सर्वपल्ली डा.राधाकृष्णनन्
(05 सितंबर 1888—17 अप्रैल 1985)
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जिन महान नेताओं ने अपने विराट व्यक्तित्व, ज्ञान, त्याग, उत्साह, स्फ़ूर्ति और साहस की ज्योतिर्मय किरणॊं से भारत में नयी राजनीतिक चेतना, मानवीय संवेदना और स्वाभिमान को जन्म दिया तथा नूतन आशाओं एवं विश्वासों को प्रसारित किया उनमें सर्वपल्ली डा.राधाकृणन का नाम बड़ी श्रद्धा और आदर के साथ लिया जाता है. राधाकृष्णनन् का जन्म न तो बड़े वंश में हुआ और न ही उनके पास अपार धन-संपत्ति थी, फ़िर भी उन्होंने सफ़लता के शिखर को छुआ. वे सच्चे अर्थों में असाधारण गुणॊं से युक्त साधारण व्यक्ति थे और इसी विशिष्ठता ने उन्हें भारतीय जनमानस का चेहता बनाया.
5 सितंबर 1888 को चेन्नई से लगभग 200 किमी. उत्तर-पश्चिम में स्थित एक छोटे से कस्बे तिरुताणि में डा.राधाकृष्णनन् का जन्म हुआ था. उनके पिता का नाम सर्वपल्ली वी.रामास्वामी और माता का नाम श्रीमती सीता झा था. रामास्वामी एक गरीब ब्राहमण थे और तिरुताणी कस्बे के जमींदार के यहां एक साधारण कर्मचारी के समान कार्य करते थे.
श्री रामास्वामी के नाम के साथ सर्वपल्ली जुड़ने का भी एक कारण था. दरअसल उनके पूर्वज पहले “सर्वपल्ली” नामक अपने पुश्तैनी ग्राम में निवास करते थे, जो बाद में वहां से आकर उत्तरी अर्काट जिले के तिरुताणी नामक कस्बे में बस गए थे. उन्होंने फ़िर भी अपने नाम के साथ “सर्वपल्ली” लगाकर इसे पहचान के रूप में अपना लिया था.
प्रतिभा किसी की मोहताज नहीं होती.
डा. राधाकृष्णनन् अपनी पिता की दूसरी संतान थे. उनके चार भाई और एक बहन थी. छः बहन-भाइयों और दो माता-पिता को मिलाकर आठ सदस्यों के इस परिवार की आय अत्यंत ही सीमित थी. इस सीमित आय में भी डा.राधाकृष्णनन् ने सिद्ध कर दिया कि प्रतिभा किसी की मोहताज नहीं होती. उन्होंने न केवल महान शिक्षाविद के रूप में ख्याति प्राप्त की, बल्कि देश के सर्चोच्च राष्ट्रपति बनने तक का लंबा सफ़र तय किया. निश्चित ही उनका सफ़र निष्कंटक नहीं रहा, क्योंकि सफ़लता की राह चलना कोई आसान काम नहीं है. सफ़लता का रास्ता कई कठिनाइयों से भरा होता है. इस रास्ते पर जगह-जगह असफ़लताओं के खतरनाक मोड़ होते हैं, मुश्किलों से बड़े-बड़े गड्ढे होते हैं और कई जगह भ्रम और असमंजस के चौराहे होते हैं, नाते-रिश्ते के स्पीडब्रेकर होते है और निराशाओं की गहरी ढलान होती है तो जिम्मेदारियों की ऊँची चढ़ाई भी होती है. लेकिन राधाकृष्णनन् ने जिस गाड़ी में सवार होकर इन परेशानियों और चुनौतियों का सीना चीरकर अपनी सफ़लता की राह तय की, वह गाड़ी संकल्प की थी, जिसके पहिए थे हौसले के, इंधन भरा हुआ था परिश्रम का, इंजन लगा था कर्म का, स्टीयरिंग था आत्मविश्वास का और एक्सिलेटर था उत्साह का तथा उसके टूल बाक्स में धैर्य, एकाग्रता, इच्छा और आशा जैसे औजार मौजूद थे. डा.राधाकृष्णनन् ने सिद्ध कर दिया कि प्रतिभा किसी की मोहताज नहीं होती. उन्होंने न केवल महान शिक्षाविद के रूप में ख्याति अर्जित की, बल्कि देश के सर्वोच्च राष्ट्रपति पद को भी सुशोभित किया.
प्रारंभिक शिक्षा.
डा.राधाकृष्णनन् की प्रतिभा बड़ी कुशाग्र और स्मृति बड़ी तेज थी. उनकी प्रारंभिक शिक्षा पिता के सान्निध्य में शुरू हुई. बाद के चार वर्षों तक आपने हरमंसबर्ग लूथरन मिशन स्कूल में शिक्षा प्राप्त की. उन्हें बाइबल पूरी तरह कंठस्थ थी. मौखिक विलक्षण प्रतिभा से प्रसन्न होकर प्राचार्य ने उन्हें छात्रवृत्ति देनी शुरु कर दी थी. 12 वर्ष की अवस्था में राधाकृष्णनन् 1900 में वेल्लूर में अपने चाचा के यहां रहते हुए विध्याध्ययन करने लगे. दो वर्ष तक अध्ययन करते रहने के बाद वे मद्रास (चेन्नई) विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में मैट्रिक पास की इसी आधार पर उन्हें अच्छी छात्रवृत्ति मिलने लगी. मैट्रिक पास करने के बाद डरहीज कालेज में दाखिला ले लिया. मात्र 15 वर्ष की आयु में ही आपका विवाह शिवकामू से हुआ. इस वक्त वह 10 वर्ष की थी और कक्षा पांचवी में पढ़ रही थी. 1906 में राधाकृष्णन ने चेन्नई के क्रिश्चियन कालेज से प्रथम श्रेणी में बी.ए. की डिग्री प्राप्त की. दर्शन शास्त्र उनका प्रिय विषय था, जिसमें वे दर्शनशास्त्र के सर्वश्रेष्ठ छात्र घोषित किए गए.
आर्थिक विपन्नता के बावजूद वे पढ़ाई का मोह नहीं छॊड पा रहे थे. तब उन्होंने अपने प्रिय विषय दर्शन-शास्त्र लेकर एम.ए. करने का निश्चय किया. अच्छे अंकों के आधार पर कालेज में दाखिला लेते ही उन्हें 25 रुपये प्रतिमाह की छात्रवृत्ति दी जाने लगी. समय में से समय को चुराते हुए वे ट्युशन करके, अपने परिवार को सहारा देने लगे. इस प्रकार शिक्षा के साथ-साथ उनका दांपत्य जीवन भी व्यतीत होने लगा.
एम.ए. में अध्ययन करते हुए उन्होंने भारतीय दर्शन पर एक थीसिस “द एथिक्स आफ़ वेदांत एंड इट्स मेटाफ़िजिकल प्रीपोजिशन” ( The Ethics of vedant and its metaphysical preposition) तैयार की. जिस समय वे थीसिस तैयार कर रहे थे, उस समय उन्हें आशा नहीं थी कि कोई उनकी सहायता करेगा. सबसे बड़ा कारण यह था कि उस समय दर्शन पर किसी प्रोफ़ेसर का विशेष अध्ययन नहीं था और न ही उन्हें कोई दिलचस्पी थी. प्रोफ़ेसर हाग उनकी योग्यता को पहिचान गए थे. अपनी वैचारिक भिन्नता के बावजूद उन्होंने राधाकृष्णनन् का सहयोग किया. 1909 में प्रथम श्रेणी में एम.ए.की डिग्री आपने प्राप्त की. इस समय उनकी इच्छा आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी लंदन जाकर दर्शन शास्त्र का उच्च अध्ययन करने की थी, लेकिन पारिवारिक आर्थिक स्थिति विपरीत होने के कारण वे ऐसा न कर सके. अतः चेन्नई में ही रहते हुए उन्होंने दर्शन शास्त्र पर अनुसंधानात्मक कार्य जारी रखा.
राधाकृष्णनन् को प्रोफ़ेसर स्केनर के सहयोग से सब-असिस्टेंट इंस्पेक्टर आफ़ स्कूल के पद पर नियुक्ति तो मिली लेकिन वह अस्थायी थी. बाद में उन्हें शीघ्र ही प्रेसीडेंसी कालेज चेन्नई में लेक्चरार के रूप में नियुक्ति मिल गई. 1914 में वे प्रोफ़ेसर बने. उसके बाद भी उनका अध्ययन कार्य अनवरत चलता रहा. 1915 में आपने दर्शन पर दो लेख लिखे- “ ए व्यू फ़्राम इंडिया आन दी वार” (A view from India on the war). इस आलेख को “ द एशियाटिक रिव्यू”. में प्रकाशित किया लेकिन दूसरे आलेख को सरकार द्वारा सेंसर कर दिया गया. इस बीच उनके दो बार तबादले हुए..खिन्न होकर उन्होंने मैसूर कालेज में संपर्क किया. मैसूर कालेज के प्रिंसीपल सी.आर.रेड्डी उनकी प्रतिभा से भली-भांति परिचित थे. अतः उन्होंने राधाकृष्णन को महाराजा मैसूर कालेज के दर्शन विभाग का अध्यक्ष बनाने का निर्णय लिया. यहां उनके सामने सबसे बड़ी बाधा यह थी कि मैसूर सरकार विलायत से पढ़कर लौटे किसी व्यक्ति को इस पद पर नियुक्त करना चाहती थी.
भारतीय दर्शन पर शोधपत्र लिखकर उन्हें “डाक्टरेट” की उपाधि प्राप्त तो कर ली थी किंतु यूरोप में जाकर पढ़ना, डिग्री प्राप्त करना या डाक्टरेट आदि करना प्रतिष्ठा की बात मानी जाती थी. डाक्टर राधाकृष्णनन् ने अपनी सारी पढ़ाई भारत में रहकर पूरी की थी. यही कारण था कुछ लोग द्वेषवश उनकी प्रतिभा का सम्मान नहीं करते थे.
एक बार कुछ छात्रों ने डाक्टर राधाकृष्णनन् से पूछा- “सर, क्या आपने कोई विदेशी परीक्षा पास की है और विदेशी डिग्री ली है?’
“नहीं. उन्होंने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया. “मैं विदेश पढ़ने नहीं, पढ़ाने जाऊंगा.”
छात्र डाक्टर राधाकृष्णनन् के दृढ़ता से दिए गए इस उत्तर से बड़े प्रभावित हुए. धीरे-धीरे वे छात्रों के बीच लोकप्रिय होते गए. उन्हें स्थायी नहीं किया गया. इस बात से खिन्न होकर उन्होंने महाराजा कालेज छोड़ने का निश्चय किया. अब तक आपके दर्जनों आलेख व कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं. उनकी प्रतिभा की चमक कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति सर आशुतोष मुखर्जी तक भी पहुंची. वे उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय में बुलाने के लिए लालायित हो उठे. उन्होंने पत्र लिखकर अनुरोध किया के वे उन्हें दर्शन शास्त्र विभाग का दायित्व देने के लिए तैयार हैं. 1921 में कलकत्ता विश्वविद्यालय की गौरवमयी पीठ पर आपको नियुक्त किया गया.
डा.राधाकृष्णनन् के दर्शन शास्त्र की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने भारतीय दर्शन और पाश्चात्य दर्शन के बीच सेतु का काम किया था. उनके द्वारा सृजित भारतीय नवीन दर्शन की सराहना न केवल भारतीय विद्वानों ने की, बल्कि यूरोपियन दर्शनशास्त्रियों ने भी सराहा था.
छात्रों द्वारा पूछे जाने पर डा. राधाकृष्णनन् ने यूंहि नहीं कह दिया था कि वे विदेश पढ़ने नहीं जाएंगे,बल्कि विदेशों में जाकर पढ़ाएंगे. उनका यह कथन कालांतर में सच साबित हुआ. 1926 में वे शिकागो विश्वविद्यालय में और 1929-1930 में आक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के मानचेस्टर कालेज में प्रोफ़ेसर रहे. 1936 में वे आक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में प्राच्य धर्मों और नीतिशास्त्र के प्रोफ़ेसर रहे. 1931 से 1939 तक उन्होंने राष्ट्रसंघ की बौद्धिक सहकारिता संबंधी अंतरराष्ट्रीय समिति के सदस्य के रूप में कार्य किया. उन्होंने आंध्र विश्वविद्याल्य और हिन्दू विश्वविद्यालय के पदों को भी सुशोभित किया. 1947 में आजादी मिलने के बाद डा.कृष्णन को भारत के राजदूत बनाकर रूस भेजा गया. उस समय दोनों देशों के बीच मधुर संबंध नहीं थे वे राजदूत का कार्य भी करते रहे और आक्सफ़ोड यूनिवर्सिटी में धर्म की तुलनात्मक अध्ययन पर भाषण भी देते रहे. उन्हें साल में तीन बार और प्रत्येक बार आठ सप्ताह के लिए आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी जाना पड़ता था. सन् 1949 से सन् 1952 तक डॉ. राधाकृष्णन रूस की राजधानी मास्को में भारत के राजदूत पद पर रहे. भारत रूस की मित्रता बढ़ाने में उनका भारी योगदान रहा था. शिकागो विश्वविद्यालय ने डॉ. राधाकृष्णन को तुलनात्मक धर्मशास्त्र पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किया था. वे भारतीय दर्शन शास्त्र परिषद् के अध्यक्ष भी रहे. कई भारतीय विश्वविद्यालयों की भांति कोलंबो एवं लंदन विश्वविद्यालय ने भी अपनी-अपनी मानद उपाधियों से उन्हें सम्मानित किया. भारत की स्वतंत्रता के बाद भी डॉ. राधाकृष्णनन् ने अनेक महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया. वे पेरिस में यूनेस्को नामक संस्था की कार्यसमिति के अध्यक्ष भी बनाए गए. यह संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ का एक अंग है और पूरे संसार के लोगों की भलाई के लिए अनेक कार्य करती है. सन् 1952 में वे भारत के उपराष्ट्रपति बनाए गए. इस महान दार्शनिक शिक्षाविद और लेखक को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी ने देश का सर्वोच्च अलंकरण भारत रत्न प्रदान किया. 13 मई, 1962 को डॉ. राधाकृष्णन भारत के द्वितीय राष्ट्रपति बने. सन् 1967 तक राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने देश की अमूल्य सेवा की. डॉ. राधाकृष्णनन् एक महान दार्शनिक, शिक्षाविद और लेखक थे. वे जीवनभर अपने आपको शिक्षक मानते रहे. उन्होंने अपना जन्मदिवस शिक्षकों के लिए समर्पित किया. इसलिए 5 सितंबर सारे भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है.
संक्षेप में जीवनी लिखने के पीछे केवल और केवल इतना ही उद्देश्य था कि हम केवल डा,राधाकृष्णनन् की जीवनी से ही परिचित नहीं होंवे, बल्कि उन कठिन राहों से भी परिचित हो सके, जिन पर चलते हुए उन्होंने न केवल देश की ही सेवा की बल्कि समूची दुनियां में भारत का नाम रौशन किया.
और अन्त में.
5 सितंबर को पूरा देश शिक्षक दिवस मनाने की तैयारी में जुट जाएगा. भाषण पर भाषणॊ के दौर चलते रहेंगे. डा.राधाकृष्णन को याद करते हुए शिक्षक अपने छात्रों को उपदेश देते हुए, उन्हें डा,कृष्णनन् की तरह बनने और कार्य करते रहने के लिए प्रेरित करते दिखेंगे. शिक्षक दिवस ही क्या, अन्य किसी महापुरुष की जयंती हो, इसी तरह के उपदेश दिए जाते रहे हैं और दिए जाते रहेंगे. आज यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि अब तक कितने विद्यार्थी इस दिशा में आगे आ पाए हैं? कितनों ने डा.कृष्णनन् की तरह अभावों से जुझते हुए, अपना मार्ग प्रशस्त किया है और देश सेवा में अपने को झोंक दिया है? कितनों ने आगे बढ़कर शोषित-पीढ़ित-दलित-वंचित जनों की समस्याओं को हल किया है? प्रश्न एक नहीं अनेकों उठ खड़े होते हैं. यदि ऐसा कुछ हुआ होता अथवा किया गया होता तो आजादी के सत्तर साल बीत जाने के बाद भी क्यों हम इन विकराल समस्याओं का हल नहीं खोज पाए हैं?. आखिर क्यों युनिवर्सिटी के कैंपस से “लेकर रहेंगे आजादी..लड़कर लेंगे आजादी” जैसे घिनौने नारे लगाते हुए छात्र, देश को तोड़ने की धमकी देते नजर आते हैं? क्या सारा की सारा दोष केवल उन विद्यार्थियों का है या फ़िर उन गुरुओं/प्रोफ़ेसरों का भी है जो उन्हें पढ़ाते हैं, दीक्षित करते हैं? या फ़िर सारा दोष सरकार की शिक्षा नीति का है? समय-समय पर कितने ही आयोगों का गठन किया गया, क्या वे कोई ठोस कारगर नीति बना पाए हैं?. प्रश्न एक नहीं अनेकों हैं जिनका हम आज तक कोई भी समाधान-कारक हल नहीं खोज पाए है. उसी तरह समाज के फ़ैली कुरीतियों को भी हम दूर नहीं कर पाए है. बात एक फ़ीसदी नहीं, सौ फ़ीसदी सही है कि हम प्रश्नों की अंधी सुरंग से गुजरते हुए फ़िर वहीं आ पहुंचते है, जहां से हम कभी चले थे. यह बात भी उतनी ही चिंतनीय है कि हम केवल और केवल अपने हक की लड़ाइयां लड़ते रहे हैं. हम जहां अपने अधिकारों को लेकर, उग्र आंदोलन करते हुए शहरों और नगरों के जन-जीवन को तहस-नहस करते, आग की भट्टी में झोंक देने से भी बाज नहीं आते. हम केवल और केवल अपने अधिकारों को लेकर हो-हल्ला मचाते रहते हैं, क्या हमें ऐसे समय पर अपने कर्तव्यों की जरा सी भी याद नहीं आती? क्या कभी यह याद नहीं आता कि देश के प्रति, समाज के प्रति, आमजन के प्रति हमारे क्या कर्तव्य हैं?
जयंतीयां मनाई जानी चाहिए. धूमधाम से मनाई जानी चाहिए, लेकिन महापुरुषों द्वारा बतलाए गए मार्ग पर चलते हुए यदि हम अपने को धन्य बना पाए, इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है.
गोवर्धन यादव
103, कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा म.प्र. 480001