रोटी
एक दिन मैं अपनी स्कुटर सुधरवाने के लिये एक गैराज में बैठा था. वहाँ आठ-दस साल का एक लडका हेल्पर के रुप मे काम कर रहा था. शायद वह नया-नया लगा था. मैकेनिक ने बगैर उसकी तरफ़ देखे १९-२० का पाना माँगा. लड्के ने एक पाना उठाया और उसके हाथ में पकडा दिया. वह पाना उस नम्बर का ना होकर कोई दूसरे ही नम्बर का था . सही पाना न पाकर उस मैकेनिक को क्रोध आ गया और उसने गंदी गालियाँ बकते हुये उसके गाल पर कस कर एक झापड मार दिया. लडके की आँख छलछला आयी.
थोडी देर बाद वह मिस्त्री किसी आवश्यक कार्य से बाहर गया. मैने जिग्यासावश उस लड्के से पूछा:- मिस्त्री तुम्हारा कौन लगता है.और कितनी तन्खाह देता है?.
लडका थोडी देर तो चुप रहा ,फ़िर हलक को थूक से गिला करते हुये उसने कहा:-रिश्ते में तॊ कोई लगता नहीं है. खाने को दो जून की रोटियाँ देता है..
मैने आश्च्रर्य से पूछा ’- केवल रोटियाँ,और कुछ नहीं ?.
उस लडके ने बडी मासुमियत से जबाब दिया” साहबजी….जिंदा रहने के लिये रोटियाँ ही काफ़ी है.
छोटी सी उम्र में उस लडके ने जीवन की सबसे बडी जरुरत को समझ लिया था।
खजाना
” तुम पर मैं कई दिनों से नजर रख रहा हूँ. बडी सुबह ही तुम समुद्र- तट पर आ जाते हो और देर शाम को घर लौटते हो ?
” मुझे अच्छा लगता है, यहां आकर.”
” कभी समुद्र की गहराई में उतरे भी हो कि नहीं?”
” नहीं ..एक बार भी नहीं ?”
“फ़िर समझ लो तुम्हारी पूरी जिन्दगी बेकार में गई. यदि तुम एक बार भी समुद्र में उतरते तो तुम्हारे हाथ नायाब खजाना लग सकता था. क्या तुम्हारा ध्यान इस ओर कभी नहीं गया .? आखिर तुम करते क्या हो इतनी सुबह-सुबह आकर?”
” बडी सुबह मैं इसी इरादे से आता हूँ, लेकिन आसपास पडा कूडा-कचरा देख कर सोचने लगता हूँ कि पहले इसे साफ़ कर दूं ,फ़िर इतमीनान पानी में उतरूंगा. बस इसी में शाम हो जाती है.”
” आखिर यह सब करने से तुम्हें मिलता क्या है?.
” कुछ नहीं, बस मन की शांति.”
” बकवास…सब बकवास”.
” शांति से बढकर और कोई चीज हो सकती है क्या.”.उसने इत्मिनान से उत्तर दिया था.
कीमती कपडॆ
दो मित्र थे. रामदयाल और दीनदयाल. रामदयाल काफ़ी गरीब था,जबकि दीनदयाल करोडपति. दो असमान ध्रुव पर खडे रहकर भी. उनकी आपस में खूब निभती थी.
एक दिन दीनदयाल ने अपने मित्र रामदयाल से कहा:- मित्र, जब भी तुम भाषण देने मंच पर जाते हो, वही पुराने फ़टे-पूराने कपडॆ पहन कर जाते हो, मुझे अच्छा नहीं लगता. मेरे पास एक से बढकर एक ड्रेसेस है,तुम पहनकर जाया करो. अपने मित्र की बात सुनकर रामदयाल ने उसका दिल रखने के लिए हामी भर दी. अब वह, जब भी,जहाँ भी जाता अपने मित्र के कपडॆ पहनकर जाने लगा.
किसी एक प्रतिष्ठित मंच पर रामदयाल अपना व्याख्यान दे रहा था और सामने की कुर्सी पर उसका मित्र बैठा उसे सुन रहा था. श्रोतागण उसकी बात पर जब तब दाद देते और तालियाँ भी बजाया करते थे.यह यह सब देखकर दीनदयाल को काफ़ी प्रसन्न्ता हो रही थी.. उसने अपने ठीक बगल में बैठे व्यक्ति से कहा:- मित्र, मंच पर जो व्यक्ति भाषण दे रहा है,वह उसका घनिष्ट मित्र है और उसने जो कपडॆ पहन रखे हैं,वह मेरे है. उसकी बात सुनने के बाद भी उसने अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. उसने अब दूसरी तरफ़ बैठे व्यक्ति से वही बात दुहरायी,लेकिन इसने भी कोई जबाब नहीं दिया. जबाब न पाकर उसका मन बैठने लगा था.
अपना भाषण समाप्त करने के बाद अब उसका मित्र प्रसन्न्ता से लकदक उसकी ओर बढा चला आ रहा था.लोग अपनी-अपनी सीट से खडे होकर उसका अभिवादन करने लगे थे.दीनदयाल के मन में अब भी वही खिचडी पक रही थी. उसने अधीर होकर अपने मन की बातें औरो को भी बतलाना शुरु कर दिया .बातें करते समय उसे इस बात का तनिक भी आभास नहीं हो पाया कि उसका मित्र काफ़ी करीब आ चुका है और उसने उसकी सारी बाते सुन लिया है. बात सुन चुकने के बाद भी उसने अपनी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और आकर अपने मित्र के पास आकर खडा हो गया.अपने मित्र को पास पाकर दीन्दयाल ने उसे गले से लगाते हुए ढेरों सारी बधाइयां दी.
अगले किसी कार्यक्रम में रामदयाल पहले की तरह अपना व्याख्यान देने में तल्लीन था. कुछ देर तक बोलने के बाद उसने मंच पर से उपस्थित श्रोताओं से कहा”:-मित्रों..मेरा भाषण अभी समाप्त नहीं हुआ है.बस दो मिनट बाद मैं अपनी बात जारी रखुंगा.कृपया थोडा सा इन्तजार कीजिये.” इतना कहकर वह परदे के पीछे गया. वहाँ जाकर उसने अपने धनी मित्र के दिए कपडॊं को उतारकर अपनी पुरानी पोषाक पहनी और मंच पर आकर उसी धाराप्रवाह में अपना भाषण देना शुरु कर दिया . इस बार उसके चेहरे पर छा रहा तेज देखने लायक था. वह पूरे जोश और उत्साह के साथ अपनी वाणी को मुखर कर पा रहा था.
सामने की सीट पर बैठा उसका मित्र यह सब देख रहा था. जैसे ही भाषण समाप्त हुआ ,वह पूर्व की तरह मुस्कुराता हुआ अपने मित्र की तरफ़ बढा चला आ रहा था. बीच में ही लोगो ने उसे घेर लिया था और उसे ढेरों सारी शुभकामनाऎँ तथा बधाइयाँ देने लगे थे. वह बडी ही विनम्रता से सबकी बधाइयाँ स्वीकारता अपने मित्र के पास आ खडा हुआ. दीनदयाल को अब समझ में आया कि कीमती कपडॆ पहनना और बात है,और बुद्धिमान होना और बात है.
न्याय
“द्रौपदी इस साम्राज्य की महारानी है और एक महारानी को यह अधिकार नहीं है कि वह अपनी ही प्रजा की झोपडियों में आग लगाए. उन्होंने एक अक्ष्म्य अपराध किया है. उन्हें इसके लिए कडी से कडी सजा दी जानी चाहिए. मैं महाराज युधिष्टर, कानुन को धर्मसम्मत मानते हुए उन्हें एक साल की सजा दिए जाने की घोषणा करता हूँ.” खचाखच भरे दरबार में महाराह युधष्ठिर ने अपना फ़ैसला सुना दिया था.
महाराज का फ़ैसला सुनते ही राजदरबार में सन्नाटा सा छा गया .चारों तरफ़ इस फ़ैसले पर कानाफ़ूसी होने लगी ,लेकिन महाराज के खिलाफ़ बोलने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पा रहा था.
फ़ैसला सुन चुकने के बाद भीम से रहा नही गया. अपनी जगह से उठकर उन्होंने आपत्ति दर्ज की”-महाराज फ़ैसला देने के पूर्व आपको यह तो सोचना चाहिए था कि वे एक महारानी होने के साथ-साथ हम सबकी धर्मपत्नि भी है. यदि उन्होंने ऎसा किया है तो जरुर उसके पीछे कोई बडा कारण रहा होगा. उन्होंने जानबूझ कर तो ये सब नहीं किया होगा. अगर झोपडियां जल भी गयी है तो इससे क्या फ़र्क पडता है.हम उन्हें नयी झोपडियां बनाने के लिए बांस-बल्लियां मुहैया कर सकते हैं.
” भीम…ये तुम कह रहे हो. एक जवाबदार आदमी इस तरह की बात कैसे कह सकता है .मैंने उन्हें सजा देने का आदेश जारी कर दिया है. उन्हें एक साल तक कारावास में रहना होगा. अब इस फ़ैसले में कोई सुधार की गुंजाइश नहीं है.”
” महाराज…यदि महारानी ने अपराध किया ही है तो उसकी सजा आप हम भाइयों को कैसे दे सकते हैं ?.”
” भीम …आखिर तुम कहना क्या चाहते हो ?”.
” महाराज..एक वर्ष में तीन सौ पैंसठ दिन होते हैं. यदि इसमें पांच का भाग दिया जाये तो तिहत्तर दिन आते है. जैसा कि माँ का आदेश भी है कि उस पर सभी भाइयों का समान अधिकार रहेगा .मतलब साफ़ है कि वे बारी-बारी से तिहत्तर दिन हम प्रत्येक के बीच गुजारेगीं. एक वर्ष की सजा का मतलब है कि हमारे तिहत्तर दिन भी उसमें शामिल होंगे और हमें यह मंजूर नहीं कि हम उस अवधि की सजा अकारण ही पाएं. यह कैसा न्याय है आपका ?”.
भीम की बातों में दम था और वे जो कुछ भी कह रहे थे उसे झुठलाया नहीं जा सकता था. अब सोचने की बारी महाराज युधिष्ठर की थी. काफ़ी गंभीरता से सोचते हुए उन्होंने इस समस्या का हल खोज निकाला. उन्होंने कहा:-” चूंकि महारानी ने एक अक्षम्य अपराध किया है,और उन्हें इसकी सजा हर हाल में मिलेगी..सजा की अवधि, उनके अपने स्वयं की अवधि के बराबर रहेगी.
गोवर्धन यादव
जन्म स्थानः मुलताई(बैतुल)म.प्र.
जन्म तिथिः १७ जुलाई १९४४
शिक्षाः स्नातक
तीन दशक पूर्व कविताओं के माध्यम से साहित्य-जगत में प्रवेश। बाद मे कहानीयाँ, लघुकथाएं,लेख-आलेख,तथा बाल-साहित्य पर लेखन देश की स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का अनवरत प्रकाशन, आकाशवाणी से रचनाओं का प्रसारण, करीब पच्चीस साहित्यिक कृतियों पर समीक्षा आलेख।
प्रकाशित कृतियाँ- महुआ के वृक्ष (सतलुज प्रकाशन पंचकुला०( हरियाणा) तीस बरस घाटी (वैभव प्रकाशन रायपुर)( छ.ग.) अपना-अपना आसमान
सम्मानः देश के पन्द्रह प्रख्यात मंचॊं द्वारा समय-समय पर सम्मानित
विशेष औद्धोगिक नीति और संवर्धन विभाग को सरकारी कामकाज में हिन्दी के प्रगामी प्रयोग से संबंधित विषयों तथा गृह मंत्रालय, राजभाषा द्वारा निर्धारित नीति के बारे में सलाह देने के लिए वाणिज्य और उद्दोग मंत्रालय,उद्धोग भवन नयी दिल्ली में “सदस्य” नामांकित।
केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय( मानव संसाधन मंत्रालय)नयीदिल्ली द्वारा दोनो कहानी संग्रह की खरीद की गई। बैंकाक(थाईलैण्ड) की साहित्यिक यात्रा.
संप्रतिः सेवानिवृत पोस्टमास्टर(H.S.G.!)
अध्यक्ष राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,जिला इकाई छिन्दवाडा
संपर्क 103, कावेरी नगर छिन्दवाडा(म.प्र.)480001.
दूरभाष 07162-246651 चलित 09424356400
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समझौता
घर के बगल में मार-पीट हुइ, पड़ोसी ने ऑंखें बंद कर लीं। चीख- पुकार मची, उसने कानों में रुई ठूंस ली। भगदड़ मची, उसने घर के दरवाजे पर ताला जड़ दिया। हत्या हुई, वह धृतराष्ट्र बन गया ।
वह आज का समझदार व्यति था। किसी के झमेले में पड़ अपनी जान जोखिम में कभी नहीं डालता था । एक अव्यक्त समझौता उसने आज के समय के साथ कर लिया था। समय ही बेईमान था। कोई करे तो क्या करे। बूढ़े-बुजुर्गों की चिन्ताओं में घुल रहा था – आज किसी को किसी से मतलब नहीं…… हमारे जमाने में तो पूरा गॉंव-कस्बा अपना रिश्तेदार…..हारी-बीमारी, के समय सब साथ खड़े। किसी के घर मौत होने पर सब के घर चूल्हा उपास …..
हॉं, तो क्या कह रही थी यह कथा?…घर के बगल में मार-पीट हुइ, उसने ऑंखें बंद कर लीं। चीख- पुकार मची, उसने कान में रुई ठूंस ली। भगदड़ मची तो दरवाजे पर ताला भी जड़ दिया।
हत्या हुई तो….।
एक दिन उसके घर से थोड़ी दूर की दुकान में आग लगी। आग की लपटें ताला का कहा तो मानतीं नहीं, लांघकर उसके घर तक आ पहुँचीं. वह बहुत चीखा- चिल्लाया। लेकिन …….
लोकतंत्र
-साहब, स्थिति हमारे फेवर में एकदम नहीं है.
एक घबराई आवाज तेजी से कॉरीडोर से गुजरते हुए अंदर तक साथ चली आई।
– तो?
-इस बार हार निश्चत है। हमारे जीतने का जरा भी चांस नहीं है।
आवाज की घबराहट और बढ़ी.
– क्यो? दूसरी गुप्त बैठक में व्यस्त आवाज को जरा फर्क नहीं पड़ा।
– राघव सिंह के भाषणों-वक्तव्यों से… प्रभावित होकर सब उधर ही मुड़ गए….. लाखों की भीड़ जुटी.
पहली आवाज अस्त-व्यस्त पहले से थी. अब पस्त भी होने लगी।
– जरुरी तो नहीं भीड़ जीत की पहचान हो। इस आवाज की बेफिक्री काबिले-गौर!
– नहीं साहब, पक्की खबर है कि हम हार रहे हैं. हर हाल में हार रहे हैं। अब जीतना असंभव!
-तुम्हारी डिक्शनरी में यह असंभव लफ्ज़ कहॉं से आ गया रवि?
तुरंत वे बगल की कुर्सी पर जमे महोदय की ओर मुखातिब हुए। मुस्कुरा कर उन्हें देखा… यह वही मुस्कान थी, जिसे सयाने लोग शातिर मुस्कान कहते हैं.
– रविया बहुत जल्दी घबरा जाता है, हमारी देश की जनता को अभी नहीं पहचानता न, इसीलिए…लोकतंत्र को एकदम नहीं समझता है पट्ठा! नौसिखिया…… जाइए, बंटवा दीजिए अंगूर की बेटी की पेटी को……आखिर इन्हें सालों-साल अनपढ़- बुड़बक बनाकर क्यों रखा जाता है, आप तो जानते ही हैं।
और उन्होंने आगत जीत के स्वागत में शैंपेन की बोतल खोल ली। झागदार शैंपेन बोतल से बाहर जन सैलाब की तरह बह आया।
दारु ने ऐसा रंग दिखलाया कि वे हारते- हारते रातों-रात चुनाव जीतने की स्थिति में आ गए।
इस लोकतांत्रिक व्यवस्था से नौसिखिया रविया एकबारगी राजनीति का भयंकर पंडित बनकर उभरा।
कारण
राजधानी के सबसे बडे अस्पताल में गहमागहमी थी। सब दौडते -भागते नजर आ रहे थे। जनता भी भागमभाग में व्यस्त थी अपने बेटे का इलाज कराने गए अन्य शहर के वाशिंदे मुकेश ने भागा-दौडी में व्यस्त एक उजली टोपी को पकडा, पूछा-
‘भाई, इतनी भीड-भाड? क्या बात है? कहीं कोई भयंकर वारदात, दुर्घटना? या सामूहिक हत्या के कारण मौतें हुईं हैं क्या?
‘नहीं भई, ऐसा कुछ नहीं हुआ है। ईश्वर की कृपा से आज तो कोई दुर्घटना या कोई वारदात नहीं हुई है।`
‘तब यह भीड़…? इतनी अफरा-तफरी क्यों?
‘आज एक बड़े नेता अस्पताल के गहन चिकित्सा कक्ष में इलाज के लिए आनेवाले हैं..`
‘ आने…. वा….ले हॅं …या ?….. क्या हुआ? हार्ट अटैक ?`
‘ नहीं।`
‘ लकवा मारा? `
‘ नहीं।`
‘ ब्रेन हैमरेज हुआ क्या?`
‘ नहीं भाई, नहीं।`
‘ तो?`
‘ उनके नाम गिरफ्तारी का वारंट निकला है।`
तभी एम्बुलेंस आकर गेट पर लगी। उनके स्वागत के लिए छुटभैये नेतागण बाहर भागे।
मौत पर्व
– अरे ! तुम यहॉं ? तुम्हें वहॉं नहीं जाना? सब भाई-बंधु जा रहे हैं।
-कहॉं जाने की बात कर रहे हो?
– भारत और कहॉं,
– अभी भारत जाकर क्या करुँगा, अभी तो यहीं मौज है भईया!, भरपूर खाना-पीना, मौज करना और क्या चाहिए हमें…नहीं यहॉं बहुत मजे में हूँ।
-अरे भाई समझते क्यों नही, वहॉं अभी त्योहार का माहौल है। मैं तो चला। – इतना कहते ही उसने अपने पॅंख फड़फड़ाए। परों को तौलने लगा।
-चलना है तो साथ चले चलो। खूब- खूब खाने को मिलेगा। यहॉं जितना नजर आ रहा हे, उससे बहुत-बहुत ज्यादा। चारों ओर लाश ही लाश ! छक कर खाओ कोई रोकने- टोकनेवाला नहीं।
आखिर वहॉं है क्या?- उसने भी पॅंखों को फड़फड़ाया, परों को तौला।
– मौत पर्व है और क्या. चले चलो जल्दी… नहीं तो….
– मौत पर्व? ये क्या होता है?
– इतना भी नहीं समझते! बुद्धू कहीं के!…वहॉं चुनाव होनेवाला है। .-उस गिद्व ने दूसरे की चिता छोडकर एकाएक भारत की ओर उड़ना प्रारंभ कर दिया।
कई उंघते हुए बैठे गिद्धों की ऑंखें झट से खुल गईं। सबने परों को फड़फड़ाया., चोंच को तेज किया और उड़ चले पूर्व की ओर।
अनीता रश्मि
जन्म-25 अप्रैल 1958, राँची, झारखंड।
शिक्षा-बी.एस.सी, राँची महिला विद्यालय से।
हिन्दी की साहित्यकार। कई पुष्तकों की रचयिता । सृजन की शुरुआत कविता से। दो उपन्यास, दो कहानी संग्रह, एक लघुकथा संग्रह प्रकाशित। अस्सी के दशक में लघुकथा लिखना प्रारंभ किया। पहला उपन्यास 19-20 वर्ष में लिखा।
कहानियों व पुष्तकों पर पुरस्कार भी मिले। दोनों उपन्यास प्रकाशन से पूर्व ही पुरस्कृत। उत्कृष्ट लेखन के लिए स्पेनिन, राँची का प्रथम गौरव सम्मान प्राप्त। राजभाषा विभाग, बिहार सरकार से भी पुरस्कृत।
हंस के बहुचर्चित विशेषांक ‘ सत्ता विमर्श और दलित ‘ तथा ज्ञानोदय, वागार्थ, कथाक्रम और कुरुक्षेत्र व युद्धरत आदमी में प्रकाशित कहानियाँ काफी चर्चित।
कहानियों का तेलगू, मलयालम में अनुवाद।
संप्रतिः लेखनरत और नए कहानी संग्रह व लघुकथा संग्रह पर कार्य।
संपर्कः 401, ए ब्लॉक, समृद्धि, चौबे बगान, अनंतपुर,
रॉंची, झारखण्ड , पिन – 834002
9431701893. ई. मेलः anitarashmi@rediffmail.com