल से कौर उठाने लगे तो हाथ में बंधे डंडे के कारण वह उनके मुख की ओर न जाकर सिर के ऊपर चला जाता था। अब छात्र परेशान। जब छात्रों को कोई उपाय नहीं सूझा तो ऋषि ने उन्हें ‘ यजुर्वेद’ का यह मंत्र सुनाया—
देहि मे ददामि ते नि मे धेहि नि ते दधे।
निहारं च हरसि मे निहारं निहरणि ते।।
अर्थात् तुम मुझे दो और मैं तुम्हें दूँ। इस आदान-प्रदान से अहँ एवं पर दोनों के स्वार्थ की सिद्धि हो जाएगी। छात्रों ने इसी विधि से भोजन किया। अपना कौर स्वयं अपने मुँह में न डालकर सामनेवाले के मुँह में डाला और विनिमय में सामनेवाले ने भी ऐसा ही किया। तो सारा समाज अदृश्य विनिमय सूत्र में बँधा है। इस विनिमय-सूत्र का एक सिरा अहं से जुड़ा है और दूसरा पर से। ध्यातव्य है कि वेद मंत्र में ‘मे’ (मुझे) और ‘ते’ (तुझे) बाद में। इसका अभिप्राय यह है कि विनिमय-सूत्र में ‘पर’ की तुलना में ‘अहं’ का पलड़ा भारी रहता है।
एक दूसरी कथा। यह कथा ‘वृहदारण्यक उपनिषद’ की है। ऋषि य़ाज्ञवल्क्य अपनी पत्नी मैत्रेयी को सामाजिक य़थार्थ के निरूपण क्रम में बताते हैं—
न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवति,
आत्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति।
न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रियो भवति,
आत्मनस्तु कामाय जाया प्रियो भवति।
न वा अरे पुत्रस्य कामाय पुत्रः प्रियो भवति,
आत्मनस्तु कामाय पुत्रः प्रियो भवति।
अर्थात् पत्नी को पति इसलिए प्रिय नहीं होता, क्योंकि वह पति है, वरन् पत्नी को पति इसलिए प्रिय होता है, क्योंकि पति से उसके हित की सिद्धि होती है। इसी प्रकार पति के लिए पत्नी इसलिए नहीं प्रिय होती क्योंकि वह पत्नी है। पति के लिए पत्नी इसलिए प्रिय होती है, क्योंकि पत्नी से पति क्योंकि पत्नी से पति के स्वार्थ की सिद्धि होती है। पुत्र मात्र इसलिए प्रिय नहीं होता, क्योंकि वह पुत्र है। माता-पिता के लिए पुत्र इसलिए प्रिय होता है, क्योंकि पुत्र से उनके हितों की सिद्धि होती है।
तो यथार्थ यही है। इसको झुठलाना हवा में उड़ने जैसा है। वैसे जो भी हवा में उड़ता है, चाहे पक्षी हो या मानव, उसे यथार्थ की धरा पर उतरना ही पड़ता है।
जबतक चेन्नई में रहता हूँ, नियमित रूप से सायं-प्रातः समुद्र-दर्शन करता हूँ। यदा-कदा मेरा पांच वर्षीय दौहित्र मेरे साथ चलने का हठ करता है, लेकिन मैं उसे नहीं ले जा पाता। कारण मैं ठहरा मीटर, वह है सेंटीमीटर: मैं ठहरा ऊँट, वह रहा नेवला। अब मीटर-सेंटीमीटर और ऊँट-नेवले का साथ कैसे चल सकता है। एक बात और, पार्थ है उदीयमान, मैं हूँ स्तमान्; अब उदीयमान और अस्तायमान के बीच युति कैसे बन सकती है।