सिहरन
न जाने कितनी बार भरी हौसलों की उड़ान भरी कल्पना में शिखा ने, वास्तविक रूप से उड़ना संभव न हुआ. उस कबूतरी को देखा तो मानो उसके पंख उग आये जो छज्जे पर सुस्त सी बैठी थी. कई कबूतरों ने आ कर उसे रिझाने की कोशिश की पर वह न पसीजी क्योंकि उसका जोड़ीदार कबूतर बाल्कनी में ए.सी. के तारों में उलझा निर्जीव शरीर बन चुका था. कबूतरी के हृदय में आशा के तार सजीव थे क्योंकि हवा के झोंके से जीवन साथी के सिहरने से उसके जीवित होने का भ्रम पाले बैठी थी.
फिर कबूतरी का अचानक उड़ जाना एक ओर उसे भ्रमित कर गया, उम्मीद की किरण भी जगा गया मन में. देखा तो किसी ने बाल्कनी में ए .सी.की सफ़ाई कर दी थी और कबूतर का निर्जीव शरीर वहाँ नहीं था.
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उन्मत विचारों का एक तेज झोंका आया और उड़ा ले गया शिखा को सात समुन्दर पार, उसके पति सत्येन्द्र के पास प्यार की एक नयी दुनिया बसाने, जिसकी सुर्ख़ रंगत को वह अपने मन में बसी, पूर्व प्रेमी राज के शोक की स्याह धुंध में अपना न सकी थी.
सत्येन्द्र जानता था कि सुबह का भूला शाम को वापस आ ही जाता है क्योंकि वह स्वयं ऐसे संबंधों के रिश्ते की आग में जल चुका था. उसे प्रतीक्षा थी बस, शिखा के लौट आने की.
प्रणय
प्रणय दिवस पर अनुषा कुछ ज्यादा ही दार्शनिक हो गई. उधर टी.वी.स्क्रीन पर विवाहित जोड़ों के पुन:प्रणय निवेदन, इधर मन के स्क्रीन का सूनापन.उनकी चुहलबाजी और आपस में प्रेम की अदायें उसके हृदय को झकझोरने लगीं. ऐसा लग रहा था मानो उन जोड़ों का आपस में कभी मनमुटाव हुआ ही न हुआ हो.कैसे लिपट-लिपट कर प्यार जता रहे थे?
‘उँह! क्या ऐसा संभव है? दो अलग तरह के संस्कारों में पले-बढ़े विभिन्न स्वभाव के नर-मादा, आदम और हव्वा तो हो नहीं सकते. जिन्होंने प्रेम का सेब खाया था कभी, तभी विश्व में आदमजाद की उत्पत्ति हुई.पर उसके जीवन में तो प्रेम का सेब कभी उपजा ही नहीं.’
तभी उसके लैपटॉप का अधकटा सेब उसे मुँह चिढ़ाता सा लगा, मानो कह रहा हो, “अनुषा तुम्हारा यह रोबीला,भावहीन कठोर सा चेहरा तुम्हारे व्यक्तिव से नीरसता झलकाता है तो मैं कटा सेब तुम्हारे जीवन में आऊँ भी तो कैसे?”
अपना चेहरा दर्पण देखा तो वह भी बोल पड़ा, “ज़रा अपने चेहरे पर ज़ुल्फ़ें लहरा दो तो कोई बात बने.”
भला निर्जीव चीजें भी कभी बोलती हैं?
यह तो उसकी अन्तरात्मा बोल रही थी.अपनी माँ के प्रति पिता के कठोर हिंसात्मक व्यवहार ने उसे शायद बचपन से ही पुरुषों से नफ़रत करना सिखा दिया था तो दिल में प्रेम का दिया जलता भी कैसे?
विचारों की तन्द्रा टूटते ही माँ के चेहरे और हाथों पर जलने और मार के ज़ख़्मों के निशान मानो उसके शरीर पर उभरने लगे जहाँ प्रणय का नामोनिशान तक न था.
शील निगम
मुंबई
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हैप्पी न्यू ईयर
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“हर साल तो आ जाता है नया साल……. क्या बदल जाता है……..सब वैसा ही तो रहता है।” वह अनमनी सी सोच रही थी । कोई उमंग नहीं थी । फ़िर सोचने लगी,”ये सब तो अमीरों के चोंचले हैं । ग़रीबों से पूछो…….जो दिन रात खाने-कमाने की जुगाड़ में ही लगे रहते हैं……क्या वे कुछ जानते भी होंगे कि क्या होता है नया साल…….! उसकी निराशा दूर न हुई। बच्चों और उनके पापा ने खूब एन्जॉय किया पर वह ऐसी ही बनी रही….अन्यमनस्क सी ।
सुबह सबसे पहले उसकी कामवाली आयी……’मेमसाब हैप्पी न्यू ईयर।”शारदा ने घुसते ही उसे विश किया । उसे आश्चर्य हुआ……”ये लोग भी नया साल मनाते हैं !” “अरे मेमसाब बच्चों ने डेक लगा लिया था। खूब डांस किया सबने।”शारदा चहक-चहक कर बता रही थी ।फिर पड़ोसन,दूधवाले,अखबारवाले,सफाईवाले…….जो मिला सबने उसे “हैप्पी न्यू ईयर” बोला ।
उसकी अन्यमनस्कता दूर हो चुकी थी । लगा दुनिया बदल गई है । लोग जीवन के हर पल का आनंद लेना चाहते हैं न कि खुशियों के मौकों को यूँ ही गँवा देना ।अब वह भी नए साल के स्वागत को तैयार हो चुकी थी ।
सोच का दायरा
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स्टेशन आ गया कोई लेने नहीं आया!और तो और किसी ने फ़ोन करके भी नहीं पूछा! मारे गुस्से के निखिल का दिमाग भन्ना रहा था । कितना करता है सबके लिये……..!इतनी दूर से ट्रेन से आ रहा है और कोई यह तक नहीं पूछ रहा कि आ गया कि नहीं……लेने आ जाँय या नहीं…..!पत्नी सुनीता पर उसे बहुत गुस्सा आया ……वैसे तो गाड़ी लेकर शहर भर में घूमती रहेगी………और आज जब वह लंबी ट्रेन की यात्रा कर घर आ रहा है तो पूछ भी नहीं सकती कि स्टेशन लेने आ जाऊं या नहीं….!सब मतलब के हैं….!पैसे के भूखे,बस उसकी कमाई पर ऐश करना चाहते हैं…….बच्चे भी अपनी माँ पर ही गये हैं।गुस्से से भुनभुनाता हुआ निखिल ऑटो करके घर पहुँचा तो पता चला कि सुनीता अचानक सीढ़ियों से फिसल गयी थी……..बेटा समीर उसे डॉक्टर के पास लेके गया हुआ था……..पैर में फ्रेक्चर हो गया था। इतने समय में ही निखिल ने अपने परिवार के बारे में न जाने क्या-क्या सोच डाला………!
उलझन
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शादी के दस साल बीत जाने पर भी कोई औलाद न होने का दुःख रश्मि को भीतर ही भीतर खाए जाता था । पति संजीव अक्सर अनाथालय से कोई बच्चा गोद लेने की सलाह देते । रश्मि कभी तैयार न होती । उसे वितृष्णा होती , “पता नहीं किस का खून होगा वह बच्चा ! कैसी माँ होगी उसकी ! नाजायज़ होगा तो…….!इन्हीं उलझनों में उलझी रश्मि बच्चा गोद लेने को तैयार न होती ।
पेड़ पौधों का उसे शौक था । अपने घर की कच्ची ज़मीन पर तरह-तरह के पौधे लगाती रहती । 2 वर्ष पहले एक बीज़ बोया था जो आज बड़ा होकर लहलहा रहा था । रश्मि को अपने लगाए बीज़ को एक पौधे से वृक्ष के रूप में बढ़ते देख असीम संतुष्टि का एहसास होता । एक दिन दोनों अपने वृक्ष को देख रहे थे । संजीव कह रहे थे, ” रश्मि क्या तुम जानती हो कि जो बीज़ तुमने लगाया था वो कहाँ से आया था और कौन से पेड़ की संतति था ? नहीं……! पर आज यह हमारे घर की शोभा है…..। ……….फिर हमें यह जान कर क्या करना कि इसका बीज़ कहाँ से आया था . ……कौन से पेड़ से उत्पन्न हुआ था ! रश्मि को अपनी उलझन का ज़वाब मिल गया था । अब वह अनाथालय से बच्चा गोद लेने को तैयार थी ।
चोर
“मेरे बीस हज़ार रुपये खो रहे हैं । आखिर कहाँ चले जाएँगे । तू ही आती है इस घर में तो कोई और कैसे ले सकता है।” सोनम बुरी तरह से अपनी कामवाली सुनीता पर चिल्ला रही थीं ।
“मैंने तो कोई रुपये देखे ही नहीं तो चोरी कहाँ से करूँगी ।” सुनीता रो-रो कर कह रही थी । पर सोनम तो पुलिस को बुलाने पर आमादा थी । पाँच साल से घर का सारा काम-काज संभाल रही सुनीता में आज उसे चोर के सिवाय कुछ नज़र नहीं आ रहा था । आख़िर पति अमित के कहने पर, उसके छोटे-छोटे बच्चों पर तरस दिखाकर,बाकी के पैसे काटकर सुनीता को काम से निकाल दिया गया।
सुनीता को हटाने के कई दिन बाद एक दिन अलमारी में कपड़ों की तह के बीच रखे रुपये मिल गए । सोनम ने ख़ुद ही जल्दी-जल्दी में कपड़ों के बीच दबा कर रख दिये थे। मेहनत करके गुज़र-बसर कर रही,अपने बच्चे पाल रही एक स्त्री को सारी कॉलोनी में चोर बनाकर, उसके काम छुड़वाकर सोनम अब अपनी ग़लती को चुपचाप दबाकर बैठ गयी ।
अंतिम इच्छा
तेरह-चौदह बरस की उम्र में विवाह हो गया था रामश्री का । मायके के गाँव से ससुराल के गाँव आ गयी । सब घर-परिवार,देवर-जेठ, देवरानियों-जेठानियों, बाल-बच्चों के बीच ऐसी रम गयी मानो यहीं पैदा हुई थी । मेहनत और परिश्रम में उसका कोई सानी नहीं था । “सुबह-सवेरे सो कर उठ जाना,गाय-भैंस देखना,दूध काढ़ना,दही बिलोना, कंडे थापना,रोटी-पानी करना,जानवरों को चारा लाना ।” कौन सा ऐसा काम था जो रामश्री ने न किया हो । किन्तु परिश्रम उसके चरित्र में था, कभी उसे यह एहसास नहीं था कि उसे ज़्यादा काम करना पड़ता है और उसे आराम की ज़रूरत है । अभी 25 बरस की भी न हुई थी कि पति रामचरण दो बेटे उसकी गोद में डालकर बीमारी का शिकार हो ईश्वर के पास चला गया । बस अब रामश्री का जीवन ही एक तपस्या बन गया । खेत-खलिहान,घर-बच्चे तो देखने ही थे,पास के शहर जाकर कपास की मिल में काम करना भी शुरू कर दिया ।”बच्चे जो पालने थे!”
गाँव वालों ने शुरू में आलोचना की किन्तु उसके चरित्र-बल और मेहनत के सब नतमस्तक हो गए । दोनों बेटों को अच्छी शिक्षा दिलाई । सबके सुख-दुःख में हमेशा साथ दिया ।
आज रामश्री का नाम पूरे गाँव में आदर के साथ लिया जाता है । वह गाँव की अकेली माँ है जिसके दोनों बेटे अफ़सर बने । बड़ा आई ए एस और छोटा जज ! गाँव का मान है रामश्री । वह बेटों के पास नहीं जाती…….बेटे उसके पास आते हैं……गाँव में…..। कोई घमंड नहीं कोई दिखावा नहीं……जब गाँव के चबूतरे पर बैठती है तो कोई शख्श ऐसा नहीं गुज़रता जो उसके पाँव छुए और राम-राम किए बिना गुज़र जाए । “हर बेटी उसकी बेटी और हर बहू उसकी बहू है।” बस एक ही अंतिम इच्छा है कि “जहाँ उसकी डोली आयी वहीं से उसकी अर्थी जाए”…….सब अपनों के बीच से । इस गाँव की धरती में ही तो प्राण बसते हैं उसके!
डॉ.गीता यादवेन्दु
आगरा, उ.प्र.
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बंधुआ
” मिट्टी ढुलाई के लिये चार गदहे मिल गए । आधा किराया पेशगी दे आया ।”
घनश्याम मिस्त्री निश्चिंत था ।
गधों का मालिक पेशगी टेंट में खोसता हुआ बोला –
” अपनी मर्ज़ी से बोझा लाद लेना । तीस – चालीस किलो बोझ ढो लेते हैं । बहुत मज़बूत पट्ठे हैं मेरे । पर इनके आराम का ध्यान रहे । हरी घास के आस – पास ही बाँधना ।”
भाड़ा पेशगी देते ही गधे घनश्याम के हुए ।
दोनों गधों को तुरंत काम पर पेल दिया गया ।
जानवर का हौसला पस्त न हो जाए इसलिए दोपहर बाद ढुलाई का काम रोककर , घनश्याम भी कुछ देर सुस्ताने बैठ गया । गधों को भी पेट भरने के लिये उसने आज़ाद छोड़ दिया ।
बरसात का मौसम , हर तरफ़ हरियाली का साम्राज्य । हवा में लहलहाती हरी – हरी नरम घास का स्वाद गधों के मुँह में घुल – घुल गया था ।
ढुलाई का काम लेकर घनश्याम ने लस्त गधों के एक आगे और एक पीछे के पैरों में रस्सी बाँधकर छोड़ दिया । जिससे वे निकट की चर लें ।
” किश्तों में घास चरने से पेट कहाँ भरा था उनका ?”
तिस पर सारा दिन घनश्याम के बदतमीज़ लड़के की संटी पे संटी ,
‘सटाक ….सटाक ‘
आखिर दर्द से वे दोनों टूटकर कर्राहाने लगे , “ढेंचू …ढेंचू …ढेंचू-ढेंचू ।’
अधबने मकान में रेत – ईंटों के ढेर के सामने अपनी माई को हाड़ पेलता देख मजदूरन का बेटा दुखी होकर बोल उठा –
” माई ! गदहा को ऊ लइका रुला दिया न ।”
“कहाँ रो रहा है ? उ तो अइसे ही बोलता है , ढेंचू ढेंचू …।”माई ने नादान बेटे को समझाया ।
“नाहीं अम्मा उ रोता है । देख रोना पहचानती नहीं तू ? अपने गाँव में भी गदहा अइसा हीं रोता था न ।”
लड़का तुरंत उठ खड़ा हुआ । किसी से पूछना नहीं था उसे कुछ । दुखी गधों के पैरों की रस्सी खोलकर उसने दोनों गधों को आज़ाद कर दिया ।
“अब गदहा नहीं रोएगा माई ।” लड़के ने मानो किला फ़तह कर लिया था ।
साझा अलाव
दूर दराज़ के पहाड़ों पर इस बार दिसंबर माह के साथ ही बर्फ़बारी शुरू हो गई है ।
“जिसका असर म्हारे मैदानी इलाकां में दिख रहा सै ।”
“ऊपरवाले नै म्हारा ख्याल कोन्या आता । ” ताऊ नै पाट्टी लोई लपेटते हुए ताई तै कहया ।
“जब देखो थम ऊपरवाले तै शिकायत करते रहो हो । कदे तो उसनै धन्यवाद भी कह दिया करो ।”
“के दिया मेरे तै उसनै ? “पति का शिकायती स्वर सुनकर घरवाली संतुष्ट स्वर में बोल पड़ी – ” इतणे भी अहसान फ़रामोश मत बणो ।”
हाड़ कँपाती ठंड । गाँववालों ने गन्ने की छीलन , सूखी गंडेरियाँ , गोबर के कंडे , पेड़ और सूखी झाड़ियों की लकड़ियाँ सब सर्द मौसम के अलाव के लिये सँभाल़ रखी थीं ।
ढीठ सर्दी किसी तरह जाती हीं नहीं थी ।
पड़ोसी काका और ताऊ ने ये सलाह कर ली थी कि अब से एक हीं जगह अलाव जला करेगा ।
“गाँव की बूढ़ी – जवान जनानियाँ भी यहीं हाथ तापेंगीं । साथ – साथ उठने – बैठने की हम नई सोच लाएँगे ।”
जैसे ही चूल्हे पर आख़िरी रोटी सिकने लगी , अलाव के लिये घर निश्चित किया गया ।
“आज अपाहिज ताऊ के घर जलेगा गाँव का महाअलाव । ” अलाव की लपटें सर्दी को काटने को, ताईं लपलपा रहीं थीं ।
गाँव में कुटुंब सी – एकता देखकर मारे खुशी के नब्बे पार बूढ़ी ताई , झाँझर झणकाती उठ खड़ी हुई । ।
“येल्लो …थारी ताई तो मारे खुसी के अलाव के सामने नाचण लागगी सै ताऊ ।”
ताई की ख़ुशी ने पूरा गाँव ढक लिया ।
ताऊ ने गन्ने की सूखी गँडेरियों , पेड़ों की छीलन झोली में भरकर अलाव में पलट दीं ।
शीत लहर ने कहर मचा रखा था । आज पारा पाँच डिगरी और गिर गया था । ऐसे में साझे – अलाव की गर्माहट , गाँववालों के हृदयों की परतों को आपसी भाईचारे की गर्मी से तर कर रहीं थीं ।
गाँव के कुछ खुदगर्ज़ लोग , ठंड में ठंडे रिश्ते बो रहे थे…। परन्तु गुड़ और मूंगफली के साथ , भाईचारे के ठहाकों ने सर्द रात में गर्मी भरकर उनके कुप्रयासों को नाकाम कर डाला था ।
पहली बारिश
पड़ोसी युगल को बारिश में भीगते-हँसते देख अपने कमरे की खिड़की के सहारे बैठी रेणु की सास मुँह ही मुँह में उन्हें बेशर्म, बेहया वगैरा न जाने क्या-क्या कहे जा रही थीं। घर के बरामदे में सुधांशु के साथ बैठी रेणु दूर से ही उस पड़ोसी युगल की मस्त जि़ंदगी का आनंद ले रही थी।
तभी गुडि़या ने ठुनकते हुए आकर मम्मी के कान में कुछ कहा।
‘‘पापा से पूछो।’’ रेणु ने धीरे से जवाब दिया। यह सुनकर गुड़िया दोनों पैरों पर जोरों से ठुनक दी। कहा किसी से कुछ नहीं।
‘‘सुनो, गुड़िया बारिश में नहाने को पूछ रही है।’’ ठुनक के माध्यम से जाहिर होती उसकी मंशा भाँपकर रेणु ने पति से विनती-सी की।
‘‘जाने दो, ’’ उसकी बात सुन सुधांशु ने तुरंत कहा, ‘‘बारिश का थोड़ा आनंद उसे भी ले लेने दो।’’
पापा की सहमति पाते ही गुड़िया बरामदे के पार जा पहुँची। इतने में, शायद सुधांशु की आवाज सुन, अपने कमरे से उठकर अम्मा वहाँ आ खड़ी हुईं। फटकार सुनाती हुई बोलीं, ‘‘पहली बारिश है, बीमार पड़ जाओगी। सर्दी लगेगी, सो अलग। काॅपी-किताब निकाल लो और यहीं बैठकर नज़ारा लो बारिश का। चलो भीतर….।’’
लेकिन, कौन सुनता ? गुडि़या तो हो गई-फुर्र! मस्त होने लगी बारिश में।
आखि़र सुधांशु बोले, ‘‘जाओ रेणु! लिवा लाओ।’’
रेणु का मन-मयूर नाच उठा यह सुनते ही। वह पल्लू सँभालती जा कूदी बारिश की फुहारों में। भीगती हुई बेटी को पकड़ने का हो गया नाटक शुरू। बेटी तो थी ही खेलने के मूड में, वो और दूर भाग गई।
‘‘मैं लाता हूँ अम्मा,’’ यह देख सुधांशु ने कुर्सी से उठते हुए कहा और अम्मा का उत्तर सुने बग़ैर बरामदे से उतर नीचे की ओर दौड़ गये।
काफ़ी देर तक बेटी अपने ममी-पापा को दौड़ा-दौड़ा कर छकाती रही। बेटे-बहू की चालाकी समझ, अम्मा दो पल वहीं खड़ी उन सब को देखती रहीं। पड़ोसी युगल की मस्ती को देखने से उपज रही कुछ देर पहले की बुदबुदाहट अब हल्की-सी मुस्कान में तब्दील हो चुकी थी। खिड़की का पर्दा एक ओर को सरकाकर वे तेज़ी से किचन की ओर मुड़ गयीं–सब के लिए मसाला चाय बनाने और पकौड़ियाँ तलने को।
” आज की अनारकली ”
मैैं एक छोटे शहर से आई हूूँ , मेरी नज़रें यहाँ अपने बिछड़े परिवेश की तलाश कर रहीं हैं… ।
यहाँ की ज़िन्दगी बड़ी मशीनी है । मुझपर आज भी मेरा छोटा शहर हावी रहता है ।
मुझे डर है कि कहीं मैं भी ईंट – पत्थरों के जंगल में गुम न हो जाऊँ । गगनचुम्बी इमारतें मेरा नीला आसमान छीनने की साज़िश तो नहीं रच डालेंगी ?
आधुनिक कॉलोनी का चौथी मंज़िल का फ़्लैट । मेरी आँखों के ठीक सामने , फ़्लाई ओवर पर दौड़ते वाहन , चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की काॅलोनी , पाँच सितारा होटल के पीछे का विहंगम व्यूह । शाम को बच्चों के पार्क की चहल – पहल की झलक आदि ।
“ड्राइंरूम में काँच का स्लाडर सकराते ही मुझे एक अलग ही दुनिया का नज़ारा होता । अब देखो न , हफ़्तेभर से मैं बिल्डिगों के बीच से सूर्यास्त , तो कभी सूर्योदय का दृश्य देखने की नाकाम कोशिश कर रही हूँ …।”
” सुनो न ! अच्छा किया जो सरसों के खेतों में तुमने मेरी तस्वीर खींच ली , वर्ना वो भी रह ही जाती । ”
” जल्दी ही खेत कट जायेंगे । क्यों कि उन किसानों ने अपनी ज़मीनें बेच दीं हैं । ”
मैंने नोटिस किया कि खेतों और हरियाली के खरीदार बिल्डर – काॅन्ट्रेक्टर लंबी – लंबी कारों से हमारे नये बसे शहर तक आने- जाने लगे हैं ।
जैसे – जैसे ईंट पर ईंट धरी जाती , मैं अपनी बाल्कनी में घंटों खड़ी होकर , ऊपर उठती इमारतों को देखती ।
मैं एड़ियाँ उचका कर , कभी कुर्सी पर चढ़ कर , हाईवे पे गुज़रते ट्रेफ़िक को देखने का असफ़ल यत्न करती हूँ । सामने की इमारत में ईंटें , चौथी मंज़िल से ऊपर चुनी जा चुकी हैं ।
“मैं कई बातों की मौन गवाह भी हूँ । बताऊँ ? ”
मुझे बरबस आज ‘अनारकली’ की याद आ गयी । उसे ईंटों की दीवार में ज़िंदा चिनवा दिया गया था । मैं प्यार की दीवानी अनारकली के लिये सच में दुखी हूँ ।
चारों तरफ़ की बहुमंज़िला इमारतों ने मुझसे भी तो सारे मंज़र छीन लिये हैं… सामने वाली बिल्डिंग में राजमिस्त्री और मज़दूरों ने पाँचवीं मंज़िल की चिनाई शुरु कर दी है ।
अब मेरी आँखों के सामने सिर्फ़ इमारतें हैं । गिनती हूँ । दाँयीं तरफ़ , फिर बाँयीं तरफ़ , सामने यानी हर तरफ़ इमारतों का सिलसिला …।
मैं अपनी कल्पना में ‘अनारकली ‘की बेचैनी देख पा रही हूँ ।
“ओफ़्फ़ ! प्यार करनेवाली उस मासूम लड़की को सियासत ने दीवार में ज़िंदा चिनवा दिया …।”
इस साल के बाद मैं सरसों के खेत नहीं देख पाऊँगी , न खेतों के किनारे खड़े हरे दरख़्त । न हाईवे का व्यस्त ट्रैफ़िक ही कभी फिर दिखेगा ।
अनारकली की बेबसी को स्मरण करते ही मेरी आँखें उसके दर्द में डूबकर डबडबा गयी हैं ।
” सच में , “अनारकलियाँ” क्या ऐसे ही कैद में जीती होंगी ? ”
इस ख्यालभर से मेरा गला भर आया ।
किसी ने मुझे पुकारा – ‘ ओ अनारकली ! ‘
पर ये मेरा नाम तो नहीं है । फिर मैंने अनजाने में उस पुकार का उत्तर क्यों दिया ?
” हाँ ! बोलो ….सुन रही हूँ ।”
संग्रह ” साँस लेते लम्हे ” से
प्रसन्नता
सुबह चिड़ियों की चहचहाहट से आठ वर्षीय टुटूल की नींद खुल गई । स्कूल की छुट्टी होने की बात याद आते ही वो मस्ती के मीठे अहसास से भर गया ।
धीरे से अलसाई आँखें खोल कर फूलोंवाले पर्दे को देखा जो मम्मी -पापा और उसके कमरे के बीच पंखे की हवा से हिल- हिल कर इठला रहा था ।
निगाह उन गिफ्ट्स पर टिक गयीं , जो कल जन्मदिन में मिले थे ।
“धत् ! नहीं लेता टाॅयज़ ।”
” नहीं चाहिए खिलौने , शेरू की निन्नी जैसी लाल फ़्राॅक वाली बहन ,अगर डाॅक्टर आंटी गिफ़्ट में ला दे तो … ।” उसने आँखें मिचमिचाकर खोल दीं ।
नेत्र घुमाए तो कमरे की खिड़की से नीले आसमान में पंक्तिबद्ध पंछी उड़ते दिखे । आज़ादी के अहसास से भरकर टुटूल मुस्कुरा दिया । उसका दिल बाहर जाने के लिए मचल उठा । उसने चाहा कि उसके भी औपंख निकल आये हैं ।
कुर्सी धीरे से खिड़की के निकट खींचकर टुटूल उस पर चढ़ गया । बाहर झाँकते ही उसके नेत्र खुशी से चमक उठे । बगीचे में उसकी दोस्त गिलहरियाँ कच्चे अमरूद कुतर कर पेड़ पर तेज़ी से उतर – चढ़ रही थीं और गौरैयाँ शाखों पर बैठी चहचहा रहीं थीं ।
उसने विंडो – ग्रिल को कस कर पकड़ , अपना सिर उस पर टिका दिया । हवा के मदिर झोंकों ने उसका चेहरा सहला दिया । तभी उसने अपने नज़दीक मम्मी को खड़ पाया । मम्मी को अचानक पा वो किलकारी मारकर उससे लिपट गया ।
भोर की शीतल बयार में माँ – बेटा हमउम्र बन , हँसते – खिलखिलाते खेल रहे थे । टुटूल को अपने जन्मदिन का सबसे प्यारा तोहफ़ा मिल चुका था, मम्मी जैसा दोस्त ..।
विभा रश्मि।
संस्कार
” छुट्टी का दिन बिताने के लिए खिलौनों की ज़रूरत है ?”
अपनी खटारा स्कूटी को हुए पोंछते हुए पापा ने पूछा।
“नहीं पापा।”
दस वर्षीय दीपू ने अपने अनाड़ी हाथों से उनके जूतों को पॉलिश करते हुए कहा।
“क्यों ?”
पापा ने अपनी संजीदा आँखों से बेटे को देखते हुए पूछा –
“खिलौने तो कुछ दिनों बाद टूट ही जाते हैं …।”
बेटे ने तोते की तरह रटा-रटाया त्वरित उत्तर दिया ।
“और ?”
पापा ने हाथ का झाड़न स्कूटी में रखते हुए मुस्कुराकर पूछा । अपनी स्कूटी उन्होंने रगड़-रगड़ के चमका दी थी । अपनी स्कूटी से उन्हें विशेष लगाव था ।
“इतने पैसों के फल खाएँ तो सेहत बनेगी ….।”
“गुड !”
पापा सोच रहे थे—बेटा सही जा रहा है । अभी से वे उसमें अच्छे संस्कार रोप रहे थे, जैसे बाबूजी-अम्मा ने उन में रोपे थे ।
“पापा ! मैंने होमवर्क कल शाम को ही कर लिया था ।’’
जूते पापा के पैरों के पास रखकर दीपू ने पूछा,
‘‘ मोनू के घर चला जाऊँ ? हम वहाँ साथ-साथ पढ़ेंगे …। ”
‘खेलेंगे ‘ शब्द उसके हलक में अटका रह गया ।
“नहीं, अकेले नहीं जाना तुम्हें ।”
पापा ने कहा ।
“अकेले कहाँ: मोनू लेने आने वाला है पापा …प्लीज़ ।”
बेटे ने पापा से रिरियाते हुए विनती की । पापा मना नहीं कर सके। थोड़ी देर बाद ही मोनू आ गया और दीपू स्कूल – बैग उठाकर शान से उसके घर चल दिया ।
निकट के सरकारी स्कूल में वे दोनों सहपाठी थे । इस कारण उनमें तालमेल भी अच्छा था ।
मोनू ने बुआ का यू . एस. से लाकर दिया वीडियो गेम खेलने देने की फ़रमाइश माँ से की। माँ ने तुरंत वीडियो गेम उनको सौंप दिया । दीपू ने उस दिन पहली बार वीडियो गेम देखा और खेलना सीखा। उसे और मोनू को रविवार की छुट्टी का खूब मज़ा आ रहा था । कुछ देर खेलने के बाद दोनों अपनी-अपनी किताब-कापी निकालकर पढ़ने लगे । पर कोर्स की किताबों में उनका मन नहीं रमा । दो पल बाद ही मोनू पूछ उठा,
“कार्टून देखेगा?”
और इसी के साथ, किताबों और कॉपियों को एक ओर रखकर दोनों कार्टून देखने बैठ गए । उन्हें देखते हुए वे कभी एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते तो कभी हँस-हँसकर लोट-पोट होने लगते। छुट्टी का दिन आनंद से गुज़रा ।
उनके स्कूल बैग, कापियाँ-किताबें …और पापा के संस्कार भी, टेबल पर पड़े हुए छुट्टी मना रहे थे।
—- दूध —–
“दिखता नहीं रात के दस बज गए। टुन्नी के लिए अब दूध कहाँ से मिलेगा ? ”
छेड़खानी की घटना के बाद शहर में कर्फ़्यू लग गया था। दिनभर डर का माहौल रहा। युवकों और पुलिस में झड़पें होती रहीं। पत्थरबाज़ी , लाठीचार्ज। धारा 144 लगी हुई थी। बाज़ारों के बंद होने से लोग रात तक दूध, दवाई जैसी ज़रूरत की चीजों के लिए तरस गए थे।
“मुसीबत को आज ही आना था, पर तुम चिन्ता छोड़ो, कोशिश करके देखता हूँ।”
“बचकर जाना। ”माँ कह उठीं।
दो वर्षीय मुन्नी दूध की ज़िद पकड़े थी। वो अपनी ‘छोटी सी भूख ‘ कुछ खाकर मिटा सकती थी। आज तो ज़िदकर फैल -पसर गई थी।
केशु बेटी को रोता छोड़ घर से बाहर गली में निकल आया।
आस – पड़ोस के बंद दरवाज़ों पर हौले से दस्तक दी। दो- एक ने खिड़की के पट खोल के पूछा भी। दंगा अचानक से भड़का था , तो उनके पास भी दूध नहीं मिला।
बेटी के वास्ते दूध न जुटा पाने के कारण उसका दिल तेजी से धड़कने लगा था। तो क्या बेटी भूखी सोएगी ?
आगे गली के मोड़ पर पान- सिगरेट की बंद गुमटी के पीछे की बिल्डिंग के गैरेज की खिड़की से आती क्षिण सी रोशनी दिखी।
पाकेट में हाथ डाल सौ के नोट को छू कर देखा।
शराब की दुकान के सामने से तेजी से आगे बढ़ते हुए अचानक पैरों में ब्रेक लग गए। वहाँ के चौकीदार ने उसे झाँक कर देखा , परेशानी कशु के चेहरे पर लिखी थी। पढ़ कर वो फुसफुसाया -“क्या ढूँढता है साब । यहाँ सब मिलेगा। उसका वाक्य द्विअर्थी था।
“न न वो नहीं चाहिए। गलत मत समझो।”
“क्या? बोल क्या ? ”
“बच्चे के लिए दूध।”
पहाड़ी चौकीदार ने हाथ दिखा कर ठहरने का इशारा किया तो दिल काँप- सा गया ?
“क्या करेगा ये अब ?” उसके शक ने फन उठा कर झाँका।
चौकीदार सीढ़ी के नीचे बनी अँधेरी कोठरी में गुम हो गया। भीतर से स्त्री – स्वर सुनाई दिया, फिर बच्चे के रोने का।
अपने बच्चे के लिए आधा गिलास बचाकर रखे दूध को वो पन्नी में पलट लाया था। गाँठ लगी पन्नी थमाते हुए चौकीदार फफुसफुसाया –
” भाग जा बाबू ! रुकना मत कहीं , जान का ख़तरा … । ”
” माफ़ करना तुम्हारे बच्चे का हक मार रहा हूँ।”
“न न,वो बड़ा सयाना हो गया है। बात मान जाएगा।” टोपी ठीक करता हुआ चौकीदार क्षण भर रुका।
“कितने बरस का है तेरा बेटा?” पूछे बिना न रह सका केशु।
” छः माह का। ” उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना, सुरमा आंजे हुए नेत्रों को फेरकर चौकीदार मुड़ा और भीतर की अँधेरी कोठरी में ओझल हो गया।
केशु के पैर – हाथ बर्फ़ हो गए थे। पन्नी के कोने में भरा आधा गिलास दूध अचानक दस लीटर हो गया था, जिससे हाथ में पकड़ी पन्नी भारी लगने लगी थी।
– विभा रश्मि
गुरुग्राम, हरियाणा
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=पहचान=
संवाददाता- जमीनी विवाद में एक ही खानदान के दो घरों में जबरदस्त मारपीट हुई है,जिसमें दर्जनों मर्द,औरतें और बच्चे भी घायल हो गए हैं,सुना है एक औरत बहुत सीरियस है,उसे राजधानी रेफर किया गया हैं।वही की पूरी खबर लेने जा रहा हूँ।
समाचार चैनल का संपादक- बुड़बक कहीं के।बकलोल। दस साल हो गए तुम्हें,आज तक पता नहीं लगा कैसी खबरों की मांग होती है।
इसीलिए,इसीलिए तुम आज तक अपनी पहचान नहीं बना पाए।नहीं तो लोग पाँच साल में कहाँ से कहाँ पहुंच जाते है।
गठबंधन
देश में महामारी फैली हुई थी। बहुत से काम बन्द कर दिये गये थे। इस कारण रोजगार और धंधे के लिये शहर गये लोग गाँव लौट आये थे।देश का बहुत बड़ा हिस्सा बाढ़ प्रभावित हो गया था। जनजीवन अस्त व्यस्त था।
शीलवा का गांव ना बाढ़ प्रभावित था ना महामारी प्रभावित।शीलवा को कोई ख़ास दिक्कत नहीं थी।भारी बारिश के कारण सब्जियों की खेती जरूर तबाह हो गई थी।इस कारण सब्जियों के दाम इतिहास में दर्ज होने लायक हो गए थे।इसलिए शीलवा को भी सब्जी खरीदने में हिम्मत जुटानी पड़ती थी।
आभाव और बेकारी का समय लंबा होने के कारण गांव में कलह बढ़ गये थे।पीढ़ियों के गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे थे। छोटी-छोटी बातों पर झगड़े होने शुरू हो गए थे।गांव का हर परिवार खुद को समकालीन लेखकों की तरह तोप समझता था। परस्पर सहयोग भावना की जगह वैमनस्य हावी था।
इस वैमनस्य का शिकार शीलवा और उसके लडकों को भी होना पड़ा।जब उसके पट्टीदारों ने तीन पीढ़ी पहले हो चुके खानदानी बटवारे को दुबारा करने के लिये चढाई की। तब के बंटवारे के हिसाब से सबको बराबर खेत और घर की जमीन मिल गई थी। सब सन्तुष्ट थे।
समय के साथ गाँव की सड़कें पक्की हो गई तो सड़क से दूर घर बनाये हिस्सेदारो में सड़क मोह जाग उठी।
जिस तरह विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिये छोटे बड़े गठबंधन बन गये थे उसी तरह शीलवा के गाँव में टांग खींचने के लिये छोटे बड़े गठबंधन बने हुये थे।हर सही काम को दूसरा गठबंधन गलत बताता था।
फिर क्या था,शीलवा के गाँव के एक गठबंधन ने उसके पट्टीदारों को भड़का दिया।पट्टीदारों ने अपना फैसला शीलवा को सुना दिया-
या तो और चौड़ा रास्ता दो या इस जमीन का बटवारा फिर से होगा।
शीलवा उनकी मूर्खतापूर्ण और असम्भव बात सुन खीझ गई।फिर कुछ देर में ही खुद को संभाल लिया और आत्मविश्वास से बोली-
मेरे सास-ससुर जब थे,उनके पिताजी जब थे, तब किसी ने दुबारा बटवारें की मांग नहीं की,इतने सालों में। और आज उनके मरे हुए तीन साल हो गये,मेरा नया मकान बने भी छः साल बीत गये,तो अब तुम लोग दुबारा बटवारे की बात करते हो?
कहीं ऐसा हुआ है क्या?
तुम्हारे लिये मकान तोड़वा दूँ?
मेरा मकान बन रहा था तब कहाँ थे?
सभी लोग तो यही थे तब!
कई बार नापकर और पहले से अधिक रास्ता छोड़कर घर बनाया है।इससे अधिक हम रास्ता नहीं दे सकते।
इतना सुनते ही नाराज पट्टीदारों ने भद्दी भद्दी गालियां देनी शुरू की और बुरी तरह बिगड़ गये।शीलवा ने आग बबूला हो रहे अपने लड़कों को घर के भीतर कर दिया और तुरंत पुलिस को सूचना देने के लिये अपने लड़को को आदेश दिया।
पूरे गांव में शीलवा की झूठी बात फैला दी गई कि पट्टीदारों की जमीन पर शीलवा ने कब्जा कर लिया है।
अगले दिन थाना और न्यायालय परिसर में रौनक थी।सभी लोग अपने अपने लोगों से पता कर रहे थे,कौन सा वकील अच्छा है,किसके सम्बन्ध में ऊंचे पदों पर अपने पुलिस अफसर हैं।
इतने मुवक्किलों को देख वकीलों में ख़ुशी की लहर थी।
गाँव में चौक,चबूतरे,चौपाल और बाजारों में इसी बात के कहकहे लगाये जा रहे थे।
गांव के अलग अलग बुद्धिजीवी गठबंधनों के मठाधीशों के दरवाजों पर, खुश हो कर खैनी मलते हुए सिर्फ एक बात चल रही थी- मुकदमा कम से कम दस पन्द्रह साल चलेगा।अब मज़ा आएगा।
चारों तरफ इस आपदा में भी खुशियाँ छा गई थी। सिर्फ पाँच छः घरों में ऊपर से खुश दिखने की कोशिश हो रही थी।फिर भी अनजान चिंता उन घरों को घेर ले रही थी।शायद बाढ़,महामारी और भारी बारिश से अधिक नुकसान की आशंका सता रही थी।
पगला
एक आदमी अपने गाय के लिए साईकिल पर पुआल दूसरे गाँव से ढो रहा था। जब रास्ता अच्छा मिलता तो चुपचाप चलता। लेकिन जैसे ही रास्ता उबर-खाबड़ मिलने लग जाता और उसकी साईकिल और उसके पीछे रखा बोझा डगमगाने लगता तो वह जोर-जोर से चिल्लाने लगता।
वाह! सरकार। वाह!
क्या रोड बनाया है!
उस आदमी की इस हरकत को देख पास से गुजरने वाले हैरत में पड़ जाते और कुछ मुस्कुराते हुए
कहते- साला पगला गया है का।
कुमार शंभु
(शम्भू भटकेशरी )