गीत और ग़ज़लः दयानंद पाण्डेय


तुम्हारी अक़्ल में मज़हब से ज़्यादा क्या है
आख़िर तुम्हारी ज़न्नत का तकाज़ा क्या है

अक़्ल पर ताला , मज़हब का निवाला
अब तुम्हीं बता दो तुम्हारा इरादा क्या है

दुनिया भर से दुश्मनी की बेमुराद मुनादी
मनुष्यता से आख़िर तुम्हारा वादा क्या है

अपने मुल्क़ से , घर से , कुछ तो रिश्ता होगा
ऐसे दहशतगर्द बने रहने में फ़ायदा क्या है

यह अक़लियत है कि ज़हालत का जंगल
तुम्हारे मज़हबी हमले का हवाला क्या है

दुनिया दहल गई है तुम्हारी खूंखार खूंरेजी से
तुम्हारी सोच में ज़ेहाद का यह ज़ज़्बा क्या है

यह ख़ून ख़राबा , गोला बारूद , हूर की ललक
आख़िर तुम्हारे पागलपन का फ़लसफ़ा क्या है

मरते बच्चे ,औरतें , मासूम लोग और मनुष्यता
तुम्हारी इन राक्षसी आंखों का सपना क्या है

मेरे भाई , मेरे बेटे , मेरे दोस्त , मेरी जान ,
दुनिया में मनुष्यता और मुहब्बत से ज़्यादा क्या है

होती है मुहब्बत तो दिल को चकोर कर देती है
जैसे गांव से शहर आ कर अम्मा मुझे विभोर कर देती है

घर में बच्चा किलकारियां मारता है तो खिलती है चांदनी
इतना खिलती है कि सारा आंगन अंजोर कर देती है
लोग हैं , पैसा है , अस्पताल है , डाक्टर हैं , और दवा भी
बीमारी कैसी भी हो मां की दुआ उसे कमज़ोर कर देती है

दरिया है , समंदर है कि धरती है , देखता नहीं कोई बादल
बरसता है तो भींगता है जंगल भी , चिड़िया शोर कर देती है

घर सब कुछ से भरा हो , तिजोरी भी हो लबालब लेकिन
नीयत ठीक न हो तो अच्छे-अच्छों को चोर कर देती है

गरमी हो , बरसात हो ,या कि हो घनघोर सरदी भी
प्यार की तलब हर हाल तुम को मेरी ओर कर देती है

तुम से ऊब कर , खीझ कर मैं लाख बिदकूं और भागूं भी
तुम्हारे मन की निश्छलता और हंसी तेरी ओर कर देती है

तुम्हारे कपोल , अधर और आंखें , अनमोल है तुम्हारी बिंदी
प्यार की यह सारी अदा ही सर्वदा दिल मांगे मोर कर देती है

तुम्हारी चितवन , तुम्हारा नाज़ , तुम्हारे नखरे बरसते हैं ऐसे
हर किसी के खेत को ख़ुश जैसे घटा घनघोर कर देती है

सर्दी की धूप सेकने आंगन में जब बैठता है पूरा का पूरा घर मेरा
तुम्हारी याद और यादों की बारिश ज़िंदगी को सराबोर कर देती है

तुम्हारी चर्चा , तुम्हारा ज़िक्र , तुम्हारी वह फूल सी बातें
जो काम किसी मीठी तान में बांसुरी की पोर कर देती है
लोग खाते हैं बहुत कसमें लेकिन यह दुनिया भी बड़ी जालिम
होती है कोई बात ज़िंदगी में जो दुनिया भर में शोर कर देती है
सुख और दुःख के तार हैं बहुत छोटे कोई कुछ कर नहीं सकता
और जो कोई कर नहीं पाता वह आंख की भीगी कोर कर देती है

यह मन के दीप जलने का समय है तुम कहां हो
प्राण में पुलकित नदी की धार मेरी तुम कहां हो

रंगोली के रंगों में बैठी हो तुम , दिये करते हैं इंकार जलने से
लौट आओ वर्जना के द्वार सारे तोड़ कर परवाज़ मेरी तुम कहां हो

लौट आओ कि दीप सारे पुकारते हैं तुम्हें साथ मेरे
रौशनी की इस प्रीति सभा में प्राण मेरी तुम कहां हो

देहरी के दीप नवाते हैं बारंबार शीश तुम को
सांझ की इस मनुहार में आवाज़ मेरी तुम कहां हो

न आज चांद दिखेगा , न तारे , तुम तो दिख जाओ
सांझ की सिहरन सुलगती है , जान मेरी तुम कहां हो

हर कहीं तेरी महक है , तेल में , दिये में और बाती में
माटी की खुशबू में तुम चहकती, शान मेरी तुम कहां हो

घर का हर हिस्सा धड़कता है तुम्हारी निरुपम मुस्कान में
दिल की बाती जल गई दिये के तेल में , आग मेरी तुम कहां हो

सांस क्षण-क्षण दहकती है तुम्हारी याद में , विरह की आग में तेरी
अंधेरे भी उजाला मांगते हैं तुम से , अरमान मेरी तुम कहां हो

यह घर के दीप हैं , दीवार और खिड़की , रंगोली है , मन के पुष्प भी
तुम्हारे इस्तकबाल ख़ातिर सब खड़े हैं , सौभाग्य मेरी तुम कहां हो

दयानंद पाण्डेय

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