कविता आज और अभीः सितंबर-अक्तूबर 19

सुहानी घड़ी

चिड़िया वो चमन में रहती थी
खुशखुश मिलजुल के सबसे
गाती और चहकती थी
सुख-दुख ,संगी-साथी और
चमन की हरियाली उसकी अपनी थी
आँखों में कई प्यार भरे सपने थे
हर नीड़ में हर चोंच के तिनके थे।

उड़ता- उडता बाज़ वहां पर आया
चिड़िया को उसने खूब बर्गलाया
बात-बात पर इतना क्यो इतराती है
डाली-डाली पे चहक-चहककर गाती है

चमन तेरा है पर यह कहां है
हंसता तुझ पर सारा जहां है
बावली ओ चिड़िया, देख
तेरा तो यह वृक्ष तक नहीं
जिस पर तू आराम से बैठी है
कितने और पक्षियों ने, जान
यहाँ पर घोंसला बनाया है
तेरे ही घर में आकर
अपना डेरा जमाया है
पहले वृक्ष तो अपना कर
आने वाले कल से जरा तो डर
अन्य पक्षियों को यहां से भगा
डाली-डाली से इनके घोंसले गिरा

चिड़िया तो थी बस्स् चिड़िया
छोटे सिर, बड़ी चोंच वाली चिड़िया
लग गई पक्षी-पक्षी को उड़ाने में
नफरत की आग फैलाने में
यह डाली, यह वृक्ष तो मेरे
बस एक यही धुन सवार थी
कर नहीं सकती थी अब वह
किसी और को सहन
मेरा ही रहेगा, मेरा ही है
पूरा-का पूरा यह चमन

चिड़िया को नहीं था कहीं आराम
जीना कर दिया सबका ही हराम
मार मारकर चोंच पक्षियों को ही नहीं
खुद को भी किया उसने अब लहूलुहान
सबके ही बाप-दादा पुरखों की जमीं थी वो
खून पसीने से सबके ही ये सिंची थी वो
उड़े नहीं पक्षी वहां से कहीं
क्रोध और आवेश के थे सब शिकार
जान लेने और देने को हो गए तैयार

देखते-देखते शांति और समृद्धि
हो गई वहां की भंग
खुशहाल चमन में छिड़ गई जंग
पूरा ही चमन अब सुलग रहा था
चप्पा-चप्पा इसका झुलस रहा था

कैसा कब्जा, किसका कब्जा
पक्षी थे सब घायल
पक्षी थे सब हैरान
कहां से आया, कब आया
कैसे आया यह तूफान
लहूलुहान जमीं को यूँ
बाज ने देखा तो फड़फड़ाया
उसपर एक खुमारी चढ़ी थी
दावत की ये सुहानी घड़ी थी….

-शैल अग्रवाल

दुनिया की चिन्ता

छोटी सी दुनिया
बड़े-बड़े इलाके
हर इलाके के
बड़े-बड़े लड़ाके
हर लड़ाके की
बड़ी-बड़ी बन्दूकें
हर बन्दूक के बड़े-बड़े धड़ाके

सबको दुनिया की चिन्ता
सबसे दुनिया को चिन्ता।
कुंवर नरायण


‘उन्हें भी बोलने दो ‘

लगता है अजीव सा
जब चाहता है कोई कुछ कहना
अपने मन की बात
खौलते हैं शब्द
मुंह की केतली में
बोलते हैं चेहरे
मगर वे नहीं कह पाते हैं कुछ,
इसीलिए कहता हूं, कि
बोलने दो उन्हें
मत रोको
हक है बोलने का
उन्हें बोलने दो
कई बार
वे चाहते हैं चीखना पर
बढ़ती जाती है शरीर की हरारात
बिखर जाती है
अजीब सी मानसिक उथल पुथल
चेहरे पर
और उड़ने लगते हैं रंग
बिखरती हैं भावनाएं और
खिचने लगती हैं बेतरतीब लकीरें चेहरों पर
क्योंकि लगीं हैं पाबंदियां
कुछ भी कहने पर
हो चुके हैं सारे अहसास सराबोर
घुटन से,
इसीलिए कहता हूं कि
हक है उनको भी बोलने का
उन्हें भी बोलने दो
कई बार चाहा कुछ कहूं
कुछ करूं,
घुटन को दूं आकार
और करूं कोशिश बदलाव की
मगर जकड़ लिए ज़मीन ने पैर
सिमट गए सोच अंधेरे में
पिघल जाती हैं आंखें
तन जाती हैं मुट्ठियां साजिशों के ख़िलाफ़
खींचता हुआ पैरों को
खड़ा होता हूं
अंधेरे के ख़िलाफ़
हर उस साज़िश के ख़िलाफ़
रोकती है जो आवाज़ उठाने से
चीख़ता हूं पूरी ताक़त से
भर देता हूं पिघली चीखों को कानों में
जिनके शब्द अधमरे हैं
नहीं पहुंचते जिनके पास दूसरों के शब्द
अब वे सुनते हैं
उनको सुनना पड़ेगा
न चाहते हुए भी, क्योंकि
सुन कर अनसुना करना भी नहीं होता है उचित
क्योंकि मैं कह रहा हूं लगातार, कि
बोलने दो, मत रोको उन्हें
हक है उनको बोलने का, कुछ कहने का
पहचानो
समय के रुख़ को
लोगों के जज्बातों को
मौसम के मिजाज को
हवाओं के तेवरों को,
इसलिए
समय रहते उन्हें दे दो हक़ बोलने का
यही होगा बेहतर, कि
उन्हें भी बोलने दो।

# पंकज मिश्र “अटल ”
रोशन गंज, कुमरा गली, शाहजहांपुर,
उ ० प्र०, भारत , 242001

रोको,
बहुत ज्यादा बोल रहे हैं लोग
न भावनाओं की कद्र न सिद्धान्तों की
एक दूसरे को डराते धमकाते
मानवता से फिसल रहे हैं लोग
पर इसका यह अर्थ भी नहीं
कि हम राम और बुद्ध के वंशज
बहक जाएँ, इनके जैसे हो जाएँ
स्वर्ग से सुंदर धरती पर
लगी है जो आग दशकों से
उठता धुँआ दिखता अब दूर से
भूखे-प्यासे जाने कबसे
भटक रहे हैं लोग…
शैल अग्रवाल

एक ऐसी सुबह फिर मिले।
धूप गेंदे की मानिंद खिले ।

ओस-भीगी हुई प्रात हो
इंद्रधनु से सजा हो गगन।
चाय की प्यालियों से उठी
खुशबुओं में नहाया हो मन

खेलती खिड़कियों से किरन
एक बच्चे की मानिंद मिले।

सर्दियों की नरम धूप में
इक नहाई हुई नज़्म हो
चिट्ठियां बांचते हो अधर
और दिल की खुली बज़्म हो

हों अदब के सुखनवर जहॉं
गीत-ग़ज़लों के हों सिलसिले।

हो नदी का किनारा कोई
औ फिजां में ऋचाएं उगें
मंदिरों में बजें घंटियां
मस्जिदों से अजानें उठें

गुनगुनाता हो कोई सबद
प्रार्थनाओं के मंडप तले।
————–
ओम निश्चल

।। ईद मुबारक ।।

ईद मुबारक कहते हुए काँप रहे हैं मेरे होंठ
मैं नहीं जानता उम्र बढ़ने के साथ-साथ
क्यों बढ़ रही है मेरे मन में सामाजिक असुरक्षा।

भारत आज़ाद था जब मैं पैदा हुआ
मेरे घर से अगला दरवाज़ा अफज़ल महमूद साहब का था
उन्होंने ही मुझे देवनागरी में ग़ालिब, मीर और दाग़ पढ़वाया
एक छोटी-सी क़ुरआन शरीफ भी दी
जो आज तक मेरे पूजा-घर में सुरक्षित है।

हर ईद और दीपावली पर ढ़ह जाती थी
हमारे आँगन के बीच की दीवार
सबसे ज़्यादा सेवियाँ सरदार बलवंत सिंह खाता था
और सबसे कम मेरे पिता।

मैं न हिन्दु था, न मुसलमान, न सिख, न ईसाई
एक बालक था
जिसकी ज़रूरतें खाने-पीने और खेलने तक सीमित थीं।
तब मेरे लिए या रहमान के लिए
ईद मुबारक या दीपावली की शुभकामनाएं
खुशी का इज़हार करने वाले शब्द थे
इसके सिवाय किसी अर्थ की
न हमें ज़रूरत थी न हम जानते थे।

अब रहमान हैदराबाद में है
कल चाँद दिखने के बाद
मैंने उसे पहली बार फोन नहीं किया।

रात भर बेचैन रहा
सुबह नींद लगी ही थी
कि लैंडलाइन किसी जंगी जहाज –सा दहाड़ा,
चौंक कर उठा तो उधर रहमान था,
रात भाभी ने बताया था कि तुम्हें वायरल फीवर है
जल्दी सो गए थे अब ठीक हो न ?
अपना ख्याल रखना…ईद मुबारक!

मुझे सचमुच बुखार ने जकड़ लिया है
ऐसे बुखार ने जिसमें राजनीति के वायरस हैं।

मेरी आँखों से बह रहे आँसू शायद इस कलुष को धो पाएं।

ईद मुबारक कहते हुए काँप रहे हैं मेरे होंठ
दोस्तो, ईद-मुबारक।

—- राजेश्वर वशिष्ठ

तनी हुयी मुट्ठियाँ मेरी तरफ
चढी हुयी त्यौरियां मेरी तरफ
वरदान बन गयीं ।

प्रहारों ने सिखाया मुझे लडना
एक दिन लडते लडते
मैं बन गयी योद्धा
अब मिट्टी में संदे मेरे पांव
बहुत मजबूती से जमे रहते हैं ।

दलदल में
मैं धंसती नहीं
लहूलुहान मन गीत लिखता है
आँखे रूदन भूल
सपने देखती हैं
नित नवीन ।

आत्मा अनुभव करती है
चिर उल्लास का
सोचती हूँ
कितना महत्वपूर्ण है
शत्रुओं का होना ।
रचना शर्मा

बहनें हमेशा हार जाती है
की खुश हो जाओ तुम
जबकि उन्हें पता है जीत सकती हैं वो भी

अजीब होती है… बड़ी हो जाती है तुमसे पहले
अपने फ्रॉक से पोछ देती है तुम्हारे पानी का गिलास
तुम पढ़ रहे हो ..भींग जाता है तुम्हारा हाथ
पन्ने चिपक जाते हैं

तुम कितनी भी रात घर वापस आओ
ये जागती मिलती हैं
दबे पाँव रखती है तुम्हारा खाना
तुम्हारे बिस्तर पर डाल देती हैं आज का धुला चादर
इशारे से बताती हैं ..अम्मा पूछ रही थी तुम्हें
काहे जल्दी नही आ जाते ..परेशान रहते हैं सब

बहनें तुम्हारी जासूस होती हैं ..बड़ी प्यारी एजेंट भी
माँ भी ..की इनकी गोद में सर धरे सुस्ता लो पल भर

बहनें तुम्हारे आँगन की तुलसी होती हैं
तुम्हारे क्यारी का मोंगरा
बड़े गेट के पास वाली रातरानी
आँगन के उपेक्षित मुंडेर की चिड़िया होती है भैया
पुराने दाने चुगते हुए तुम्हारे नए घरों का आशीष देती हैं

हमारी आँखों के कोर पर ठहरे रहते हो तुम
हम जतन से रखती हैं तुम्हें

बहनें ऐसी ही होती हैं ….
शैलजा पाठक

नहीं
जानती कौन हूँ मैं …

रुदाली या विदूषक ,
मृत्यु का उत्सव मनाती ,
बुत की तरह शून्य में ताकते लोगों में संवेदना जगाती
इस संवेदन शून्य संसार में मुझी से कायम होगा संवाद
भाषा की पारखी दुनिया में मैं तो केवल
भाव की भूखी हूँ …..
फिर फिर कैसे संवाद शून्य संवेदन में भर दूं स्पंदन .
….डॉ सुधा उपाध्याय

सुनो पेड़ बचे रहना
सूखने कटने के बाद भी
जड़ों में
जड़ें खुदने के बाद भी
मिट्टी में
मिट्टी बहने के बाद भी
पानी में
पानी खत्म होने के बाद भी
प्यास में
प्यासे के मरने के बाद भी
रूह में
रूहानी चीजें कभी खत्म नहीं होती
मित्र, ईश्वर ,पिता, माँ
रहते हैं तुममें
प्राणवायु देते हैं
वरना खत्म हो जाएंगे हम
डॉ पुष्पलता मुजफ्फरनगर

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