शेर आए, शेर आए, दौडना !
आजकल हर तरफ शेर घूम रहे हैं !
दहाड़ रहे हैं.
“यह शेरे बंगाल है.”
“यह शेरे सरहद है.”
“यह शेरे पंजाब है.”
लोग भेंडे बने अपने बाड़ों में दुबके हुए हैं.
बाबा हाफीज जालंधरी का शेर पढ़ रहे हैं.
“शेरों को आजादी है
आजादी के पाबन्द रहें
जिसको चाहें चीरें-फाड़ें
खाएँ-पिएँ आनंद रहें.”
शेर या तो जंगल में रहते हैं,
या चिड़िया घर में.
यह मुल्क या तो जंगल है या चिड़िया घर है
या फिर कालीन होगा.
क्यों की एक किस्म शेर की ‘शेरे कालीन’ भी है.
या फिर कागज का होगा.
क्योंकि एक शेर ‘कागजी शेर’ भी होता है.
या फिर ये जानवर कुछ और है.
आगा शेर का पीछा भेड़ का.
हमारे मुल्क में यह जानवर आम पाया जाता है.
शेर जंगल का बादशाह है.
लेकिन बादशाहों का जमाना नहीं रहा.
इसलिए शेरोन का जमाना भी नहीं रहा.
आज कल शेर और बकरियाँ एक घाट पर पानी नहीं पीते.
बकरियाँ सींगों से खदेड़ भगाती हैं.
लोग-बाग उनकी दुम में नमदा बाँधते हैं.
शिकारी शेरों कोमार लाते हैं.
उनके सर दीवारों पर सजाते हैं.
उनकी खाल फर्श पर बिछाते हैं.
उनपर जूतों समेत दनदनाते हैं.
मेरे शेर ! तुमपर भी रहमत खुदा की
तू भी वाज (उपदेश) मत कह.
अपनी खाल में रह.
यह भारत है। गांधी जी यहीं पैदा हुए थे। यहाँ उनकी बड़ी इज्जत होती थी। उन्हें महात्मा कहते थे। चुनांचे मारकर उन्हें यहीं दफन कर दिया और समाधि बना दी। दूसरे मुल्कों के बड़े लोग आते हैं तो इसपर फूल चढ़ाते हैं। अगर गांधी जी नहीं मारे जातो तो पूरे हिन्दुस्तान के श्रद्धालुओं के लिए फूल चढ़ाने क् लिए कोई जगह ही न थी।
यह मसला हमारे, यानी पाकिस्तान वालों के लिए भी था। हमें कायदेमंद जिन्ना साहब का अहसानमंद होना चाहिए कि वह खुद ही मर गए और टूरिस्टों की फूल चढ़ाने की एक जगह पैदा कर दी। वरना शायद हमें भी उनको मारना ही पड़ता।
भारत का पवित्र जानवर गाय है। भारतीय उसी का दूध पीते हैं, उसी के गोबर से लीपा करते हैं। लेकिन आदमी को भारत में पवित्र जानवर नहीं माना जाता।
”ईरान में कौन रहता है?”
”ईरान में ईरानी कौम रहती है।”
”इंग्लिस्तान (इंग्लैंड) में कौन रहता है?”
”इंग्लिस्तान में अंग्रेज कौम रहती है।”
”फ्रांस में कौन रहता है?”
”फ्रांस में फ्रांसीसी कौम रहती है।”
”यह कौन-सा मुल्क है?”
”यह पाकिस्तान है!”
”इसमें पाकिस्तानी कौम रहती होगी?”
”नहीं! इसमें पाकिस्तानी कौम नहीं रहती।
इसमें सिन्धी कौम रहती है।
इसमें पंजाबी कौम रहती है।
इसमें बंगाली कौम रहती है।
इसमें यह कौम रहती है।
इसमें वह कौम रहती हैं।
”लेकिन पंजाबी तो हिन्दुस्तान में भी रहते हैं!
सिन्धी तो हिन्दुस्तान में भी रहते हैं!
बंगाली तो हिन्दुस्तान में भी रहते हैं!
फिर यह अलग देश क्यों बनाया था?”
”गलती हुई। मांफ कर दीजिए। अब कभी नहीं बनाएंगे।”
(साभार -उर्दू की आखिरी किताब- से)
इब्ने इँशा
( 15 जून, 1927 — 11 जनवरी, 1978 )
लुधियाना में जन्मे शेर मोहम्मद खान प्रारंभिक शिक्षा भी लुधियाना में ही हुई थी। 1948 में करांची में आ बसे और वहीं उर्दू कॉलेज से बी.ए. किया। बचपन से ही इब्ने इंशा नाम अपनाया और लिखा और इसी नाम से विख्यात भी हुए। उर्दू के मशहूर शायर और व्यंगकार। मिजाज और बयानगी में मीर की खस्तगी और नजीर की फकीरी भरी रूमानियत । मनुष्य के स्वाभिमान और स्तंत्रता के प्रबल हिमायती।
हिंदी ज्ञान के बल पर औल इँडिया रेडिओ में काम किया फिर कौमी किताब घर के निर्देशक, इंगलैंड स्थित पाकिस्तानी दूतावास में उर्दू के सांस्कृतिक मंत्री और यूनेस्को के प्रतिनिधि रहे।
इंगलैंड में ही कैंसर से मृत्यु।
प्रमुख पुष्तकें, उर्दू की आखिरी किताब (व्यंग्य), चांद नगर, इस बस्ती इस कूंचे में, बिल्लू का बस्ता, यह बच्चा किसका है (बाल कविताएँ)