प्रागार्तव
…क्या क्या नियम बनाए हैं पुराणों के बहाने। एक तो दिन भर निर्जल व्रत रहो फिर अगले दिन कौवा बोलने के पहले चना निगलो।…
इतनी सुबह सुबह इतना तो नहीं होगा कि उठ कर मेरे लिए एक बाल्टी गर्म पानी ही रख दें।
जल बिन मछली सी सटकते निकल जाऊँ पकड़ से।
नहाकर पूजा कर लूँ।अभी चार ही बजे हैं। पाँच बजे तक भी खाली हो गयी तो रोज के पाँच से सात वाला समय मिल जाएगा चुप मारकर बिस्तर में पडी़ रहूंगी। आखिर सब तो सोते ही रहेंगे तब तक।
आज बस खिचडी़ बनाऊंगी और सफाई भी रोज से कम, फिर दिन भर आराम।
“बहू आज तेरा पारण है न रात ही छोले भिगो दिए थे मैंने।चना घोंट लिया तो मैदा गूंद लेना।”
“अच्छा अम्मा जी।”
हुँह! छोले भटूरे! बनाकर तो कोई खिलाएगा नहीं। पूछा भी नहीं और भिगो दिए। मैदा क्या गूंदूँ? दही मैदा आएगा तब न।
ये अम्माजी भी न। बस झप से छोले भिगो कर बडी़ बहादुरी दिखा दी।
“मम्मा मुझे आॅनलाइन टेस्ट देना है प्लीज़ मेरा स्टडी टेबल ठीक कर दो, बस बाथरूम से आता हूँ।”
लो आज जल्दी क्या उठी सबके अलार्म बजने लगे। जाने क्या आधी रात तक पढ़ता है कि अपनी मेज भी… गोबर कहीं का! अब दही मैदा भी मैं ही लाऊँ…।
“अरे यार मुझे जल्दी उठना चाहिए था। हर साल भूल जाता हूँ बाजा़र से जलेबियाँ लाना।”
बीवी से ज्यादा तो नींद से प्यार है। याद रहे भी तो कौन सा ला देते हुँह!
“स्टडी टेबल साफ कर दी जरा बाजा़र से कुछ सामान…।”
“साॅरी मम्मा आज जरूरी टेस्ट है उसके बाद ही ला सकूंगा। चाय पिला दो तो…।”
“बहू चाय बना ले। साथ में चाय पी लेंगे और तू मठरियों से पारण भी कर लेना।”
“जी अम्मा जी।”
नींद की तो बैंड बज गयी। अब चलो चाय चढा़कर मैदा ले ही आऊँ।
“आहा! सुबह की चाय तेरे हाथ की न मिले तो आँख ही नहीं खुलती।”
चाय के पहले घूंट पर ससुर जी ने कहा।
“तूने कुछ खाया?”
“जी बाऊजी।”
ये प्याज़ काटते कितना लगता है आँख में… बाऊजी भी न जताते बहुत हैं कि प्यार है… हुँह!…”
घर की साफ़ सफाई, छोले भटूरे मठरियाँ नमकीन के बीच होकर कमर दर्द कहाँ से आ गया हे भगवान!
सबको देकर मैं भी बैठ जाती हूँ दो गर्मा गर्म भटूरे खाकर सो रहूंगी।… और तब शायद ये दर्द भी ठीक हो जाए।
“मम्मा जल्दी आओ तुम्हारे बगैर बाबा दादी कोई नहीं खा रहा।”
ऐसा लग रहा है मानो सबने अहसान किया है मेरे प्लेट लाने तक रुककर।
और ये कमर दर्द।
“पहला कौर तुम खाओ आज पारण है तुम्हारा।”
कलेजे की अग्नि में पति के मनुहार भरे ये शब्द भटूरे के पहले ग्रास के साथ स्वाऽहा हो रहे थे।
ओह आज तारीख़ क्या है? आज तो…
तभी मैं कहूँ सुबह जल्दी उठने से कमर दर्द थोडी़ होना था?
अरे यार, कितनी लापरवाह हूँ मैं पैड भी तो खत्म हो गया था पिछले महीने। अब किससे कहूँ। शायद किराने वाला रखा हो। जाकर पता करूँ।
“एक तो हम सब सुबह से भूखे प्यासे तुम्हारे साथ खाने का इन्तजा़र कर रहे हैं। अब प्लेट छोड़कर गेट की तरफ़ कहाँ जा रही हो?”
पीछे से आता स्वर भीतर से आते स्त्राव सा ही प्रतीत हो रहा था।
अंतिम प्रस्थान
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विवाह की आपाधापी में विदा का समय भी आना है ध्यान ही न था। वो तो जब हमेशा की तरह माँ के मौन आँसुओं के साथ उस दिन उनकी कूँ कूँ सुनी तब जाना कि आज मौन चीत्कार नहीं आज आँखें भी ऐसे रो रहीं जैसे रुदालियाँ कारन करके रोती हैं।
दूसरी विदाई भी मैं ससुराल वालों के लिए शाॅपिंग और तैयारी में लगी रही। जाते समय वक़्त का तका़जा़ था सो मेरी भी आँख से लुढ़क आया माँ वाला मौन।
तीसरी बार कुछ ज्यादा कसका क्योंकि अब वो रोती नहीं थी। करुणा से देखती थी। शायद दया करती थी मेरी सूखी आँखों पर।
फिर चौथी, पाँचवीं और बार बार हर बार साल दो साल में कुछ दिन माँ का घर कम और आजा़दी का सुख अधिक लगने लगा। न जागने की जल्दी न सोने का समय।
अब जाने पर वो आजा़दी भी भली न लगती। माँ रात रात भर अपने दुःख बताती। वही कह चुकी बातें बार बार कहती। पूरी रात हँस रोकर सुनती और उनके सो जाने पर जाने कब तक रोती।
जीजी ने कहा आओ अम्मा से मिल लो। मैंने पूछा भी माँ ठीक हैं न? बोली हाँ बस ऐसे ही बुला रही रे।
मैं पहुँची भी… माँ भली चंगी थी। हमने हँसी ठिठोली की। गाडी़ का समय कब हो गया पता न चला।
प्रस्थान को उद्यत हुई। जाने क्यों माँ ने पहली बार पैर छुए। मेरी प्यार भरी झिड़की पर हँसीं।
मैं लौटी… लेकिन लौट न सकी उस बार।
मेरे पीछे ही संदेसा आया…।
माँ यात्रा पर जा चुकी थीं। और मैं कह भी न सकी कि तेरी वाली मौन चीत्कार तो विदा होने वाली मेरी हर यात्रा का हिस्सा थी…।
शिखा रमेश तिवारी
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भिखारी
मंदिर की सीढ़ी पर बैठे एक भिखारी ने कहा, “असहाय और अपाहिज को कुछ दे दो भईया । ”
राज ने पॉकेट में हाथ डाला | दस का नोट बापस रखते हुए, ” छुट्टे नहीं है | फिर कभी दूँगा |”
आशाभरी नजरों से देखते हुए, ” छुट्टे मैं दिए देता हूँ ….”
” रहने दे, तुमसे नहीं लूँगा | ”
” क्यों भईया..? ”
क्रोध से, ” जुबान लड़ाता हैंं….. तेरी इतनी हिम्मत.. ! ”
” मन न हो, तो मत दो भईया । भगवान तेरा भला करे | ”
हिकारत से, ” भिखारी कहीं का.. ”
” साधन , संपंन ,हट्टा कठ्ठा शरीर होते हुए भगवान से अभी माँगने ही गए थें न…? ”
सफलता
लेखन में राज्य स्तर का अवार्ड लेकर लौटा। तालियों की गूँज से भरे वातावरण में राज्यपाल महोदय से अवार्ड लेकर अपने स्थान पर वापस बैठते हुए मेरे रोमांचित होने की सीमा नहीं थी। अपनी इस सफलता के रोमांच के बीच पिताजी याद आ गए। जब मुझे छोटी—छोटी सफलताएँ मिलती थीं तो पिताजी उन्हें बड़ी सफलता कहकर मेरा हौसला बढ़ाते थे।सोचा….काश, पिताजी जिंदा होते तो कितने खुश होते मेरी इस सफलता पर, मन हुआ आज ही घर जाऊँगा। पिताजी की तस्वीर पर यह अवार्ड रखूँगा। माँ के चरण स्पर्श करूँगा। गाँव पहूँचा। माँ की आँखों में मोतियाबिंद था। उन्हें अवार्ड दिखाते रुक गया। छोटा भाई रोजगार की तलाश में कहीं गया था। पिताजी की फोटो के पास गया। दीवार का सारा प्लास्टर उखड़ गया था। फोटो न जाने कहाँ थी। तभी पड़ोस की कृष्णा मौसी आ गई। सोचा इन्हें ही अवार्ड दिखाता हूँ।
अवार्ड दिखाता इससे पहले ही वे बोली, बेटा, कब आए? ऐसे ही आ जाया करो, कभी—कभी। क्या हाल हो गया है इस घर का तुम्हारे पिताजी के मरने के बाद । तुम भी नहीं रहते यहाँ, हो सके तो माँ की आंखों का आपरेशन करा दो। तुम्हारी बहन बीस की हो गई है, उसे ब्याहना नहीं है क्या? छोटा भाई इतना पढ़—लिखकर बेरोजगार घूम रहा है।
मैं एकटक मौसी को देखता रहा। मेरी आँखें नम थी। मैंने अवार्ड को चुपचाप बैग में रख लिया। कहीं से पिताजी की आवाज उभरी। बेटा ! सफल होने के लिए अभी तुम्हें बहुत कुछ करना है ।
दिनेश भट्ट -कहानीकार/लघुकथाकार, पहाड़े कालोनी गुलाबरा, छिन्दवाड़ा .( म.प्र.)
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बदलती_राहें’
दादा जी प्रात:काल जैसे ही गाँव से अपने पोते सतेन्द्र के पास पहली बार लखनऊ पहुँचे तो आदर–सम्मान की औपचारिकताओं के पश्चात् उन्होंने स्नानादि करने की इच्छा व्यक्त की।
सतेन्द्र इस बात से भलीभाँति अवगत था, अतः उसने अपनी पत्नी से कहा, “दादाजी पक्के कर्मकांडी ब्राह्मण हैं, और वो बिना नहाये–धोये, पूजा–पाठ किये जल तक ग्रहण नहीं करते, सो दादा हेतु उनके स्नान, ध्यान की पूरी व्यवस्था कर दो।” इतना कहकर उसने पुनः घर मे बनाये मंदिर की साफ–सफाई करने हेतु कहा और यह भी कहा, “वहाँ ताँबे के लोटे में गंगाजल मिश्रित जल भी रख दे।”
व्यवस्था पूरी होते ही दादा जी स्नान गृह से राम-राम का उच्चारण करते हुए बाहर निकले और बोले,”बहू! मंदिर में पूजा–पाठ की व्यवस्था कर दी है न?”
“हाँ दादाजी!”
दादा जी मंदिर में अपनी पूजा–पाठ से निवृत होकर पोते द्वारा बताए गए कमरे में पहुँचकर नाश्ते की प्रतीक्षा करने लगे। कुछ ही क्षणों में उनकी बहू नाश्ता लेकर दादाजी के सामने नाश्ता रखकर बोली, “दादा जी! नाश्ता कर लीजिए और किसी चीज की जरूरत हो तो पुकार लीजिएगा।”
अभी पहला कौर भी मुँह में नहीं जा सका था कि उनकी दृष्टि कमला बाई पर पड़ी… उन्होंने तुरन्त बहू को आवाज दी। बहू के आते ही उन्होंने कहा, “ये औरत कौन है?”
“बाई है।”
“मतलब?”
“घर का चौका–बर्तन करती है…।”
“और तुम?”
“बाकी काम मैं देख लेती हूँ… मुझे ऑफिस भी तो जाना होता है।”
यह सुनकर दादाजी का मुँह कसैला हो गया… फिर भी उन्होंने पूछा, “बेटा! यह किस जाति की है?”
“दादा जी शहर में तो आजकल जाति–पाँति का कोई अर्थ नहीं रह गया है…, फिर भी जहाँ तक मैं जानती हूँ यह दुसाध जाति की है।”
“सत्यानाश! तुम लोगों ने मेरा धर्म भी भ्रष्ट कर दिया…।”
“वो कैसे…?”
“नीच जाति से खाना बनवाकर…।”
“दादा जी! आप बुरा न मानें तो यह बताएँ, मैं नौकरी छोड़ दूँ? क्योंकि बिना दूसरे के सहयोग से तो मुझ अकेली से यह संभव नहीं है। फिर शहर में अब यह सब नहीं चलता। सब लोग मिलजुल कर ऑफिस में साथ–साथ खाते–पीते हैं। चाय कौन बनाता है बाज़ार में… कोई नहीं जान पाता… फिर बहू आप कहें तो मैं नौकरी छोड़कर…।”
दादा जी काफी देर चुप शांत विचार मगन हो गये… कुछ नहीं बोले और धीरे–धीरे नाश्ते के कौर अपने भीतर डालने लगे।
दरवाजे की ओट से देखकर बहू ने चैन की साँस ली और ऑफिस जाने की तैयारी करने लगी।
चुनौती
-ट्रिन-ट्रिन-ट्रिन-
“हैल्लो!”
“क्या कर रही थी?”
“कुछ सोच रही थी.. तुम जानना चाहेगी क्या तो सुनो! कहानी, कथा, गीत, कविता में स्त्रियों को ही महान क्यों दर्शाया जाता है और पाठक भी वैसे ही अंत पर वाहवाही करते हैं.. आखिर क्यों ?”
“लगता है , आज भी तुम कुछ ऐसी अंत वाली रचना पढ़ ली! अच्छा बताओ अंत क्या था उस रचना की?”
“पति अपने दोस्त की विधवा से सम्बंध बना लेता है और पत्नी अपने पति को माफ कर उस विधवा को ही दोषी ठहरा लेती है.. लेखक ऐसी कहानी क्यों नहीं लिखता जिसमें पत्नी के कदम बहके हों और पति माफ कर महान बन जाता है..?”
“जो कहानी तुम पढ़ना चाह रही हो वैसा समाज में खुले तौर पर होने लगा है। बस साहित्य का हिस्सा बनना बाकी है। वह भी कुछ वर्षों में होने लगेगा। अच्छा चलो तुम ऐसी लघुकथा लिख लोऔर किसी बड़े साहित्यकार को टैग कर..!”
“अरे! छोटे लोग बड़े लोग को टैग नहीं करते हैं..!”
“तुम और छोटे लोग? चीनी हो क्या? अच्छा मूंगफली को चिनिया बादाम नाम क्यों पड़ा होगा…,”
और फिज़ा में मिश्रित खिलखिलाहट का शोर गूँजने लगा…
चौकस’
“ऐसा क्यों किया आपने? इतने आदर-मान के साथ आपकी बिटिया को बुलाने आयी को आपने स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया?” श्रीमती मैत्रा ने श्रीमती सान्याल से पूछा।
“उनके घर के पुरुषों की चर्चा सम्मानजनक नहीं हैं..,” श्रीमती सान्याल ने कहा।
“आप भी कानों सुनी बातों पर विश्वास करती हैं?” श्रीमती मैत्रा ने पूछा।
“एक ठग व्यापारी को सज़ा हुई। वह जेल में भी अन्य कैदियों के पैसों-सामानों की चोरी कर लेता था। उसके बारे में शिकायतें सुन-सुन तंग आकर जेलर ने उसे मुक्त कर दिया। साथ में ही दस लोगों को नियुक्त किया कि वे अलग-अलग भाषा में अलग-मोहल्ले में जाकर ठग व्यापारी के बारे में प्रचार करेंगे कि सभी सचेत रहेंगे।
ठग व्यापारी जेल से बाहर आकर कई रिक्शा वाले, ऑटो वाले से पहुँचा देने के लिए बात किया, लेकिन मुनादी के कारण कोई उसे सवारी बनाने के लिए तैयार नहीं हुआ। आखिरकार कुछ दूर पैदल बढ़ने पर उसे एक ऑटो वाला मिल गया जो उसे सवारी बना लिया। पूरा दिन ठग व्यापारी उस ऑटो पर घूमता रहा। जहाँ से गुजरता मुनादी की वजह से उतर नहीं पा रहा था।
देर रात होने पर एक जगह ऑटो वाले ने उसे जबरदस्ती उतार दिया और उससे अपने पैसे को माँगा।
“मुनादी सुनकर भी तुम मुझे सवारी बना घुमाते रहे.. बहरे तो नहीं लगते..,”
“बस! बस श्रीमती सान्याल। आपकी कथा से मेरे भी ज्ञानचक्षु खुल गए.. बहुत-बहुत धन्यवाद आपका। मैं भी अपनी नतनी को नहीं जाने दूँगी..।” इतना कहते हुए श्रीमती मैत्रा तत्परता से अपने घर जाने के लिए निकल गयीं।
सृजक’
“क्या आपको अपने लिए डर नहीं लगा ?”
“क्या हमें एक पल भी डरने की अनुमति है?”
प्रसव पीड़ा से जूझती गर्भवती रूबी अपने लिए लेबर रूम में प्रतिक्षारत रहती है तभी उसे पता चलता है कि एक और स्त्री प्रसव पीड़ा से परेशान है। क्योंकि उसकी चिकित्सक जाम में फँसे होने के कारण पहुँच नहीं पा रही है। ऐसी स्थिति में रूबी उस दूसरी स्त्री के पास जाती है और उसका सफल प्रसव करवा देती है। रूबी स्वयं चिकित्सक होती है और अनंतर वह अपने स्वस्थ्य शिशु का जन्म देती है..।
यह सूचना वनाग्नि की तरह फैल जाती है और अस्पताल में जुटी भीड़ की ओर से तरह-तरह के सवाल पूछे जाते हैं।
“निजी अस्पतालों में धन उगाही का एक माध्यम है , शल्य चिकित्सा से प्रसव, साधारण रोगी का वेंटिलेटर पर पहुँच जाना.., ऐसे हालात में आपका यों…,” इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की महिला पत्रकार ने पूछा.. मानो उसका कोई घाव रिस रहा था।
“तो आपलोग सत्य का ज्यादा-से-ज्यादा शोर करें ताकि आवारा ढोर काबू में रहे..!”
“खंडहर का अंत”
तन पर भारीपन महसूस करते ही अधजगी प्रमिला की आँख पूरी तरह खुल गयी। भादो की अंधेरिया रात और कोठरी में की बुझी बत्ती में भी उसे उस भारी चीज का एहसास उसके गन्ध से हो रहा था, “कौन है ?” सजग होकर परे हटाने की असफल प्रयास करती हुई पूछ ली।
“मैं ! क्या तुम मुझे भूल गई ?”
“तुझे इस जन्म में कैसे भूल सकती हूँ.. तेरे गन्ध को भली-भांति पहचानती हूँ.. !”
“फिर धकिया क्यों रही है ?”
“सोचने-समझने की कोशिश कर रही हूँ, आज तुझे मेरी याद इतने वर्षों के बाद क्यों और कैसे आई होगी?”
“मैं तेरा पति हूँ !”
“तब याद नहीं रहा, जब दुनिया मुझे बाँझ कहती रही और मेरा इलाज होता रहा.. तेरे इलाज के लिए जब कहती तो कई-कई इल्ज़ाम मुझपर तुमदोनों माँ-बेटे लगा देते थे!”
“इससे हमारा रिश्ता तो नहीं बदल गया या तुझपर से मेरा हक़ खत्म हो गया ?”
“हाँ ! हाँ.. बदल गया हमारा रिश्ता.. खत्म हो गया मुझपर से तेरा हक़..,” चिल्ला पड़ी प्रमिला,”जब तूने दूसरी शादी कर ली और उससे भी बच्चा नहीं हुआ तो तूने अपना इलाज करवाया और उससे बेटी हुई।”
“तुझे भी तन के भूख मिटाने की जरूरत महसूस होती होगी ?”
“जिस औरत को तन की दासता मजबूर कर देती है, वह कोठे पर बैठी रह जाती है।”
“तुझे बेटा हो जाएगा ! तेरा ज्यादा मान ज्यादा बढ़ जाएगा.. !”
“तो अब तेरी इतनी औकात कि तू मुझे लालच में फँसा सके.. !” पूरी ताकत लगा कर परे धकेलती और पिछवाड़े पर पुरजोर लात लगा कमरे से बाहर करती हुई चिल्लाती है, “दोबारा कोशिश नहीं करना, वरना काली हो जाऊँगी..!”
– विभा रानी श्रीवास्तव
पटना #बिहार , भारत
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आशीर्वाद
दादी का आशीर्वचन सुनकर हर तरफ ठहाके गूंज उठे और दादी खुद सकपका गईं . क्या करतीं , अपने लाडले पोते मोहित के लिए उनकी चिन्ता वाजिब ही तो थी !
करीब साल भर पहले मोहित के लिए जब लड़की ढूँढ़ रहे थे बड़े बूढों का कहना था सुशील व घरेलु कन्या ठीक रहेगी जबकी तुलनात्मक जवान पीढ़ी नौकरीशुदा लड़की की वकालत कर रहे थे .
“आजकल घरेलु लड़कियां कहाँ होती हैं दादी ?” कजिन हिना ने कहा .
“और वैसे भी मुझे स्मार्ट गर्ल चाहिए मेरे जीवन में !” मोहित चिढ़ कर बोला .
“इतनी ही स्मार्टनेस की पड़ी है तो खुद क्यों नहीं पसंद कर ली ?” मम्मी जी गुर्राई .
हिना तपाक से बोली , “इसने तो ढेरों पसंद की !” हिना आँख मटका रही थी .
“फिर ?” दादी को विश्वास नहीं हुआ .
“किसी ने इसे हाँ नहीं की !” हिना ने मोहित द्वारा पानी की बोतल का वार डक किया .
“ऐसा कैसे हो सकता है , हैं ?” मम्मी को अब मोहित पर प्यार आ रहा था और वह दुनिया का दूसरा सबसे स्मार्ट लड़का दिखाई दे रहा था . दूसरा ? हाँ ! मम्मी को अभिषेक बच्चन ही सबसे ज्यादा स्मार्ट लगता है .
“कैसे हो सकता है का मतलब ? ताई जी , इसके बाल देखो , इसके कपड़ों की पसंद देखो ….”
“तू चुप करेगी या …”
…ऐसे ही समय गुजरता जा रहा था . आख़िरकार एक लड़की फाइनल हुई . कहने को तो यह रिश्ता मामी जी के तरफ़ से सुझाया हुआ था परन्तु मोहित इसे लव मैरिज ही बता रहा था . मोहित की मम्मी भी . अजी नए ज़माने में नाक का सवाल जो है .
“पढ़ी लिखी है ! नौकरी करती है ! ‘फर्स्ट क्राई’ पर मार्केटिंग मेनेजर कम सेल्स गर्ल !” मम्मी जी पड़ोसनों के उत्सुक सवालों के दुगुने उत्साह से जवाब दे रही थीं .
दादी जी सब सुन सुन कर बेचैन हुई जाती थीं . बच्चों की ख़ुशी में ही ख़ुशी है सोच कर कुछ कहती नहीं थीं . वैसे भी कह कर ही क्या हो जाना है , यह बात भी वे भली भांति जानती थी .
“नौकरीपेशा ? ओ !’ मिसेस वर्मा ने आश्चर्य जताया .
“कमाती है !” नंदिनी की आवाज में व्यंग था कि तारीफ़ कहना मुश्किल था .
“आजकल की इन पढ़ी लिखी , इंडिपेंडेंट लड़कियों का क्या भरोसा !”
“सुनना तो इन्हें पसंद ही नहीं जी !” ऊपर वाली डॉ सरोज बोली .
“हाँ , जरा खटपट हुई नहीं कि ये जा वो जा !”
“हैं !!!”
“हाँ !!!”
इन औरतों की बातें सुन सुनकर दादी का तो खून ही सूखता जाता था . साल भर में कितनी ही बार हुआ कि “क्या लड़की ने मना कर दिया ?” वाला प्रश्न जब तब मुंह बाए खड़ा हो जाता .
“अरी भागवान शुभ शुभ बोल ! तुम्हारी इन्हीं बातों से न वो आने के बाद भी जाने टिकेगी भी या नहीं !” पापा अलग हलकान हुए जाते थे . सौ बात की एक बात , किसी तरह फेरे पड़ जाएँ . तो लो जी, वो भी पड़ ही गए !
फेरे के बाद जोड़ा सबसे बुजुर्ग का सबसे पहले आशीर्वाद लेने दादीजी की ओर बढ़ा. दादीजी सूखे सूखे मुंह से पसीने भरी हथेली मोहित के सर पर रख बस इतना ही बोल पाई – “सदा सुहाग रहो !
शुभ – लाभ”
“अरे मम्मी !”
“के होयो ? ओहो ! फेर टूटगी चप्पल !”
“पच्च्च ! अब के करूँ तो ?”
“कोई बात नहीं बेटा , चौराया कन्न ही टांका दुआ लांगा !”
“और कितना टांका दुआएगी माँ ईनअ ! अब तो नई ही चप्पल लेर दे !”
आवाज सुन कर मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला , “लगता है लाली आई है !” मैं इनको बोली मगर खुद ही दरवाजे की ओर लपकी .
ये स्लो मोशन में अख़बार पलटते हुए बोले, “आवाज तो उसी की लग रही है !”
“ओ लालीss ! बालकनी में आ ” मैंने मालन को आवाज लगाई. “तुमको बोला था न वो ट्रांसफार्मर के नीचे के सारे झाड़-झंकड़ साफ कर देना ?”
कॉलोनी में चंद खाली प्लाट ही थे जहाँ कच्ची जमीं दिख जाती थी . नहीं तो सारे अपार्टमेंट , उसके बाहर सड़क तक फैले पार्किंग और सड़क के आसपास पूरा का पूरा सीमेंट किये हुए था या फिर टाइल बिछाई हुई थी . जितने पेड़-पौधे थे वे सब छोटे नहीं तो बड़े गमलों ही में थे . मगर फिर भी यह आषाढ़ का महिना लगते-लगते जाने कहाँ-कहाँ से झाड़ झंकड़ तो उग ही आते , जाने पीपल कैसे जड़ जमा लेते हैं ? हम बेहद सभ्य लोगों को यह हरियाली कम और बेतरतीब फैले से कचरा ही लगते हैं . पक्षी भी चहकते उड़ते फिरते अच्छे लगते हैं मगर बालकनी में , कार पर जगह-जगह बीट की गंदगी से परेशान हुए तो …
“भाभी जी एकदम साफ़ कर दिए सारे झाड़ !” अब तक लाली पीछे पार्किंग की तरफ से घूम कर मेरे पास ही आ गई थी .
“कहाँ साफ कर दिए ? वो पीपल तो दिख ही रहा है ? हैं ?” मन ही मन मैंने मालन को कोसा, यह मालन पैसे तो पूरे लेती है मगर काम में यूँ …
“भाभी जी पीपल तो मैं कोनी उपाडूं !”
“अरे तो पीपल का जड़ ट्रांसफर्मर के नीचे नुकसान नहीं करेगा? और फिर हमारा बेसमेंट भी तो ?”
“कोई और न बोल दीजो आप ! म्हारे अठ पीपल की पूजा किया करअ हैं , बीमअ देवता रो वास होवअ ह !”
“अरे लेकिन !”
“किसी और को पैसा दोगी , इसी को सौ रुपये एक्स्ट्रा देदो !” भीतर से इनकी आवाज आई .
“पीसा री बात कोनी भाभीजी !” लाली का चेहरा छोटा सा हो गया था. काम के लिए मना करना उसे कभी भाया नहीं . मगर यहाँ बात उसके आस्था की थी.
“चलो कोई बात नहीं , तुम्हारी आस्था पर चोट पहुँचा कर दुखी नहीं करुँगी तुम्हें !” मैं उसको समझने की कोशिश कर रही थी .
“भाभी जी बात कोरी आस्था की है भी कोनी . मैं ठहरी मालन , इब मालन होकर तो पेड़-पौधा रो महत्त्व समझनो पड़ोगो न .” कहते हुए उसने राम राम की मुद्रा में हाथ जोड़ा और कुचले लिए खड़े अपने बेटे की ओर मुड़ गई, “चाल छोरा !” कहती वह साइकिल के पीछे उचक कर बैठ गई . उसका बेटा टूटी हुई चप्पल से सामंजस्य बैठा पैडल मारता आगे बढ़ गया .
मुखर कविता
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गेहूँ संग पिसा घुन !
कोरोना ने बहुत सी जिंदगियों को कड़वे घूँट पिला कर मानवता, रिश्ते , प्रेम और विश्वास के टुकड़े-टुकड़े कर दिये ।
रुटीन चैकअप के लिए सोनू हमेशा सैम्पल लेने के लिए आता था । हर पाँच महीने में बुलाते थे और इस कोरोना काल में भी उसको बुलाया गया।
वह एक डॉक्टर के क्लीनिक में काम करता आ रहा था । वर्षों से और फिर क्लीनिक से नर्सिंग होम, पैथालॉजी सेंटर में विस्तार होता गया ।
वह पूर्ववत् ईमानदारी से काम कर रहा था बल्कि संघर्ष काल से इतनी ऊँचाइयों तक पहुँचने का एक मात्र साक्षी था।
तभी शुरू हुआ कोरोना का कहर और तबलीगियों के साथ वह भी शक के घेरे में आ गया ।
एक दिन सोनू को ये कहकर रोका गया कि अब तुम्हारी जरूरत नहीं है । काम कम हो रहा है।
उसे उम्मीद थी कि जल्दी बुला लिया जायेगा लेकिन धक्का तब लगा जब दूर से आने वाले कर्मियों को बराबर बुलाया जा रहा था । वह इसके लिए भी बात करने गया कि पन्द्रह दिन ही ड्यूटी दे दी जाय लेकिन एकदम मना ।
वह साढ़े तीन महीने घर पर रहकर पूँजी खाता रहा और एक दिन उसे दूसरी पैथोलॉजी लैब में नौकरी मिल गयी ।
. पुराने डॉक्टर साहब ने कोरोना के लिए एक ब्रांच खोली और विश्वसनीय आदमी खोज रहे थे तो एक दिन सोनू को बुलाया और वापस आने को कहा – मनमाने वेतन पर क्योंकि इस बीच कई चूना लगा कर निकल लिए थे ।
“हाँ तो सोनू क्या सोचा?”
” सर मैं सोनू नहीं बल्कि अख्तर हूँ , सोनू तो कोरोना की भेंट चढ़ गया । ये अख़्तर इंसान पहचानना सीख गया है ।”
नयी पीढ़ी
जब से शर्मा जी की पत्नी उन्हें छोड़कर चली गयीं , वे इसी तरह रोज घर से निकलते हैं और इस खम्भे पर टँगे पत्रों को एक एक कर देखते हैं कि शायद उनके बेटे का पत्र आ जाय कि वह उनको लेने आ रहा है।
जब तक दोनों थे तो जरूरत ही नहीं थी , एक दूसरे का सहारा था। जब पत्नी नहीं रहीं तो फोन किया गया कि माँ नहीं रहीं आकर अंतिम दर्शन कर लो ।
वहाँ से उत्तर आया – “मैं नहीं आ पाऊँगा और मेरा इंतजार न करें और आप उनका संस्कार कर दें ।”
वो तो सक्षम हैं अपना खर्च उठाने में। लेकिन इस उम्र में अकेले रहना मुश्किल हो रहा था ।
आखिर आज उनकी प्रतीक्षा पूरी हुई । पत्र आया है, लेकिन बेटे का नहीं बल्कि पोते का । वह आँखें मल मल कर बार.बार उस पर लिखा नाम पढ़ रहे थे । आँखे आँसुओं से धुँधला रही थीं तो पत्र उन्होंने पढ़ा – “दादू मैं आ रहा हूँ , आपको लेने के लिए ।” आज ब्याज ने अपना रंग दिखा दिया
मन के सपने !
निधि ने इस बार स्टेशन पर उतरते ही सोच रखा था कि इस बार ऑटो से नहीं बल्कि रिक्शे से बेटी के हॉस्टल जाऊँगी। सुबह ट्रैन पहुँचती है तो आस पास का नजारा देखने में अच्छा लगता है। स्टेशन से बाहर निकली तो सामने पार्क के बाहर ढेर सारे रिक्शे खड़े थे और वहाँ पर कोई रिक्शेवाला पास की दुकान में नाश्ता कर रहा था , कोई पार्क के अंदर लगे नल पर नहा रहा था और कोई रिक्शे पर बैठा सवारी का इन्तजार कर रहा था।
अचानक निधि की नजर राजू पर पड़ी , अरे ये तो राजू है , उसके घर से कुछ दूर पर उसका घर है। पिता शराबी था और एक दिन छोटे छोटे बच्चों को छोड़ कर चल बसा। हर तरफ एक ही आवाज थी कि अब क्या होगा ? सावित्री क्या करेगी ? तीन बेटों और एक बेटी का बोझ है उसके ऊपर। पति तो मानो बोझ ही था। कुछ अनाज गाँव से आ जाता तो किसी तरह से गुजर बसर कर लेती थी। थोड़ा बड़ा होते ही राजू घर से निकल आया। वहां पर किसी को कुछ भी पता नहीं था कि वह करता क्या है ? लेकिन साल छह महीने में जब भी जाता खूब ठाठ से जाता। बढ़िया कपडे , सबके लिए कुछ न कुछ ले जाता। मोहल्ले वाले समझते कि कहीं कुछ तो कमा ही रहा है और सावित्री की सहायता भी हो रही है। वह हर महीने मनीऑर्डर से कुछ पैसे भेजता रहता था।
निधि ने उसे देख कर टोका – “राजू ”
वह चौंका कि उसको घर के नाम से पुकारने वाला यहाँ कौन आ गया ? वह रिक्शे से उतर कर खड़ा हो गया और पलट कर निधि को देखा। वह एकदम सकपका गया फिर खुद पर काबू पाते हुए बोला – “आंटी जी आप यहाँ कैसे ?”
“यहाँ पास ही हॉस्टल में बेटी रहकर पढ़ रही है , उसी के पास आयी थी। चलोगे वहां तक ?”
“जी क्यों नहीं ? आइये। ”
निधि रिक्शे में बैठ गयी और उसको बेटी के हॉस्टल का पता बता कर चलने को कहा। रास्ते में वह मोहल्ले के हालचाल पूछता रहा और बताता रहा कि वह यहाँ इतना कमा लेता है कि घर भेज कर कुछ बचा भी लेता है और अपना क्या यहां पार्क के किनारे रिक्शा लगा कर सो जाता हूँ और सुबह उठ कर नहा धो कर फिर रिक्शा उठा लेता हूँ। जहाँ भूख लगी कुछ खा लिया और फिर यही काम।
हॉस्टल आ चुका था तो निधि ने राजू से रुकने को कहा और उतर कर उसे पैसे देने लगी तो राजू ने पैसे लेने से इंकार कर दिया।
“अरे आप से पैसे लेकर कोई अमीर नहीं हो जाऊँगा , घर में भी कोई पैसे लेता है।” राजू थोड़ा पीछे हट गया।
“अच्छा मेरा आशीर्वाद समझ कर ले लो , खूब कमाई करो और ईश्वर तुम्हें बरकत दे। ” कह कर निधि ने उसके हाथ पर दस का एक नोट रख दिया और चलने के लिए मुड़ी ही थी कि राजू ने बुलाया – “आंटी जी , एक बात सुनिए। ”
निधि मुड़ कर वापस आयी – “हाँ कहो राजू क्या बात है ?”
उसने हाथ जोड़ रखे थे और विनय के साथ बोला – ” आंटी जी ये बात कि मैं यहाँ रिक्शा चलता हूँ , आप मोहल्ले में किसी को मत बतलाईयेगा क्योंकि आप जानती है कि मैं ज्योति को पढ़ा लिखा कर कुछ बनाना चाहता हूँ और कल को जब उसकी शादी करने चलूँगा तो रिक्शे वाली की बहन समझ कर कोई मुझे अपने दरवाजे खड़ा नहीं होने देगा। मैं उसकी शादी भी अच्छे घर में ही करना चाहता हूँ। राजू की आँखों में आंसूं देख कर निधि ने उसके सिर पर हाथ फिरा कर बोली – ” राजू तुम बेफिक्र रहो , ये बात मैं कभी किसी को नहीं बताऊँगी क्योंकि ज्योति तुम्हारी बहन है तो मेरी भी बेटी है। ”
राजू मन में संतोष लिए रिक्शा लेकर वापस मुड़ गया।
रेखा श्रीवास्तव
कानपुर