कहा जाता है कि “रोम एक दिन में नहीं बनाया गया था”। सच ही है अत: इसके बारे में जल्दी ही लिखा या कहा नहीं जा सकता। इटली की राजधानी रोम – इस नाम से जूलियस सीजर, नेरो जैसे कई नाम ज़ेहन में चक्कर लगाने लगते हैं। विश्व की प्राचीनतम सभ्यता में से एक रोम, अपने नाम के साथ ही इतिहास के पन्नो की तरफ ले जाता है। कुछ वर्ष पहले जब इटली जाने का कार्यक्रम बनाया तो मेरी तमन्ना रोम की एक-एक दिवार पर पड़ी इतिहास की हर एक लकीर पढ़ लेने की थी। परन्तु परिवार में मेरे अलावा किसी को इतिहास में रूचि नहीं तो अत: वेनिस और पीसा के नाम के ललकारे देने पड़े और चूँकि रोम इटली की राजधानी है इसलिए उसे भी देख लेने की मेहरबानी करने के लिए सब तैयार हो गए परन्तु शर्त यह कि वेनिस, मिलान,फ्लोरेंस और पीसा के बाद बचे हुए सिर्फ २ दिन में जितना हो सकेगा रोम घूमा जायेगा। उसपर तुर्रा यह कि और भला चर्च और खंडहरों को कब तक निहारोगी ? खैर भागते भूत की लंगोटी भली.
इस भव्य नगर की स्थापना लगभग 753 ईसा पूर्व में हुई थी। और इसके बसने को लेकर एक बहुत ही चर्चित कहानी भी है। मंगल देवता के दो जुड़वां पुत्र थे – रोमुलस और रिमस। एक बार तेबर नदी में बाढ़ आने से ये दोनों बहते हुए पेलेटाइन पहाड़ी के पास पहुंच गए। इन बच्चों को एक मादा भेडि़या ने दूध पिलाया व एक चरवाहे ने दोनों को पाला। बड़े होकर इन दोनों भाइयों ने एक नगर की स्थापना की जिसका नाम रोमुलस के नाम पर रोम रखा गया व रोमुलस इसके सम्राट बने।
इटली पहुँचने के लिए लन्दन से हमारी उड़ान मिलान की थी और फिर वहां से वेनिस और वेनिस से रोम हमें योरोस्टार (ट्रेन ) से पहुंचना था। यूँ यह ट्रेन काफी सुविधाजनक थी परन्तु पूरी इटली में एक समस्या बहुत विकट है वह यह कि, वहां बस में चढो या ट्रेन में, सिर्फ टिकट लेने से काम नहीं चलेगा उसे वहां लगी कुछ मशीनों पर वैलिडेट (पंच )भी करना पड़ेगा वर्ना वह टिकट कोई मायने नहीं रखती। खैर असली समस्या यह नहीं थी। परेशानी तो यह थी कि यह सब अगर आप पहले से नहीं जानते तो वहां जाकर आपको कोई बताने वाला नहीं मिलेगा और भाषा की अनभिज्ञता की वजह से वहां लिखा आप कुछ पढ़ नहीं पाएंगे और अगर आप टिकट बिना वैलिडेट कराये बस या ट्रेन में पहुँच गए तो आपको कह दिया जायेगा कि टिकट वैलिड नहीं है। अब अगर आपकी किस्मत अच्छी है तो कोई आपको समझाने वाला मिल जायेगा कि आपको करना क्या है लेकिन जब तक आप समझ कर टिकट वैलिड कराने जायेंगे आपकी बस या ट्रेन छूट जाएगी या फिर आपको जुर्माना भी भरना पड़ सकता है। खैर इस मामले में हमारी किस्मत अच्छी थी और कुछ ऐसा होता है ये हम कहीं नेट पर पढ़ चुके थे तो एक ही बार के झटके में हमें बात समझ में आ गई और आगे से यह काम सबसे पहले याद रखा गया। शाम को करीब पांच बजे हम रोम के ट्रेन स्टेशन पर पहुंचे। वहां पहुँचते ही ऐसा लगा कि हमारे भारतीय मित्र कितनी अफवाह उड़ाते हैं उन्होंने हमें कहा था कि रोम और नई दिल्ली में कोई फरक नहीं है। परन्तु स्टेशन से बाहर निकलते ही उनकी बात का मर्म हमें समझ में आने लगा। कुछ ग़लत नहीं कहा उन्होंने। स्टेशन से बाहर वाकई भारत के ही किसी बड़े शहर के जैसा माहौल था। वही छोटे छोटे खोमचे, फुटपाथ पर ही चादर बिछा कर सामान बेचते लोग और अपनी -अपनी कम्पनियों के पैकेज बेचने को बेताब ट्यूरिस्ट गाइड मोलभाव करते हमारे पीछे पीछे भाग रहे थे। फर्क था तो बस इतना कि वे सारे भारतीयों की जगह बंगला देशी थे। हालाँकि देखने से तो सारे दक्षिणी एशियाई एक जैसे ही लगते हैं। हमें फ़िक्र थी अपने होटल पहुँचने की जो कि शहर से कुछ बाहर था और हमें वहां तक पहुँचाने के लिए एक बस आनेवाली थी जिसका कि बताई हुई जगह पर कोई अता पता नहीं था। उस तक पहुँचने में हमें काफी मशक्कत करनी पडी। इन सब समस्यायों को देखते हुए और रोम के दर्शनीय स्थलों की संख्या देखते हुए सर्वसम्मत्ति से ये फैसला हुआ कि दो दिन का बस टूर ले लिया जाये। इससे बेशक समय की थोड़ी पाबन्दी रहेगी परन्तु कम समय में काफी कुछ कवर किया जा सकेगा। अत: वहीं एक बंगाली भाई से दो दिन का टूर बुक करा कर हमने होटल के लिए प्रस्थान किया।
दूसरे दिन उसी स्टेशन से हमारी रोम यात्रा शुरू हुई और सबसे पहला पड़ाव आया “कोलेजियम” रोमन आर्किटेक्चर और इंजीनियरिंग का उत्कृष्ट नमूना। इसका निर्माण तत्कालीन शासक वेस्पियन ने 70-72वीं ई में प्रारंभ किया था, जिसे उनके बाद सम्राट टाइटस ने 80 ई में पूरा किया। 81 से 96 के बीच डोमीशियन के राज में कुछ और परिवर्तन किए गए। इसका नाम सम्राट वेस्पियन और टाइटस के पारिवारिक नाम फ्लेवियस के कारण एम्फीथिएटरम्फ्लावियम रखा गया परन्तु वर्तमान में यह कोलेजियम के नाम से ही प्रसिद्ध है। हालाँकि इसके अब खंडहर ही शेष हैं परन्तु इन खंडहरों को देख कर अनुमान लगाया जा सकता है कि इमारत कितनी विशालकाय और यहाँ होने वाली गतिविधियाँ कितनी भयावह रही होंगी। यहाँ योद्धा अपनी युद्ध कला का प्रदर्शन करते थे और यहाँ तक कि कई दिनों से भूखे रखे जंगली जानवरों से लड़कर उन्हें अपने कौशल का प्रदर्शन करना होता था। इन जानवरों को प्रतियोगिता स्थल तक लाने के लिए भूमिगत मार्ग का उपयोग किया जाता था। और फिर बुरी तरह से घायल और शहीद योद्धाओं को रखने की भी अलग व्यवस्था थी। मनोरंजन का यह एक भयानक तरीका था। आखिर कितने लोगों की जानें इस खेल में जाती होंगी, दृश्य कितना भयावय होता होगा और इसमें वीरता और मनोरंजन ढूँढने वाले किस मानसिकता के होते होंगे, सोच कर ही मन कैसा – कैसा हो आता है। कोलेजियम में घूमते हुए अक्सर ही लगता जैसे अभी उस द्वार से भूखे शेर निकल कर आयेंगे। वहां खड़े ज्यादातर दर्शकों के इस कल्पना मात्र से रौंगटे खड़े हो जाते थे। खैर वहां से राम राम करते बाहर निकले तो कुछ रोमन – “रोमन एंड कंट्री मेन” स्टाइल में (पारम्पारिक रोमन वेशभूषा) बाहर घूम रहे थे। लोग उनके साथ तस्वीरें खिचवा रहे थे। जाहिर है ये मौका हम भी नहीं खोना चाहते थे तो उचक कर पहुँच गए और बत्तीसी निकाल कर खड़े हो गए। फोटो लिया गया और जैसे ही हम धन्यवाद कह कर हटे तो उसने हमें पकड़ लिया और बोला फीस निकालो। हमने कहा, कहाँ लिखा है ? तो महाशय बोले “३० डिग्री की गर्मी में ये लबादा लादे हम यहाँ फिर रहे हैं, पागल नहीं हैं। फोटो खिचवाने के पैसे हैं। वो देने पड़ेंगे”। परन्तु रोम की इस लूट खसूट और टूरिस्टों को ठगने की परंपरा के बारे में भी हमने काफी सुना हुआ था। आखिर हमारी दिल्ली भी इस मामले में किसी से कम तो नहीं है। हम अड़ गए कि ऐसा कहीं लिखा नहीं है। और आपने पहले कहा भी नहीं था। इसलिए हम तो नहीं देंगे। वह भी ढीट था, जोर जबरदस्ती पर उतर आया, कहने लगा कि फिर फोटो डिलीट करो। हमने उसे फोटो डिलीट करके दिखा दी। अब वह अपनी जीत पर गर्व करता चला गया परन्तु उसे यह नहीं पता था कि उसका पाला हिन्दुस्तानियों से पड़ा था जो उस ज़माने में ज्ञानी कहलाते थे, जिस ज़माने में उसके पूर्वजों को मुँह भी धोना नहीं आता था। असल में हमने उसे जो डिलीट करके दिखाया था वो वीडियो रेकॉर्डिंग था और उसके बाद का स्टिल फोटो हमारे कैमरे में सही सलामत था।
इस तरह रोम में एक रोमन को चकमा देकर हम पहुंचे वहीं पास के एक महल में जहाँ के खंडहर में भी भव्यता और ऐश ओ आराम झलक रहा था। सभ्यता के आरम्भ में भी उस महल में प्रयोग होने वाला मार्बल किसी उच्च कोटि के मार्बल से ज्यादा अच्छा प्रतीत होता था और वहीं एक जगह पर एक ग्लास पानी डाल कर, हमारे साथ की गाइड ने यह सिद्ध भी कर दिया। पानी पड़ते ही वह जगह एक धूल पड़े पत्थर की जगह बेहद खूबसूरत, रंगीन और चमकदार नजर आने लगी। वैसे यहाँ यह कहना भी आवश्यक होगा कि भवन निर्माण हो या मूर्ति कला, रोम की अपनी एक अलग ही पहचान है। जगह जगह लगे हुए स्टेचू इतनी सूक्ष्म मानवीय शारीरिक बनावट का नमूना हैं कि देखने वाला दांतों तले उंगली दबा लेता है। अभी तक मैंने, भारत का कोणार्क हो या फ्रांस का लौर्व, ज्यादातर जगह मूर्तियों, प्रतिमाओं या चित्रों में स्त्री को ही कलात्मक रूप में देखा था परन्तु रोम में ( पूरे इटली में ही ) इसके इतर पुरुष के नग्न स्टेचू दिखाई पढ़ते हैं जो वहाँ के मूर्तिकार की कारीगरी, मानवीय शरीर संरचना विज्ञान और उच्च कलात्मकता को बताते हैं। सुविनियर के तौर पर भी इसी तरह की मूर्तियों की वहां सर्वाधिक बिक्री होती देखी जाती है। रास्ते में रोम की पुरातन दीवार और और बहुत से कलात्मक स्मारकों से गुजरते हुए हमारा अगला पड़ाव था “वैटिकन सिटी’।
बचपन से सामान्य ज्ञान की पुस्तक में पढ़ते आये थे कि दुनिया का सबसे छोटा देश है “वेटिकेन सिटी ” तब लगता था छोटे से किसी द्वीप या पहाड़ी पर छोटा सा देश होगा। पर ये कभी नहीं सोचा था कि एक देश के अन्दर क्या बल्कि एक शहर के अन्दर ही ये अलग देश है। करीब ४४ हेक्टेयर में बना हुए, कुल ८०० लोगों की आबादी वाले इस देश का अपना राजा है। इसकी राजभाषा है- लातिनी। ईसाई धर्म के प्रमुख साम्प्रदाय रोमन कैथोलिक चर्च का यही केन्द्र है, इस साम्प्रदाय के सर्वोच्च धर्मगुरु पोप का यही निवास स्थान है और उन्हीं की यहाँ सत्ता है। अपने अलग कानून हैं। यहाँ तक कि अपना अलग रेडियो स्टेशन, अपनी अलग मुद्रा है। अपना अलग पोस्ट ऑफिस भी जो अपनी डाक टिकट तक अलग बनाते हैं। यहाँ तक कि ज्यादातर रोम वासियों द्वारा इटालियन डाक सेवा की जगह वेटिकन डाक सेवा इस्तेमाल की जाती है क्योंकि ये ज्यादा तेज़ है। वेटिकेन सिटी अपने खुद के पासपोर्ट भी जारी करती है जिसे पोप, पादरियों,कार्डिनल्स और स्विस गार्ड के सदस्यों (जो इस देश में मिलिट्री फ़ोर्स की तरह काम करते हैं) को दिए जाते हैं। और इतना सब होने पर भी यह कोई अलग देश नहीं लगता। रोम के अन्दर ही बस एक अलग सा केंद्र लगता है। वृहद और बेहद खूबसूरत प्रतिमाओं से सजा एक कैम्पस।
जिस दिन हम वेटिकेन सिटी पहुंचे, रविवार था और वहां खास प्रार्थना का आयोजन था जिसमें हिस्सा लेने के लिए महँगी टिकट के वावजूद लम्बी लाइन थी। अन्यथा चर्च में आम लोगों का प्रवेष निषेध था। परन्तु म्यूजियम खुला हुआ था। हम लोगों में से किसी को भी ना तो धर्म में, ना ही प्रार्थना में इतनी रूचि थी कि महँगी टिकट लेकर दो घंटे की लाइन में लगते अत: फैसला हुआ कि यहाँ दोपहर का खाना त्याग कर लाइन में लगने से बेहतर है कि म्यूज़ियम देखकर ही निकल लिया जाये और बाकी का दिन रोम की बाकी जगह देखने में बिताया जाये। तो हम भव्य प्रतिमाओं को निहारते हुए और बाहर खड़े गार्ड्स के साथ तस्वीरें
खिचवाते हुए म्यूजियम में पधारे जहाँ की भव्यता देख कर पहली बार एहसास हुआ कि वाकई किसी अमीर राज- घराने में आ पहुंचे हैं। खैर म्यूजियम तो बहुत ही बड़ा था पर उसका छोटा सा चक्कर लगा कर हम निकल आये और सोचा कि अब कुछ खाने का जुगाड़ किया जाये।
पिछले कुछ दिनों से इटली के अलग अलग शहरों में घूमते हुए पिज्जा, पास्ता और पानीनि ही खा रहे थे। अब चूँकि राजधानी रोम में थे और अब हम रोम की मुख्य सड़क पर खड़े थे, माहौल कुछ कुछ अपने देश जैसा ही लग रहा था। अत: एक आशा हुई कि शायद कोई दाल रोटी वाला भारतीय भोजनालय मिल जाये। परन्तु हमारा ये कयास भी गलत साबित हुआ। इटली में उनका ही भोजन इतना प्रसिद्ध है कि किसी और देश के व्यंजनों की शायद गुंजाइश ही नहीं। हाँ कुछ एक चीनी रेस्टोरेंट्स जरुर दिखाई दिए। अब हमारी समझ में आया कि इटली से लौटकर आने वाले भारतीय क्यों इस महान कूजिन के देश में खाना न मिलने की शिकायत करते हैं। असल में शाकाहारियों के लिए सचमुच समस्या है। भाषा की अनभिज्ञता के कारण कौन सी सब्जी किस पिज़्ज़ा, पास्ता में पड़ी है यह समझ में नहीं आता और गलती से कुछ ऐसा न खा लें कि धर्म भ्रष्ट हो जाये इस डर से ‘माग्रीटा’ यानि सिर्फ चीज़ वाले पिज्जा से काम चलाना पड़ता है। उसपर बाकि पकवानों में मसालों की अनुपस्थिति, उनकी जिह्वा को नागवार गुजरती है। भारतीय के नाम पर एक -दो बांग्लादेशियों के रेस्टोरेंट्स ही नजर आते हैं। वहां अपनी किस्मत अजमाने से तो अच्छा हो कि और एक दिन पिज्जा पर ही बिता लिया जाए। या फिर क्यों ना उन खास सजावटी बेहद खूबसूरत आइस क्रीम पर हाथ अजमाया जाये जिसे वहां जेलाटो कहा जाता है और जिनकी म्यूजियम जैसी दुकाने उस सड़क के हर कोने में उसी तरह दिखाई पढ़ रही थीं जैसे इटालियन ब्रांड और डिजाइनर सामानों के छोटे- बड़े शो रूम्स। शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो उनके आकर्षण से अछूता रहता हो। दुनिया भर के जितने फ्लेवर आप सोच सकते हैं आपको वहां मिल जाते हैं। वहां टहल रहे हर यात्री के हाथ में एक खूबसूरत कोन दिखाई पड़ जाता है और हर कोन किसी कलात्मक सजावटी पीस से कम नहीं लगता। खैर कीवी, रम, वाइल्ड बैरी, मेलन, जैसे अलग अलग फ्लेवर की आइसक्रीम लेकर हम पहुंचे कुछ ऐसी विचित्र सी सीढ़ियों पर जिन्हें यूरोप की सबसे व्यापक सीढियां कहा जाता है। ये नीचे “पिआजा दे स्पंगा” से ऊपर चर्च “त्रिनिता दे मोंटी को जोड़ती हैं। क्योंकि इन्हें स्पेन की एम्बेसी को चर्च से जोड़ने के लिए बनाया गया था इसलिए शायद इसका नाम स्पेनिश स्टेप्स है। एकदम खड़ी चढ़ाई पर चढ़ती हुई इन १३८ सीढ़ियों को एक फ़्रांसिसी राजनयिक ने विरासत में मिले धन से बनवाया था। खैर स्वादिष्ट आइस क्रीम से मिली ऊर्जा को ३२ डिग्री की गर्मी में इन सीढ़ियों पर चढ़कर एक चर्च को देखने में गवाने का हमारा मन ना हुआ और हमने वहां से कूच किया कुछ दुकानों की तरफ।
आखिर इटली आयें और कुछ गुच्ची या अरमानी जैसे ब्रांड की चीजें ना लीं तो क्या खाक इटली आये? परन्तु ये नाम सिर्फ नाम के ही बड़े नहीं, दाम के भी बड़े हैं और शायद इटली की दुकानों से सस्ते लन्दन की दुकानों में मिल जाते हैं। अत: उन्हें सिर्फ निहार कर कुछ निराश से जब हम बाहर सड़क पर निकले तो एक बार फिर हमारे निराशा में डूबे मन को उबारा कुछ अपने ही तरह के लोगों ने। उन बांग्लादेशियों ने जो वहां सड़क पर ही एक चादर पर सभी प्रसिद्ध इटालियन ब्रांड का सामान लगाये बेच रहे थे। वो भी कौड़ियों के दाम और बिलकुल अपने देशी स्टाइल में। जैसे ही किसी पुलिस वाले को देखते, तुरंत सभी सामान चादर में लपेट ऐसे घूमने लगते जैसे कोई पर्यटक ही हों। उनके जाते ही फिर से अपना बाजार लगा लेते और ग्राहकों को पटाने लगते। हालाँकि वह सामान हमें दिल्ली के पालिका बाजार जैसा ही लगा परन्तु दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ब्रांड अच्छा है। की तर्ज़ पर हमने भी कुछ खरीद लिया और पहुंचे रोम के सुप्रसिद्ध त्रेवी फाउन्टेन पर।
२६ मीटर उंचा और २० मीटर चौड़ा ये रोम का सबसे बड़ा और दुनिया का सबसे प्रसिद्ध फव्वारा है। फव्वारे में जो प्रतिमा है वह सागर के देवता नेपच्यून की है। जो सीपी और २ समुद्री घोड़ों के रथ पर सवार हैं। इनमें से एक घोड़ा शांत और आज्ञा कारी है और दूसरा अशांत। जो कि सागर के मूड को दर्शाते हैं। यह फव्वारा रोम वासियों के पीने के पानी की आपूर्ति के लिए बनाया गया था परन्तु अब इसे चखने की कोशिश भी नहीं कीजियेगा क्योंकि अब यह पानी सलोरीन और अन्य रासायनिक पदार्थों का सागर है। इस फव्वारे के बारे में एक किवदंती भी प्रचलित है कि जो इसमें सिक्का डालता है वह दुबारा रोम जरुर आता है।
रोम अभी काफी देखना बाकी था परन्तु समय अभाव ने हमें भी उस फव्वारे में एक सिक्का डालने पर मजबूर कर दिया इस आशा में कि किवदंतिया भी किसी ना किसी आधार पर ही बनती होंगी। शायद इस सिक्के के बहाने हमारा दुबारा रोम आना संभव हो ही जाये। इसी आशा के साथ हमने एक सिक्का आँख बंद करके उस इच्छाधारी फव्वारे में डाला और रोम को “आदियो” कह दिया।
शिखा वाष्णेँय
कवियत्री, लेखिका, ब्लौगर
लंदन यू.के.