कविता आज और अभी

मैं सृष्टि हूँ ,मुझमे होते विलीन विश्व के सारे कण ,
मेरे डोर से बंधे हुए है ,प्रणय , प्रलय के सारे क्षण।

नभ से सारे चाँद सितारे मेरी इच्छा की परिधि है ,
ये धरती ये पर्वत नदिया , मेरी ही प्रतिनिधि है।
ना मैं काया , ना मैं छाया , वन- उपवन है मेरा तन।

चिर नूतन चिर सुन्दर हूँ मैं , चिर यौवन परिवेश है ,
सुर , ताल ,और असंख नाद का अर्थपूर्ण समावेश है।
विराट हूँ , विशाल हूँ मैं , असीम अन्नंत है मेरा मन।

खोजी का मैं नित खोज हूँ , योगी का मैं नित योग हूँ ,
विश्व पिता के रचनाओ में , प्राचीनतम मैं संजोग हूँ।
प्राण दान के समावेश में , नव रचनाओं में हूँ मगन।

-उत्तम पाल

पहले बड़े ठाट-बाट से आता था रक्षा बंधन
मिठाई की खुशबू में तर
बहन के मान में मस्त

अब तो
चुपके से डाकिये के साथ
आता है रक्षा बंधन

यह रक्षा बंधन का रंग
इतने चुपके से क्यों इतराता है
होली की तरह ठुमकता
दिवाली की तरह दमकता हुआ
क्यों नहीं आता है

नहीं आता है करवा चौथ
और तीज की व्याकुलता में सन कर
जिवतिया , तिनछट्ठ , गणेश चतुर्थी
या बाक़ी घरेलू त्यौहारों और व्रत की तरह
लचक और मचल कर भी नहीं आता
आज़ादी के तिरंगे की तरह
लहराता हुआ भी नहीं आता है

जैसे डोली में जाती थी बहन

-बिलखती , सिसकती
नईहर की राह से गुज़रती

वैसे ही आती है राखी
बहन की ख़ामोश सिसकी में सन कर
विवशता की शांत चादर ओढ़ कर

ससुराल के गांव और शहर को फलांग कर
सरहद और बंदिशों को लांघ कर
डाकिये की थैली में बंद
उस की साइकिल पर चढ़ कर
आता है राखी का बंद लिफ़ाफ़ा

बंद लिफ़ाफ़ा खोलती है पत्नी
बहन के आशीष भरे पत्र को बांचता हूं मैं
आंसुओं में भीग जाती है पत्र की इबारत
भीगी इबारतों की मेड़ पर बैठ कर
बांधती है बेटी दाएं हाथ की कलाई पर
अक्षत-रोली-हल्दी और चंदन का टीका लगा कर

बहन की राखी के रंगीन धागे
मन में बंध जाते हैं
बचपन में उस की किलकारी की तरह
जैसे फूटता है धान गांव में
मन में फूटता है बहन का नेह
बरसता है घर में उस का स्नेह मेह की तरह
जैसे बहती है गंगा किसी उमंग की तरह
बलिया , कानपुर और इलाहाबाद में

कानपुर , इलाहाबाद से बलिया जाती हुई गंगा
राखी के दिन हमारे लिए बहती है
बलिया , कानपुर और इलाहाबाद से
अर्चना दी , अलका और आरती के लिए

वैसे ही जैसे बहती है टेम्स नदी
लंदन के किनारे से
सुदूर परदेस से शन्नो दीदी भेजती हैं
आशीष के अग्रिम आखर

जैसे बहती है राप्ती
गोरखपुर के शहर और कछार में
सुदूर गांव में बिरहा गाता हुआ
जैसे कोई बेरोजगार जलता है बेगार में
इस तपिश में सुलग कर
स्नेह का फाहा
अनुराग और आंसू के आसव में सान कर
बहनें भेजती हैं दुःख का पहाड़
राखी की आड़ में

भेजती हैं राखी
अपने अरमानों की राख में दाब कर
ऐसे जैसे उस में संबंधों की
स्नेह की चिंगारी दबी हो
सुख में सुलग-सुलग जाने के लिए
दुःख में दहक-दहक जाने के लिए

इन सारे शहरों में बसी
हमारी बहनें भी बहती हैं
यादों के साथ , लहरों के साथ
अपने सारे सुख-दुःख
अपने पूरे वैभव के साथ
स्नेह के सरोवर में बसे सुख के साथ
भेजती हैं अपनी यादों की गठरी
भाई की देहरी पर
नेह के रेशमी धागों में लपेट कर

ऐसे जैसे यादों की बाढ़ आई हो
गंगा में , राप्ती में , टेम्स में
बलिया , कानपुर , इलाहबाद
गोरखपुर और लंदन में

ऐसे ही आता है रक्षा बंधन
इतराते हुए कलाई पर राखी बंधने के बाद
बहन के नेह में दमकता और इतराता हुआ
बहन के आशीष में जगमगाता हुआ
बहन के सुख में
इस भाई का सिर ऊपर उठाता हुआ

अब हर साल ऐसे ही आता है रक्षा बंधन

इस साल भी आया है

दयानंद पाण्डेय

वियोग
————-
एक बार समुद्र ने सपने में पाया
सतरंगी बुलबुला
उसने उसे नीली व्हेल को दे दिया
नीली व्हेल ने उसे दिखाया
अपना अद्भुत जल-नृत्य

किंतु अगले कई हफ़्तों तक
नीली व्हेल नहीं लौटी
समुद्र के उस जल में

चिंतित समुद्र ने
अन्य मछलियों से पूछा
नीली व्हेल का पता
किंतु कोई उसे कुछ न बता सका

विकल समुद्र हर गुज़रते
नाविक से पूछता
नीली व्हेल का कुशल-क्षेम

एक दिन जब उसे पता चला कि
नीली व्हेल नृशंस शिकारियों के
हारपूनों का शिकार बन गई थी तो
समुद्र के भीतर का धड़कता अंश मर गया

नीली व्हेल की याद में
समुद्र बहुत रोया
उसके आँसुओं के अम्ल से
उसके भीतर पलने वाले
सभी मूँगे मर गए
सभी मछलियाँ कहीं और चली गईं

जहाँ नीली व्हेल का
शिकार किया गया था
अब समुद्र में वहाँ
एक भयावह भँवर है

-सुशांत सुप्रिय

ये फूल , ये धूप और ये बादल
———————

माना भंवरें नहीं हम
ना ही जीवन एक बगिया
फिर भी गुनगुन औ चहचह सदा
मन की मनमौजी रंगीन चिड़िया

लुभाती रही मन को सदा ही
समुन्दर की उछाल खाती लहरें
पैर धोतीं कभी मारतीं चन्द छींटे
ये फूल, ये धूप और ये बादल
चोटियों पर बिछी
बर्फ की वह रुपहली चादर

झरते हों जैसे नगमें सुहाने
धरती ने लुटाए हैं कितने खजाने
करते ये पलपल हमको दीवाने
पंख नहीं पर अपने जो उड़ पाएँ
उड़ते ही पर डर भी तो जाएँ
देख छूटती अपनी जमीं

रोक ना पाईं पर राही को जंजीरें
टूटे पंखों से उड़ती पिंजरे में बन्द मैना

इस दुस्साही मन का क्या कहना
घूम आता है धरती का कोना-कोना
हंसते हैं सपने कांटों की नोक पे
खिलखिलाए ये खुदको ही
खुदकी ज्वाला में झोंक के

ढुलका नहीं जो पलकों से आँसू
अक्सर आँखों में छुपा रह जाता
खुशियाँ तलाशे जैसे एक साधु
जाल भरी कन्दराओं में
और बिलखे अपना पता पूछता
गांव गांव-गलियारों में…

रोते हंसते
ये चांद तारे ही नहीं
मावस और चांदनी रातों में
शैल अग्रवाल

कोई मुट्ठीभर… बीज बिखेर दो,
दिलों की जमीन पर …भी

बारिश का…मौसम आ रहा है,
शायद… कुछ अपनापन पनप जाए!!
-सरोज स्वाति

अभी तक बारिश नहीं हुई
——————-

अभी तक बारिश नहीं हुई
ओह! घर के सामने का पेड़ कट गया
कहीं यही कारण तो नहीं।

बगुले झुंड में लौटते हुए
संध्या के आकाश में
बहुत दिनों से नहीं दिखे
एक बगुला भी नहीं दिखा
बचे हुए समीप के तालाब का
थोड़ा सा जल भी सूख गया
यही कारण तो नहीं।

जुलाई हो गई
पानी अभी तक नहीं गिरा
पिछली जुलाई में
जंगल जितने बचे थे
अब उतने नहीं बचे
यही कारण तो नहीं।

आदिवासी! पेड़ तुम्हें छोड़कर नहीं गए
और तुम भी जंगल छोड़कर खुद नहीं गए
शहर के फुटपाथों पर अधनंगे बच्चे-परिवार
के साथ जाते दिखे इस साल
कहीं यही कारण तो नहीं।

इस साल का भी अंत हो गया
परंतु परिवार के झुंड में अबकी बार
छोटे-छोटे बच्चे नहीं दिखे
कहीं यह आदिवासियों का
अंत तो नहीं…

विनोद कुमार शुक्ल

हाँ, मैं मिट्टी हूँ
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आँचल में लावा समेटे
हीरे, मणिकों का बिछौना लपेटे
हाँ, मैं मिट्टी हूँ।
भूखों की खुराक संभाले,
लखों दिलों का दर्द समेटे
हाँ, मैं मिट्टी हूँ।
वक्ष पर मेरे तू बैठ, ऐ मानव
तू इम्तिहान लिये जाता है
करोड़ों का बोझ समेटे
हाँ, मैं मिट्टी हूँ।
शान्त हूँ, चुप हूँ, ऐ मानव,
तुझसे मैं कभी कुछ नहीं माँगती,
देवों का सा बल समेटे,
हाँ, मैं मिट्टी हूँ।
सागर की लहरों को पकड़े,
सम्पूर्ण सृष्टि की जड़े हूँ जकड़े,
कई लाशों की राख समेटे,
हाँ, मैं मिट्टी हूँ।
कहीं बर्फ सी जम जाती हूँ,
कहीं तूफान सी बन जाती हूँ,
नदियों, पहाड़ों, पर्वतों को
समेटे, हाँ, मैं मिट्टी हूँ।
ऐ मानव, तेरे महल, मन्दिर,
गुरुद्वारे, मस्जिद, तेरा साँस,
तेरी अग्नि खुद में समेटे,
मैं शान्त मूक, तेरे पाँव तले की मिट्टी हूँ,
हाँ, मैं तेरे पाँव तले की मिट्टी हूँ।

-शबनम शर्मा

मैं देखती रह गई
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एक नदी थी
चुपचाप अंदर ही अंदर बहती
मन किनारों को छूती-धोती
पीछे छोड़ मुझे आगे बढ़ गई
मैं देखती रह गई….

फूलों का यह
कांटों पर खिलना झरना
खुशबू बनी ख्वाइशों का
पल में उड़ना बहकना
सूरज चांद का नित
उगना और डूब जाना
मैं देखती रह गई

एक चिड़िया थी शाख पर
एक बाज आकाश में
एक दाना धरती पर
सूखे पत्तों बीच धूल-धूसरित
भूखी थी चिड़िया
भूखा था शिकारी
भूख ही सब निगल गई
मैं देखती रह गई

चीखा है फिर चमगादड़
या समंदर का है हाहाकार
समन्दर का यूँ नदियों को
चुपचाप निगल जाना
और नभपर तारों का
हंसकर टूट जाना
मैं देखती रह गई

सूरज की किरणों का
वो सागर में आग लगाना
सागर का मुंह फेर कर
अंधेरे में खो जाना
सूरज का डूबना
और फिर उग आना
मैं देखती रह गई…

ख्वाइशों का एक-एककर
बेआवाज मर जाना
औरफिर अंधेरे के समंदर से
चांद का खिलखिलाना
सियाह अंधेरे का यूँ
रौशनी में बदल जाना
मैं देखती रह गई…
मैं देखती रह गई…
शैल अग्रवाल

सिक्किम में पावस
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हर हृदय यह चाहता है,यह जगत विस्तार क्या है
इंद्रधनुषी बादलों में सृजित वह संसार क्या है
ठान लेता मानवी मन, जब घूमना धरती, दिशाएं
तब सहज साकार होती,पर्यटन की कल्पनाएं
विविध रंगों से सजी धरती, कठिन जंगल, हवाएं
हैं कहीं लहरों का संगम,झूमती नदियां बुलाती
गगनचुंबी पर्वतों की वादियां‌ आवाज देती
व्यस्त हैं जीवन, कठिन यापन,खुशी की राह छोटी
सहज परिवर्तन की चाहत हर हृदय की प्यास होती
तब चलो बढ़ते चलें हम,अनछुए अनजान पथ पर
प्रकृति के कोमल हृदय पर छाप अपनी छोड़ आयें,
प्रकृति रोके राह फिर भी,कदम क्या रुकते कभी हैं?
पत्थरों को तोड़ कर भी ,रास्ते बनते गए हैं.
स्वप्न मानव देखता है,नियति उसमे रंग भरती,
तब भ्रमण की कामनाएं, हृदय में उल्लास भरती
दूर तक जाती सड़क है, बिछ रही धरती हरित है,
पार करती बन्धनों को,बह रही तीस्ता त्वरित है,
”तीस्ता” के ये किनारे,मित्र बन संग साथ मेरे,
उमड़ते घन घेर लेते, पर्वतों के विरल घेरे.
ये कहाँ पर आ गयी मै?बादलों के पंख धर कर,
मुक्त नभ में विचरता मन,उल्लसित नैनों के सहचर,
पर तभी भू खंड बरसा ,या अचानक भूमि खिसकी,
रुक गया था कारवां, और भय से सबकी सांसें अटकी,
हिय प्रकम्पित भीत थे जन ,था वहां निरुपाय जीवन,
रास्ते थे बन्द,वापस लौटना ..मायूस था मन,
पर एक आशा के सहारे,मनुज भी झुकते नहीं हैं,
फिर शुरू थी दीर्घ यात्रा,फिर कदम बढ़ने लगे हैं,
पत्थरों को काट कर भी रास्ते बनते गए हैं.
फिर शुरू थी दीर्घ यात्रा,फिर कदम बढ़ने लगे हैं,
दार्जिलिंग के हरित पथ पर फिर चले हम चपल,सत्वर,
हम सफ़र बन साथ चलते, चाय के बागान प्यारे,
धडकनों में बांध लूँ मै,ये सुहाने दृश्य सारे,
पर्वतों के उच्च शिखरों पर बरसती धार-बूंदें,
बादलों संग गा रही हैं आज मेघ मल्हार बूंदें
बूंद जुडती बूंद से जब, नव ताल यूँ बनते गए हैं,
पत्थरों को काट कर भी रास्ते बनते गए हैं,
अक्षरों में गुंथती हूँ,प्रकृति की सौन्दर्य माला,
प्यार बरसता रहा नभ, भींगती यह ,काव्य-बाला
पद्मा मिश्रा

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