मंथनः परिभाषाः शैल अग्रवाल


आँखेः

एक निजी समझ – कोई जोड़ नहीं असलियत से। वही देखती हैं जो मन चाहे। …

प्यारः

मन के अंधेरों में दबा नन्हा बीज – जो रोशनी में आते ही, फलते-फूलते ही, नजर पड़ते ही टूटेगा; रूपरंग और स्वाद के लिए तो कभी बस यूँ ही कौतूहल या फिर ईर्षावश्। …


रिश्तेः
कच्चे घागे, जो खूंटे से बांध देते हैं, कभी प्यारवश तो कभी कर्तव्यवश। और फिर हम इन्हें आदत मान खुशी-खुशी जिन्दगी गुजार सकते हैं।

मनः (1)

पंक्षी नहीं , पर गलत होगा कहना कि उड़ता नहीं। असलियत तो यह है कि उड़ना आता ही नहीं इसे; स्वप्न के पंखों को भी तो आखिर साहस का आकाश चाहिए। ….

मनः (2 )

कबाड़ाना- प्रिय अप्रिय यादें मीत और शत्रुओं की, टूटे फूटे अहसास और अन्तहीन खट्टी-मीठी बातों की संचित निधिः जो खो चुका, खोएगा या फिर खोना निश्चित, उसे ही सहेजने और संभालने की बेवजह जिद पर जिद।…

प्रेम में (1)

हरा-भरा पेड़ और लहक-लहक लतिका एक दूसरे के साथ, एक दूसरे में गुंथे-बिंधे।
‘ कहाँ हो तुम?’ स्नेह से उमग रहा था पेड़।
‘ वहीं, जहाँ हमेशा रहती हूँ ! ‘ निछावर थी लतिका उस पर ।
’ यानी कि मेरे हृदय में?’ विभोर पेड़ ने मीठी चुटकी ली ।
शर्मीली ‘हाँ’ सुनकर तो झूम ही उठा वह। हुलस हुलस टहनियों ने आकाश सिर पर उठा लिया।
नेह की महक से बगिया गमकने लगी।
आतुर हो फिर बोला- ‘ आओ, ठीक से महसूस नहीं कर पा रहा हूँ तुम्हें। दूर क्यों, समेट लो खुद में । ‘
इसके पहले कि वह कुछ जबाव दे खुद ही बोला-‘ देखो, यह कहकर मत टाल देना कि साथ और पास ही तो हैं हम। ’ झूठ तो नहीं था पर वह भी।
‘पर जब पास नहीं , हृदय में नहीं तो अब और क्या ? ’
बुझा-बुझा-सा निश्वास निकला लतिका का।
पल भर में ही मुर्झा गई वह और रो-रोकर गिरा दिए सारे पत्ते पेड़ ने भी ।

प्रेम में (2)

‘ मेरे पास आओ, सहज कर दो मुझे। उर्जा दो अपनी स्निग्ध हरियाली की, आकाश मचलता रहा ।

‘ अलग कहाँ, जुड़े तो हैं हम। महसूस करो उस क्षितिज रेखा को, अलग नहीं धरती- आकाश! ‘
तसल्ली देनी चाही धरती ने।

‘ झूठ सब झूठ। एक भ्रम एक छलावा मात्र है यह।‘

अपनी ही आंच में पिघलता आकश…हताश् सपनों का ताप…निराश धुँआ था अब उसकी आंखों में- और उसकी अकुलाहट धरती के अंतस की हर उठती गिरती उर्मि में।

झिलमिल झिलमिल चमकते रहे आंसू तब नभ पर। हठीली उच्छवासों की ओस भिगोती रही धरती के भावकुसुमों को रातभर।

आंदोलित, आलोड़ित, पर सारे ज्वार-भाटों को समेटे-दबाए थिर ही रही धरती । क्योंकि नदी नहीं समंदर थी वह अब, अपनी ही मर्यादा में बंधी-थमी।

‘ नारी हो या पृथ्वी अंततः शिला ही तो हैं दोनों।‘ एक आह फिसली उसके बंद होठों से और नियति बन गई उसकी।

शैल अग्रवाल

error: Content is protected !!