पर्वतों की धवल हिम्माच्छादित ऊँची-ऊँची चोटियां और पास में ही हिमखंडों को समेटे बहती, एक बेहद ठंडी पथरीली नदी; मन अभूतपूर्व ताजगी व शांति से भरा हुआ था। आस-पास में फैले प्रकृति के उस अनोखे सौंदर्य और विराटता से पूर्णतः अभिभूत।
माना सामने कैलाश पर्वत नहीं, सुमेरु और नर-नारायण थे, शेषनाग थे, बंदर पूंछ थी, परन्तु रहस्य अलौकिकता और मोहकता में कहीं कोई कमी नहीं। आँखें हर दृश्य को कैमरे की तरह मन में उतार लेना चाहती थीं। आस्था और उमंग के संगम पर खड़ा मन अनायास ही कालीदास और उनके महाकाव्य मेघदूत को याद कर आया; गत्वा चोर्ध्व दशमुखभुजोच्छ्वासितप्रस्यसन्धे:
कैलासस्य त्रिदशवनितादर्पणस्यातिथि: स्या:
श्रृङ्गोच्छ्रायै: कुमुदविशदैर्यो वितत्य स्थित: खं
राशीभूत: प्रतिदिनमिव त्रयम्बकरयाट्टहास:।।
(अर्थात्, हे मेघ )-फिर जरा ऊपर उठकर कैलाश का अतिथि होना/चटक उठी थी जिसके शिखरों की सन्धियां/ दसकंधर रावण की बीस बांहो मे कसकर/ दर्पण का काम लेती है देव बालाएं जिससे/ ऐसा वह कैलाश/ कर्पूरगौर करूणापति भगवान शंकर के/दिन दिन पुंजीभूत सित उज्जवल अट्टहास तुल्य/फैल रहा नीले आसमान मे/ कुमुदाभ अमल धवल चोटियों की ऊंचाइयां लेकर ( अनुवादः बाबा नागार्जुन)।
शिव और विष्णु का रूप धरे ये पर्वत अभी भी तो वैसे ही उन्मुक्त अट्टाहास करते खडे थे हमारी आंखों के आगे…अपनी वही अलौकिक आनंद की अविस्मरणीय और दिव्य ज्योति लिए। धवल दांतों की सुरम्य वे पंक्तियां कभी मनोहारी लगतीं, तो कभी अपने बर्फीले दांतों को कंधे के गोश्त में धंसाती-सी प्रतीत होतीं। हाथ पैरों को सुन्न करती ठंड मष्तिष्क तक पहुंचती जा रही थी और बर्फीली हवा पर सवार समस्त भारत का पूरा ही पौराणिक इतिहास अब बन्द आँखों के आगे आ खड़ा था। करीब-करीब समाधिस्थ मन गूढ़ स्मृति कन्दराओं में जा बैठा था , जहां शिव-पार्वती और विष्णु व बृह्ना ही नहीं, गणेश और वेदव्यास, भीम और सारे पांडव सभी थे । अपने सारे ज्ञान, समस्त देवत्व…समस्त पौरुष के साथ…आंख-मिचौली खेलती मानव की कभी हार न मानने वाली अदम्य, अपराजेय इच्छा के साथ….सारे विश्वास, सारे छल कपट के साथ। दृश्य केदारनाथ का था। केदार पर्वत का वह प्रथम साक्षात्कार ही शायद इस यात्रा का चरमोत्कर्ष बनकर आज भी मानस पटल पर उभरता है। कहानियां और गाथाएं प्रामाणिक और अप्रामाणिक बिखरी पड़ी थीं चारो तरफ। चाहे वह बद्रीनाथ के आगे सरस्वती उद्गम के पास मृतप्राय द्रौपदी को छोड़कर आगे बढ़ जाने की बात हो, या हेमकुणड के पास फूलों की वादी में बालक का भेष रखकर विष्णु द्वारा शिव से छल किए जाने की और फिर खुद सुरम्य उस पर्वत को लेकर बद्रीनाथ में जा बसने की ही बात हो. ..किसी परी-पुराण से कम रोमांचक और अविश्वसनीय नहीं था सब कुछ…।
बृह्म कमल जो बस रात को ही खिलता है और कस्तूरी मृग विश्वसनीय होकर भी कितने अविश्वसनीय थे…कितने कल्पना को आन्दोलित करने और उकसाने वाले थे । सच और मिथक के मिले-जुले कोहरे ने चेतना को एक अविस्मरणीय धुंध से ढक दिया था और रह-रहकर एक बात बारबार झकझोरे जा रही थी आज हमारे पास जब इतनी यांत्रिक सुविधाएं हैं फिर भी हमें यह हिमालय इतना दुरूह और रहस्यमय क्यों लगता है और इसकी यात्रा व पर्यटन इतने रोमांचक और जोखम भरे? तब की सोचो, जब पूर्वजों के पास सुविधाएं नहीं थीं, सड़कें नहीं थी। कारें नहीं थी। हेलीकौप्टर नहीं थे, तब तो यह यात्रा वाकई में कठिन रही होगी और आस्था व विश्वास की अडिग लाठी के सहारे ही पूरी हो पाती होगी। वन्दनीय है उनका साहस और आश्चर्य चकित करने वाली है वह वैराग और मोक्ष की कामना । या शायद वे भी मात्र पर्यटक ही थे और हिमालय की चुम्बकीय पुकार को अनदेखा और अनसुना नहीं कर पाते थे ? मन खुद ही सवाल पूछता और अगले पल ही जवाब भी ढूंढ लाता।
दो वर्ष पहले दिसंबर में आए थे यहां और इस बार जून में, अर्थात भरी गर्मी और भरी सर्दी दोनों ही ऋतुओं में हिमालय को जी भरकर देखने का सौभाग्य मिला। पिछली बार जोशीमठ में नरसिंह भगवान के मन्दिर में पूजा और फिर औली तक जाना अपने आप में एक अद्भुत अनुभव था। एक आस रह गई थी तब कि पट बन्द होने के कारण बहु चर्चित और प्रसिद्ध बद्रीनाथ के मन्दिर तक जाना नहीं हो पाया। जागेश्वर, बागेश्वर और चितई जैसे कई अद्भुत और यादगार मन्दिर देखे थे तब हमने। चितई का मंदिर , जहां भगवान के दरबार में चिठ्ठी छोड़ी जाती है और मान्यता पूरी होने पर श्रद्धालु बड़े-बड़े पीतल के घंटे चढ़ाते हैं। पूरा मन्दिर घंटों से पटा पड़ा था। मानो सकारात्मक उर्जा का भंडार बन चुका था वह मन्दिर। हाल ही में राजश्री प्रोडक्शन विवाह फिल्म में भी इस मन्दिर और आसपास के मनोहारी इलाके का छायांकन किया गया है।
मंदिर ही नहीं वहां तक पहुंचने वाले रास्ते भी कम रोमांचक नहीं थे। रात के घुप अन्धेरे में झिलमिल भीमताल में पड़ती आसपास की पहाड़ियों की टिमटिमाती रौशनी भुलाए नहीं भूलती। और सूरज की किरणों के साथ जगमग अलकनन्दा के दूध से धुले पानी में जब पहाड़ों और आसपास के वनस्पति की परछांई दिखती, तो मन एक अजब पुलक से भर उठता था। पहाणों से घिरी वादी में बहती नदी का घुमावदार सड़कों के सहारे-सहारे हमारे साथ-साथ चलना, वाकई में आज भी अविस्मरणीय ही तो है सबकुछ। दोनों तरफ खड़ी ऊंची-ऊंची पहाड़ियों के संरक्षण में संयत बहती नदी का मौका मिलते ही, अगले ही मोड़ पर अचानक ही एक दम उछृंखल हो जाना… पानी में चमकते वे गोल-गोल काले पत्थर, जो दूर से ही इतने चिकने और इतने सुन्दर दिखते थे कि मन बच्चों की तरह मचल जाता – एक-एक को उठाकर घर ले चलो, कहने लगता। सैकड़ों स्वयंभू शिवलिंग अवतरित हो गए थे चारो तरफ।
किनारे-किनारे लटकी सूखी टहनियां भी तो कहीं हिरण का रूप लिए खड़ी हो जातीं तो कहीं शेर और हंस का और फिर उनके आगे-पीछे दौड़ते बादल बारबार शोर करते, नटखट बच्चों के झुंड की याद दिलाने लग जाते। सामने खड़े पहाण कभी साहसी सैनिकों से तने दिखते, कभी कमर झुके वृद्ध और विदा लेते पूर्वजों की तरह मन को बेहद अकेला और सूना कर जाते। धूप-छांव-सी हजारों स्मृतियां आती-जाती रहीं मन में। रास्ते में लोमड़ियां और खरगोश ही नहीं, अल्मोड़ा के पास रात के अन्धेरे मे अचानक ही दौड़कर चीते के छोटे-से बच्चे का उस सुनसान सड़क को पार कर जाना और हमारी जीप का चुपचाप बगल से निकल जाना, आज भी तो याद है हमें अपना वह आधी-आधी रात तक सड़कों पर दौड़ने का दुस्साहस। थोड़े समय में बहुत ज्यादा घूमना और देखना जो बाकी था। वैसे भी रात की नीरवता का नशा मादक होता है। अंधेरे और उजाले के गडमड से छांकती हर चीज पलपल नए रूप और नए रहस्य लेकर आंखों के आगे आती है और सामान्य को भी असाधारण बना डालती है।
वह हिमालय के पहाड़ और जंगलों की समय बेसमय की निर्भीक यात्रा… और जगह जगह खड़े वे अद्भुत छोटे-बड़े मन्दिर , दूर से ही दिखती, बिखरी पड़ी तरह तरह की मूर्तियां, जिनमें से कई तो यूं ही वक्त और मौसम को अपने ऊपर ओढ़े सदियों से इन पहाड़ियों पर आने-जाने वालों का मार्गदर्शन करती खड़ी हैं। वे भांति भांति के पर्यटकों और पर्यटक विभाग द्वारा लिखे शिलालेख…सबकुछ सदा के लिए सज चुका है यादों के एलबम में। अल्मोड़ा में मिला गौरीशंकर रुद्राक्ष… कसौली का सूर्योदय व सूर्यास्त..सभी कुछ ही बेहद रहस्यमय व रोमांचक था। भारत के भूगोल ने हमेशा ही आश्चर्यचकित किया है। कभी नौर्वे में खड़े होकर खिलनमर्ग और सोनमर्ग की याद आई है, तो कभी औली में घुटने तक बरफ में डूबकर स्विटजरलैंड के टिटलिस की। तो कभी रूस के पीटर्सबर्ग की पैलेस ने राजस्थान के महलों और राजे-महाराजों की शान-शौकत और रूप-सज्जा की याद दिलाई है। मन की शायद यह कण-कण में भारत को खोजते रहने की बेचैनी ही है जो स्वीडेन और आयरलैंड तक में भारत की…भारतीय संस्कृति की…राम और कृष्ण की याद दिला चुकी है। शायद वे थोड़े से ही लोग थे दुनिया में तब, इतनी आबादी नहीं थी और पर्यटक अपने साथ-साथ यादें और कहानियां लेकर इधर-उधर जा बसे। समय और पर्यावरण के साथ धीरे-धीरे लोगों की शकल-सूरत, भाषा-भूषा सबमें ही परिवर्तन होता चला गया होगा।
विस्तृत हिमालय-पर्यटन का यह दूसरा मौका था । हम दोनों और मित्र दम्पति चार लोगों का काफिला चला था लंदन से। इंगलैंड में ब्रिज खेलते हुए जिस यात्रा की रूपरेखा अनौपचारिक बातचीत के दौरान रची गई थी, अब साकार रूप ले आखों के आगे घट रही थी। हरिद्वार, ऋषिकेश और मसूरी होते हुए हम एक सुन्दर और सुरम्य घाटी में आ पहुंचे थे। यात्रा की असली शुरुआत हरिद्वार नहीं बरकोट को ही कहना शायद ज्यादा सही होगा। यूँ तो रास्ते में पड़े छोटे-से और सुन्दर गांव मनेरी को भी भूलपाना असंभव ही है। गंगा किनारे सारी सुख-सुविधाओं से लैस शिविर में हमें रात गुजारनी थी। गंगा अभी सौम्य और शांत नहीं हो पाई है यहां पर… वही पहाड़ी किशोरी की सारी उन्मुक्तता लिए इसका कलकल निनाद किसी सुमधुर संगीत से कम नहीं था उस रात।
अगले दिन सुबह ही सूरज के उगने से पहले ही यमुनोत्री के लिए रवाना होना था हमें। रास्ता जोखिम भरा हो सकता था इसलिए सभी की सलाह थी कि अन्धेरे से पहले ही लौट आना उचित होगा। सुबह के छह बजे ही मंदिर के घंटों और आरतियों के पावन स्वरों के बाद, स्थानीय पण्डित जी से टीका लगवाकर और भगवान का प्रसाद और आशीर्वाद व उनकी शुभकामनाएं लेकर हमने अपनी चारधाम की यात्रा की शुरुवात की। इस तरह की यात्रा का पहला मौका था इसलिए मन में जोश तो था ही पर साथ-साथ आशंका और उद्वेलन भी। छोटा भाई और भाभी, जो उन्ही दिनों कैलाश पर्वत और मानसरोवर की यात्रा पर गए थे, उनके एक सहयात्री की कैलाश पर्वत की परिक्रमा करते समय अचानक गिरकर देह त्यागने की खबर ने मन को बेहद उद्विग्न कर ऱखा था। कहीं इस तरह के खतरों से खेलना दुस्साहस ही तो नहीं?
जैसे-जैसे हम पहाड़ पर ऊपर चढ़ते जा रहे थे, मन में प्रकृति की हरियाली और रूप का एक अजब उल्लास भरता जा रहा था। दूर पहाड़ी पर बना बौद्ध-बिहार मन को बेहद शांत करता लगा। हर मोड़ पर जहां खतरे की संभावना होती एक देवालय दिखाई दे जाता। किसी में शिव के प्रतीक स्वरूप डमरू, किसी में त्रिशूल तो कहीं मात्र एक लाल कपड़ा ही रखा दिख जाना आश्वासन देता। कोहरे से भरी उन दुर्गम पहाणियों पर मानव की अपराजेय आस्था और विश्वास की कहानी कहते जान पड़ते वे प्रतीक।
कितनी सौंदर्य-पुजारी और कितनी भक्त हूँ, नहीं जानती, परन्तु दोनों भाव साथ-साथ चल रहे थे मन में। शिव की अद्भुत भक्ति के साथ एक बात और जो उभर कर आई थी, वह थी हमारे धर्म शास्त्रों और सोच में पांच की संख्या की अपार महिमा। पांच महासागर और पांच महाद्वीप तो हैं ही, पंच परमेश्वर का भी पंचाभिषेक ही होता है। यह अधम शरीर भी पंच तत्वों का ही बना है। मन जाने इस संख्या से जुड़े कितने संदर्भों को ढूंढ लाया था तुरंत ही। देवों की इस पावन भूमि में भी हर चीज पांच की संख्या में ही विभाजित मिली। पता नहीं यह एक महज इत्तफाक था या वाकई में कोई गूढ़ रहस्य…पंच प्रयाग, पंच केदार और पंच बद्री। प्रस्तुत है इन पंच रूपों का संक्षिप्त विवरण;
पचं प्रयागः जिस प्रकार प्रयाग में गंगा, यमुना और सरस्वती के दर्शन होते हैं, उसी प्रकार यहाँ पंच प्रयाग के अलग- अलग दर्शन किए जाते हैं। ये पंच प्रयाग मुख्य नदियों के संगमों पर स्थित हैं।
देव प्रयागः हरिद्वार से 93 कि. मी. की दूरी पर भागिरथी तथा अलकनंदा के संगम पर स्थित है। शिव मन्दिर और रघुनाथ मन्दिर यहाँ के मुख्य आकर्षण है। यहीं से ही भागीरथी नदी गंगा के नाम से जानी जाती है। संगम पर गंगा की घारा के मध्य टीला डोण्डेश्वर का मंदिर प्रसिद्ध है।
रूद्र प्रयागः देव प्रयाग से 71 कि. मी. अलकनंदा तथा मंदाकिनी नदियों के संगम पर स्थित है। यहाँ नारद जी ने भगवान शंकर की कठोर तपस्या की थी। यहाँ के चामुण्डा देवी व रूद्रनाथ के मन्दिर दर्शनीय है।
कर्ण प्रयागः रूद्र प्रयाग से 31 कि. मी. की दूरी पर कर्ण प्रयाग है। यहाँ पर अलकनंदा तथा पिण्डर नदी का संगंम है। कहा जाता है कि कर्ण ने यहाँ पर कठोर तपस्या की थी। यहाँ उमा और कर्ण का मन्दिर दर्शनीय है।
नन्द प्रयागः कर्ण प्रयाग से 21 कि. मी. की दूरी पर नन्द प्रयाग है। यहाँ पर अलकनंदा तथा मंदाकिनी नदियों का संगंम है। भगवान विष्णु को पुत्र के रूप में प्राप्त करने के लिए नन्द वंश के राजा ने यहाँ पर तपस्या की थी। यहाँ गोपाल जी का मन्दिर दर्शनीय है।
विष्णु प्रयागः गंगा जी की सहायक नदी अलकनंदा नाम से प्रसिद्ध है। अलकनंदा एवं धौली गंगा के संगम को ही विष्णु प्रयाग कहते हैं। यहाँ भगवान विष्णु की प्रतिमा और विष्णुकुण्ड दर्शनीय है।
पंच केदार
श्री केदारनाथः यह सोन प्रयाग से 19 कि.मी. की दुरी पर स्थित है।
श्री तुंगनाथः गोपेश्वर से 19 कि. मी. की दूरी पर तुगंनाथ का मन्दिर है। इसके निकट आकाश गंगा नामक श्रोत है। तुंगनाथ शिखर तीन जलधाराओं का उद्गम स्थल है।
मद महेश्वरः माला चट्टी से 25 कि. मी. की दूरी पर मद महेश्वर महादेव का मन्दिर है। चौखम्भा की तलहटी पर 3289 मी. की ऊंचाई पर स्थित यह एक अद्वितीय मन्दिर है। यहां के जल की कुछ बूदें ही मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयाप्त मानी जाती है।
कल्पेश्वरः हेलंग से 9 कि. मी. की दूरी पर कल्पेश्वर महादेव का मन्दिर है। यह ऋषि-मुनियों की तपोभूमि है। ऋषि अधर्य ने यहां पर कठिन तपस्या करके सुप्रसिद्ध अप्सरा उर्वशी का सृजन किया था।
रूद्रनाथः मण्डल चट्टी से 24 कि.मी. की ऊंचाई पर भगवान रूद्रनाथ का मन्दिर है। अपने पूर्वजों के क्रिया-कर्म, तर्पण आदी तथा उनके प्रति श्रद्धा अर्पित करने के लिए धर्मावलंबी यहां आते हैं।
पंच बद्री
केदारखण्ड स्थित श्री बद्रीनाथ के सनातन धर्म के सर्वश्रेष्ठ आराघ्य देव श्री बद्रीनाथ के पांच स्वरूपों की पूजा अर्चना होती है। नारायण के पाचों रूपों की पांच बद्रियाँ निम्न प्रकार से है। विशाल बद्री के नाम से बद्रीनाथ, पंच बद्रियों में से एक है। बद्रीनाथ का श्रद्धेय मंदिर पौराणिक गाथाऔं, कथनों और घटनाऔं का अभिन्न अंग है। इसकी पवित्रता धर्मशास्त्रों में स्पष्ट शब्दों में अंकित है। स्वर्ग, धरती और पाताल में तीर्थ स्थल है लेकिन बद्रीनाथ जैसा न कोई है न होगा। कहा जाता है कि जब गंगा देवी मानव जाति के दुःखों को हरने के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुई तो पृथ्वी उनका प्रबल वेग सहन न कर सकी। अतः गंगा की धारा बारह जल मार्गों में विभक्त हुई। उसमें से एक है अलकनंदा का उद्गम। यही स्थल भगवान विष्णु के निवास स्थान के गौरव से शोभित होकर बद्रीनाथ कहलाया। आदिगुरू शंकाराचार्य की व्यवस्था के अनुसार बद्रीनाथ मन्दिर का मुख्य पुजारी दक्षिण भारत के केरल राज्य से होता है।
अप्रैल-मई से अक्टूवर-नवम्बर तक मंदिर दर्शनों के लिये खुला रहता है। बद्रीनाथ ऋषिकेश से 300 कि.मी., कोटद्वार से 327 कि.मी. तथा हरिद्वार, देहरादून, कुमाँऊ और गढ़वाल के सभी पर्यटन स्थलों के सुविघाजनक मार्गों से जुड़ा है। चरण पादुका, तप्तकुण्ड, ब्रह्मकपाल, नीलकुण्ड और शेषनाथ यहां पर अन्य दर्शनीय स्थल हैं।
विशाल बद्रीः (श्री बद्रीनाथ में) श्री बद्रीनाथ की देव स्तुति का पुराणों में विशेष वर्णन किया जाता है। ब्रह्मा, धर्मराज तथा त्रिमूर्ति के दोनों पुत्रों नर तथा नारायण ने बद्री नामक वन में तपस्या की, जिससे इन्द्र का घमण्ड चकनाचूर हो गया। बाद में यहीं कृष्ण तथा अर्जुन के रूप में अवतरित हुए तत्पश्चात एक नारद शिला के नीचे मूर्ति के रूप में बद्रीनारायण मिले। जिन्हें बद्री विशाल के नाम से जाना जाता है।
श्री योगध्यान बद्रीः (पाण्डुकेश्वर में) जोशीमठ तथा पीपलकोटी पर ध्यान बद्री का मन्दिर स्थित है। कौरवों से विजय प्राप्त कर, भय के कारण पांडव हिमालय की तरफ आये और यहां उन्होंने राजा परीक्षित को अपनी राजधानी हस्तिनापुर सौंप दी तथा स्वर्गरोहण से पूर्व यंहा घोर तपस्या की।
भविष्य बद्रीः (सुनाई, जोशीमठ के पास) जोशीमठ से 15 कि.मी. की दूरी पर भविष्य बद्री का मन्दिर स्थित है। आदि ग्रन्थों के अनुसार यही वह स्थान है जहां बद्रीनाथ का मार्ग बन्द हो जाने के पश्चात धर्मावलम्बी पूजा-अर्चना के लिए आते हैं।
” भविष्य के बद्रीनाथ भविष्य बद्री का मंदिर उपवन में है, जो जोशीमठ से लगभग 17 किलोमीटर दूर पूर्व में लता की ओर है। यह तपोवन से दूसरी तरफ है तथा धौलीगंगा नदी के ऊपर और लगभग 3 किलोमीटर का ट्रैक द्वारा यहाँ पहुंचा जा सकता है मोटर सड़क से इसकी ऊंचाई 2744 मीटर है यह घने जंगलो के बीच स्थित है यहाँ पहुचने के लिए धौली नदी के किनारे का रास्ता काफी कठिन है धौलीगंगा का अर्थ होता है (सफेद पानी) और वास्तव में यह लगभग हर जगह तेज धारा के साथ तपोवन से ऊपर की तरफ से दोनों ओर लगभग सीधा चट्टानों के मध्य से तेजी से गुजरती है । ऐसा माना जाता है कि कलयुग की शुरुआत में जोशीमठ नरसिंह की मूर्ति का कभी न नष्ट होने वाला हाथ अंततः गिर जाएगा तथा विष्णुप्रयाग के पास पतमिला में जय और विजय के पहाड़ गिर जाएंगे जिस कारण बद्रीनाथ धाम में जाने का मार्ग बहुत ही दुर्गम हो जायेगा जिसके परिणामस्वरूप बद्रीनाथ का फिर से प्रत्यावर्तन होगा और भविष्य बद्री में बद्रीनाथ की पूजा की जाएगी विष्णु के अवतार कल्की कलयुग को समाप्त करेंगे तथा पुनः सतयुग की शुरुआत होगी इस समय बद्रिनत धाम को भविष्य बद्री में पुनार्स्तापित किया जायेगा”
वृद्ध बद्रीः (अणिमठ पैनीचट्टी के पास) जोशीमठ से 8 कि.मी. दूर 1380 मी. की ऊंचाई पर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि जब मनुष्य ने कलयुग में प्रवेश किया तो भगवान विष्णु इस मन्दिर में चले गये। यह मन्दिर वर्ष भर खुला रहता है।
आदि बद्रीः कर्ण प्रयाग-रानी खेत मार्ग पर कर्ण प्रयाग से 18 कि. मी. दूर स्थित है। यहां 16 छोटे मन्दिरों का समूह है। ऐसा विशवास है कि इन मन्दिरों के निर्माण की स्वीकृति गुप्तकाल में आदीशंकराचार्य ने दी थी जो कि हिन्दू आदर्शों के प्रचार-प्रसार को देश के कोने-कोने में फैलाने के लिए संकल्पित थे।
अपनी पहली हिमालय की सैर में जो कि कुछ वर्ष पूर्व दिसंबर के महीने में की थी।, हमने भी भविष्य बद्री के दर्शन और पूजा की थी। पूरे हिमालय का चक्कर लगवाया था भतीजे ने और यह कहकर कि बद्रीनाथ न सही, पट बन्द है, हमें यहाँ अवश्य पूजा कर लेनी चाहिए- बहुत आग्रह और उत्साह के साथ ले गया था हमें अभिषेक के लिए। जीप से बहुत आसानी से मंदिर तक पहुँच गए थे । साथ में नरसिंह भगवान की कलाई को भी छुआ था जिसके टूटने पर महाप्रलय आ जाएगी और फिरसे सृष्टि की शुरुवात होगी। पंडित जी ने बताया कि कलाई अपने आप पतली होती जा रही है। कलाई वाकई में पतली थी और छूने से भय की झुरझुरी पूरे बदन में फैल गई थी , कहीं हमारे हाथों ही यह अनिष्ट न हो जाए। मन में यह भी ख्याल आया था । पहले इन मान्यताओं के बारे में श्रद्धालुओं को बताना फिर उनसे मूर्ति की कलाई को सहलाने के लिए कहना, कहाँ तक सही है, नहीं जानती। पर जहाँ भय और उत्तेजना न हो वह धर्म ही कैसा…फिर हिमालय तो वैसे ही रहस्यों का भंडार है! इसके धर्मस्थानों के प्रत्यक्ष और सांकेतिक महत्वों को गुनते-बुनते और बाहर फैली प्रकृति को आखों से जी भरकर सराहते, कैसे रास्ता निकल गया, पता ही नहीं चला।
हनुमान और जानकी चट्टी पार करते ही हमें कार छोड़ देनी थी और आगे की यात्रा डोली या चार कंधों के सहारे थी।…’चार कंधे’ अजीब-सा अहसास था। जाने कैसे-कैसे संदर्भ आ जुड़े मन में, सबको परे थकेलते चुपचाप खुद को भगवान को समर्पित कर डाला और उस कुर्सीनुमा डोली में जा बैठे। सामने बर्फीले पहाड़ थे पर धूप और गरमी इतनी कड़क कि पसीने चू रहे थे। हर पांच मिनट पर ठेडे पानी की बोतल से खुद को तर करते हम चल पड़े उस दुर्गम रास्ते पर। रास्ता वाकई में बेहद कठिन था। क्या कभी यहां कोई दुर्घटना हुई है…मान लो मोड़ पर फिसल ही जाएं। डोली हाथ से छूट जाए…या इसकी लकड़ी पुरानी और कमजोर हो,…तब…? भय के तरह-तरह के राक्षसों ने डराना चाहा तो आंखें बन्द कर लीं। जहां चढ़ाई ज्यादा कठिन लगती, अपने आप चलने… उतरने की जिद करने लग जाती। चारो कुली कहूँ या सहयात्री, वे युवक हंसमुख और साहसी थे और उनका तो यह रोज का ही काम था। बीच-बीच में जब रास्ता ज्यादा बोझिल हो जाता तो आसपास के जनजीवन, रीति-रिवाजों और इलाके में फैली गरीबी और अशिक्षा आदि के बारे में बातें करते-करते कब हम यमुनोत्री के मंदिर तक जा पहुंचे, वक्त का पता ही नहीं चला। जहां पहुंचने में इतनी कठिनाइयां महसूस हो रही थीं, वहां पहुंचे तो इतनी भीड़ थी कि मेले का-सा वातावरण था चारो तरफ। श्रद्धालुओं का जोश और उनके द्वारा निष्कृमित गन्दगी…किसी कुण्ड में डुबकी लगाना तो पूर्णतः असंभव ही लगा। यमुना को उसके उद्गम पर ही हमने पूजा के नाम पर इतना दूषित कर दिया है, विश्वास ही नहीं हो पाया। पर, औरों की तरह हमने भी बैठकर पूजा की ही, कौतुक वश ही सही, पानी के उबलते कुंड में चावल भी उबाले और फिर उतरते वक्त काल भैरव के दर्शन किए। मान्यता है कि बिना इनके दर्शन के यात्रा पूरी नहीं होती। हमारा एक धाम पूरा हो चुका था… वापस कैम्प में सामने बैठकर सुरम्य वादियों को निहारते हुए विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि इतना आसान था सब।… हां , सामने पहाड़ी पर दिखती आग की रौशनी जरूर मन बेचैन कर रही थी…पता नहीं वन में ये आग खुद लग जाती हैं या स्वार्थवश लगाई जाती हैं, पर लगती जरूर हैं और जगह-जगह लगी मिली !
अगला पड़ाव गंगोत्री था। जहां यमुना के उद्गम तक जाना दुर्लभ है, गंगा के उद्गम गोमुख तक 16 कि. मी. की पैदल यात्रा करके पहुंचा जा सकता है। परन्तु उसके लिए भी पहले से अनुमति लेनी पड़ती है। निश्चय हुआ कि हम भी बस मन्दिर तक ही जाएंगे। गंगोत्री के मन्दिर तक कार जा सकती थी। रास्ता पथरीला और ऊबड़-खाबड़ जरूर था, पर बेहद ही रम्य और शांत था। बीचबीच में हर-हर गंगे का उच्चारण करते एकाकी साधुजन या उनकी टोलियां दिख जाती थीं। महेन्द्र सिंह थापा द्वारा बनाए गंगा के इस मंदिर के बाहर की गली अब पर्यटकों के लिए एक छोटे-से बाजार का रूप ले चुकी है, जहां तरह-तरह के यात्रा से संबंधित चित्र और उपहार आदि खरीदे जा सकते हैं। हमने भी कुछ दुर्लभ पुष्तकें और चित्र हिमालय के ऊपर खरीदे और फिर उन्हें वहीं कहीं अपनी डायरी और कुछ अन्य वस्तुओं के साथ, रास्ते में ही खो भी दिया। खैर …मंदिर का प्रांगण श्रद्धालुओं से खचाखच भरा हुआ था। चोर और श्रद्धालु सब साथ-साथ..और हर चीज की परची कट रही थी। प्रसाद तक की। एक आदमी प्रसाद के मीठे चावलों के लिए गिड़गिड़ा रहा था जिसे उसे अपने बेटे को जरूर ही खिलाना था। पर पंडित या बनिया जो भी हो दो दाने भी बिना पैसे के नहीं दे सकता था। इतना भृष्ट और महाजनी समाज हमारा…वह भी ऐसी जगहों पर, मन विस्तृणा से थक चुका था। पैसे के सहारे पूजा, भक्ति, विश्वास सभी कुछ मिल सकता है, वरना कुछ नहीं। चुपचाप वहां से निकल नदी के किनारे आ गई। वातावरण में शांति और पुलक पुनः वापस आ मिले थे।
चंद मिनटों बाद ही लौटते वक्त पुनः ‘ ऐ बीबी भंडारा करवा दे, तेरी अगली-पिछली, सभी पीढ़ियां तर जाएंगी।‘
‘ मेरी बेटी की शादी करवा दो, बस पच्चीस हजार रुपए की ही तो बात है।‘
‘ नाश्ता और चाय पानी…। ‘ . ‘ दुपहर का खाना…भण्डारा..। ‘.‘ अभिषेक के आठ हजार।‘ ‘ अब 11 हजार। ‘ यहां पर तर्पण के बाद फिर कहीं और तर्पण की जरूरत ही नहीं।‘ जितने मुंह उतनी ही बातें थीं और उतनी ही मांगें थीं चारो तरफ। परलोक सुधारने के लालच में या भगवान से और अधिक पाने के लालच में लोग अपनी-अपनी सामर्थ अनुसार और-और ले-दे रहे थे। भिखारी, पंडित, कुली सबकी मांगों से जैसे-तैसे निबटता मन और आगे बढ़ते पैर एक-के-बाद एक मुकाम पूरे किए जा रहे थे परन्तु निर्लिप्त और निर्वीकार। …
अगली सुबह एक बार फिर हम जोशीमठ के लिए चल पड़े थे। आस-पास फैले प्रकृति के सौंदर्य और विराटता से अभिभूत ही नहीं, खो चुका था मन बिना जाने ही कि कौन-सी बात ज्यादा अभिभूत कर रही थी, यह अथक आस्था और पूर्ण समर्पण की पौराणिक कहानियां या मनोहारी प्रकृति!
सामने रहस्यमय केदारनाथ की पहाड़ी थी। यदि यमुना को भक्ति और गंगा को कर्म कहें, तो चन्द मिनटों की उड़ान के बाद हम उस पुरातम मंदिर में पहुंचने वाले थे जिसे मोक्ष का द्वार कहते हैं। कैसा है मन्दिर …देखने को मन उतावला था। उत्साह इतना कि सुबह तीन बजे उठकर ही एक बाल्टी गरम पानी से नहा लिए। होटलवाले ने बतलाया कि कैसे जाड़ों में तो उनके आंगन तक में बर्फ का ढेर लग जाता है। वहीं जैसे तैसे आंच जलाकर पानी गरम करने की व्यवस्था हो पाती है। एक-के-बाद एक कई उन पहाड़ों के ठंडे रोमांचक किस्से…सुनते-सुनते मन ही नहीं भर पा रहा था। सामने अहमदाबाद से एक और श्रद्धालुओं का ग्रूप आया हुआ था। और पूरी रात उन्होंने भजन गा-गाकर ही निकाल दी थी। वैसे भी सोने से फायदा भी क्या…सुबह चार बजे से अभिषेक पूजा शुरू हो जाती है। और दो बजे से परची कटनी। शिव बैल का रूप ले पाणडवों से जा छुपे थे गुप्त काशी में और उसी भागते और जमीन में अंतर्ध्यान होते बैल की पीठ को ही साक्षात् शिव मानकर भक्तगण आजतक केदार धाम में पूजते आए हैं। कान पूरे मनोयोग से पंडित जी की बातें सुन रहे थे और आँखें सामने पर्वत की धवल-उज्जवल चोटियां, उन पर उड़ता श्वेत-नील बादलों का झीना आंचल…( जो उजाले और अंधेरे की उस संधि बेला में और भी रोमांचक लग रहा था) नैसर्गिक उस रूप को बूंद-बूंद पी रही थीं। यही वह जगह थी, जहां कभी पाण्डवों ने बैल के रूप में छुपे शिव को ढूँढ निकाला था और फिर भोले बाबा ने उनकी कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर सश्रृंगार बद्रीनरायण का रूप ले, उन्हें अपने मंगलकारी दर्शन करने का आदेश दिया था। आधी धरती में समाए इसी बैल के पीठ की प्रतिमा की ही पूजा होती है यहां केदारनाथ के मंदिर में, देखकर ही विश्वास हो पाया था। कहते हैं यह वही बैल है जिसका मुंह पशुपति नाथ के रूप में काठमांडू में जाकर प्रकट हुआ और वहां पर पूजा जाता है। अचानक ही कई रहस्यों की गुत्थियां खुलने लगीं, वरना बीस साल पहले जब पशुपतिनाथ गई थी तो यही सोचकर संतुष्ट थी कि शिव दयालु हैं और उपेक्षित व निर्बलों की सहायता करते हैं, इसीलिए पशुपतिनाथ कहलाते हैं। विस्मित मन श्रद्धालुओं को देख रहा था, उनकी मनःस्थिति जानना चाह रहा था। उनके और अपने विचारों की परख, तुलना और पड़ताल किए जा रहा था। गरम और शीत आस्था और विचारों के परोक्ष-अपरोक्ष सोतों में डुबकी ले रहा था। घी का प्रयोग बहुलता से हो रहा था चारो तरफ। हर दर्शक अपने हाथों से शिव का घी से अभिषेक करना चाहता था। शिव ही नहीं हर मूर्ति को श्रद्धालु घी से लेप रहे थे। धूप, कपूर और घी की महक से वहां इतनी ठंड में भी एक उष्मित धुंए का नशा-सा छा चुका था। कुल मिलाकर अद्भुत वातावरण था चारो तरफ और पाण्डवों द्वारा बनवाया यह पांच हजार साल पुराना मन्दिर जाने क्यों एक उपलब्धि…एक मंजिल पर पहुंचने का अहसास दे रहा था मन को। मंदिर का परिसर पांडवों की प्रतिमाओं से सजा हुआ था। और बीच में एक भव्य नन्दी की प्रतिमा थी। जिसके निकट जाकर लोग कान में उससे अपनी-अपनी फरमाइशें भी कहते दिखे। शिव के बेहद निजी जो हैं नन्दी…शायद शिव तक फरियाद पहुंच ही जाए। इच्छा पूरी ही हो जाए। अंदर के कक्ष में शांति थी एक निर्लिप्त शांति…शायद मूर्ति का रूप साधारण से हटकर और रहस्यमय था इसलिए। पंडितजी के निर्देश पर हाथ यंत्रवत् पूजा कर रहे थे, बिना किसी कामना, बिना किसी लिप्सा के।‘ इस मंदिर में जो मांगों वही मिल जाता है। अब आंखें बन्द करके तुम भी कुछ मांग लो। ‘ पूजा पूर्ण होते ही पण्डित जी ने कहा था। ‘ क्या मांगू …सबकुछ तो दिया है उसने। फिर वह तो सब जानता ही है! ‘ -स्वतः ही पुनः मुंह से निकल जाता है, परन्तु पंडित जी की रहस्यमय मुस्कान और कौतुकमय दृष्टि अगले पल ही अंतस् भेद देती है। तो क्या इन्हें भी इन सब बातों पर विश्वास नहीं या फिर यह सोच रहे हैं, कि ’ ऐसा नास्तिक यहां पर क्यो, जब विश्वास ही नहीं, तो क्यों कर रही है यह इतने मनोयोग से सारे पूजा-पाठ और कर्म-कांड !’ जरूर ही सोचा होगा यही उन्होंने, पर अब कैसे समझाऊं उन्हें कि यह…अंतर्मन के सारे रहस्यों को तो मैं खुद भी नहीं जान पाती।
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सुबह-सुबह …सही कहूं तो रात में ढाई बजे नहाधोकर हम मंदिर की ओर चल पड़े थे। सुबह तीन बजे की पूजा और अभिषेक की परची कटी थी हमारी। पर अब पौ फट चुकी थी और उजाले ने अंधेरे की चादर को समेटना शुरू कर दिया था। मन नियति के अनकहे आयोजन पर आश्चर्य चकित था। पूजा कराने वाले पण्डित जी न सिर्फ फरुक्खाबाद ( ससुराल) से थे, अपितु परिवार के एक-एक सदस्य को जानते भी थे। उन्ही और सिर्फ उन्ही का हमें यहां केदारनाथ में मिलना एक सुखद इत्तफाक…पूर्वजों की इच्छा-सा ही लगा। चलते वक्त उन्होंने सूखा हुआ एक बृह्म कमल भी प्रसाद स्वरूप लाकर दिया हमें।
सुबह सात बजे ही फाटा के लिए वापसी थी हमारी। इसी बीच आदिगुरु शंकराचार्य की समाधि भी देखनी थी। कहीं कुछ छोड़ने को जिज्ञासु और पिपासु मन तैयार ही नहीं था। अनंत और असीम से मानो पूर्णतः जुड़-सी गई थी। बिना नाश्ता किए, बिना आराम किए अगले पल ही आदिगुरू शंकराचार्य के मंदिर को ,दर्शन के लिए चल पड़े हम। सुबह सात बजे ही हेलीपैड वापस पहुंचना था और शंकराचार्य का मंदिर भी अवश्य ही देखना था। दौड़ते भागते दर्शन किए। मूर्ति सुन्दर और रहस्यमय थी, पर मन्दिर थोड़ा उपेक्षित और वीरान-सा। सभी श्रद्धालु केदारनाथ के दर्शन को ही ललायित थे। उस भीड़ से तो रास्ता भी बड़ी मुश्किल से ही मिल पाया था।
एक बार फिर हम गुप्त काशी में वापस आ गए। यही वह जगह थी जहां पाण्डवों को दर्शन न देने की जिद लिए शिव बनारस से आकर छुप गए थे। और पशुओं के झुंड में बैल का रूप धरे हुए शिव को भीम ने ढूँढने की अपनी अद्भुत और सफल तरकीब भी यहीं पर आजमाई थी। नर और नारायण आमने सामने खड़े दोनों पर्वतों पर पैर रखकर भीम खड़े हो गए थे और कहा था कि शिव रूपी बैल अन्य जानवरों की तरह उनके पैरों के बीच से नहीं गुजरेगा। हुआ भी वही और तब हारकर शिव ने अपने अर्ध-नारीश्वर रूप के दर्शन दिए।..लोक-परलोक के दर्शन कराती वे कहानियां और गाथाएं, प्रामाणिक और अप्रामाणिक बिखरी पड़ी हैं इस क्षेत्र में चारो तरफ। हर दिन एक उत्सव और मेला। हर मील-दो मील पर जहां बस्ती वहां एक पौराणिक मन्दिर। चाहे वह शिव से छल करके, बालक का भेष रखे विष्णु द्वारा मां पार्वती को लुभाकर, इस सुरम्य पर्वत पर बद्री विशाल के आ बसने की बात हो या गुरु साहब की हेमकुणड के पास रम्य फूलों की घाटी में ज्ञान और प्रवचन की।…मन संभव-असंभव हर गाथा पर विश्वास न करते हुए भी, करना चाह रहा था। लग रहा था अपनों के साथ, अपने इतिहास के बीच में आ खड़ी हुई हूँ और एक बार फिर से सब कुछ जी रही हूँ। किस्से कहानियों और गुफा कन्दराओं में ही सही, अपनों और पूर्वजों से पूर्णतः जुड़ गई थी। ऐसा ही कुछ रामेश्वरम् और कन्याकुमारी में भी लगा था। जब उस पुल से श्री लंका को देखा था या उछाल मारती तीन सागर की लहरों को मिलते हुए देखा था, एक ही जगह पर सूरज को लाल और सुनहरी आभा से मंडित होकर डूबते देखा था। या फिर तब, जब मदुराई और कन्याकुमारी के गान्धी संग्रहालयों को देखा था, जहां उनकी निजी वस्तुओं रखी थीं। खून से रंगा, बदरंग व जारजार कपड़े का वह टुकड़ा… जिससे गोली पार हुई थी कैसी कैसी समृतियां और मनोभाव मन में जगा गया था। काश्…ऐसा न हुआ होता। कोने-कोने लिखे उनके उद्गारों को पढ़ा था। तब भी कुछ ऐसी ही अलौकिक अनुभूति हुई थी, शरीर के परे, काल के परे पहुंच जाने वाली। वही, अनुभूति इस वक्त उस वीरान, सुनसान-सी बर्फ ढकी चोटी पर पहुंच कर भी हो रही थी…कहते हैं आवाजें नहीं मरतीं और कान सनसनाती हवा में गीता के उपदेश और वेदों की ऋचाओं को ढूंढ रहे थे।…
‘यदि पाप नहीं किया है तभी झरने की बूंदें गिरेगीं आपपर, वरना नहीं।‘ शिव-पार्वती का विवाह… उनके विवाह कुँड की प्रज्वलित अग्नि, जिसे जलाने के लिए, लगातार जली रखने के लिए, आज भी जाने कितने जंगल-पर-जंगल कट रहे हैं। घटती ओजोन लेयर और पर्यावरण का इन गाथाओं के आगे कोई महत्व नहीं …मन कौतुहल और अवसाद दोनों से ही एकसाथ भर-भर आता और आंखें छलकने लग जातीं अपनी असमर्थता पर, चीजों को ठीक से न समझने और मानने वाले अंतर्द्वन्द्व पर….क्या सही है, क्या गलत , कुछ नहीं समझ में आ रहा था।
‘ शिव और पार्वती आज भी सफेद नाग के एक जोड़े के रूप में रहते हैं यहां पर। ध्यान से और पूर्ण श्रद्धा के साथ देखो तो दर्शन भी देते हैं। मंदिर के अंदर टौर्च ले जाना मत भूलना, बेटी।‘ ‘ यहां तर्पण करो तो पूर्वज खुद आकर स्वीकार करते हैं। सीधे विष्णुलोक चले जाते हैं। मोक्ष प्राप्त करते हैं।‘ ‘ ए मूर्ख, गंगाजल को गंदा कहती है। ‘ आवाजें जिन्हें भूलना, आसान नहीं। किसी परी-पुराण से कम रोमांचक और अविश्वसनीय नहीं होते हुए भी, विश्वसनीय-सा भी हो चला था सब कुछ। अभिषेक पर अभिषेक करता मन उन स्वयंभू भविष्य बद्री के बारे में भी सोचने लग जाता था जिन्हें नरसिंह भगवान की पतली कलाई के टूटते ही स्वयं ही प्रकट हो जाना होगा। कमल जो एकबार बस रात को ही खिलता है और कस्तूरी मृग जो अपनी ही सुरभि को ढूंढता फिरता है। विश्वसनीय होकर भी कितने अविश्वसनीय थी वे किंवदन्तियाँ …कितनी कल्पना को आन्दोलित और उत्तेजित कर रही थीं वे सारी अद्भुत गाथाएँ और मान्यताएँ । सीताजी धरती में यहीं समाई थी। वह सुमेरू पर्वत भी सामने था जिसकी मथनी बनाकर समुद्र-मंथन हुआ था। मानो बचपन से आज तक सुना-पढ़ा सब साकार रूप ले सामने आ खड़ा हुआ था। पुरुष और प्रकृति की एकात्मकता का एक अभूतपूर्व अहसास था कण-कण में। मानव स्वभाव की दुरूहता थी…सहजता थी, मिथ्यापन और छल-कपट की निरर्थकता भी तो थी पर साथ-साथ। आंखें भीग-भीग आती थीं बारबार। वैराग्य स्वतः ही फुंकारने लगे ऐसा उजाड़ और वीरान भी था वह रूप।
पर बद्रीनाथ की छटा कुछ दूसरी ही थी। चारो तरफ भीड़ ही भीड़…एक हर्ष और उत्साह से भरा।…लगातार कुछ होते रहने का अहसास था चारो तरफ। ढेरों दुकानें थीं, छोटे बड़े होटल और रेस्टोरैन्ट थे अन्य शहरों की तरह ही, जिनमें शोर गुल के बीच गाने बज रहे थे। तरह-तरह के और भारत के हर प्रान्त से व्यंजन उपलब्ध थे। ढलान और छोटा सा पुल पार करते ही सामने बद्री विशाल का चिर-प्रतीक्षित और भव्य मंदिर दिखाई दे रहा था और साथ-साथ थी दिन-रात, लगातार असंख्य श्रद्धालुओं की चलती रहती लम्बी कतार।
मंदिर की सज्जा में बेहद चटक नीले, गुलाबी रंगों का प्रयोग राजपूत शैली की याद दिला रहा था। शाम की पूजा के पहले अंदर के कक्ष में प्रांगण में बिठा दया गया था हमें। वहां कुछ श्रद्धालु अपनी-अपनी तरह से पूजा-पाठ कर रहे थे। पास ही रखी सहस्त्रनाम की पुष्तक को मैने भी उठाकर पढ़ना शुरू कर दिया। विष्णु के इतने नाम और इतने अवतार; संदर्भों की बृहद जानकारी थे वे नाम। वैभव-मडित वातावरण था गर्भगृह में एक बार हम फिर रावल जी और उनियाल जी के सानिध्य में उन्ही के साथ सहस्त्र नामों का जाप कर रहे थे… सहस्त्र विष्णु जाप धूप-दिए के धुँए से गमकता और तुलसी की मालाओं के ढेर से दबा –ढका विष्णु का वह रूप…आस्था और जिज्ञासा मानो एक साथ श्रद्धा का रूप लेकर आ बैठी थी मन में। सुबह का अभिषेक और श्रृंगार एक दूसरी ही गरिमा लिए हुए था। बाहर लगी सैकड़ों की लाइन सुबह चार बजे से इन्तजार कर रही थी और चन्द भाग्यशाली हम अन्दर बैठकर भगवान के स्नान और श्रृंगार के साक्षी बने। यह भी भगवान की विशेष कृपा ही है कि उनका पंचाभिषेक देख पाए हम। अन्य सभी संस्थाओं की तरह ही, सारी व्यवस्था में यहां भी नगद-नारायण की महिमा ही सर्वोपरि दिखी, चाहे बद्रीनाथ की बात करें या बाला जी के मंदिर की।
बद्रीनाथ से आगे अगली सुबह हम अपने अगले पड़ाव पर थे। अगला पड़ाव यानी कि त्रिवेणी की तीसरी कड़ी सरस्वती के उद्गम स्थल पर। सामने सैन्य टुकड़ी के बारूदों का धुंआ दूर पहाड़ी पर अभी भी उठता दिख रहा था। बगल में ही गणेश गुफा और बेदव्यास गुफा थी…गुफाएं जिनके पत्थर तक बेलपत्र का आभास दे रहे थे। जहां बैठकर महाभारत लिखी गई थी। ‘ यही वह गुफा है जिसमें बैठकर गणेश जी ने पूरा महाभारत लिखा था और वेदव्यास ने सुनाया था।‘ मन और मस्तिष्क मानो एलिस बने वंडरलैंड में घूम रहे थे। ‘कैसा रहा होगा वह गणेश और वेदव्यास का स्वरूप…क्या कोई ग्रामवासी थे …विद्वान थे उस जमाने के, ऋषि या शूरवीर थे.. थे भी या… उस काल में कैसा रहा होगा मानव, उसकी जीवन शैली … क्या वाकई में-यदा यदा हि धर्मस्य हानिर्भवति भारतः…भगवान स्वयं मानव रूप लेकर आते हैं इस धरा पर..?’ कई सवाल एक साथ ही घुमड़ रहे थे मष्तिष्क में और मन बहुत कुछ जान लेना चाहता था, आस्था जुड़ जाना चाहती थी पूर्णतः यथार्थ और किंवदनितियों की सीमा लांघकर!
सामने सरस्वती नदी बह रही थी। थोड़ा आगे चलकर सरस्वती का उद्गम स्थल था और वह पुलिया थी जिसे पार करने को द्रौपदी को मना किया गया था। वह जगह थी जहां मृतप्राय और थककर गिरी द्रौपदी को छोड़कर पांचों पाण्डव आगे बढ़ गए थे। उनके प्रिय अर्जुन, महाबली भीम, नकुल, सहदेव और सत्य व धर्म-धारक युध्धिष्ठिर, सभी। द्रौपदी पर आरोप था कि पांचों की पत्नी होने पर भी उसने मन-ही-मन अर्जुन को अधिक क्यों चाहा।…
‘‘ यही भारत का आखिरी भू-खंड, आखिरी चोटी है, इससे आगे तिब्बत और चीन है। देश की सुरक्षा को तैनात हमारे जवान अभ्यास कर रहे हैं वहां पर।‘
और आगे जाने को मना था। मन जानना तो सब चाहता था पर मानना नहीं। पर गाइड ने जब बताया तो वर्तमान में वापस लौट आई…वर्तमान जो अतीत से कम रोचक और थोड़ा तकलीफ देह भी लगा उस वक्त। हमारे शिव का वासः कैलाश पर्वत, मानसरोवर, कुछ भी तो अब भारत में नहीं …कोहिनूर हीरे की तरह इन आस्था के शिखरों के दर्शन के लिए भी विदेश यात्रा ही करनी पड़ेगी अब हमें… कटु य़थार्थ जो बहुत कुछ खो जाने की जानकारी और टीस दे रहा था।
लौटते वक्त देव प्रयाग और कर्ण प्रयाग को पार करते और विवादास्पद टिहरी बांध के पुनः चक्कर लगाते हम एकबार फिर सुरम्य श्रीनगर (गढ़वाल) में आ टिके थे। यहीं पर भगवान राम ने सहस्त्र कमलों से शिव का अभिषेक किया था। होटल भव्य और सुन्दर था। ऊबड़-खाबड़ रास्तों से डरें नहीं तो शिव के उस पुराने मन्दिर का मात्र पांच मिनट का ही रास्ता था। मन सामने बहती गंगा के जल को स्पर्श करने को तरस रहा था। हर जगह उस शीतलता को आँखों से ही पीती रही। यही सोचकर कि जल्दी क्या है कहीं भी स्पर्श कर लूंगी पर अब जब लौटने का वक्त आ गया तो इच्छा अदम्य हो चली। सारे खतरों की परवाह न करती अकेली ही निकल पड़ती हूँ। ‘ ए बीबी, यहीं से डूंग जाओ सर्र से पहुंच जाओगी वहां नदी के पास। सामने ही तो है भगीरथी।’ वह पहाड़िन जाने कहां से आकर बगल में खड़ी हो चुकी थी और मेरे असमंजस का आनन्द ले रही थी । पर यूं डूंग जाना इतना आसान तो नहीं…मैं कहूँ , इसके पहले ही वो पुनः हंस पड़ती हैं। ‘ अब झूठ थोड़े ही बोलूंगी भला मैं … आप कोई मुझे बुरे लगे हो क्या…जान से प्यारे हो आप तो हमें, जी। आप ही लोगों के इन्तजार में तो पूरा बरस निकाल देवें हैं हम।’ एकबार फिर सहारा देने को वह अपना हाथ फैलाती है। पर नीचे ढलान देखते ही हिम्मत छूट जाती है।
‘ नहीं, संभव हुआ तो सड़क के, सही रास्ते से ही जाऊंगी, मैं।’ कहते हुए पैर स्वतः ही वापस मुड़ जाते हैं। कठिन मार्ग पर साधना और अभ्यास बिना आगे नहीं बढ़ा जाता…याद दिलाता अंतर्मन मुझे बारबार सचेत कर रहा था। फिर गंगा तो सब जगह है। मेरे अपने शहर (बनारस) में भी।
हम बढ़ चले थे नरेन्द्र नगर, अगले पड़ाव की ओर जहां गढ़वाल नरेश के होटल-कम-पैलेस आनंदा के भव्य परिसर में हमने यात्रा के अंतिम चार दिन बहुत ही आराम और आनंद से मन माफिक बिताए। कोई सुनिश्चित दिनचर्या नहीं..कहीं भागने या जाने की जल्दी नहीं। योग करते, वेदान्त समझते और प्रकृति व स्वास्थवर्धक जड़ी-बूटियों से समिश्रित पेय और खानपान का भरपूर आनंद लेते हुए। प्रकृति अपनी पूरी छटा के साथ फैली हुई थी चारो ओर। कमरे की बालकनी में बैठो तो कभी मोर आ जाते तो कभी गोरिल्ला। इस पूरी यात्रा में कितनी तरह-तरह की चिड़िया देखीं और कितनी बार अदरक और तुलसी का शीतलता पहुंचाता ठंडा पेय लिया, गिनती नहीं। योग और हिमाचल संस्कृति पर किताबों का अच्छा संग्रह था वहाँ।
इतना सब कुछ था देखने और करने को पर समय के अभाव में बेहद सतही तौर पर ही पढ़ और जान पाई। फिरभी मन बेहद शांत और प्रफुल्लित था…अपने देश की प्राकृतिक और जीवन शैली की विविधता को इतने पास से देखने और अनुभव करने का भरपूर मौका मिला था। चन्द दिनों के अन्दर यायावारी से लेकर राजसी ठाट-बाट- सभी का अनुभव हुआ था। आधुनिक हर सुख-सुविधा से लैस हमारी यह चारधाम यात्रा कठिन तो थी, पर उतनी कठिन भी नहीं जितना कि मन इंगलैंड में बैठकर आशंकित था। बरसों बाद मसाले के नमक के साथ स्वादिष्ट जामुनों का स्वाद लेते और कार में चल रही ए.आर. रहमान. की नवीनतम सी.डी. को सुनते, दिल्ली से बीस दिन पहले जो यात्रा हमने शुरु की थी, उसका ऐसा सुखद और भव्य समापन… याद मात्र से मन पुलक उठता है।…
शैल अग्रवाल