सियाह ताकतों के सायेः अमृता प्रीतम


लगता है—मैं सारी जिन्दगी जो भी सोचती रही, लिखती रही, वह सब देवताओं को जगाने का प्रयत्न था, उन देवताओं को, जो इन्सान के भीतर सो गए हैं… ” …
आसमान के महलों में मेरा सूरज सो रहा है
जहां—कोई द्वार नहीं, कोई खिड़की नहीं
और सदियों के हाथों ने
जो पगडंडी बनाई है—
वह मेरी सोच के पैरों के लिए
बहुत संकरी है…

1986 के शुरु में जब देश के हालात को देखते हुए –सब प्रान्तों के चीफ मिनिस्टरों की मीटिंग बुलाई गई, दो तीन लोग वे भी बुलाए गए जो सियासत में नहीं थे, उनमें मैं भी थी। और जब मुझे वहां कुछ बोलने के लिए कहा गया, तो भरी आंखों से जो कहा, उसके कुछ अल्फाज थे—

” हमारे विवेकानन्द जी जब भारत के दक्षिण में गए—देखा कि छोटी जाति वालों में कोई, किसी बड़ी जाति वाले के करीब से गुजर जाए, तो उसकी छाया पड़ने से उसे कड़ी सजा दी जाती है, तो विवेकानन्द जी ने तड़प कर कहा था-” यह केरल भारत का पागलखाना है—और आज मैं भरी आंखों से कहना चाहती हूं कि हम अपने हर प्रांत को भारत का पागलखाना बना रहे हैं… ”

उस समय यह भी कहा था-” एक वक्त था, जब देवताओं ने सागर मंथन किया था –और चौदह रत्न प्राप्त किए गए। कहना चाहती हूं—आज हमें फिर से सागर मंथन करना है, और पंद्रहवां रत्न पाना है-अपनी आचरण शक्ति का रत्न।”

उसी साल मई के महीने में जब मुझे राज्य सभा में नामज़द किया गया तो मध्यप्रदेश, गुजरात, केरल और आसाम जैसे दूर-दूर के प्रान्तों से मुझे बुलाया जाने लगा-कुछ कहने के लिए ..बाद में उन तकरीरों से 71 तकरीरें चुन कर एक पुष्तक प्रकाशित हुई थी—‘ मन मंथन की गाथा ‘—जिसमें तारीखें दी हुई हैं। इसलिए यहां सिर्फ थोड़े से अंश दे रही हूं उन तकरीरों के, और पत्रकारों के सवालों के जवाब में जो कहा था—उनमें से भी थोड़े से अंश-

पांडव काल में वीरानियों और जंगलों में घूमते हुए, प्यास से व्याकुल नकुल ने जब पानी का झरना खोज लिया और तड़पते होठों से पानी को जल्दी से पी लेना चाहा, तो पानी की आत्मा ने कुछ प्रश्न किए थे औ कहा था-नकुल! मेरे सवालों का जवाब दिए बिना पानी को मत छूना, नहीं तो मूर्छित हो जाओगे !

लेकिन नकुल का मन अपनी प्यास से जुड़ा हुआ था, पानी की आत्मा से नहीं। उसने प्रश्न सुने, जवाब नहीं दिया, पानी पी लिया, और वहीं पानी के किनारे गिर गया।…इसी तरह भीम, अर्जुन और सहदेव भी बारी-बारी से आए, पानी को देखा और जल्दी से पानी पी लिया। पानी की आत्मा ने जो प्रश्न पूछे, उनका जवाब नहीं दिया और बारी-बारी से मूर्छित होकर पानी के किनारे पर गिरते गए…अंत में युद्धिष्ठिर आए, उन्होंने पानी की आत्मा के प्रश्न सुने और हर प्रश्न का जवाब अपने कर्म में से खोजकर दिया। और जब पानी की आत्मा संतुष्ट हो गई तो युद्धिष्ठिर ने वरदान मांगा कि उनके सब भाइयों की मूर्छना टूट जाए…

हम लोग 1947 में 15 अगस्त की रात को, जब गुलामी के जंगल में भटकते हुए, जिल्लत के कांटों से ज़ख्मी हो चुके अपने देश की स्वतंत्रता के दरवाजे तक पहुंच गए तो स्वतंत्रता की आत्मा ने भी हमसे सात प्रश्न किएः

पहला प्रश्न था- स्वतंत्रता शब्द का ज्ञाता कौन है ? दूसरा प्रश्न था- स्वतंत्रता का अधिकारी कौन होता है ?

तीसरा प्रश्न था- क्या सत्ता आत्मशक्ति होती है ?

चौथा प्रश्न था- क्या सत्ता और स्वतंत्रता का कोई आत्मिक संबंध होता है ?

पांचवां प्रश्न था- क्या स्वतंत्रता भिक्षा की तरह ली और दी जा सकती है ?

छठा प्रश्न था- क्या स्वतंत्रता छीनी या लूटी जा सकती है?

और सातवां प्रश्न था-क्या आचरण की शक्ति के बिना स्वतंत्रता धारण की जा सकती है ?

हम सब जानते हैं कि स्वतंत्रता की आत्मा ने हमसे जितने भी सवाल पूछे, हमने किसी का जवाब नहीं दिया। हम जल्दी से सबकुछ भोग लेना चाहते थे। जिसको जितना मौका मिला, किसी भी अधिकार से या किसी भी पदवी से, उसने उतना ही ज्यादा भोग लेना चाहा है। और जिसको नहीं मिला, उसने किसी भी अधिकार को, सत्ता को मांग लेना चाहा, लूट लेना चाहा…

और आज हम सभी एक मूर्छित अवस्था में जी रहे हैं…

मेरी नज़र में पाण्डव, पांच तत्व, हमारे ही शरीर की पांच शक्तियां हैं और जिनमें चार पाण्डव नकुल, भीम, अर्जुन और सहदेव हैं, तो पांचवां युद्धिष्ठिर भी हमारे अंतर में है- जो इन सवालों के जवाब दे सकता है…इसी हमारे भीतर के युद्धिष्ठिर की वर्तमान की आवाज को सुनना है, समझना है और उस आवाज के हर सवाल का जवाब देना है- अपने चिंतन से –अपने कर्म से।

आपको याद होगा कि पाण्डव काल में जब पानी की आत्मा ने कहा था-युद्धिष्ठिर! यह बताओ कि सूरज किस चीज से सम्मानित होता है और किस चीज से अपमानित होता है?- तो युद्धिष्ठिर ने जवाब दिया था- सूरज इंसान के आचरण में , उसके अखलाक में सम्मानित होता है और इंसान की बदअखलाकी में अपमानित होता है।

आज मैं यही कहना चाहती हूं, एक बहुत बड़ी हलरत से कि मैं अपने देश में सूरज को सम्मानित होते देखना चाहती हूं…

हम नहीं जानते कि कोई अपने हाथ में पत्थर उठाता है
तो पहला ज़ख्म इंसान को नहीं, इंसानियत को लगता है।
धरती पर जो पहला खून बहता है,
वो किसी इंसान का नहीं होता, इंसानियत का होता है।
और सड़क पर जो पही लाश गिरती है,
वह किसी इंसान की नहीं होती, इंसानियत की होती है…

फिकरापरस्ती, फिकरापरस्ती है।
उसके साथ हिंदु, सिक्ख या मुसलमान लफ़्ज़ जोड़ देने से कुछ नहीं होगा।
अपने आप में इन लफ्ज़ों की आरजू है।
इनका अर्थ है, इनकी एक पाकीजगी है…
लेकिन फिकरापरस्ती के साथ इनका जुड़ना,
इनका बेआबरू हो जाना है…
इनका अर्थहीन हो जाना है,
और इनकी पाकीज़गी का खो जाना है
जो कुछ गलत है, वह सिर्फ एक लफ्ज़ में गलत है,
फिकरापरस्ती लफ्ज़ में।
उस गलत को उठाकर हम कभी,
इसे हिन्दू लफ्ज के कन्धों पर, रख देते हैं,
कभी सिक्ख लफ्ज़ के कंधों पर
और कभी मुसलमान लफ्ज़ों के कंधों पर।
इस तरह कंधे बदलने से कुछ नहीं होगा।
जम्हूरियत का अर्थ, लोकशाही का अर्थ,
चिन्तनशील लोगों का मिलकर रहना है, मिलकर बसना है,
और चिंतनशील लोगों के हाथ में तर्क होते हैं, पत्थर नहीं होते…

बात चाहे सियासत की हो, या मजहब, या समाज और साहित्य की, उन सब में दो ही तरह के लोग होते हैं- एक-जो अक्षरों को प्यार करते हैं और एक-जो अक्षरों का व्यापार करते हैं-

हमारे देश में राणा प्रताप एक ऐसा नाम है-
जो सिर्फ इतिहास के कागज पर नहीं लिखा गया-
वह लोगों के दिल पर लिखा गया…
राणा प्रताप की बहादुरी सिर्फ शारीरिक बल नहीं था…
वह. आत्मिक बल था…जिसने पूरे मेवाड़ को एक किरदार दिया,
इखलाक दिया, गौरव दिया…

इसलिए मैं राणा प्रताप की धरती को अपना प्यार और आदर पेश करती हूं…और इस धरती.के खुद्दार लोगों से आज बात करना चाहती हूं। आज जो हमारे देश की हालत है, हम जिस दौर से गुज़र रहे हैं- उसकी बात करना चाहती हूं-

आज मजहब के नाम पर जितना कत्लो-खून हुआ-वह हमारे देश की स्वतंत्रता का बहुत बड़ा उलाहना है हम पर—और इन्ही हालत में यह नया साल आया-ऐसे

जैसे रातों की नींद ने अपनी उंगलियों में
सपने का एक जलता हुआ कोयला पकड़ लिया हो…
जैसे दिल के फिकरे से कोई अक्षर मिट गया हो
जैसे विश्वास के कागज पर स्याही बिखर गई हो
जेसे समय के होठों से एक ठंडा सांस निकल गया हो
जैसे आदमजात की आंखों में एक आंसू भर आया हो
जैसे सभ्यता की कलाई में एक चूड़ी टूट गई हो
जैसे इतिहास की अंगूठी से एक मोती गिर गया हो
जैसे धरती को आसमान ने एक बहुत उदास खत लिखा हो
नया साल कुछ ऐसे आया…

मैं साल मुबारक किससे कहूं? किससे कहूं?
अगर कोई हो-
इस मिट्टी की रहमत जैसा

तो मैं साल मुबारक किससे कहूं…मैं साल मुबारक किससे कहूं?
अगर कोई हो-
मन सागर के मंथन जैसा और मस्तक के चिंतन जैसा

मैं साल मुबारक किससे कहूं…मैं साल मुबारक किससे कहूं?
अगर कोई हो-
धर्म लफ्ज़ के अर्थों जैसा

मैं साल मुबारक किससे कहूं?

धर्म तो मन की अवस्था नाम है–उसकी जगह मन में होती है, मस्तक में होती है और मन के आंगन में होती है। लेकिन आज हम उसे मन-मस्तक से निकाल कर और घर आंगन से उठाकर बाज़ार में ले आए हैं।

अगर देश की मिट्टी का धर्म समझ लिया जाए तो अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के टकराव का सवाल ही पैदा नहीं होता। कोई अकेला भी मिट्टी को उतना ही प्यारा होता है, जितने हजारों या लाखों।

अगर यह नहीं समझा गया तो हमारे देश की मिट्टी अल्पसंख्यक के खून से भी रो उठेगी और बहुसंख्यक के खून से भी। खून तो खयालों को रोशनी देने के लिए होता है। सुर्ख खून सड़कों पर बहता हुआ भी उतना ही भयानक होता है, जितना फिरकापरस्ती के ज़हर से काला खून—किसी की रगों में चलता हुआ…

दागिस्तान की एक गाली है—

अरे जा! तुझे अपनी महबूब का नाम भूल जाए!

सचमुच बहुत भयानक गाली है-

जब उसे महबूब का नाम भूल जाएगा…

इन्सान की महबूब उसकी इंसानियत है…

और मुझे लगता है आज हम उसी का नाम भूल गए हैं…

राहुल सांकृत्यान की किताब ‘ वोल्गा से गंगा ‘ पढ़कर मैने महसूस किया कि राहुल आज काया की सूरत में सामने नहीं हैं, पर अक्षरों की सूरत में सामने हैं। मैं उनके अक्षरों से बातें करने लगी-

पूछा- समय ने जंगल के अंदेरे में पहली बार आग जलती हुई कब देखी थी ? अक्षर कहने लगे-ईसा काल से छह हज़ार बरस पहले- जंगल की एक गुफा में। आज से तीन सौ इकसठ पीढ़ियां पहले की बात है।…

पूछा-सो आग की ईजाद इन्सानी नस्ल को मिला वरदान था…? अक्षर कहने लगे-हां, तब यह वरदान था जब अभिशाप नहीं बना था। क्योंकि तब तेरा-मेरा युग आने में अभी देर थी। आग और हथियार जब तक जंगली जानवरों रक्षा के साधन थे, तब तक वरदान थे। पर जब पशुधन जोड़ा जाने लगा, फिर लूटा जाने लगा, तब स्त्री भी वस्तु बन गई, लूटी जाने लगी…

मैं कह रही थी- तन की गुलामी के साथ मन की गुलामी का यह सिलसिला? राहुल सांकृत्यान के अक्षर बोले- जब किसी राजा ने ऋषि को प्रसन्न करने के लिए सोना, पशु और दास-दासियों को दान दिया और ऋषियों ने राजा की स्तुति केगीत लिखे…यह एक सौ चवालीस पीढ़ियों पहले की बात है- तो राज-सत्ता और ब्राह्मण सत्ता ने मिलकर सिर्फ उस समय की इन्सानी नस्ल को नहीं, आने वाले समय की सैकड़ों पीढ़ियों को भी- हर तरह के अन्याय सहन करने को तैयार कर दिया…

मैने टूटती-सी आवाज में पूछा-पर समय के चिंतक…कवि…

वह बोले- कवि को कंचन और कंचनमाला जैसी सुंदरी राजा का प्रसाद मिलने लगी।

एक बार फिर पूछा-अक्षरों का मायाजाल हमेशा बिछा रहा, आज भी बिछा हुआ है, कोई उपाय?

तो अक्षर हंस पड़े, कहने लगे—अक्षरों का ही तर्कशास्त्र। जैसे लोहे को लोहा लोहा काटता है, अक्षरों के मायाजाल को भी अक्षर का तर्कशास्त्र काट सकता है। मयाजाल दासता पैदा करता है और दायों के बल पर कोई राष्ट्र शक्तिशाली नहीं हो सकता। तर्कशास्त्र की सामर्थ्य सिर्फ वही हाथ हो सकते हैं जिनके पास स्वतंत्र चिंतन का बल होता है।

सो, देख सकी, एक कर्म के अनेक रूप होते हैं-जैसे-

सेक्स का कर्म अगर कमाई का साधन हो तो वह व्यापार हो जाता है;
वही कर्म किसी खास मकसद की पूर्ति का जरिया बने तो रिश्वत का रूप हो जाता है;
वही कर्म अगर बाहुबल के जोर से, दूसरे की मजबूरी में से पैदा हो तो जब्र-जिनाह हो जाता है;
वही अगर उम्र-भर के लिए एक-दूसरे की मिल्कीयत का जरिया बने तो उसका रूप विवाह हो जाता है;
वही अगर वंश वृद्धि का वसीला बने तो एक मशीनी कर्म हो जाता है;

पर वही कर्म अगर दो रूहों की पहचान बने-एक दूसरे के अस्तित्व के आदर में से पैदा हुआ हो, तो मुहब्बत हो जाता है- ज़िन्दगी का जश्न हो जाता है…

उसी तरह सोचा करती थी-कलम का कर्म भी अनेक रूप होता है;

वह बचकाने शौक में से निकले तो जोहड़ का पानी हो जाता है;
अगर सिर्फ पैसे की कामना में से निकले तो नकली माल हो जाता है;
अगर सिर्फ शोहरत की लालसा में से निकले तो कला का कलंक हो जाता है;
अगर बीमार मन में से निकले ज़हरीली आबोहवा हो जाता है;
अगर किसी भी सरकार की खुशामद में से निकले तो जाली सिक्का हो जाता है।

उन दिनों इतिहास की एक कहानी पढ़ी, जो पहली सदी के सिमोनिअन्ज की कही हुई थी, कि एक बार सात हाकिमों ने समय की बौद्धिकता को बंदी बना लिया और उसे इतनी यातनाएं दीं कि उसे वेश्या बनने पर मजबूर होना पड़ा…इस कहानी की नायिका बौद्धिकता को बाद में कुछ विद्वानों ने बंदीखाने से छुड़ाया –मेरे लिए वे गुमनाम विद्वान-इल्म के सच के और शक्ति के प्रतीक बन गए…

दोस्तों! दागिस्तान की एक कहावत है कि दुनिया की तखलीफ से भी एक सो साल पहले दुनिया का पहला शायर पैदा हुआ था और मैं मानती हूं कि यह महज़ एक खूबसूरत कल्पना नहीं, हकीकत है।

(साभार लेखिका की पुष्तक ‘अक्षरों के साये’ से)


अमृता प्रीतम
पंजाब की सर्वाधिक लोकप्रिय कवियत्री और करीब करीब 100 पुष्तकें लिखने वाली अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। साहित्य अकादमी और पद्मविभूषण से सम्मानित हिन्दी की जानी-मानी, पाठकों के मन में उतर जाने वाली कवियत्री-विचारक-विदुषी वे एक ऐसी संवेदनशील और बेबाक लेखिका थीं जिन्होने जीवन को भी अपने तरीके से और अपनी ही शर्तों पर जिया ।
चर्चित कृतियाँ उपन्यास- पांच बरस लंबी सड़क, पिंजर, अदालत, कोरे कागज़, उन्चास दिन, सागर और सीपियां आत्मकथा-रसीदी टिकट कहानी संग्रह- कहानियाँ जो कहानियाँ नहीं हैं, कहानियों के आँगन में, संस्मरण- कच्चा आंगन, एक थी सारा।

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