लघुकथाएँः चंद्रेश छतलानी

“धार्मिक पुस्तक”

वह बहुत धार्मिक था, हर कार्य अपने सम्प्रदाय के नियमों के अनुसार करता| रोज़ पूजा-पाठ, सात्विक भोजन, शरीर-मन की साफ़-सफाई, भजन सुनना उसकी दिनचर्या के मुख्य अंग थे| आज भी रोज़ की तरह स्नान-ध्यान कर, एक धार्मिक पुस्तक को अपने हाथ में लिए, वो अपनी ही धुन में सड़क पर चला जा रहा था, कि सामने से सड़क साफ़ करते-करते एक सफाईकर्मी अपना झाड़ू फैंक उसके सामने दौड़कर आया|

वह चिल्लाया, “अरे शूद्र! दूर रह…..”

लेकिन वह सफाईकर्मी रुका नहीं और उसके कंधे को पकड़ कर नीचे गिरा दिया, वो सफाईकर्मी के साथ धम्म से सड़क पर गिर गया|

अगले ही क्षण उसके पीछे से एक कार तीव्र गति से आई और उस सफाईकर्मी के एक पैर को कुचलती हुई निकल गयी|

वह अचंभित था, भीड़ इकट्ठी हो गयी, और सफाईकर्मी को अस्पताल ले जाने के लिए एक गाड़ी में बैठा दिया, वो भी दौड़ कर उस गाड़ी के अंदर चला गया और उस सफाईकर्मी का सिर अपनी गोद में रख दिया|

सफाईकर्मी ने अपना सिर उसकी गोद से हटाने का असफल प्रयत्न कर, कराहते हुए कहा, “आप के… पैर…. गंदे हो जायेंगे|”

उसकी आँखों में आँसू आ गए और चेहरे पर कृतज्ञता के भाव| उसने प्रयास किया पर वह कुछ बोल नहीं पाया, केवल उस सफाईकर्मी के सिर पर हाथ रख, गर्दन ना में घुमा दी|

सफाईकर्मी ने फिर पूछा, “आपकी किताब…. वहीँ गिरी रह गयी…?”

“नहीं, मेरी गोद में है|” अब उसकी आवाज़ में दृढ़ता थी|

“मौकापरस्त मोहरे”

वह तो रोज़ की तरह ही नींद से जागा था, लेकिन देखा कि उसके द्वारा रात में बिछाये गए शतरंज के सारे मोहरे सवेरे उजाला होते ही अपने आप चल रहे हैं,उन सभी की चाल भी बदल गयी थी, घोड़ा तिरछा चल रहा था, हाथी और ऊंट आपस में स्थान बदल रहे थे, वज़ीर रेंग रहा था, बादशाह ने प्यादे का मुखौटा लगा लिया था और प्यादे अलग अलग वर्गों में बिखर रहे थे|

वह चिल्लाया, “तुम सब मेरे मोहरे हो, ये बिसात मैनें बिछाई है, तुम मेरे अनुसार ही चलोगे|” लेकिन सारे के सारे मोहरों ने उसकी आवाज़ को अनसुना कर दिया, उसने शतरंज को समेटने के लिये हाथ बढाया तो छू भी नहीं पाया|

वह हैरान था, इतने में शतरंज हवा में उड़ने लगा और उसके सिर के ऊपर चला गया, उसने ऊपर देखा तो शतरंज के पीछे की तरफ लिखा था – “चुनाव के परिणाम”|

विरोध का सच

“अंग्रेजी नववर्ष नहीं मनेगा….देश का धर्म नहीं बदलेगा…” जुलूस पूरे जोश में था| देखते ही मालूम हो रहा था कि उनका उद्देश्य देशप्रेम और स्वदेशी के प्रति जागरूकता फैलाना है| वहीँ से एक राष्ट्रभक्त गुज़र रहा था, जुलूस को देख कर वो भी उनके साथ मिल कर नारे लगाते हुए चलने लगा|

उसके साथ के दो व्यक्ति बातें कर रहे थे,
“बच्चे को इस वर्ष विद्यालय में प्रवेश दिलाना है| कौनसा ठीक रहेगा?”
“यदि अच्छा भविष्य चाहिये तो शहर के सबसे अच्छे अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलवा दो|”

उसने उन्हें तिरस्कारपूर्वक देखा और नारे लगाता हुआ आगे बढ़ गया, वहां भी दो व्यक्तयों की बातें सुनीं,
“शाम का प्रोग्राम तो पक्का है?”
“हाँ! मैं स्कॉच लाऊंगा, चाइनीज़ और कोल्डड्रिंक की जिम्मेदारी तेरी|”

उसे क्रोध आ गया, वो और जोर से नारे लगाता हुआ आगे बढ़ गया, वहां उसे फुसफुसाहट सुनाईं दीं,
“बेटी नयी जींस की रट लगाये हुए है, सोच रहा हूँ कि…”
“तो क्या आजकल के बच्चों को ओल्ड फेशन सलवार-कुर्ता पहनाओगे?”

वो हड़बड़ा गया, अब वो सबसे आगे पहुँच गया था, जहाँ खादी पहने एक हिंदी विद्यालय के शाकाहारी प्राचार्य जुलूस की अगुवाई कर रहे थे| वो उनके साथ और अधिक जोश में नारे लगाने लगा|

तभी प्राचार्य जी का फ़ोन बजा, वो अंतर्राष्ट्रीय स्तर के फ़ोन पर बात करते हुए कह रहे थे, “हाँ हुज़ूर, सब ठीक है, लेकिन इस बार रुपया नहीं डॉलर चाहिये,बेटे से मिलने अमेरिका जाना है|”

सुनकर वो चुप हो गया, लेकिन उसके मन में नारों की आवाज़ बंद नहीं हो रही थी, उसने अपनी जेब से बुखार की अंग्रेजी दवाई निकाली, उसे कुछ क्षणों तक देखा फिर उसके चेहरे पर मजबूरी के भाव आये और उसने फिर से दवाई अपनी जेब में रख दी|

“गाँधी जी का तीसरा बंदर”

“क्या बात है?” घर पहुँचते ही उसकी माँ ने उसकी आँखों में आँसू और पिता की आँखों में चिंता को देखकर घबरा कर पूछा|

उसके पिता ने बताया, “सेठ जी के बेटे और सामने वाले भाईसाहब की बेटी के बीच कुछ चल रहा था, इसे सब बात पता थी| अब कल किसी बात पर उस लड़की ने आत्महत्या कर ली, तो आज ये पुलिस को सब बातें बताने लगी| वो तो ऐन वक्त पर मैनें भीड़ का फायदा उठा कर इसका मुंह बंद कर दिया नहीं तो…..”

“नहीं तो क्या बाबूजी?” उसने पूछा

“किसी के फटे में हम टांग क्यों डालें? तू चुप नहीं रह सकती?” कहते हुए उसके पिता यह देख कर चौंके कि उसने आले में रखे हुए गांधीजी के तीन बंदरों में से एक बंदर को उठा कर घर से बाहर फैंक दिया|

“… अब यह क्या कर रही हो? उसे क्यों फैंका – बुरा मत कहो वाला बंदर?”

“उसकी क्या ज़रूरत है? मैं हूँ ना बाबूजी|”

गुलाम अधिनायक

उसके हाथ में एक किताब थी, जिसका शीर्षक ‘संविधान’ था और उसके पहले पन्ने पर लिखा था कि वह इस राज्य का राजा है। यह पढने के बावजूद भी वह सालों से चुपचाप चल रहा था। उस पूरे राज्य में बहुत सारे स्वयं को राजा मानने वाले व्यक्ति भी चुपचाप चल रहे थे। किसी पुराने वीर राजा की तरह उन सभी की पीठ पर एक-एक बेताल लदा हुआ था। उस बेताल को उस राज्य के सिंहासन पर बैठने वाले सेवकों ने लादा था। ‘आश्वासन’ नाम के उस बेताल के कारण ही वे सभी चुप रहते।

वह बेताल वक्त-बेवक्त सभी से कहता था कि, “तुम लोगों को किसी बात की कमी नहीं ‘होगी’, तुम धनवान ‘बनोगे’। तुम्हें जिसने आज़ाद करवाया है वह कहता था – कभी बुरा मत कहो। इसी बात को याद रखो। यदि तुम कुछ बुरा कहोगे तो मैं, तुम्हारा स्वर्णिम भविष्य, उड़ कर चला जाऊँगा।”

बेतालों के इस शोर के बीच जिज्ञासावश उसने पहली बार हाथ में पकड़ी किताब का दूसरा पन्ना पढ़ा। उसमें लिखा था – ‘तुम्हें कहने का अधिकार है’। यह पढ़ते ही उसने आँखें तरेर कर पीछे लटके बेताल को देखा। उसकी आँखों को देखते ही आश्वासन का वह बेताल उड़ गया। उसी समय पता नहीं कहाँ से एक खाकी वर्दीधारी बाज आया और चोंच चबाते हुए उससे बोला, “साधारण व्यक्ति, तुम क्या समझते हो कि इस युग में कोई बेताल तुम्हारे बोलने का इंतज़ार करेगा?”

और बाज उसके मुंह में घुस कर उसके कंठ को काट कर खा गया। फिर एक डकार ले राष्ट्रसेवकों के राजसिंहासन की तरफ उड़ गया।

खजाना

पिता के अंतिम संस्कार के बाद शाम को दोनों बेटे घर के बाहर आंगन में अपने रिश्तेदारों और पड़ौसियों के साथ बैठे हुए थे। इतने में बड़े बेटे की पत्नी आई और उसने अपने पति के कान में कुछ कहा। बड़े बेटे ने अपने छोटे भाई की तरफ अर्थपूर्ण नजरों से देखकर अंदर आने का इशारा किया और खड़े होकर वहां बैठे लोगों से हाथ जोड़कर कहा, “अभी पांच मिनट में आते हैं”।

फिर दोनों भाई अंदर चले गये। अंदर जाते ही बड़े भाई ने फुसफुसा कर छोटे से कहा, “बक्से में देख लेते हैं, नहीं तो कोई हक़ जताने आ जाएगा।” छोटे ने भी सहमती में गर्दन हिलाई ।

पिता के कमरे में जाकर बड़े भाई की पत्नी ने अपने पति से कहा, “बक्सा निकाल लीजिये, मैं दरवाज़ा बंद कर देती हूँ।” और वह दरवाज़े की तरफ बढ़ गयी।

दोनों भाई पलंग के नीचे झुके और वहां रखे हुए बक्से को खींच कर बाहर निकाला। बड़े भाई की पत्नी ने अपने पल्लू में खौंसी हुई चाबी निकाली और अपने पति को दी।

बक्सा खुलते ही तीनों ने बड़ी उत्सुकता से बक्से में झाँका, अंदर चालीस-पचास किताबें रखी थीं। तीनों को सहसा विश्वास नहीं हुआ। बड़े भाई की पत्नी निराशा भरे स्वर में बोली, “मुझे तो पूरा विश्वास था कि बाबूजी ने कभी अपनी दवाई तक के रुपये नहीं लिये, तो उनकी बचत के रुपये और गहने इसी बक्से में रखे होंगे, लेकिन इसमें तो…..”

इतने में छोटे भाई ने देखा कि बक्से के कोने में किताबों के पास में एक कपड़े की थैली रखी हुई है, उसने उस थैली को बाहर निकाला। उसमें कुछ रुपये थे और साथ में एक कागज़। रुपये देखते ही उन तीनों के चेहरे पर जिज्ञासा आ गयी। छोटे भाई ने रुपये गिने और उसके बाद कागज़ को पढ़ा, उसमें लिखा था,
“मेरे अंतिम संस्कार का खर्च”

सिर्फ चाय
“सवेरे गुड़िया के कारण देर हो गयी, बेटा होता तो तैयार होने में इतना समय थोड़े ही लगाता। दिन में भी इसी परेशानी से काम में गड़बड़ हो गयी और बॉस की बातें सुननी पड़ी, पूरे दिन में सिर्फ तीन चाय ही पी है, खाना खाने का भी समय नहीं मिला। अब ठंड इतनी हो रही है और गर्म टोपी और दस्ताने भी भूल गया।”

सर्द सांझ में थरथराते हुए अपनी इन सोचों में गुम वो जा रहा था कि अनदेखी के कारण अचानक उसकी मोटरसाइकिल एक छोटे से गड्डे में जाकर उछल गयी, और वह गिर पड़ा। हालाँकि ना तो मोटरसाइकिल और ना ही उसे चोट आयी, लेकिन उसके क्रोध में वृद्धि होना स्वाभाविक ही था।

घर पहुँचते ही उसने गाड़ी पटक कर रखी, आँखें गुस्से में लाल हो रहीं थी। घंटी भी अपेक्षाकृत अधिक बार बजाई। दरवाज़ा उसकी बेटी ने खोला, देखते ही उसका चेहरा तमतमा उठा।

लेकिन अपने पिता को देख कर बेटी उछल पड़ी और उसके गले लग कर बोली, “डैडी,
आज मैनें चाय बनाना सीख ली। आप बैठो, मैं सबसे पहले आपको ही चाय पिलाऊंगी।”

और अचानक उसके नथुने चाय की गंध से महकने लगे।

अपरिपक्व

जिस छड़ी के सहारे चलकर वो चश्मा ढूँढने अपने बेटे के कमरे में आये थे, उसे पकड़ने तक की शक्ति उनमें नहीं बची थी। पलंग पर तकिये के नीचे रखी ज़हर की डिबिया को देखते ही वह अशक्त हो गये। कुछ क्षण उस डिबिया को हाथ में लिये यूं ही खड़े रहने के बाद उन्होंने अपनी सारी शक्ति एकत्रित की और चिल्लाकर अपने बेटे को आवाज़ दी,
“प्रबल…! यह क्या है..?”

बेटा लगभग दौड़ता हुआ अंदर पहुंचा, और अपने पिता के हाथ में उस डिबिया को देखकर किंकर्तव्यविमूढ होकर खड़ा हो गया। उन्होंने अपना प्रश्न दोहराया, “यह क्या है..?”

“जी… यह… रौनक के लिये…” बेटे ने आँखें झुकाकर लड़खड़ाते स्वर में कहा।

सुनते ही वो आश्चर्यचकित रह गये, लेकिन दृढ होकर पूछा, “क्या! मेरे पोते के लिये तूने यह सोच भी कैसे लिया?”

“पापा, पन्द्रह साल का होने वाला है वह, और मानसिक स्तर पांच साल का ही… कोई इलाज नहीं… उसे अर्थहीन जीवन से मुक्ति मिल जायेगी…” बेटे के स्वर में दर्द छलक रहा था।

उनकी आँखें लाल होने लगी, जैसे-तैसे उन्होंने अपने आँसू रोके, और कहा, “बूढ़े आदमी का मानसिक स्तर भी बच्चों जैसा हो जाता है, तो फिर इसमें से थोड़ा सा मैं भी….”
उन्होंने हाथ में पकड़ी ज़हर की डिबिया खोली ही थी कि उनके बेटे ने हल्का सा चीखते हुए कहा, “पापा…! बस।”, और डिबिया छीन कर फैंक दी। वो लगभग गिरते हुए पलंग पर बैठ गये।

उन्होंने देखा कि ज़मीन पर बिखरा हुआ ज़हर बिलकुल पन्द्रह साल पहले की उस नीम-हकीम की दवाई की तरह था, जिससे केवल बेटे ही पैदा होते थे।

और उन्हें उस ज़हर में डूबता हुआ उनकी पुत्रवधु का शव और अपनी गोद में खेलता पोते का अर्धविकसित मस्तिष्क भी दिखाई देने लगा।

आँखों का दायरा

शाम का धुंधलका गहराता जा रहा था, बस्ती से कुछ दूर बने एक मकान के पास लगभग 14-15 वर्षीय दो लड़के छिप कर खड़े थे, चेहरों से ही वे दोनों अधीर दिखाई दे रहे थे।

एक लड़का जो उम्र में कुछ बड़ा था, उसने दूसरे से कहा, “सुन अंदर क्या बातें हो रही हैं।”

दूसरे ने खिड़की से कान लगा कर सुना और कुछ क्षण सुनने के बाद पहले से कहा, “भैया, उसका पति कह रहा है कि रात की पारी है, वो दस मिनट में चला जायेगा और वह कह रही है कि बाद में वह बच्चे को दूध पिला कर सुला देगी।”

अंतिम वाक्य कहते-सुनते दोनों की आखों में लाल डोरे तैरने लगे और वे दूसरी दीवार की तरफ चले गये, जहाँ मकान के अंदर झाँकने के लिए उन्होंने आज ही एक छेद किया था। कुछ मिनटों की प्रतीक्षा के बाद स्कूटर शुरू होने की आवाज़ आई, जिसके मंद पड़ते ही बड़े लड़के ने दूसरे को आगे से हटाया और अपनी एक आँख छेद से सटाई।

जैसा वह चाह रहा था, छेद के लगभग सामने ही, उसी तरफ मुंह किये हुए वह महिला अपने बच्चे को अपना दूध पिला रही थी, वह लड़का उस महिला को नीचे से ऊपर तक निहारने लगा, फिर गौर से उसके चेहरे को देखने लगा।

उधर छोटे लड़के की बेताबी बढती जा रही थी, उसने बड़े लड़के की पीठ पर हाथ रखा। हाथ का स्पर्श पाते ही बड़े लड़के की तंद्रा भंग हुई और वह मुड़ गया। छोटे लड़के ने उससे फुसफुसाते हुए पूछा, “भैया क्या देखा?”

बड़े लड़के ने शून्य में निगाह ठहरा दी, और ठंडे स्वर में बोला, “कुछ नहीं रे, माँ की याद आ गयी… चल चलते हैं।”

और यह सुनते ही लाल पड़ी दीवार का रंग सफ़ेद में बदलने लगा।

बहुरूपिया

उस नामी प्रदर्शनी के बाहर एक बड़ी चमचमाती आधुनिक कार रुकी। चालक बाहर निकला और पीछे का दरवाज़ा खोला, अंदर से एक सूटधारी आदमी उतरा। वहीँ कुछ दूर एक भिखारी बैठा हुआ था, वह आदमी उस भिखारी के पास गया और जेब से नोटों का एक पुलिंदा निकाल कर बिना गिने उसमें से कुछ नोट भिखारी की कटोरी में डाल दिए। भिखारी सहित कई व्यक्ति उसकी दरियादिली देख कर चौंक गए।

वह आदमी प्रदर्शनी कक्ष में गया। पहले कमरे में कई दर्पण थे, वह पहले दर्पण के सामने गया, देखते ही उसके चेहरे पर मुस्कान आ गयी, वह बहुत मोटा दिखाई दे रहा था।

उसी समय उसका फोन बजा। उसने देखा, उसके प्रतिष्ठान के एक कर्मचारी का फ़ोन था, जिसने अपने पिता के इलाज हेतु ऋण के लिए अर्जी दे रखी थी। उसने मुंह बिगाड़ा और फोन की आवाज़ बंद कर अगले दर्पण की तरफ बढ़ गया।

अगले आईने में वह बहुत अधिक लम्बा दिखाई दिया, उसके चेहरे पर पहले से भी गहरी मुस्कुराहट आ गयी। वह आगे बढ़ता गया और स्वयं को छोटे-बड़े-मिश्रित अलग-अलग रूपों में देखकर बच्चों की तरह खुश होता रहा।

सारे दर्पणों में स्वयं को देख कर वह और आगे बढ़ा तो उन दर्पणों को बनाने वाला बैठा हुआ था, उसने दर्पणों के निर्माता को हँसते हुए कहा, “आपकी कला गजब की है, लेकिन आपने एक भी आईना ऐसा नहीं बनाया, जिसमें सही रूप दिखाई दे।”

दर्पणों के निर्माता ने भी हँसते हुए उत्तर दिया, “जो कुछ भी देखा वह सारे आप ही के तो रूप थे, लेकिन असली रूप बता सके, ऐसा आईना तो आज तक कोई नहीं बना सका”

और उसके जेब में रखे फ़ोन की घंटी तब भी बज ही रही थी।

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नाम: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
सहायक आचार्य (कंप्यूटर विज्ञान)

पता – 3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर – 5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313002
फोन – 99285 44749
ई-मेल -chandresh.chhatlani@gmail.com
यू आर एल – http://chandreshkumar.wikifoundry.com

लेखन – लघुकथा, पद्य, कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानियाँ, लेख
मधुमति (राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका), लघुकथा पर आधारित “पड़ाव और पड़ताल” के खंड 26 में लेखक, अविराम साहित्यिकी, लघुकथा अनवरत (साझा लघुकथा संग्रह), अपने अपने क्षितिज (साझा लघुकथा संग्रह), सपने बुनते हुए (साझा लघुकथा संग्रह), नव-अनवरत, दृष्टि (पारिवारिक लघुकथा विशेषांक), दृष्टि (राजनैतिक लघुकथा विशेषांक), हिंदी जगत (विश्व हिंदी न्यास, न्यूयॉर्क द्वारा प्रकाशित), हिंदीकुञ्ज, laghukatha.com, openbooksonline.com, विश्वगाथा, शुभ तारिका, अक्षर पर्व, एम्स्टेल गंगा (नीदरलैंड से प्रकाशित), सेतु पत्रिका (पिट्सबर्ग से प्रकाशित), शोध दिशा, ककसाड़, साहित्य समीर दस्तक, अटूट बंधन, सुमन सागर त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका, दैनिक भास्कर, दैनिक राजस्थान पत्रिका, किस्सा-कृति (kissakriti.com), वेब दुनिया, कथाक्रम पत्रिका, करुणावती साहित्य धारा त्रैमासिक, साहित्य कलश त्रैमासिक, मृग मरीचिका, अक्षय लोकजन, बागेश्वरी, साहित्यसुधा (sahityasudha.com), सत्य दर्शन, साहित्य निबंध युगगरिमा, जय-विजय, शब्द व्यंजना, सोच-विचार, जनकृति अंतरराष्ट्रीय ई-पत्रिका, सत्य की मशाल, रचनाकार (rachanakar.org), swargvibha.in, hastaksher.com, storymirror.com, hindilekhak.com, अमेजिंग यात्रा, निर्झर टाइम्स, राष्ट्रदूत, जागरूक टाइम्स, Royal Harbinger, दैनिक नवज्योति, एबेकार पत्रिका, सच का हौसला दैनिक पत्र, सिन्धु पत्रिका, वी विटनेस, आदि में रचनाएँ प्रकाशित

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