बसंत
हवाओं का महकता अहसास जाते शिशिर की तसल्ली है। वह जानता है कुछ चीजें नम अंधेरों से ही उग पाती हैं। सूरज की फैली किरणें और उष्मित धरती हो या न हो , परन्तु आस भरी जिजीषा बीज रूप से अवश्य अंकुरित होती है। अंधेरों से भरा दुख भले ही गर्भाशय हो उसका, बीज वह अतल गहराइयों में दबा और टूट पिस कर भी जिन्दा रहता है और रहेगा । पूरी शिद्दत के साथ खिलेगा बसंत में, शर्त बस यही है कि कुरेद-कुरेद कर बांझ न कर डालें ठंडी हवाएँ। इसी रंग रूप की आस और विश्वास के सहारे ही तो महीनों जूझा और जीता है वह शिशिर की इन निर्दयी हवाओं से।
निरुत्तर
हालचाल लेने के लिए नानी ने फोन किया तो तीन साल की सोनू ने ही फोन उठाया।
‘कैसी है मेरी गुड़िया?’ पूछने पर चहक कर तुरंत ही उसने बताया, ‘ अच्छी हूँ,नानी।
‘ क्या कर रही है मेरी सोनू ?’ लाड़भरी नानी की आवाज टेलीफोन पर ही सही, सोनू को बहुत अच्छी लगती थी।
‘ मैं पापा के संग किताब पढ़ रही हूं और मम्मी किचन में खाना बना रही है।’
सुनकर बहुत अच्छा लगा उन्हें, पर विश्वास नहीं हुआ कि दोनों व्यस्त जूनियर डॉक्टर मां-बाप, दिन में इस वक्त, घर पर ही थे !
अब तक रिसीवर मीना ( नौकरानी) ले चुकी थी।
‘ आज साहब, मेमसाहब दोनों घर पर ही….छुट्टी ले रखी है क्या? ‘ उनका जोश और जिज्ञासा भरा अगला प्रश्न था।
‘ कहां, मम्मी जी, कोई नहीं है घर पर। बस, ऐसे ही मनगढ़न्त कहानियां सुनाती रहती है बेबी दिन भर ! ‘ मीना ने हल्की हंसी के साथ तुरंत ही बात आयी गयी कर दी।
निरुत्तर थीं वह। गले में कुछ पत्थर सा आ फंसा था।
रुंधे गले से बोलीं ,’ अच्छा, बेबी का ध्यान रखना। खेल भी लिया करो, थोड़ा-बहुत इसके साथ बीच-बीच में ! ‘
परिचय
‘नमस्ते भाभी।‘
अपरिचित देश के अपरिचित स्टोर में सामने खड़ा वह युवक पूर्णतः अनजाना और अपरिचित था मधु के लिए फिर भी संस्कारवश हाथ जुड़ ही गए प्रत्युत्तर में उसके। पर शालीन मधु ‘ पहचान नहीं पाई मैं भैया आपको ? ‘, पूछने से नहीं रोक पाई खुद को।
युवक अब जोर से हंस पड़ा था।
‘ पहचानतीं कैसे भाभी आप मुझे! हम पहली बार जो मिल रहे हैं आज। मैं पिछले दस साल से नौर्वे में रहता हूँ। और दरअसल भारतीय किसी भी युवती को आपकी तरह साड़ी या भारतीय परिधान में देखता हूँ, बिन्दी और सौम्य मुस्कान के साथ तो आज भी पीछे छूटे परिवार की याद आ जाती है और मन मिलने को मचलने लगता है। नमस्ते कर बैठता हूँ। वरना यहाँ के इस विदेशी माहौल में चारो तरफ जीन्स और स्कर्ट ही तो रह गई हैं। हम भारतीय रहे ही कहाँ हैं अब, न खानपान में और ना ही वेशभूषा में! ‘
अब मधु की आँखें नम थी।…
लानत
जब से रामखिलावन खेतीबारी बेचकर बेटे के पास रहने शहर आए, वक्त पंख लगाकर उड़ रहा था। पत्नी से बेटे की सराहना करते न थकते। बेटे को पढ़ाने लिखाने में कितनी परेशानियां झेलीं, कितनी रात भूखे पेट सोए, पत्नी के जेवर क्या , घर के बर्तन भांडे तक सब गिरवी रख दिए थे, धीरे-धीरे अभाव और दुख के वे सारे दिन भूलते जा रहे थे वह। अब तो गांव के वही, सेठ-साहूकार बड़े प्यार और अदब से दुआ-सलाम करते हैं । ऊपर वाले का रहम है कि मेहनत रंग लाई और बेटा आज एक आला दर्जे का पुलिस औफिसर है। रुतवा और शान के साथ-साथ, नौकर, बंगला, गाडी, आज क्या नहीं है उसके पास। बाकी कि सारी उमर यहीं बेटे के पास. उसके बनाए बड़े से इस बंगले में, पोते-पोतियों के साथ हँसते-खेलते ही गुजारेंगे अब तो वे, ‘ -सोच-सोचकर ही आंखें खुशी से छलकती रहतीं दोनों की। असल में पोते-पोती के प्यार में इतने मगन हो गए थे वे कि दीन-दुनिया का होश ही नहीं था। रहता भी कैसे, प्यार भी तो जबर्दस्त था पूरे परिवार में!
उस दिन बंगले में एक खास बैठक थी। बेटे के सभी संगी-साथी, नामी-गिरामी अफसर आए हुए थे। रामखिलावन पोते को आइसक्रीम दिलाकर लौट रहे थे। अचानक आइसक्रीम कमरे के ठीक सामने बरामदे में गिर गई। आदतन तुरंत ही कन्धे पर पड़ा अंगोछा उतारा और चमचमाता संगमर्मर का फर्श साफ कर दिया उन्होंने। फिर रोते पोते को गोदी में भरकर, पुचकारते हुए बोले, ‘ चलो दूसरी दिला लाता हूँ, अभी।’
” बड़ा भला और मेहनती नौकर है तुम्हारा। लगता है गांव से नया-नया आया है, अभी।” एक साथी अफसर उनकी तत्परता को देखकर, बोले बिना न रह पाया। “कहां मिलते हैं ऐसे नौकर वरना आजकल तो … काम न करने का बहाना ढूँढते रहते हैं सब-के-सब।”
गर्व और आत्मविश्वास के साथ उनकी नजरें बेटे की तरफ घूम गयीं। पता ही नहीं, विश्वास था कि बेटा अभी कहेगा –’ नहीं, नहीं, क्या कह रहे हो आप, क्यों अधर्म का भागी बनाते हो मुझे, यह तो मेरे पिताजी हैं।’
पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। बेटा चुपचाप बगलें झांकता रहा। नजरें चुराए इधर-उधर देखता रहा। एक बार भी नहीं स्वीकारा कि, ‘ नहीं, नौकर नहीं, पिता हैं वे।’
माना कि सरल और अनपढ़ गंवार थे रामखिलावन। मोटा खाते और पहनते थे परन्तु स्वाभिमान के धनी थे। शानशौकत, झूठी मान-मर्यादा की जरा भी कीमत नहीं थी, आँखों में। जिस बेटे के लिए हर दुख-दर्द सहे, हर परिस्थिति से जूझे, आज उसी का यह रवैया…अपने संगी-साथियों के आगे पहचानने तक में तौहीन महसूस कर रहा था! कैसे बर्दाश्त कर पाते वह! …’ लानत है इस नेह और पुत्रमोह पर।… ऐशो-आराम की जिन्दगी पर! आखिर क्या कमी रह गई … चूक कहां हुई उनसे इसके लालन-पालन और आचार-संस्कार में…! धृतराष्ट्र तो जनम से अंधा था , पर उनकी तो दोनों आंखें थीं फिर वे कैसे इतने अंधे रहे ?’ ‘ आंखों के आगे नाचते काले-पीले धब्बों को परे धकेलता, बिलबिलाता सरल मन कुछ भी तो नहीं जान पा रहा था।
मन आत्मग्लानि से भर चुका था और दर्द पहली बार असह्य था। मानो रेत से बीन कर टूटे-नुकीले कांच खिला दिए गए थे। मानो भरे बाजार अपनों के हाथों नंगे हो चुके थे वे। इसके पहले कि मन बदले या पोते का मुंह देखकर कमजोर पड़ जाएं, आंखें उसी गंदे अंगोछे से पोंछ, बेचैन और उबकाई लेती मनःस्थिति में भी लड़खड़ाते-से ही सही, उठ खड़े हुए वे और अगले पल ही बोरिया-बिस्तर बांध, चुपचाप गांव की ओर वापस चल दिए… इस प्रण के साथ कि ‘ मरते दम तक बेटे की तो शकल भी नहीं देखेंगे। भले ही लावारिश फेंक दी जाए, पर उनकी लाश को हाथ तक न लगा पाए, वह।’
अगले वसंत में
पुष्प-गुच्छों का रूप-गंध, शाखों के कोमल झूले, नव विहगों की चहचह , सबको छोड़ अकुलाता दूर जाता वह पात…विछोह उसके बस में नहीं, ना ही कोई वादा । ‘ये छोटे-छोटे सुख ही तो चिता हैं जीवन के,’ अलग हो गया वह पल भर में ही सबसे, ‘ जो नियति है उससे कैसे बचा जा सकता है, भला! ‘
अब बेचैनी नहीं एक संतुष्ट मुस्कान थी उसके शिथिल पड़ते होठों पर क्योंकि पता है उसे भी, जैसे कि पता है उस उदास तने को कि इन्ही जड़ो में तो सिमट जाएगी उसकी मिट्टी भी एक दिन और तब फिर से खिलखिलाएगा वह इन्ही शाखों पर अगले बसंत में…
पति परमेश्वर
शादी की दूसरी रात ही वृन्दा कोठारे में दिया-बाती करके बाहर निकली तो आंगन में खड़े जेठजी ने उसे रोक लिया-” तू इतनी सुन्दर है, मैने तो सपने में भी नहीं सोचा था। घर का सारा खर्च मैं ही तो उठाता हूँ। मेरी मर्जी के बिना तो पत्ता तक नहीं हिलता यहां पर। ज्यादा क्या कहूं, समझ ले मुझे खुश रखने में ही तेरी भलाई है। द्रौपदी के भी तो पांच पति थे आखिर। ”
गुस्से और ग्लानि से कांपती वृन्दा ने उसी पल घटना की पति से शिकायत की तो वह उसी पर आग बबूला हो उठा – ” शरम नहीं आती घर के बड़ों के बारे में ऐसी बातें कहते। देख रहा हूँ, बहुत रूप का घमंड है तुझे। सही ही कहा है बड़ों ने- औरत पैर की जूती होती है, सिर पर नहीं बिठाया जाता उसे।”
कर्कश ध्वनि के साथ बिजली गिरी और वृन्दा के अन्दर-बाहर सब भस्म कर गई। जानती थी वृन्दा कि खंडित मूर्तियों की पूजा नहीं की जाती क्योंकि वे भगवान नहीं रह जातीं। आहत वृन्दा ने पति परमेश्वर को एकबार फिरसे सिर से पैर तक देखा और चुपचाप कभी न वापस आने को मैके लौट आई।
गुलाम
हफ्ते में एकदिन, इतवार-की इतवार घरों और मन्दिरों में पढ़ाई जाने वाली हिन्दी की वर्णमाला का अभ्यास करते हुए सात साल की बेटी ने पूछा- ” पापा हम हिन्दी क्यों पढ़ते हैं ?”
” क्योंकि यह हमारी मातृभाषा है।”
” मातृभाषा क्या होती है?”
” मां की बोली- हमारी अपनी बोली ; जो हम अपने घरों में बोलते हैं।”
” फिर अंग्रेजी..?”.बेटी की अगली जिज्ञासा थी। ” फिर हम घर में अंग्रेजी क्यों बोलते हैं…?”
” क्योंकि हम इंगलैंड में रहते हैं। अंग्रेजी, अंग्रेजों की भाषा है, जिसे वह अपने साथ हिन्दुस्तान… हमारे घरों और विद्यालयों में ले आए थे। जहाँ-जहां अंग्रेज गए, वहीं अंग्रेजी भी गई। सैकड़ों साल हिन्दुस्तान अंग्रेजों का गुलाम रहा। कई-कई लड़ाइयां हुईं, लोगों ने बड़ी-बड़ी कुर्बानियां कीं, तब कहीं जाकर बड़ी मुश्किल से हिन्दुस्तान से अंग्रेजों को खदेड़ कर इंगलैंड वापस भेजा जा सका। तुम्हारे दादा जी ने भी यह लड़ाई लड़ी थी।”- मैने उसे गर्व से बताया।
” अच्छा। … तो क्या हम अभी भी इनके गुलाम हैं और ये हमें पकड़कर अपने साथ यहां ले आए हैं यहाँ इंगलैंड में!”
बेटी की बालसुलभ जिज्ञासा और निष्कर्ष दोनों पर ही अब मैं निरुत्तर था।…
रंग
हवाई अड्डे पर यात्रियों की चहलकदमी तेजी पर थी। लोगबाग जल्दी-जल्दी इधर से उधर दौड़ रहे थे। कोई सामान तुलवाता तो कोई टिकट कटवाता। वो दोनों निगरानी के लिए ड्यूटी पर तैनात थीं।
अचानक वह आई। गोरी-चिट्टी यूरोपियन, खूबसूरत आसमानी चंदेरी साड़ी पहने। सलीके से बालों का जूड़ा बना हुआ। कलाई भरकर चूड़ियाँ। अपने भारी सूटकोस को पहियों के बल घसीटती, साड़ी में भी लपक-लपक तेजी से भागी जा रही थी, वह। देखकर लग रहा था कि उसके कपड़े उसके किसी भी काम में बाधा नहीं।
पहली ने दूसरी को कोहनी मारी-‘ देख-देख, उधर देख। कैसी इतरा रही है। खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है। साड़ी, चूड़ी, बिन्दी, झुमके, तो इसपर भी चढ़ ही गया हमारा रंग!’
‘ हाँ, हाँ- क्यों नहीं, पूरा । पर, इसपर चढ़ा यह रंग कच्चा है। शौकिया पहने हैं इसने ये कपड़े। अपने देश में लौटते ही उतार देगी, यह।… पर हम? अपने देश में हमारे कपड़े, हमारी भाषा, संस्कार, सब पिछड़ेपन और पिछड़ी पीढ़ी के प्रतीक बन गए हैं। ‘वास्तव में तो अब हमारा कोई रंग ही नहीं रहा, पहचान ही नहीं। दूसरों की अंधी होड़ में अपना सब कुछ ही तो भूलते जा रहे हैं हम…खाना-पीना, पहनावा सब।
.. पैंट,कोट के यूनिफौर्म में लैस हवाई अड्डे की वह कर्मचारी, सोच की ग्लानि में डूबी, सहकर्मी को सही जबाव देने के लिए शब्द ढूँढती, उसके अवाक् चेहरे को देख रही थी।…
फैमिली
बूढ़े शरीरों में कोई जोश नहीं था फिर भी बेटे की जिद पर अटैची लग ही गईं दोनों की।
बहू ने तमककर सुनाया – मैंने क्या कभी जिद की है आपके बेटे से कि मुझे अकेले साथ लेकर घुमाने चलो, तो बात अनसुनी कर दी उन्होंने , पर जब आठ साल के पोते ने अटैची में ताले लगते देखकर कहा -ओह नो, क्या ये दादा-दादी भी साथ चलेंगे? अपनी फैमिली के साथ बस क्यों नहीं जा सकते हम!– तो माथे की नस जोर से तिड़की और धम्म् कानों के पास, आँखों के आगे मानो एक बेआवाज धमाका हुआ अंदर तक बींधता…बम-सा फटा कुछ।
डबडबाई आँखों के आगे पल भर में ही सुखी परिवार और बुढ़ापे की लाठी जैसे दिवा स्वप्नों के भग्नावशेषों के साथ-साथ ताले-ताली.. पूरा भविष्य सब मानो किरच्-किरच् जमीन पर बिखरा पड़ा था उनकी निराश आँखों के आगे।…
बेकार
‘पापा बहुत बीमार हैं। अंट-शंट बोले जा रहे हैं। मेरा जी घबड़ा रहा हैं। ’
बूढ़ी मां ने दो हफ्ते से पत्नी के संग घूमने गए बेटे के पास फोन लगाकर तुरंत ही बिनती की ।
‘ तो मैं क्या करूँ ? अपने बड़े बेटे को बुला लो, वह भी तो कुछ देखे भाले, क्या उसका फर्ज नहीं कुछ ! ‘
‘ नहीं आ रहा है। कह रहा है-जब कैश, जेवर , घर-दुकान सब उसको सौंप दिए हैं तो वही सेवा करे। या सिर्फ पान-फूल की सेवा ही करने को है वह और हम हाड़-मास खटाने को!’
‘तू ही आजा। तू तो जानता है , बड़ी भी बोलने में कम नहीं। तेरे पापा को कुछ हो गया तो अकेली मैं कैसे संभालूंगी!‘
‘ अड़ौसी-पड़ौसियों से मदद ले लेना। मुझे परेशान मत करो। कह दिया न, नहीं आ सकता अभी।‘
‘ रोज का ड्रामा है अब तो यह इनका । जाने कबतक हमारी ही छाती पर मूंग दलेंगे दोनों।‘
बहू ने भी तुरंत ही हाँ में हाँ मिलाई। और तब बेटे ने तुरंत ही फोन काट दिया।
‘इससे तो न होते ये बेटे। बांझ ही भली थी मैं। ‘
माँ अब हिचकियाँ लेकर रो रही थी।
‘क्यों बेकार में कोस रही है , देखना अगली ही गाड़ी से शाम तक जरूर आ जाएँगे दोनों। यहाँ इस पराए देश में उन्ही के लिए तो बसे थे हम।’
बूढ़े बाप को अभी भी अपने लायक बेटों पर पूरा भरोसा था । आंखें बन्द करके विश्वास करते थे वे दोनों पर।
उधर ओमान के बाजार में बेटा पत्नी को मंहगा हीरों का हार दिला रहा था। माँ-बाप जिएं या मरें, अब कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता था उसे। फिर सूखे छिलकों से क्या रस की उम्मीद करनी! जी भरकर पहले ही निचोड़ लिया था उसने और निचुड़े छिलकों की जगह बाहर कूड़े में ही होती है, वापस घर में नहीं- जानता था वह ।
पहुँच-
“ कल जुमाँ है और तीन सर कलम होंगे चौराहे पर। देखने आना जरूर, डॉक्टर। तुम्हारा मरीज करीम भी है। वी. आइ .पी. पास लाया हूँ तुम्हारे लिए, बिल्कुल आगे का।”
“क्या…?”आश्चर्य और भय से खुले मुंह को बड़ी मुश्किल से बन्द कर पाया वह । ‘ना’ कहने तक की हिम्मत नहीं हुई । पता नहीं क्या अर्थ ले ले सामने खड़ा वह पुलिस अधिकारी। वैसे भी इन देशों में कब मौसम पलट जाए, किसी को पता नहीं चल पाता । …पर वह कैसे जा सकता था… एक एक जख़्म खुद अपने हाथों से सिले हैं उसने उस मरीज के। अन्य मरीजों की तरह ही जी-जान लगाकर स्वस्थ करा है उसे भी। घंटों रोज हंस-हंसकर बातें हुई हैं उससे – कैसे शरीर में ताकत वापस आए, खून बढ़े आदि-आदि विषयों पर।.18 साल का खूबसूरत युवक और अब यह…! क्रूर, बेहद क्रूर…सजा की कौन कहे, उसे तो उसके जुर्म तक के बारे में कुछ नहीं पता। निर्णय हो चुका था पर…
कांपते हाथों से उसने कार्ड जेब में रखा और लड़खड़ाते कदमों से चुपचाप घर लौट आया। जल्दी जल्दी में सब कैसे कर पाया-नहीं जानता ,पर अपनी पहुचान और पदवी की बदौलत कर ही लिया था उसने सारा इन्तजाम और अगले दिन ही वे वापसी जहाज पर सवार लौट रहे थे, सपरिवार और सकुशल उनकी क्रूर पहुँच से दूर, बहुत दूर।….
. नीचे की दराज
दुकान एक चमचमाते माल में थी। सारा सामान मंहगा व विदेशी।। हेयर क्लिप 325 रुपए की थी, उसने 400 दिए थे । 75 की जगह बस 10 रुपए हाथ में वापस देते हुए दुकनदार बोली , छुट्टा नहीं है।
उसने भी पैकेट वापस रख दिया –नहीं चाहिए अभी। बाद में ले लूंगी। इसकी ऐसी कोई तुरंत जरूरत नहीं।
दुकानदार सुनते ही कउन्टर पर झुकी और लौटाने की बजाय पिचहत्तर रुपए ही इसबार देते हुए बोली-ये लीजिए मिल गए मुझे, नीचे की दराज में थे कुछ।
हार- जीत
विदेश आए चालीस से अधिक वर्ष हो चुके थे, पर भारतीयता आज भी उनमें और परिवार में कूट-कूटकर भरी हुई थी। अपने भारतीयता के इस एहसास को वह अपने जीवन की अमूल्य निधि मानते थे। देश, अपने लोगों को पूरी वफादारी और ईमानदारी से प्यार करो, यही एक मूलमंत्र उन्होंने बारबार परिवार के कान में फूंका ही नहीं, जिया भी था। आजभी परिवार के सभी सदस्य, बेटे बहू और वे पतिपत्नी आपस में मातृभाषा हिन्दी में ही बात करते थे। पीछे छूटे रस्मो, रवायात, तीज त्योहार वैसे ही श्रद्धा और उत्साह से मनाते थे। खाना-पीना, बोलचाल, रहन-सहन और आदत में भारत और भारत से जुड़ी हर कड़ी से जुड़े रहने का भरसक प्रयास करते थे। हर वर्ष नियम से भारत आते, जिससे भारत से दूर न हों। संक्षेप में कहूं तो एक छोटा-सा भारत ही मानो अपने आसपास बसा लिया था उन्होंने।
फुरसत के ऐसे ही एक पल में ब्रिटेन के अपने आलीशान शिवकुटीर में बैठकर वह ब्रिटेन और भारत का मैच बड़ी ही तन्मयता से देख रहे थे। मैच टांके का था और बेहद रोमांचक भी। अचानक बाजी पलटी और ब्रिटेन की टीम जीत गई। अभी वह हार का शोक मना तक पाते कि सात साल के पोते ने ताली बजाते हुए कहा-हुर्रे मेरा देश जीत गया।
उन्होंने उसे सही करने के इरादे से समझाया-नहीं बेटा, तुम शायद गलत समझ बैठे हो, तुम्हारा देश भारत जीता नहीं, हार गया है।
पोता तुरंत बोला- दादाजी बुरा मत मानिएगा, आपका देश भारत है पर मेरा नहीं। मैं यहीं पैदा हुआ हूँ। यहीं की बोली बोलता हूँ और यहीं के स्कूल में पढ़ता हूँ और यहीं पर मेरा घर भी है । और मैं बहुत खुश हूँ कि मेरा देश इंगलैंड आपकी इंडिया से जीत गया, आप ही तो कहते हो अपने देश की खुशी में खुश और दुख में दुखी होना चाहिए।
बुरा कैसे मानते दादाजी? आँखें खोल दी थीं पोते ने । जो कह रहा था-उन्ही का सिखाया-पढ़ाया तो था।
पकड़
वह खुदको इस वातावरण में कैद महसूस कर रहा था।
लालच का इतना असभ्य और डरावना रूप कम से कम सभ्य कहे जाने वाले इस देश में तो उसने नहीं ही देखा था। आश्चर्य और अवसाद में डूब चुका था वह। जिन लोगों ने लूटपाट शुरू की थी वह अपने कद से भी ज्यादा उंची लूट बांहों में भरे, लोगों को रौंदते-फांदते बाहर दौड़ गए। अब कोने- कोने से सीक्योरिटी अलार्म कान फोड़ू आवाज कर रहे थे और हर आदमी तुरंत ही बाहर निकलना चाहता था परन्तु आम आदमी का बाहर निकलना मुश्किल से मुश्किलतर् होता जा रहा था। अनायास मची इस भगदड़ से अब एक उत्तेजित भय का आलम था चारोतरफ। परन्तु अधिकांश आम सभ्य शहरी शांति बनाए रखने में पूरा सहयोग कर रहे थे और कतार बद्ध ही बाहर निकल रहे थे।
रेलमपेल में अचानक बटुआ हाथ से छूटा और नीचे गिर गया। रकम थोड़ी सी ही सही, पर वह जो कि पिछले चार साल से बेकार था बटुए में रखी हफ्ते भर की सोशल सीक्योरिटी के पैसों का बहुत महत्व था उसके लिए। झुककर बटुआ ढूंढने लगा तो लोगों के पैरों से रुंदते एक गरम ऊनी स्वेटर पर नजर जा गिरी। इसके पहले कि स्वेटर लोगों के पैरों के नीचे घिसट-घिसटकर फटे, उसने झटपट स्वेटर भी बटुए के साथ उठा लिय़ा और बाहर निकल आया, हड्डियां कड़कड़ाती ठंड में पड़ोस की बुढ्ढी नेली के बहुत काम आएगा यही गुनता बुनता। अभी मुश्किल से बाहर आ ही पाया था कि सीक्योरिटी गार्ड ने धर दबोचा और गिरफ्तार कर लिया। वह शर्म से जमीन में गड़ा जा रहा था क्योंकि अपराध न करने वाला, नेक इरादों वाला नागरिक होकर भी , कमजोरी के उस एक पल में, अपराध में भागीदार हो ही गया था वह।
गार्ड भी खुश थे कि ड्यूटी पूरी हुई और कानून में देने को कम-से-कम एक तो पकड़ में आया…
मदद
देश के चरित्र पर नाज करने वाले रिपोर्टर का कैमरा खुद-ब-खुद उधर ही केन्द्रित हो गया।
इतनी लूटपाट और हिंसा के वातावरण में भी मानवता अभी मरी नहीं थी। चार-चार युवा उस आदमी की मदद के लिए दौड़ चुके थे, जिसकी आंख में चरमराती खिड़की का कांच अभी-अभी जा धंसा था। खून के फब्बारे में सरोबार वह वहीं पर हथेलियों से आंख दबाए गिरा सा बैठा हुआ था। उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। असह्य दर्द से परेशान वह तो यह भी नहीं जानता था कि कैमरा अब उसी की ओर था और प्रसारण तुरंत की तुरंत हो रहा था। सभी ने देखा। सभी के चेहरे पर गौरव और संतोष की चमक थी। चार में से तीन युवा घायल को सहारा देकर उठा रहे थे, मदद में व्यस्त थे परन्तु तभी सभी के संतुष्ट और गर्वित चेहरे पर कालिख मलते हुए, चौथे का हाथ उसके बैक पैक पर गया और पल भर में ही उसमें से बटुआ और मोबाइल खींचता, सारे पैसे निकाल, वह बटुआ वहीं फेंककर ऐसे चल दिया मानो कुछ हुआ ही न हो…
वसुधैव कुटुम्बकम
ताजे तरतीब से कटे लॉन पर टुकड़े-टुकड़े बिछी धूप… कहीं सोना सा बिखरा था तो कहीं राख पुती थी। ऐसे ही एक चमचमाते घास के छोटे से कालीन पर गिलहरी, बिल्ली और कबूतर, तीनों साथ-साथ पीठ के बल लेटे दिखे और धूप का एक शोख टुकड़ा छतरी सा तना था तीनों के ऊपर। मन किया तस्बीर खींच ले इस अजूबे की- जानी दुश्मन और यूँ साथ-साथ ! हंसे बिना न रह सकी वह। वही तो असली सह अस्तित्व था, वसुधैव कुटुम्बकम वाला …जरूरतों के मुताबिक इनकी दुनिया में भी चलता।
-शैल अग्रवाल