“संग जिएंगे मरेंगे”
सुमन की जिद छत्तीस वर्षीय एन आर आई बेटे वासव के विवाह की।
हर वीकेंड पर फोन ” तुम्हारी शादी करके जिम्मेदारी से मुक्त हो हरि भजन करू”।
“मम्मी भी पीछै पड़ी है । बार-बार एक ही रट .उससे कैसे कहूं , टूट जाएगी ”
” अच्छा बता इंडिया कब आने का प्रोग्राम है”
” जल्दी ही मम्मी … दीवाली पर छुट्टी सैंक्शन हो जाए तो बताता हूं”।
सुमन तो जैसे उतावली बैठी थी …बेटे की उम्र निकली जा रही थी … इकलौता बेटा.. पिता सपना देखते-देखते कैंसर में दुनिया से विदा हो गये ..
वासव का विवाह कर निश्चिंत होना चाहती थी ।
पेपर में विज्ञापन दे दिया । डाक्टर इंजीनियर साइंटिस्ट, प्रोफेसर एक लंबी फेहरिस्त।
आठ लड़कियों की लिस्ट बना ली उसने और होटल में लड़की लड़के का मिलने मिलाने का कार्यक्रम भी तय…. आखिर बेटे को सरप्राइज जोदेना था ।
नियत तिथि पर वासव इंडिया आता है।
सुमन नै लिस्ट थमा दी।
देखते ही” मम्मी मैंने कहा था कि मैं बताऊंगा”।
सुमन का सुर कुछ ऊंचा–“बताता क्यों नहीं….कोई लड़की पसंद है क्या”?
“नहीं , ये सब बहुत पढी लिखीहै”।
सुमनके नाक की बात थी”।
सेंतीस साल की डाक्टर लड़की पर उंगली रख दी। “देखकर मना कर दूंगा “।
होटल क्वालिटी में दोनों का आमना सामना ”
” क्यूं न हम दोनों साफ साफ बात करें”
वासव-“शादी कैवल मां की खुशी के लिए …. मैं खुद शादीनही करना चाहता”।
“लड़की –” दैट्स राइट ओ के”
इंपोटेंट ,”।
वासव — “नो नो बिल्कुल नहीं ”
लड़की –“व्हाई , फूल बना रहे हो”।
हकलाहट –“मै.. मैं मैं एच आई वी पाज़िटिव ”
लड़की ठहाका मारकर हंस पड़ी
“मजाक बना रही हो.. यूं आर थिंकिंग अदरवाइज। रांग”
” नो नो चलेगा”
“मैं भी मैं भी” कुर्सी के खिसकने की आवाज…
हाथ मिलाते हैं संग संग जिएंगे मरैगे”
टूटी दीवार
वाहिद मियां नहीं रहे…जुम्मे की नमाज के बाद..नमाजे जनाजा..अरेएए..
फ्लैशबैक में घूम गया पूरा मंजर…सुबह तो चाय पी थी उसकी गुमटी पर। चाय बिस्कुट बेचता था।
कालेज आते-जाते रोज उसको देखता भी था।
करीब पचास वर्षीय, खिचड़ी बाल, करीने से कटी दाढ़ी…सूफियाना रूहानी अंदाज में गुनगुनाता था
साफसुथरे कपड़े, सिरपर टोपी…
अवस्थी पार्क से घूम कर लौटते हुए बुजुर्गवार
कुल्हड़ की चाय और बतियाने का मज़ा वहीं लेते थे। मैं भी शामिल था उसमें … बकौल वाहिद मियां-“वो संसार में अकेले थे… पता नहीं कहां गुम हुए। निपट अकेलेखिलावनबाबा ने उन्हें अपने साथरख लिया औरमस्जिद के बाहर झोपड़ी डाल ली थी……..
मुसलमान जानकर वाहिद नाम उनका ही दिया हुआ है….. बाबा ने मौलवी से तालीम दिलवाई,
रोज जामा मस्जिद मेराजाना उनको अच्छा लगता था….बाबा कुछ समय बाद चल बसे….आज मैं पचास साल का हूं”
बाबा को याद करते उनकीआंखों की नमी छुपी नहीं रहती थी
वाहिद मियां बहुत अच्छे इंसान थे। झोपड़ी में गणपति और बाबा की फोटो पर रोज फूल चढ़ाते थे। सुबह से शाम तक बहुत से रिश्ते जुड़ जाते थे..अनोखे .. इंसानियत के ..
चच्चा ,भैया, अब्बा, दीदी , बड़ी बी…।मेरे भी अज़ीज़ बन गयेथे.. मज़हब की दीवारें लांघ कर…
उष्मा का वह कतरा जिसने जज्बातों को पनाह दी..सच इबादत से रूबरू कराया।जिगर का टुकड़ा, आंखों का तारा…मुहावरें आज हो गये हैं आस्तीन के सांप….।
बहुत कुछ कह गया वाहिद किरदार… किरदार नहीं व्यक्ति चरित्र…
पसरे सन्नाटे में जनाजा कब्रिस्तान की ओर.. साथमे सर झुकाए हिंदू मुस्लिम सिख इसाई….।
तीन गुणे तीन
चिंतित मानसी… अष्टमी का दिन ….नवरात्रि का उपवास.
करोना का समय…क्या करे..
कोई अपनी कन्या को भेजेगा ही नहीं… विवाह के पहले से उपवास और कन्या भोज कराती आई है।
हलुआ पूड़ी बनाई …मायूस सी निगाहें… बगिया से फूल तोड़ते हुए घूंघट में एक महिला.।
तेज आवाज में” ए सुनो ओओ!
” ना ना मैं चोर नहीं हूं (घिघियाती है) कल फूल नांय तोडिहंऊं मंदिरवा बंद …अबहिन निकसी हूं ।कुछ फूल बेचहंऊ कुछ पइसन …बिटिया का खाय का खातिर दुई जून की रोटी जुड़ाय जइहैं। काल्ह तो पनिया गटक कै सोय रहीं..।”
“कितनी बिटिया है तुम्हारी?”
“दुइ जुडिया छोट पांच बरस”।
“और आस पास”।
“कउनऔ नांहिं”।
पूड़ी हलवा लाती है । “तीन गुणे तीन बराबर नौ देवियां ”
‘” ये लो”।
कल से रोज फूल तोड़ ले जाना।
तर्जनी
पुरानी सी डायरी । उंगली की रंग बिरंगी छाप । सलिल पेज पलटता गया ।लगभग आधी डायरी में उंगली कि मोहर, कहीं आंटा कहीं सिंदूर लाल रंग कहीं पीले रंग की हल्दी ….अज्ञात आशंकाएं…. वार्डरोब के लाकर में संजोकर रखी हतप्रभ ….तंत्र साधना, काला जादू… कुछ हिसाब …दिमाग फ्यूज होने लगा।
गुस्से से सारे वार्डरोब का सामान फेंकने लगा ।
आवाज देता है” सुमी सुमी जल्दी आओ सुन नहीं रही हो, पता है तुम्हें एक हफ्ते बाद ड्यूटी पर जाना है। मेरी भूरी वाली फाइल कहां है?थक गया हूं ढूंढ ढूंढ कर…
इसी नीचे वाले खाने में रखी थी ।पर्सनल फाइल थी । मर्चेटनेवी से ऊबकर कहीं प्राइवेट फर्म में अप्लाई करनाहै ।”
” येलो डायरी ठीक से देखते नहीं हो सर पर घर उठा लेते हो लगता है समुद्र परछह महीने रहने पर सारे ज्वार भाटे तुम्हारे अंदर भी उठने लगे हैं।”
” और तुम तो यहां बैठी हुई जाने कितने जादू टोने करती हो … पांच साल की बिचारी मायरा को भी मैं देख रहा हूं गुमसुम सी रहती हे ।”
“अरे वो आपको बस मिस करती है पेरेंट्स मीटिंग में मैं अकेली जाती हूं उसे अच्छा नहीं लगता है ,… बार बार कहती हैं पापा इतने ज्यादा दिनों बाद क्यों आते हैं ।”
” और तुमको फुर्सत मिले तब न उसे समझाओ । ”
” तुम कैसी बात कर रहे हो? मैं उस साइक्लोजिकली ट्रीट करती हूं आपकी पत्नी साइक्लोजी में एम फिल है।”
डायरी पटकते हुए ” तभी ऐसी हरकतें करती हो ।”
” तभी मैं सोचूं आज नाक पर मक्खी कहां से आकर बैठ गई
डार्लिंग पूछ लेते ना । ये देखो ये उंगली , जानते हो ये है तर्जनी … कान्वेंट में पढ़ें हो .. क्या जानो।”
” सीधी बात करो ये मोहर कैसी है लाल पीली सफेद ।”
” मिस्टर विराम तो ये बात है । जब किसी की कोई बात अच्छी नहीं लगे मां जी की, पापा जी की .बस तुरंत तर्जनी को दिखाते हुए गीली सी आटेकी उंगली से एक छाप लगा दी। तर्जनी माने तज दिया भूल गयी.. फिर खुश ।
“नेहिल गृह”
शुभदिन उद्घाटन का । सभी रिश्तेदारों को आवागमन…सुबह से चहल-पहल कस्बेनुमा जगह में” सद्भाव धर्मशाला ” में ठहराने का इंतजाम। घर फूलों की सजावट से महमहा रहा था । डॉ कुमार सलिल और पत्नी डॉ सुमति सिन्हा का क्लीनिक अब आवास और नर्सिंग होम में तब्दील हो रहा था। दोनों शनिवार को गरीबों और बेसहारा को नि:शुल्क देखते । मसीहा बन गये थे । डाक्टर दम्पत्ति ने पिता ज्ञान प्रकाश और मां लता कुमारी को घर और परिवार का प्रबंधन सौंप दिया था और उनके बड़े शोरूम से मुक्ति दिला उसे विधवा बहन के बेटे को सस्नेह दे दिया।
कस्बे के बड़े छोटे काफीलोग आमंत्रित थे ….सुबह गरीब बच्चों को मां पिता ने फल बांटे ।द्वार परपूजन हवन के बाद भोज शुरू होगया । रात्रि में विधायक कस्बे के अधिकारी और कयी डाक्टर उपस्थित थे ।आवास और नर्सिंग होम मद्धिम झालर से जगमगा रहा था । डाक्टर दम्पत्ति सबके स्वागत में और ऊंची कुर्सी में उनके माता-पिताऔर डाक्टर दम्पत्ति सबसे उनका परिचय करवा रहे थे ।
“डाक्टर साहब! बड़ा खूबसूरत आर्कीटेक्ट है ।इतनी कम उम्र में आपने बड़ी उन्नति की ।जितना सुन्दर आपका मकान उतना सुंदर दिल ।”
” जी ये मेरे मां पापा का नेहिल गृह है । इसमें हमसब सपरिवार रहेंगे और सबकी सेवा करेंगे ।”
“आइए पापा मां पहले आप दोनों इस पट्टिका का अनावरण करेंगे।”
तालियों की गड़गड़ाहट
श्वेत संगमरमर की पट्टिका
” ज्ञानलता नेहगृह”
डॉ कुमार सलिल
डॉ सुमति सिन्हा
“मां पापा नेहगृह में पहले आपके चरण ..
रंजना सिन्हा सैराहा
बांदा उ.प्र. भारत
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*मुक्तिदाता*
“सुना तुमने! सतपाल पूरा हो लिया।”
घर में घुसते ही उसने पत्नी को संबोधित करते हुए कहा।
“हैंss…!”
पत्नी जरा अचंभित हुई। फिर बोली, ” टाँग टूटने के बाद तो अपने पैर चल ही न पाया वह, बेचारा!”
“बमुश्किल खुद को घसीटता-सा हमारे दरवाजे तक ले आता था। कितनी ही बार मैनें घर रखी दवा उसको माँगने पर दी। जो भी गोलियाँ पड़ी होती थी तो दे देती थी। न होती तब ही मना करती।”
बड़ी भाभी ने खुद के बड़प्पन का बखान किया।
“कितनी ही बार दस-दस रुपए दिए मैनें उसे। बीड़ी पीने के भी पैसे नहीं होते थे उसके पास। कम से कम बीड़ियों के लिए तो उसे मैं पैसे दे ही देता था।”
बड़े भाई ने भी अपनी दयालुता और दानी स्वभाव उज़ागर किया।
“तंगहाली में उसके बच्चों के पेट सूतली हुए जाते हैं, उसके लिए तो खाना भी कहाँ मयस्सर था। तड़प ही रहा था। अच्छा हुआ उसे मुक्ति मिली।”
भाभी ने गहरी सांस ली।
“सही कहा।”
बड़े भाई ने समर्थन किया।
उसके मुख से अनायास बोल फूटे, “धन्य हैं।”
सभी एक स्वर में पूछने लगे, “कौन?”
उसने हाथ जोड़ कर कहा, “ऐसे सब मुक्तिदाता।”
©सतविन्द्र कुमार राणा ‘बाल’
करनाल, हरियाणा।
परदा
आज मन बहुत प्रसन्न था मेरा। हो भी क्यों नहीं आज उनसे मिलने जा रही थी जिनकी कहानियों से हौसला मिला मुझे।मेरे जीवन को दिशा उनके शब्दों ने ही थी।
कब से मिलना चाह रही थी उनसे लेकिन कोई नहीं जानता था उनका असली नाम और पहचान।पर मुझे तो जैसे जनून था उनके दर्शन करने का।पूरे एक साल की मेहनत के बाद यह दिन आया था।रास्ते से सफेद गुलाब लिए।उनकी कहानियों में अक्सर इनका ही जिक्र ज्यादा है तो पसंद तो होंगे ही।ऑटो से उतर कर सीढियां चढने लगी।एक एक सीढी मुझे सौ सीढियों के बराबर लग रही थी।इतने सारे फ्लैट्स में से किसी एक फ्लैट में उनका बसेरा है।पता नहीं कैसा लगेगा उन्हें अपनी इस पागल दिवानी प्रशंसिका से मिल कर!यूँ बिना बताए किसी के घर जाना शिष्टाचार तो नहीं है पर वह मेरे लिए अनजान नहीं।मेरी मार्गदर्शक है।उस समय संभाला जब मरने के लिए तैयार थी मैं।उनके शब्दों ने जैसे मुझमें उत्साह भर दिया।अभी तो तीन मंजिल तक ही पहुंची हूँ बस अब वह मेरे करीब होंगी।सोच कर रोमांचित महसूस हो रहा था।अभी कुछ सीढियां बाकी थी कि कुछ चिल्लाने की आवाजें सुनाई देने लगी।मैं उस आवाज के नजदीक पहुंचती जा रही थी।
फ्लैट नंबर तेरह…..कमीनी…. फ्लैट नंबर….. चौदह……..जुबान पर ताले लग गए तेरे…….. तुझे ही बोल रहा हूँ…..पंद्रह……
….नीच…औरत….फोन..पर किसके साथ लगी रहती है रात दिन…..सोलह…..रण्डी…….. सोलह……”यहाँ तो….!!कहीं गलत ऐड्रेस पर तो नहीं आ गई मैं!”गालियों और चिल्लाने की आवाज बढती जा रही थी।मैंने दोबारा पर्स से पते वाला कागज निकाला,”डी,सोलह”पता तो सही था।पर यहाँ… ये सब…तभी… एक आवाज आई..”सिर्फ एक ही सहारा है मेरे जीवन का,मेरे जीने की वजह ,मेरा लेखन।वरना मर गई होती अब तक।क्यों ऐसे इल्जाम देते हो मुझे।”तो…तो..इसका मतलब…मेरा सर चक्कराने लगा।दीवार से सर टिकाए मैं खड़ी हो गई।मेरी हिम्मत टूट गई थी… चिल्ला कर रोने का मन हुआ।पर जैसे दिमाग सुन्न हो गया।
अब तक जिन्हें एक आयरन लेड़ी की तरह मानती आई वे भी खुद को झूठे परदे में छिपाए थी।कुछ देर में अंदर शांति छा गई।मन किया भाग जाऊं और रहने दूँ इस परदे को यूँही पड़ा।
पर हाथों ने पता नहीं क्यों दरवाजा खटखटा दिया।
कुछ देर बाद वह मेरे सामने खड़ी थी।सौम्य सरल सी,चेहरे पर एक मुस्कुराहट लिए।आश्चर्य से मुझे देखने लगी।
“किससे मिलना है बेटा?”उन्होंने पूछा।आवाज में एक वात्सल्य था।
मैंने तुरंत उनके पाँव छूए और कहा”आपसे।”कहकर वह गुलाब मैंने उनके पैरों के पास रख दिए।
“लेकिन मैंने पहचाना नहीं आपको!कौन हो आप?”वह आश्चर्यचकित हो मुझे देख रही थी।
“हिम्मत!”इतना कह कर मैं तेजी से सीढियां उतरने लगी।उनके उस पर्दे को हटाने का हौसला मुझमें न था जो कितनो की जिंदगी संवार रहा था।
दुर्लभ प्रजाति
“सुनो जरा! मैने सुना है कि एक लड़की देखी गई है शहर में, शादी के लायक।”
“अच्छा!कहाँ सुना?”
“न्यूज में दिखा रहे थे। कड़ी सुरक्षा के बीच रहती है।”
“हम्म …..! लेकिन शायद अमीर लोग पहले ही अपने बेटे के लिए बुकिंग करवा चुके होंगे। हम इतना पैसा कैसे खर्च कर सकते हैं?”
“अगर हमारी पीढी लड़कियों के साथ इतनी दरिंदगी न करती तो शायद हम विलुप्तप्राय न होती।अब हम तो बूढ़ा गई हैं।बच्चे नहीं जन सकतीं। मुझे लगता है अब मानव जाति खतरे में आ गई है। तीस साल में एक लड़की दिखी!”
“चिंता की बात तो है, लेकिन वैज्ञानिक इसका उपाय खोज रहे हैं।प्रयोगशाला में भ्रूण बनाया जा रहा है लेकिन लड़की का भ्रुण विकसित नहीं हो पा रहा हालांकि प्रयास जारी है।”
“ इतने तकनीकी विकास के बाद भी हम महिलाओं का भ्रुण नहीं बन पा रहे! लगता है ईश्वरीय श्राप लग गया है।शायद अब वे बच्चियों को इस धरती पर नहीं आने देना चाहते।”
“ हम्म ! तुम सही कह रही हो लेकिन हम कर भी क्या सकते हैं,सिवाय अपने बेटे के लिए रोबोट गर्ल लाने के ।उसकी ‘जरूरत’ उससे पूरी हो जायेगी।”
“….और संतान?”
“प्रयोगशाला में….।”
फास्ट ग्रोथ
सुधीर ने सब्जियों में वह इंजेक्शन लगाया और बेफिक्र होकर फसल पर नजर डाली।आँखों में मुनाफे की चमक आ गई।
सूरज लगभग डूब चुका था। वह आराम से घर की ओर चल पड़ा।
पगडंडियों से होता हुआ वह सड़क पर आ गया।कुछ दूर ही चला होगा कि उसकी नजर अपने चौदह वर्षीय बेटे पर पड़ी जो पेड़ की ओट में दो लड़को के साथ खड़ा था।
सुधीर उत्सुकता से उस ओर बढ़ चला और झाड़ी के पीछे खड़ा हो उन्हें देखना लगा।
तीनों घेरा बनाकर मोबाइल में नजरे गड़ाए थे।
” सच में यार मजा आ गया।”एक आवाज उसके कानों से टकराई।
“देखने में इतना मजा नहीं आता जितना करने में आयेगा।”एक कश खींच कर उसका बेटा उन लड़कों से बोला।
“तो सुन!एक बार करके भी देखते हैं।तू कुछ जुगाड़ कर।”एक लड़कें ने कहा और तीनों हँसने लगे।
सुधीर, बेटे के मुँह में सिगरेट देख गुस्से से आगे बढ़ा और झट से मोबाइल छीन लिया।
मोबाइल स्क्रीन पर चलती हुई पोर्न फिल्म को देखकर उसके कदम लड़खड़ा गए।
“चटाक … चटाक …..”
“बेशर्म!ये गंद देखने के लिए फोन माँगा था तूने?”आगबबूला हो वह चिल्लाया।
“तो!क्या हो गया पापा?मेरे दोस्त भी देखते हैं।”बेटे ने जवाब दिया।
मुँह से आती सिगरेट और शराब की गंध ने उसके गुस्से को और बढ़ा दिया।
“बाप को जवाब देगा!शर्म नहीं तूझे?घर चल तू।”
उसकी बाँह पकड़ वह घसीटते हुए बोला।
“बापू!आराम से।बच्चा नहीं हूँ मैं,बड़ा हो गया हूँ।जा नहीं आता घर।”सुधीर के हाथ को झटक कर बेटे ने कहा और एक ओर भाग गया।
खेत में मौजूद सब्जियों का आकार बदलना शुरू हो गया और वह फास्ट ग्रोथ लेनी लगी।
अवगुंठन
“एक निरापराध पत्नी का त्याग!यह कैसा पाप किया राम?यह क्या कर दिया तुमनें राम।”अंधकार में एक आवाज गूंज उठी।उस आवाज की ध्वनि के रोष से भवन के द्वार पर लगे परदे जोर से हिलने लगे।
“उत्तर दो राम!क्या अपराध था उस स्त्री का जो ऐसा कठोर दण्ड उसके भाग्य आया?आवाज और कठोर हो गई।
राम ने आँखों से अपनी बाँहों को हटा कर देखा तो सामने एक स्त्री की आकृति खड़ी थी।
“आप कौन है देवी?”राम ने कहा।
“यह प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं कि मैं कौन हूँ।महत्वपूर्ण है आपका उत्तर!मेरे प्रश्न का उत्तर दीजिए, सीते के साथ यह पाश्विकता क्यों?”वह.आक्रोश के साथ बोली।
“मैं विवश था।मुझे क्षमा करें देवी।”हाथ जोड़कर राम ने कहा और अपने हृदय को मुठ्ठी में भींच लिया।
“विवश..हुँह…. पुरूष की कैसी विवशता!वह तो सर्वश्रेष्ठ और स्त्री का भाग्य विधाता है।वह प्रेम और दण्ड स्वइच्छानुसार स्त्री को भेंट करता रहता है।”वह आकृति क्रोध में बोली।
“आप सही कहती हैं देवी।पुरूष अपनी इच्छानुसार स्त्री को प्रेम देता है।परंतु यह इच्छा स्त्री के द्वारा ही पुरूष को अधिकार से भेंट स्वरूप दी गई है।”
“आह्…..एक पुरूष के हृदय की पीड़ा!”भूमि पर बैठ गए राम।
“हृदय!!पुरूष के पास हृदय नहीं होता।यदि होता तो हृदयहीन होकर अपनी पत्नी का परित्याग न करता।”
“निष्ठुर हो राम बहुत निष्ठुर ..।”इतना कह वह आकृति रोने लगी।
“हाँ मैं निष्ठुर ही हूँ ……एक निष्ठुर मनुष्य ही अपनी को पत्नी समाज के नश्तरों से बचाने के लिए सारे कलंक अपने माथे ले लेता है।”
“सीता की अग्निपरीक्षा ली ताकि कोई भी उसकी पवित्रता पर प्रश्न न कर सके और एक संकुचित मानसिकता का कलंक अपने माथे लिया।”
“सीते को त्याग दिया ताकि वह सभी के व्यंग भरे नेत्रों से दूर रहे।वह वन में सुख नहीं भोगेगी लेकिन सम्मानित रहेगी।”
मैंने तो सीते के सम्मान के लिए यह वियोग अपना लिया।”
“यह शाब्दिक भ्रमजाल है हम स्त्रियों के लिए।”वह आकृति पुनः क्रोध से बोली।
“हाँ यह भ्रमजाल ही है परंतु शाब्दिक नहीं भावात्मक……अब न वर्तमान और न ही भविष्य में सीते से कोई प्रश्न होगा।क्योंकि सभी प्रश्नों का उत्तरदायित्व मुझपर होगा और एक पत्नी के साथ दुर्व्यवहार का कलंक भी।”
राम के शब्दों को सुनकर वह स्थिर हो गई।
“ओह……. यह स्त्रीमन यह पक्ष क्यों न देख सका!”इतना कह वह आकृति अदृश्य हो गई।
“कैसे देखता…. पुरूष सदैव अपनी पीड़ा एक आवरण में छिपाए रखता है।”पीडित स्वर गुंजा जो राम के हृदय से आया।
संतुलन
आँख देखो तुम्हें कुछ दिख रहा है?”कान ने कहा।
“क्या?”
“अरे देखो तो! मुझे कुछ शोर सुनाई दे रहा है।” कान ने पुनः कहा।
“मुझे कुछ नहीं दिख रहा है।” आँख ने लापरवाह सा उत्तर दिया।
“लेकिन मुझे कुछ गंध आ रही है कुछ कैरोसिन जैसी! अरे अब कुछ जलने की बू भी आने लगी।” नाक परेशान हो बोली।
“लगातार चीत्कार की आवाज सुनाई दे रही है। क्या हो रहा है आँख देखो तो?” कान परेशान हो उठा।
“उफ्फ, हे भगवान!कोई रोको इन्हें वरना वह मर जायेगी।”कुछ देखकर आँख व्याकुल हो गई।
“वह जल गई पूरी तरह……..शायद मर गई। कोई नहीं था रोकने वाला………।”
“काश तुम पहले देख लेती तो शायद यह मंजर न होता। यह दुर्गंध मुझे नहीं आती।” नाक विलाप करने लगी।”
“कैसे देखती? मेरे ऊपर मष्तिष्क का नियंत्रण है।” आँख ने नमी समेट कर कहा।
“हाँ नियंत्रण! हम नियंत्रित ही तो हैं। मात्र कठपुतली।” 9अब तक खामोश मुँह निराश हो बोला।
आग की तपिश त्वचा ने महसूस की और सब शांत हो गए।
सिलौटा
कुछ घरड़ घरड़ की आवाज सुनकर रजत की नींद खुल गई।मोबाइल उठा कर देखा तो रात का एक बज रहा था।
आवाज आँगन से आ रही थी।
आवाज चिरपरिचित सी लगी।वह ध्यान से सुनने लगा।ऐसा लग रहा था जैसे कोई मसाला पीस रहा हो।
“मसाला!”इतना कहकर रजत तेजी से आंगन की ओर दौड पड़ा।
आँगन में हल्की रोशनी आ रही थी।गमलों के पास कोई बैठा हुआ था।ध्यान से देखा तो रजत की माँ वहां पर थी और कुछ बड़बड़ा रही थी।
आज इतने सालों बाद उसनें माँ को सिलौटे के पास बैठे देखा।
वर्षों से दबी वह धुंधली यादें फिर रजत के सामने चलचित्र सी चलने लगी।
अपने पिता का गुसैल चेहरा और माँ की हिरणी सी सहमी निगाहें।यही तो देखता था वह अक्सर।
पिता के सामने आते ही वह माँ के आँचल में छिप जाता।
माँ अक्सर सिल पर कुछ पीसती रहती… कुछ ..कुछ बड़बडाती रहती।
उसे दिखाई देते थे चोट के निशान जो कभी माँ के चेहरे कभी कलाई पर लगे होते।
थोडा बड़ा होने पर वह समझने लगा था कि वह तब ऐसा करती है जब उसके पिताजी माँ को…….. पीड़ा महसूस हुई उसे।
माँ अपने दर्द को मसाले के साथ रगड़ कर पीस देती थी।
एक दिन कोई दूसरी औरत पिता के साथ आई और माँ को कमरे से निकाल दिया।
उस दिन माँ पहली बार चिल्लाई और घर से निकल गई।
दो चीजें उसके साथ थी। एक रजत और एक सिलौटा।
वह आज तक नहीं जान पाया कि उसके पिता का व्यवहार माँ के साथ इतना निर्दयी क्यों था।
आवाजे और तेज होने लगी।
“माँ,क्या हुआ! इस तरह यहाँ क्यों बैठी हो?” माँ के कंधे पर हाथ रखकर उसने कहा।
पलटकर माँ ने देखा और तेजी से बट्टा चलाने लगी।
दाँतों को भींचते हुए वह आँखों के पानी को रोकने की कोशिश कर रही थी।
“माँ..कुछ तो कहो। हुआ क्या है?”रजत ने उनके दोनों हाथों को पकड़कर कहा।
“ओ…हाँ….हाँ…हुआ है।”माँ ने हकलाते हुए कहा।
“क्या हुआ माँ? बताओ मुझे।” रजत ने माँ को पूछा।
“वो…वो तुझे बुला रहा है… वो….।” वह बोली।
“कौन बुला रहा है। हुआ क्या है बताओ तो!” रजत ने माँ के कंधों को हिलाकर कहा।
“वो…..तेरे पिता… फोन आया था… अंतिम इच्छा….मुखाग्नि..वे नहीं रहे…वे नहीं रहे रजत…तेरे हाथों से मुखाग्नि दी जाए ऐसी इच्छा करके।” रजत के सीने पर हाथ रख वह दहाड़े मारकर रो पडी।
रजत के पैर जैसे जम गए। वह चुपचाप माँ को रोता देखता रहा।
“वो …मर गए..।” माँ लगातार विलाप कर रही थी।
रजत ने एक बार माँ की तरफ देखा और सिलौटा उठाकर जोर से पटक दिया।
“हो गया अंतिम संस्कार माँ तेरे दुखों का।”
दिव्या राकेश शर्मा
गुरुग्राम, हरियाणा
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कालजयी
आज क़लम और कागज़ के बीच बहस छिड़ गई । कलम अपने भावों के पुरुषत्व को कायम रखते हुए अपने आपको श्रेष्ठ प्रदर्शित करते हुए। कागज़ से बोला-‘मैं तुम्हारा भाग्य हूँ,और तुम भोग की वस्तु।’ ‘मैं तुम्हें किसी भी रूप में उपभोग करूँ, तुम्हारी नियति केवल मेरी, नोक के नीचे दब कर मेरी मर्जी अनुसार अपने पलक पावड़े बिछाए रखना है।’ मैं तुम्हारा भाग्यविधाता हूँ।’
‘मैं पुरुष और तुम प्रकृति हो।’ ‘मेरा हस्ताक्षर तुम्हारा वजूद तुम्हारी पहचान होगा।’
कागज़ तिलमिलाते हुवे बोला-‘तुम प्रकृति के विधान को नहीं बदल सकते, तुम्हारी प्रकृति भी प्रकृति ही है, पुरुष नहीं। क़लम तुम ‘मुझसे ही आरम्भ होकर मुझमें ही विलीन होने वाली हो। तुम नश्वर हो। और ‘मैं तुम्हारे भाव का बोझ लेकर भी अमृतत्व को प्राप्त हो जाऊँगा।’ तुम्हारे भाव कभी तुम्हें एक सा रहने नहीं देते। विचलित मन से कभी आल्हादित,तो कभी उदास हो जाते हो। न्यायालय में भी किसी का सर कलम करते हुवे तुम्हें स्वयमेव काल कवलित होना पड़ता है।’ पर मैं अपने सीने में सब कुछ दफन कर समभाव से, प्रेम,उत्साह व वेदना सभी को स्थान देता हूँ।
कागज उद्विग्न मन से बोला- ‘तुम्हारी भली बुरी भावाभिव्यक्ति का दण्ड भी मैं सहन करता हूँ। फिर भी अनादि काल से, मैं ही किसी न किसी रूप में विद्यमान हूँ।
दोनों ने मिल कर दवात के रंग रूप पर भी जाने क्या क्या टीक टिप्पणी से शब्द प्रहार किये।
दवात टेबल पर बैठे-बैठे अपना मुँह खोले बिना, क़लम के खोखले रूप, व कागज के कोरे स्वरूप को देखकर मंद मंद मुस्कुरा रही थी।
बहस से अनजान, लेखक ने क़लम के खालीपन को रोशनाई की ताकत से लबरेज़ कर कागज़ के कोरेपन को अपने भावों से भरकर तीनों के अस्तित्व को कालजयी कर दिया ।
“तेवर के परिणाम”
वह अपनी बेटी से बेइंतहा महोब्बत करता था। इतना की उनके बीच पत्नी को भी कोई महत्व नहीं देता था। और बेटी का यही हाल अपनी माँ के लिए था। निहुति माँ से एक पल अलग नहीं होना चाहती थी। तीनों के बीच रिस्तों का एक मजबूत ताना-बाना गुँथा हुआ था। बिटियां बड़ी नाजों से पली, बड़ी होकर घर से कोसों दूर पढ़ने चली गयी। पिता ने बेटी के जाने के बाद समय की रिक्तता को भरने के लिए समाज सेवा, व राजनीतिक मेवा का हाथ थाम लिया। आध्यत्मिकता का जुनून भी सर चढ़ का कर बोल रहा था। लोगों के जीवन में शांति के संदेश देने में कभी पीछे नहीं हटते। माँ अकेलेपन से घूँट घूँट कर असाध्य रोग की शिकार ही गई। और दुनिया को अलविदा कह दिया। पिता ने बेटी की भावनाओं का ख्याल रखने के बहाने आपने जीवन की रिक्तता को पुनः पूर्ण कर लिया। जीवन के अटूट रिस्तों की रिक्तता बेटी के हिस्से में आ गई। लेकिन घर में बेटी के लिए जगह सिमट गई थी। और उसकी माँ की तो सारी स्मृतियाँ ही विलुप्त प्रायः हो गई थी। सारी तस्वीरे दीवारों से नदारत, नामो निशान तक न था ड्राइंग रूम में माँ का।
यह देख बेटी का तेवर चौथे आसमान पर चढ़ गया था। पिता समझाते रहे। बेटी तेरे लिए नया बंगला लिया है। हम शीघ्र ही तुम्हारी माँ की संपूर्ण यादों के साथ वहाँ सुख से रहेंगे।
नहीं पापा, मैं माँ की यादों के साथ इसी घर में रहूँगी। जिसे जाना हो जाए। निहुति की सौतेली माँ और बेटी के मध्य का धमासान ने पिता को हिलाकर रख दिया।
बेटी कहती रही, “इस कुलटा, चुड़ैल को घर से निकालो, इसका क्या काम है?”
पत्नी कहती इसे कॉलेज भेज दिया। इसे होस्टल भेजो इसका यहॉ क्या काम है?
तेवर इतने कि कोई किसी की सुनने को तैयार नहीं, आखिर पति, एक पिता ने तेवर में अपनी लीला समाप्त कर ली। अब दोनों के तेवर ठंडे पड़ गए थे।
हवा का रुख
आग उगलते सूरज संताप से राहत की सांस ली भी न थी, कि तूफान आ धमका। परिंदों का एक जोड़ा बड़ी लंबी उड़ान भरकर सुरक्षित स्थान की तलाश में चला जा रहा था।
परिंदा अपनी प्रेयसी को लगातार हिम्मत दे रहा था । जीवन की इस ‘उफनती नदी को पार कर लो बस ।’ उसके बाद हमें कोई खतरा नहीं, सीमा के उस पार आसरा मिल ही जाएगा।’
लेकिन हवा का रुख कहाँ उनके वश में था।
प्रेयसी बहुत थक चुकी थी। वह लड़खड़ाने लगी।
परिंदे ने उससे मन की बातें करना शुरु की और उत्साह भर कर नदी पार करवाने में सफल रहा। किनारे लगे पेड़ पर प्रेयसी के अचेतन अवस्था में आते-आते पहुँच ही गई। सीमाओं का बंधन तोड़ अनजान परिवेश में अपनी प्रेयसी को वहां छोड़ वह भोजन आदि की तलाश में तूफानों को चीरता हुआ निकल पड़ा। पर कौन जनता था। तूफान तो उसकी जिंदगी में आने वाला था।
तूफानी तेवर का परिणाम यह हुआ कि वह पेड़ उखड़कर धराशाही हो गया। जिस पर परिंदे की प्रेयसी अचेत पड़ी थी।
शिकारी कुत्ते उसे नोचने के लिए ढूंढ रहे थे। और वह इस हलचल से होश संभाल कोटर की ओट में छुप कर परिंदे का इंतजार करने लगी थी।
संकेत के रूप में एक-एक पंख बिखराती और सुरक्षित हो जाती है ।। परिंदा प्रेयसी को धराशाही पेड़ की टहनियों में न पाकर बिखरी पंखुड़ियों को देख उदास हो गया। प्रेयसी के पंख पखेरू उड़ा जानकर वह आकाश के ऊपर उड़ान भर बादलों में ढूंढने लगा था।
परिंदों का घर बिखर गया था। जबकि परिंदे की प्रेयसी उसे संकेत के देने लिए, अपने पंख उखाड़ कर अपनी उपस्थिति का संकेत दे रही थी।
तूफान थमने तक परिंदा वापस अपनी सीमाओं में लौट गया था।
उस पार परिंदे ने नया घर पुनः बसा लिया था ।
उसे दर्द यह था, परिंदे ने तूफान थमने का इंतजार तो किया होता।
उसके जीवन की उड़ान अभी बाकी थी,जो अब बिना पंख असंभव हो गई । नदी पार टकटकी लगाये प्रेयसी शिकारी बेड़ियों में मध्य, बिना पंखों के एकांत का अकेलापन झेल रही थी।
“माँ के सूत्र”
रत्नेश बार बार ऊंचाइयों से फिसल कर नीचे की ओर चला जाता है, फिर आगे बढ़ने का प्रयास करता। उसकी इस मशक्कत में पर्वतारोहियों का सोलह लोगों का एक दल उसे देख रहा था। सभी एक दूसरे की मदद से मिशन एवरेस्ट को पूर्ण करने में लगे थे। आज बेस कैंप का रात्रि विश्राम यहीं होना था। बेस कैंप मे 15 नौजवान आज रत्नेश जी की हंसी उड़ा रहे थे। किसी ने कहा- यह केवल हिमालयीन पहाड़ी शेरपा के बच्चों की हिम्मत कर्म और जीत का स्थान है। तुम जैसे गर्म मध्य भूमि के और नदी के घाटों में निवास करने वाले लोगों के बस की बात नहीं। मेरी मानो तो कैंप छोड़कर चले जाओ । और जोरदार ठहाका पूरे कैंप में गूंजने लगा। फिर किसी ने पीछे से कहां एवरेस्ट के सपने भूलकर सतपुड़ा की पहाड़ियां ही चढ़ जाना तुम्हारे लिए यही बहुत है। फिर एक जोरदार ठहाका !!! कैंप के टेंट के बाहर तक सुनाई दिया। जिसने रत्नेश के चेहरे पर उदासी छा गई। रत्नेश के मन में बचपन से है एवरेस्ट मिशन को छूने का जो सपना फलीभूत हो रहा है, उस पर ग्रहण सा लगने लगा था। वह खाना भी न खा सका। आज भूखा ही सोने की कोशिश कर रहा था। किंतु बैचेन मन सोने भी नहीं दे रहा था। उसे अचानक मन में मां के बताएं वह सूत्र याद आ गए जिसमें मां कहती थी -’बेटा जन्म देने वाली भूमि यदि माता है, तो पालने वाला देश पिता के समान होता है। और दोनों का महत्व बराबर है’ इसलिए कभी पिता के काम से भी पीछे मत हटना ।’ मां के इस वाक्य ने रत्नेश के मन में ऐसा उत्साह भर दिया कि वह मां के विश्वास की गंध लेकर उसी समय बेस केंप से बाहर निकला और ट्रैकिंग सूट के साथ पर्वतारोहण आरंभ कर दिया ।
प्रातः काल कैंप से दल ने जब पर्वतारोहण की तैयारियां शुरू की , तो रत्नेश को न देख कर एक जोरदार ठहाका और लगा। साला कैंप छोड़कर भाग गया। दल रवाना होने वाला था कि नेपाल भूकंप सेंटर की सूचना से दल की आगे की यात्रा को स्थगित कर दिया और रत्नेश काफी ऊंचाई पर पहुंच चुका था। उससे कोई संपर्क नहीं हो पा रहा था। सभी उसके घर पहुंचने की सूचना का इंतजार कर रहे थे , तभी भूकंप मापी यंत्र और अनेक सूचना सुरक्षा और स्थानीय यात्री सैलानियों केपों की ट्रैकिंग करने वाले उपकरणों पर एक सिग्नल मिला जिसमें रत्नेश ने भूकम्प तूफान और हिमस्खलन के मध्य बड़े जोश हिम्मत और विश्वास के साथ अपने आप को सुरक्षित कर एवरेस्ट पर तिरंगा झंडा गाड़ दिया था। 16 में से मात्र चंद लोग उसे वापसी लाये। अब ठहाके वालो के चेहरे उदास और । फतेह मिशन एवरेस्ट की गूँज मध्यप्रदेश के सतना तक ही नहीं पूरे देश में गूँज रही थी।
पाठशाला
माँ मंदिर की सीढ़ी पर बेटी का इंतजार करते करते, बेटी की एक झलक से खुशी के आँसू लिए अतीत में खो गई।
माँ,”मैं आगे भी पाठशाला जाना चाहती हूँ।”
”बेटी 5 वीं तो गांव की पाठशाला से कर ही ली है। वैसे भी अपने परिवार में छोरियों में तु ही सबसे ज्यादा पढ़ ली हो!’ “छोरियों को पढ़ाने का रिवाज़ नी हे, हमारे कुल में।”
बच्ची हे-बच्ची भी बिन बाप की हे, तेरी जिद्द करी तो, जाने दो के चक्कर में ! ‘
‘आज यहाँ तक पढ़ी ली। ”
‘आगे तो मैं नी पढ़वाने वढ़वाने वाळी।’ छोरी घर को काम-धन्धों सीख ले।’ ससुराल मS काम आवेगों। पढ़ाई में कई फायदों नी हे।
“माँ, ‘मुझे पास के गाँव वाली स्कूल में पढ़ने जाना ही है,” “वहाँ सायकल भी मिलेगी।” “खाना रोटी पानी भी मिलेगा।’ मुझे जाने दो ना माँ! पढ़ना मेरा सपना है।”
नई छोरी, थारो बाप जिंदा होतो तो,बात अलग थी।
वह मन मसोज कर रह गई।
पाठशाला के सपने उसके चूर होते देखकर, वह गाँव की ही स्कूल जाकर, शिक्षकों से अक्सर आगे पढ़ने की योजना तरीके स्थान व अवसर की स्कूल में गुरुजन से चर्चा करती रहती थी।
एक दिन वह घर लौटने की बजाय घर छोड़ कर चली गई। जैसा वह अक्सर आगे पढ़ने की योजना व नये तरीकों का ताना बना बुनती थी। माँ के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। हवाओं के रुख बदल गये।
कुलक्षणी बेटी की अभागी माँ का खिताब लिये, माँ भी कुटुम्भ से परे मंदिर की सीढ़ी पर नये आसरे व बेटी के इंतजार में समय गुजर रही थी।
आज माँ जर्जर अवस्था में भिखारिन अवस्था में गांव के मंदिर में लगी सार्वजनिक टीवी में देखा, उसकी बेटी किसी पाठशाला की प्राचार्य होकर बच्चों को गरीब बस्ती से बालिका ब्रिज कोर्स के लिए बालिकाओं को एकत्र कर रही थी। बेटी शब्द केवल उसके हलक से निकल पाया। और अचेतन हो गई।