प्यार इस तरह करना
जैसे कुछ भी न रहे तुम्हारे पास
गोपनीय
इस तरह कि तुम
जाओगे नहीं कभी भी
छोड़ कर
नहीं पहुंचाओगे कभी भी
चोट
जैसे पहुंचाती रहती है दुनिया
मत रहना तुम कभी देनदार
किसी इकलौती
तक़लीफ़देह
चीज़ के भी।
अनुमान मत लगाओे, पूछ लो।
विनम्र बनो।
बोल दिया करो सच-सच।
मत कहो कुछ भी ऐसा
जिस पर रह न सको अडिग पूरी तरह।
बचा कर रखना
हर हाल में अपना ईमान।
बता दिया करो लोगों को
जो कुछ भी महसूस करते हो तुम।
दुखी हरगिज़ नहीं हूं मैं,
लेकिन वे लड़के
जो तलाश में रहते हैं
दुखी लड़कियों की
हमेशा ढूंढ ही लेते हैं मुझको।
लड़की नहीं हूं अब मैं बिल्कुल भी
और दुखी तो हरगिज़ नहीं हूं मैं।
तुम देखना चाहते हो मुझे
एक कारुणिक पृष्ठभूमि के साथ
ताकि स्वयं दिखायी दे सको
रोशन और प्रबुद्ध,
और देखने वाले कह सकें कि
‘वाह, क्या वह हद से ज़्यादा दिलेर नहीं है
कि प्यार करता है एक ऐसी लड़की से
जो साफ़ तौर पर इस क़दर दुखी है?‘
तुम सोचते हो कि बन जाऊंगी मैं
रात का अंधियाला आसमान
ताकि बन सको एक सितारा तुम?
मैं निगल जाऊंगी तुम्हें पूरा का पूरा।
हद में रहो,
मेरी हथेली की, मेरी परछाईं की,
मत करो कोशिश बड़े बनने की
मेरी उस सोच से जो तुम्हारे बारे में है,
मत बनना उससे अधिक सुंदर
जितना कि स्वीकार कर सकूं मैं,
उतना ही मानवीय होने की सोचना
जितने की अनुमति देने के लिये राज़ी रहूं मैं
और चुप रहा करो,
बहुत तेज़ बोलते हो तुम,
तुम्हारा अनस्तित्व तक भरा है कोलाहल से।
लगाम दो अपने सपनों को,
अपनी आवाज़ को, अपने बालों को,
अपनी त्वचा को विश्राम दो,
विश्राम दो अपने विस्थापन को,
लगाम लगाओ अपनी लालसा, अपने रंगों पर,
रोक लो अपने कदमों को, अपनी आंखों को भी।
किसने कहा कि तुम घूर सकते हो मुझे लगातार इस तरह?
किसने कहा कि जी सकते हो तुम बग़ैर अनुमति के?
तुम क्यों हो यहां पर अब भी?
शर्म से गड़ क्यों नहीं जा रहे हो तुम?
मैं सोचती हूं अक्सर तुम्हारे बारे में।
तुम कांप उठते हो।
तुम टहलने लग जाते हो कमरे के भीतर
और बदलने लगता है तापमान।
मैं झुक जाती हूं और क़रीब-क़रीब
स्वीकार कर लेती हूं तुम्हें
एक इन्सान के तौर पर।
किन्तु, नहीं।
हमारे आसपास तो बचा ही नहीं है वह।
हर एक मुख जिसे कभी चूमा होगा तुमने
सिर्फ़ एक अभ्यास था
वे तमाम जिस्म जिनसे कपड़े उतारे होंगे तुमने
और चलाया होगा जिनमें हल
वे सब तैयारियां भर थीं तुम्हारी मेरे लिये।
मुझे नहीं लगता बुरा उन्हें चखने में
यादों में तुम्हारे मुख की
वे बस एक लंबा गलियारा थे
एक दरवाज़ा अधखुला-सा
अकेला सूटकेस पड़ा है अब भी कन्वेयर बेल्ट पर
क्या यह एक लंबी यात्रा थी?
क्या मुझे ढूंढने में तुम्हें लंबा वक़्त लगा?
अब तुम यहां पर हो,
तुम्हारा स्वागत है घर में
(अंग्रेज़ी से अनुवाद– राजेश चन्द्र, 2 मार्च, 2019)
रंगकर्मी, कवि, समीक्षक और संपादक,
समकालीन रंगमंच।
विगत 25 वर्षों से रंगकर्म, कविता, रंग-समीक्षा, अनुवाद और संपादन के क्षेत्र में निरंतर सक्रिय। जल, जगल, ज़मीन और संस्कृति से जुड़े विभिन्न जनान्दोलनों से जुड़ाव। तीन मंच और कई नुक्कड़ नाटकों का लेखन। नाटकों के देश भर में प्रदर्शन।
सम्प्रति: स्वतंत्र लेखन और अनुवाद।
सम्पर्क- rajchandr@gmail.com
मो.- 9871223317