कविता धरोहरः सुमित्रानंदन पंत


धर्मदान
—–
यह प्रकाश है,
तुम इसमें क्या खोजोगे,
क्या पाओगे ?-
यह दीप
तुम्हें सौंपता हूँ !

यह अग्नि है,
तुम किन आनंदों के
यज्ञ करोगे,
किन कामनाओं की
हवि दोगे ?-
यह वेदी
तुम्हें सौंपता हूँ !

यह प्रकाश और अग्नि ही नहीं,
गति है, जीवन है,
तुम किन लोकों में
जा पाओगे ?-
यह किरण
तुम्हें सौंपता हूँ ।

यह अग्नि
अंतर अनुभूति है,
तुम सत्य के स्रोत को
देख पाओगे कि नहीं ?
यह अभीप्सा
यह प्रेरणा
तुम्हें सौंपता हूँ !

गीत खग
ओ अवाक् शिखरो,
भू के वक्ष-से उभरे,
प्रकाश में कसे,…
दृष्टि तीरों-से तने,…

हृदय मत बेधो,
मर्म मत छेदो ।

कौन रहश्चंद्र था
क्षितिज पर,
कैसा तमिस्र सागर ?
कव का उद्दाम ज्वार ।

धरती के उपचेतन से
उन्मत्त हिल्लोलें उठ
अँगूठे के बल
खड़ी की खड़ी रह गईं ।

नील गहराइयों में डूबी
मन की
अवाक् ऊंचाइयों पर
शुभ्र चापें सुन पड़ती हैं ।

फालसई सोपानों पर
ललछौंहे पग धर
उषाएँ उतरती हैं ।

ओ स्वर्ण हरित छायाओ,
इन सूक्ष्म चेतना सूत्रों में
मुझे मत बाँधो ।
मैं गीत खग हूँ,
उड़ता हूँ,…
ज्योति जाल में
नहीं फंसूँगा ।

ऊंचाइयों को
समतल में बिछा,
गहराइयों को
समजल में डुबा,
इंद्रधनुषी तिनकों का
नीड़ बसा
कलरव बरसाऊँगा ।-

नील हरी छाँहों में छिप
स्वप्नों के पंख खोल
धरती को सेऊँगा ।

प्रेम

मैंने
गुलाब की
मौन शोभा को देखा ।

उससे विनती की
तुम अपनी
अनिमेष सुषमा की
शुभ्र गहराइयों का रहस्य
मेरे मन की आँखों में
खोलो ।

मैं अवाकू रह गया ।
वह सजीव प्रेम था ।

मैंने सूँघा,
वह उन्मुक्त प्रेम था ।
मेरा ह्रदय
असीम माधुर्य से भर गया ।

मैंने
गुलाब को
आठों से लगाया ।
उसका सौकुमार्य
शुभ्र अशरीरी प्रेम था ।

मैं गुलाब की
अक्षय शोभा को
निहारता रह गया ।

दंतकथा
—–
पुरानी ही दुनिया अच्छी
पुरानी ही दुनिया ।

नदी में कमल बह रहे—
कहाँ से आ रहे ?

किनारे किनारे
स्रोत की ओर
जाते-जाते-देखा,

नदी के बीच
रंगीन भंवर पड़ा है;—
उसी से फुहार की तरह
कमल बरस रहे हैं ।

हाय रे, गोरी की नाभि-से भंवर ।
पास जाते ही
भंवर ने लील लिया । …
यह परियों के महल का
द्वार था ।

परियाँ खिलखिला कर
हँसीं ।-
भौंहों के संकेत से कहा,
राजकुमारी से व्याह करो ।

परियों की राजकुमारी
नत चितवन
मुसकुरा दी ।
उसके जूड़े में
वैसा ही कमल था ।

पुरानी ही दुनिया अच्छी,
पुरानी ही दुनिया ।

वह सीधा था,
हदय में दया थी ।
झाड़ फूँस की कुटी,…

भगवान परीक्षा लेने आए ।
भस्म रमाए, झोली लटकाए,…
उन्होंने हाथ फैलाए
भीख मांगी ।
मुट्ठी भर अन्न पाकर
चुपके,
वरदान दे गए ।
झाड़ पात की कुटी
सोने का महल बन गई ।
द्वारपाल चंवर डुला रहे हैं—-

बुढिया ब्राह्मणी
नवयुवती बन गई,
शची सा श्रृंगार किए है ।

पुरानी ही दुनिया अच्छी,
पुरानी ही दुनिया ।

एक थी रुत्री, एक था पुरुष.
दोनों प्रेम डोर में बंधे,
सच्चे प्रेमी प्रेमिका थे ।
मंदिर के अजिर में पड़े रहते,
देवी का प्रसाद पाते ।

दोनों एक साथ मरे ।.…
मर कर

हरे भरे लंबे
पेड़ बन गए ।

अब
दोनों धूप छाँह में
आंख मिचौनी खेलते,
दिन भर पत्तों के ओंठ हिला
गुपचुप
बातें करते ।

वसंत में कोयल पूछती,
कुहू, कुहू,
कौन है, कौन है ?
बरसात में
पपीहा उत्तर देता,
पिऊ पिऊ,
प्रिय हूँ, प्रिय हूँ ।

पुरानी ही दुनिया अच्छी,
सच,
पुरानी ही दुनिया ।

प्रज्ञा
—-
वन फूलों में
मैंने नए स्वप्न रंग दिए,
कल देखोगे ।
कोकिल कंठ में
नयी झंकार भर दी
कल सुनोगे ।

ये तितलियों के पंख
वन परियों को दे दो ;
चेतने,
तुम्हारी शोभा
विदेह चाँदनी है,
अपना ही परिधान ।

धरती अब
लट्टू सी घूमती है
तो क्या ?
हम बड़े हो गए ।

पर्वतों की बड़ी बड़ी उमंगें
अँगूठे के बल खड़ीं
शांत, मौन, स्थिर हैं ।

समतल दृष्टि
समूची पृथ्वी न देख पाई पी,-
ऊपर के प्रकाश से
समाधान हो गया ।

अब पंकस्थल पर भी चलें
तो ऊपर की दृष्टि
डूबने न देगी ।

अमृत क्षण
——-
यह वन की आग है ।
डाल डाल
पात पात
जल रहे हैं ।
कोपलें
चिनगियों-सी
चटक रही हैं ।

शुभ्र हरी लपटें
लाल पीली लपटें
ऋतु शोभा को
चूमती चाटती
बढ़ती जाती हैं…
आनंद सिन्धु
सुलग उठा है ।

ओ वन की परियो,
गाओ ।
यह अमरों का यौवन है ।
अपने अंगों से
धूपछाँह
खिसक जाने दो ।
नए गंध वसन बुनो,
नए पराग में सनो ।

प्रभात आ गया ।
ओ वन पाखियो,
गाओ ।
यह नया प्रकाश है ।

वन लपटों से नए पंख माँगो,
तुम मन के नभ में उड़ सको,
मर्म में बस सको,
हृदय छू सको ।

अब नया आकाश ही
नीड़ हो,
उड़ान ही
स्वप्न शयन ।

यह आग शोभा ही में
सीमित न रहेगी,
फागुन लाज ही में
लिपटा न रहेगा ।

सांसें आग न बरसाएँगी,
ओंठ ओंठ न जलाएँगे ।
अमृत पीते रहेंगे हम,
नए पराग सूँघेंगे ।

यह मिट्टी ही
शाश्वत है,
असीम है,
चैतन्य है ।

प्राणों के पुत्र हम,
स्वप्नों के रथ पर आएँगे;
रस की संतानें,
अनंत यौवन के गीत गाएँगे ।

भावों का मधु पीएंगे,
मदिर लपटों का
प्रकाश संचय करेंगे,

हमने मृत क्षणों में से
अमृत क्षण चुने है ।

-सुमित्रानंदन पंत

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