शशि बंसल , संजीव आहुजा, शोभा रस्तोगी, ज्योत्सना सिंह


चोला
” खोंss खों ssss…।” सविता खाँसती हुई रसोई के काम में जुटी थी।
” माँ, आपसे मना किया था न…. जब तक तबीयत ठीक नहीं हो जाती आप रसोई में नहीं आएँगी। जाइये, जाकर आराम करिये…पापा के लिए चाय-नाश्ता मैं बना दूँगी ।” साक्षी ने माँ का हाथ पकड़कर रोकते हुए कहा।
” मैं ठीक हूँ बेटी। तू जा, कल की परीक्षा की तैयारी कर। यह तो रोज़ का काम है , होता रहेगा । इस मुई खाँसी की तो आदत हो गई अब ।” साक्षी माँ की काम करने की आदत जानती थी , इसलिए बग़ैर कुछ बोले चली गई ।
सविता चाय-नाश्ता लेकर ‘ड्राइंग-रूम’ में पहुँची । सोफ़े पर पति अमित अधलेटा हो टी.वी. पर राजनीतिक बहस देखने में तल्लीन था । उँगलियों में सदा की तरह सिगरेट दबी थी । उसकी आदत में शुमार था , एक – एक कश खींचना और आनंद लेकर नाक व मुँह से धुएँ के छल्ले बनाकर छोड़ते जाना । सिगरेट के कश बहस की गति के साथ तीव्र और मंद होते रहते । पूरा कमरा ही धुएँ से अंधिया जाता। इसकी आदी सविता चाय का प्याला ले पास ही बैठ गई । मुश्किल से दो घूँट भी न भरे थे कि अचानक जोर से आये ठसके ने मुँह की सारी चाय बाहर कर दी।
” जब देखो खोंsss खोंsss करती रहती है … मुँह पर हाथ नहीं रख सकती थी क्या ? कपड़े और मूड दोनों ख़राब कर दिए स्साली ने… ” अमित का चेहरा गुस्से से लाल हो गया था ।
तेज़ आवाज सुनकर साक्षी भी अपने कमरे से दौड़ी चली आई । माँ की पीठ सहलाते हुए बोली , ” वाह पापा वाह ! चाय के दो-चार
*चोला*
” माँ , चाय बना दो जल्दी से …” उनींदे विभू ने सोफ़े पर लेटते हुए कहा और मोबाइल चालू कर लिया ।
रमा के सब्जी काटते हुए हाथ रुक गए । अधूरी कटी सब्जी टेबिल पर छोड़कर वह रसोई में गईं । गैस चालू की और चाय की भगोनी चढ़ा दी । तभी पति की तेज़ आवाज़ सुनाई दी ,
” देख रहा हूँ दिन-पर-दिन बहुत आलसी होते जा रहे हो । बिस्तर छोड़कर उठे तो यहाँ सोफ़े पर आकर लोट गए । ”
” क्या हुआ जी ? सुबह-सुबह इतना क्यों चिल्ला रहे हैं ?” रमा भीतर से ही तेज़ आवाज़ में बोली ।
” चिल्ला नहीं रहा हूँ , समझा रहा हूँ इसे । अब ये छोटा बच्चा नहीं रहा । बताओ भला , ये कोई उम्र है , हर घड़ी लोट लगाने की ? ” कैलाश बाबू गुस्से में बड़बड़ाते हुए समाचार पत्र लेकर कुर्सी में धँस गए ।
” हर घड़ी लोट लगाने की मतलब ? कैसी बात करते हो पापा ? मेरी कोचिंग सुबह आठ से रात आठ बज़े तक होती है । आने-जाने के एक – डेढ़ घण्टे अलग । फ़िर कौन सा आकर सो ही जाता हूँ ? रिवीज़न भी तो करना पड़ता है । ” चाय आ चुकी थी । विभू मोबाइल टेबिल पर रखकर आलथी-पालथी मारकर बैठ गया था । उसके शब्द इतने शांत थे , मानो वह इस सबका अभ्यस्त हो ।
” अरे तो क्या हुआ… जैसे हमने तो पढ़ाई की ही नहीं । वैसे ही बड़े हो गए । अरे… सुबह-सुबह का समय है । ये नहीं , थोड़ा वर्जिश करे , बाहर नहीं जा सकता तो छत पर जाकर टहल ले । पर नहीं … ज़नाब बिस्तर से उठे तो सोफ़े पर पोड़ गए । न कोई दुआ-सलाम , न राम-राम । मानो पढ़ाई और मोबाइल ही रह गया दुनिया में…” समाचार पत्र की घड़ी अभी तक नहीं खोली थी कैलाश बाबू ने । डाँटते हुए लहराते हाथों के साथ अब वह भी लहराने लगा था ।
” ओफ्फो… अब बस भी करो । रोज़-रोज़ एक ही रट लगाकर बैठ जाते हो सुबह से । ये नहीं लड़का जवान हो रहा है । दो घड़ी हँसकर ही बात कर लो । ” आटा सने हाथों से ही रमा बाहर आ गई थी ।
” रट नहीं लगाता हूँ । दुनियादारी सिखाता हूँ , पर तुम माँ-बेटे मेरी चलने दो , तब न …सच कह रहा हूँ रमा , इसे बिगाड़ने में पूरा तुम्हारा ही हाथ है । तुम्हारी ही शह पर ये इतना लापरवाह होता जा रहा है । ” पेपर की तह झटके से खोलते हुए कैलाश बाबू झल्ला रहे थे ।
” अच्छा , अब आप दोनों अपनी चिकचिक बन्द भी करो । ” चाय का कप टेबिल पर रख कर विभू बाथरूम में घुस गया । रमा ने भी रसोई में अपने हाथ तेज़ी से चलाना शुरू कर दिए ताकि विभू के तैयार होकर आने तक टिफ़िन तैयार हो जाए ।
” माँ , टिफ़िन दे दो जल्दी से । ”
” ये ले टिफ़िन और पानी की बोतल ”
” थैंक यू माय डियरेस्ट मॉम …” कहकर विभू ने माँ के गले में बाहँ डाल दी । तभी रमा की नज़र टेबिल पर रखे जूठे कप और सोफ़े पर पड़े गीले टॉवल पर चली गई ।
” विभू , क्या है ये ? अपना जूठा कप क्यों नहीं रखा सिंक में ? और कितनी बार कहा है , गीला टॉवेल यहाँ-वहाँ मत पटका कर । ” कैलाश बाबू रमा के भीतर समा चुके थे ।
” आकर उठा दूँगा माँ , अभी देर हो रही है । ” कहकर वह पोर्च से स्कूटर निकालने लगा । आवाज़ में बेफ़िक्री साफ झलक रही थी ।
” दिनभर ऐसे ही पड़े रहेंगे … हाथ कि हाथ क्यों नहीं रखता ? ” रमा भी बड़बड़ाते हुए बाहर चली आई थी ।
” क्या हुआ , क्यों इतना शोर मचा रही हो ? एक कप ही तो छोड़ा है …तुम ही उठा लो । क्यों आसमान सिर पर उठा रही हो ? ” कैलाश बाबू भी गीला टॉवेल हाथ में लिए बाहर आ गए थे ।
” तुम जाओ बेटा , देर हो रही होगी । तुम्हारी माँ की तो आदत है जब तक सुबह-सुबह दो -चार सुना न ले , तब तक चैन नहीं पड़ती । ”
रमा हाथ बाँधे दरवाज़े से टिककर देख रही थी । बेटा स्कूटर स्टार्ट करते हुए पिता की बात सुनकर मुस्कुरा रहा था और कैलाश बाबू गीला टॉवेल बाहर बंधी रस्सी पर बहुत हल्के हाथों से फैलाते हुए उसका एक-एक सल निकाल रहे थे ।

*विकल्प*
कुछ क्षण ही बीते होंगे उस कोहराम को मचे । इला की दृष्टि घड़ी पर गई । ऑफिस का समय हो रहा था । रोज़ की ही कहानी है , सोच उसने अपने आँसू पौंछे और तुरन्त रसोई में पहुँच लंच’ तैयार कर दफ़्तर को निकल गई । दिनभर के उचाट मन ने उसके कदम मायके की ओर मोड़ दिए ।
” अरे इला बेटी ! कैसी है ? आ भीतर आ …”
” ठीक हूँ माँ ।” इला ने एक ओर पर्स पटका और धम्म से सोफ़े पर बैठ गई।
” आज फिर हाथ उठाया कमल ने ?” इला अक़्सर तभी आती , जब उसका कमल से झगड़ा होता । ये बात इला की माँ बहुत अच्छे से जानती थी ।
“………..” इला ‘टेबिल’ पर रखी पुस्तक उठाकर तेज़ी से पन्ने पलटने लगी।
” तू पढ़ी-लिखी अपने पैरों पर खड़ी है फिर भी ?”
” मेरी पगार जानती हो न माँ… ख़ुद का पेट तो भर नहीं सकती , बच्चों का क्या खाक़ भरूँगी ?” झल्लाकर बोलती इला की नज़रें अभी भी पुस्तक पर जमी थीं।
” तू हमें भी तो कमल से बात नहीं करने देती है , आख़िर कब तक सहती रहेगी सब कुछ ?” स्वर में चिंता स्पष्ट झलक रही थी ।
” एक बात पूछूँ माँ ? ” इला ने माँ की आँखों में आँखे डालते हुए पूछा।
” हम्म…” माँ की आँखें उत्सुकता से फैल गईं ।
” क्या … क्या तुम मुझे और… बच्चों को रखने को तैयार हो ? ” उत्तर जानने की व्यग्रता इला के चेहरे पर साफ़ दिख रही थी।
“………” कुछ क्षणों के बाद कमरे में ख़ामोशी गूँज उठी ।” तेरे पापा से पूछती हूँ । ”
” इसकी ज़रुरत नहीं ” व्यंग्य मिश्रित मुस्कान फेंक इला पर्स उठाकर बाहर निकल गई ।

*सवाल*
” खोंss खों ssss…।” सविता खाँसती हुई रसोई के काम में जुटी थी।
” माँ, आपसे मना किया था न…. जब तक तबीयत ठीक नहीं हो जाती आप रसोई में नहीं आएँगी। जाइये, जाकर आराम करिये…पापा के लिए चाय-नाश्ता मैं बना दूँगी ।” साक्षी ने माँ का हाथ पकड़कर रोकते हुए कहा।
” मैं ठीक हूँ बेटी। तू जा, कल की परीक्षा की तैयारी कर। यह तो रोज़ का काम है , होता रहेगा । इस मुई खाँसी की तो आदत हो गई अब ।” साक्षी माँ की काम करने की आदत जानती थी , इसलिए बग़ैर कुछ बोले चली गई ।
सविता चाय-नाश्ता लेकर ‘ड्राइंग-रूम’ में पहुँची । सोफ़े पर पति अमित अधलेटा हो टी.वी. पर राजनीतिक बहस देखने में तल्लीन था । उँगलियों में सदा की तरह सिगरेट दबी थी । उसकी आदत में शुमार था , एक – एक कश खींचना और आनंद लेकर नाक व मुँह से धुएँ के छल्ले बनाकर छोड़ते जाना । सिगरेट के कश बहस की गति के साथ तीव्र और मंद होते रहते । पूरा कमरा ही धुएँ से अंधिया जाता। इसकी आदी सविता चाय का प्याला ले पास ही बैठ गई । मुश्किल से दो घूँट भी न भरे थे कि अचानक जोर से आये ठसके ने मुँह की सारी चाय बाहर कर दी।
” जब देखो खोंsss खोंsss करती रहती है … मुँह पर हाथ नहीं रख सकती थी क्या ? कपड़े और मूड दोनों ख़राब कर दिए स्साली ने… ” अमित का चेहरा गुस्से से लाल हो गया था ।
तेज़ आवाज सुनकर साक्षी भी अपने कमरे से दौड़ी चली आई । माँ की पीठ सहलाते हुए बोली , ” वाह पापा वाह ! चाय के दो-चार छीटें क्या गिरे , आप चिल्लाने लगे … और आपका आनंद ले – लेकर उगला ये ज़हरीला धुआँ माँ और हम बरसों से निगल रहे हैं उसका क्या ? ”

लिंग भेद*
बेचैनी से राह तक रही दो आँखें पुत्र अमित को आते देख तेजी से चमकीं , परंतु उसके हाथ में कोई पैकेट न देख उसी पल बुझ भी गईं ।
” आज भी दवा नहीं लाया मेरी ?” निर्जीव से वृद्ध शरीर को बमुश्किल पलंग से उठाकर बैठाते हुए उस बुझी आँखों के स्वामी ने निराश हो पूछा ।
” क्षमा चाहता हूँ पिताजी । चार-पाँच रोज़ में वेतन मिलते ही ले आऊँगा।” ‘लंच बॉक्स’ और पानी की ‘बॉटल’ साइड टेबिल पर रख अमित पिता के बगल में पलंग पर ही बैठ गया । “आपके ऑपरेशन के लिए पिछले माह जो पैसा ‘ऑफिस फंड’ से निकाला था , उसकी क़िस्त इस माह से कटने से हाथ ज्यादा ही तंग हो गया पिताजी ।”
” अगले माह से मुन्नी की परीक्षाएँ शुरू हो रही हैं , उसकी अतिरिक्त फीस भी भरनी होगी । नहीं तो परीक्षा में नहीं बैठ पायेगी वह ” चाय का कप अमित के हाथ में पकड़ाते हुए पत्नी ने चेतावनी भरे स्वर में कहा ।
” फिर कैसे ला पायेगा तू मेरी दवा …? ” बहू का इशारा समझ बाऊजी बच्चों की तरह रूठ फ़िर पलंग पर आड़े हो गए ।
” पिताजी , मैं सोच रहा था… सोच रहा था कि… कि क्यों न … आप दीदी से कुछ मदद माँग लें …” अमित ने कह तो दिया पर एक-एक शब्द कहने में उसे हज़ार बार ख़ुद से ही नज़रें चुरानी पड़ीं ।
जैसा कि अनुमान था , बाऊजी आपा खो बैठे ।” वसुधा से… मति मारी गई है तेरी… तूने ऐसा सोचा भी कैसे ? ” इस बार उन्हें पलंग से उठने में ताकत नहीं लगानी पड़ी । क्रोध के आवेग में ख़ुद ब ख़ुद उठ गए ।
” …… ” अमित ने नज़रें झुका लीं ।
” बेटी के आगे हाथ फैलाकर नरक में नहीं जाना हमें ।” पिता और पुत्र के वार्तालाप को रसोई के दरवाजे की आड़ से सुन रहीं अमित की माँ पति की तेज़ आवाज से बाहर आईं और टेबिल से चश्मा उठा सामने पड़ी कुर्सी पर धम्म से बैठ आँखों पर चश्मा चढ़ा लिया मानो बेटे के भाव पढ़ने में कहीं चूक न हो जाये ।
” मैं भी तो कई लोगों के आगे हाथ फैला चुका हूँ ।” इस बार अमित के स्वर में तल्ख़ी थी ।
” बेटी-दामाद से मदद की बात तो दिमाग़ से निकाल ही दे तू ।” पत्नी को समर्थन में आता देख बाऊजी का हौसला बढ़ गया ।
” पर क्यों ? वह अच्छा कमाती है , सक्षम है …”
“सक्षम है तो क्या ? हम उसकी नहीं तेरी ज़िम्मेदारी हैं ।” अमित की बात काटते हुए बाऊजी बोले ।
” सिर्फ मेरी ही ज़िम्मेदारी क्यों पिताजी ? पढ़ाया-लिखाया तो आपने उसे भी है । विवाह में भी हैसियत से बढ़कर ख़र्च किया । मकान से लेकर गहने आदि में भी बराबर ही हिस्सा दिया ।” अमित ने भी जैसे ज़िरह करने की ठान ली थी ।
” दुनिया की यही रीत है । बेटी से लिया नहीं , दिया जाता है और ये रीत हमने नहीं पुरखों ने बनाई है ” दार्शनिकता भाव से माँ ने कहा ।
” ये कैसी रीत है माँ , जो ज़िम्मेदारी में भी लिंग भेद करती है ।” बोझिल साँसें छोड़ अमित बाहर निकल गया । अम्माजी ने भी अपना चश्मा उतार कर टेबिल पर रख दिया ।
शशि बंसल
भोपाल

इबादत
” चच्च्च्sss… लो भाईजान लगता है , टायर पंचर हो गया । ” ड्राइवर ने बस की चाल को अनुमानकर ब्रेक लगाते हुए कंडक्टर से कहा ।
” सही कह रहे हो मियाँ ,ऐसा ही हुआ है । बस को थोड़ा सा आगे लगा लो । वो सामने उधर… चबूतरे की ओर । वहाँ छाँव – पानी दोनों हैं ।वहीँ नमाज़ भी हो जायेगी । ” सवारियों की ओर देखते हुए कंडक्टर ने ज़वाब दिया ।
बस ड्राइवर और कंडक्टर ने चबूतरे पर स्थित ईश्वर प्रतिमा के सामने ही अपनी जाजिम बिछाई और नमाज़ पढ़ने लगे । ये देख सभी सवारियाँ चकित हो गई । उनकी नमाज़ पूरी होते ही एक सवारी बोली, ” आप तो रहीम के बन्दे हैं न , फिर आपने हमारे रामजी के आगे नमाज़ क्यों पढ़ी ? ”
सुनकर दोनों ही मुस्कुरा दिए ।उत्तर ड्राइवर की ओर से आया , ” नाम में क्या रखा है भाई , हमको तो इबादत से मतलब है । ”


शशि बंसल
भोपाल
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बंदिशें

रमन बैठा कुछ लिख रहा था, तभी राकेश आ गया। छूटते ही उसने पूछा, “क्या लिख रहे हो भाई ?”
रमन नें बेतकल्लुफी से जवाब दिया, “अभी तो शुरू ही किया है।”
राकेश को जवाब रास नहीं आया, वो बोला, “पहले सोच समझ कर प्रारम्भ करो, तो परिणाम भी अच्छे ही मिलेंगे।”
रमन के परम मित्र राकेश, एक अच्छे लेखक हैं । बतौर लेखक समाज में, बढ़िया साख भी है । रमन का टूटा-फूटा लेखन, इधर-उधर पर्चियों में पढ़ कर उसे भी लिखनें के लिये प्रोत्साहित करने में उनका बहुत बड़ा योगदान है । मगर रमन आज तक नहीं समझ पाया कि कोई बंदिशों में कैसे लिख सकता है ।
पर राकेश से क्या कहता मजा़क करते हुए कहा, “यार देख, बन्धन में बंध कर तो मैं लिख नहीं पाता । अभी तो शुरू ही किया है, ये तो खत्म होने पर पता चलेगा क्या बना, कथा कि लघुकथा ।” और हँस दिया ।
“नहीं, तुम्हारी लेखनी में बहुत पैनापन है, सोचकर लिखा करो ।” राकेश नें उसे समझाते हुए कहा ।
“हम कोई आपकी तरह पहुंचे हुऐ लेखक तो हैं नहीं, काम चलाऊ लिख लेते हैं, खर्च भर कमा लेते हैं ।”
यह सुनकर राकेश के चेहरे पर कई रंगों नें अपनी छटा बिखेरी पर वो सबको समेटते हुऐ बोला,
“आये तो थे एक बात करने हम दोनों के भले की, अगर कुछ सुनों और तवज्ज़ो करो तो कहें ।”
“हाँ हाँ कहो, तुम्हें सोचने-पूछने की जरूरत कब से पड़ने लगी ।”
“मेरी नावेल ‘प्रियतमा’ याद है, उसे अपार सफलता मिली थी । अब एक फिल्म निर्माता नें सम्पर्क किया है, उस पर फिल्म बनाना चाहता है ।”
“बधाई हो, तू तो एक सीढ़ी और चढ़ गया ।” बीच में ही काट कर रमन बोल पड़ा ।
“पूरी बात तो सुन ले मेरे भाई, मैने एक शर्त रख दी कि डायलाग भी हम ही लिखेंगे । पर मेरे इस विचार के पीछे तेरी तीखी लेखनी भी थी । तेरी बात सुनकर सोच में पड़ गया । न जाने तू कहानी की बंदिशों में अपना वो अंदाज़ दे भी पायेगा या नहीं ?”
रमन को चुप और सोच में डूबा हुआ देख, राकेश बोला, “तू सोच कर बताना, मेरा मानना है हम दोनों के दिमाग और लेखनी के तेवर मिल जायें, तो गज़ब ढ़ा सकते हैं ।” और वो चला गया ।
उसके जाते ही अन्दर से पत्नी की आवाज़ आयी, “ज्यादा सोचो मत, हाँ कर दो । इज़्ज़त की रोटी तो तुम्हारी स्वतन्त्र लेखनी खिला ही देती है । आगे बेटी की शादी भी करनी है, उसके लिये कुछ बंदिशें भी स्वीकार कर लो ।”

कबाड़

पत्नी सुवर्णा की मृत्यु के बाद, इस उम्र में अकेले गृहस्थी चला पाने की अस्मर्थता को समझते हुऐ मनोहर जी, बाकी की जिन्दगी बेटे के पास बितानें के लिये अपने मन को समझा चुके थे ।
सुबह से ही घर की हर चीज को देखते पुरानी यादों में खो जाते । कभी मुस्कुराते, कभी नम आँखों के कोरों को पोंछते । एक-एक चीज, जो बड़ी मेहनत व शौक से उन्होंने और सुवर्णा नें जोड़ी थी, आज बिछड़ते वक्त उतना ही दर्द दे रही थी, जितना किसी अपने से दूर जाने पर होता है ।
बहू नें आते ही प्यार जताते हुए कहा, “पापा जी जरूरी समान छाँट लीजिये, अब तो आप हमारे साथ ही रहेंगे” कुछ पल ठहर कर, “आपके आशीर्वाद से हमारा घर तो पूर्ण सुसज्जित है । बाकी का समान कबाड़ी को बुला कर बेच देते हैं । ये कबाड़ वहाँ ले जाकर क्या करेंगे ?”
अपनी प्यार से संजोयी गृहस्थी को कबाड़ कहा जाना मनोहर जी को बिल्कुल भी न भाया । थोड़ा रूखे स्वर में बोले, “नहीं-नहीं, फिलहाल यहीं बंद कर जाते हैं, बाद में सोचेंगे ।”
मनोहर जी मन ही मन अपनें फैसले का पुनरावलोकन करनें लगे, ‘आज मैं कुछ कर सकनें में समर्थ हूँ, इसीलिये मुझे साथ ले जाना शायद इन्हें उपयुक्त लग रहा है, कहीं कल मैं भी इन्हें कबाड़ लगनें लगा तो ?’

संजीव आहूजा
बाराबंकी

कैनवास
कैनवास सैट कर उसने अंदर की दुनिया के कपाट खोले। चित्र बनाना शुरू किया । पहले-पहल जो चित्र बना–वह, फसलविहीन खेतों के बीच पेड़ों पर लटकी किसानों की लाशों का था । इस चित्र को बनाते हुए उसकी कूची कई बार काँपी। नमी से नज़र में धुँधलापन छाया रहा ।
उसने दूसरा कैनवास उठाया और चित्र बनाने लगा । अबकी दफा सामूहिक बलात्कार उपरान्त खून के आँसू बहाती, कटी-फटी युवती का चित्र बना । कूची फिर कई मर्तबा काँपी और नज़र धुँधलाई ।
हताश हो, तीसरा कैनवास उठाया और चित्र बनाना प्रारम्भ किया । इस बार जो चित्र बना, उसमें अनायास ही लाल रंग का इस्तेमाल भारी मात्रा में हुआ । आतंकवादियों द्वारा निर्दोष लोगों के कत्लेआम का लोमहर्षक चित्र उसके सामने था। एक बार पुनः धुँधलके से नज़र भर उठी और कूची तो बार-बार काँपी ही।
कूची के लगातार कम्पन और नज़र में छाने वाली बार-बार की धुंध ने उसकी तलाश को विस्तार दिया । उसने एक और कैनवास उठाया । उसे गहरे काले रंग से पोता। देश की गरिमामयी संसद के भीतर का चित्र खींच दिया । इसमें सफेदपोश नेता एक दूसरे पर चप्पल – जूते और कुर्सियाँ फेंक रहे थे । यह चित्र बनाते हुए न उसकी नज़र धुँधलाई, न कूची ही काँपी… एक दफ़ा भी नहीं।
पहले के तीनों चित्रों को इस आखिरी चित्र के पीछे सेट करना उसे ठीक लगा ।

डंक वाली मधुमक्खी
भिन-भिन-भिन… मधुमक्खी मंडरा रही है।
‘ओह ! पाँच बज गए। इतनी देर… क्लास तो तीन बजे ही छूट जाती है। एक घंटा आने का…। कहीं मौसी के घर न चली गयी हो… वैसे जाती तो नहीं।’ बड़बड़ाती हुई फोन लगाती है। ‘ओह ! वहाँ भी नहीं… कहीं भी नहीं…’ गुस्से से फोन पटकती है। भिन-भिन करती मक्खी फोन पे आ बैठती है – काले बड़े डंक वाली।
‘जाने क्या हुआ होगा ?… दामिनी कांड के बाद तो रोज ही कोई न कोई… कहीं न कहीं… मेरी बच्ची ?… किसी मुसीबत में ?… सारे महत्वपूर्ण फोन नंबर भी याद कराए थे उसे।’ मक्खी उसके चारों तरफ गोल-गोल चक्कर लगा रही है। ‘हट …हट।’ कपड़ा ले उसे भगाने लगती है।
‘मुई… ये मक्खी…’ जाली का दरवाजा बंद करती है। मक्खी को बाहर कर आती है। ट्रिन… ट्रिन… लगा बेटी का ही फोन होगा।
“हैल्लो।”
“हाँ, हैल्लो…।”
“अरे ! तुम हो क्या ?”
“परेशां लग रही हो ?”
“कनु जो नहीं आई अभी तक।”
“थोडा इंतजार करो…।”
“कितना ? दिल ऊपर-नीचे हो रहा है।”
“फोन किया उसे ?”
“दस बार। आऊट ऑफ कवरेज़ आ रहा है।”
“नेटवर्क नहीं लग रहा होगा। धैर्य रखो। आ जाएगी।”
“तुम माँ नहीं हो न।”
फोन कट। भिन… भिन… भिन… जाने कहाँ से आ वही मक्खी पुन: भिनभिनाती है।
‘अभी तो निकाला था इसे। घुस आई दुबारा… निकम्मी।’
ट्रिन…ट्रिन… फोन उठाती है… नो रेस्पोंस।
‘हाय ! मेरी बिटिया…’
‘ओह ! ये तो डोर बेल है।’ भागकर दरवाज़ा खोलती है।
“आ गयी तू ? मैं तो मर ही जाती।”
“ओफ्फोह मम्मा ! थोड़ा तो पेशेंस रखा करो।”
“टाइम देख रही है… साढ़े पाँच बजे हैं। रोजाना तो चार बजे…।”
“बस्स …बस मम्मा। एक घंटे की एक्स्ट्रा क्लास थी। रैली की वजह से बस आधा घंटा लेट आई ..।”
“और तेरा फोन…?”
“पूरा चार्ज नहीं हो पाया था। बैटरी डाउन हो गयी होगी।”
“अच्छा… चल, हाथ- मुँह धो ले। फुल्के उतारती हूँ। मेनगेट बंद कर दूँ जरा। किसी का भरोसा है आजकल ?” सामने वाली दीवार पर काले बड़े डंक वाली मधुमक्खी सो रही है चुपचाप दीवार से चिपक के।

और कुंडा खुल गया
रोने की आवाज़ आ रही थी पड़ोस से,छोटे बच्चे की। डॉक्टर पति का ध्यान गया इस ओर।
“छड्डो जी। ग्यारा बज रे हैं। सो जाओ।”
“मेरा मोबाइल सिरहाने रख देना। क्या पता रात में जाना पड़े।”
“कोई लोड़ नी हैगी। सोओ तुस्सी। कौन-सा उन्होंने आपकी नाइट फीस देनी है… सवेरे देखांगे।”
पति सो गया। लाइट ऑफ़ कर उसने भी बिस्तर पकड़ा। रोने की आवाज़ तेज हो गयी। करवट ली उसने। ‘हमें क्या पड़ा है… अपनी रात ख़राब करें।’
‘गैस-गूस हो गयी होगी। हींग का पानी नाभि में लगा देना था… और क्या ? हमारे बरगों ने भी बच्चे पाले हैं ?… वो भी कल्ले… बगैर बड़ों के।’ तभी उसे ख्याल आया कि इस बच्चे की तो दादी भी साथ ही है। भगवान को धन्यवाद दे अपनी आँखें मूँद ली उसने।
पाँच मिनट ही निकले थे कि शिशु-रुदन तीव्र हुआ। दिल घबराया।
‘कित्ता सोणा बच्चा है मोनू का… पूरे दिन नीचे बाप की दुकान में पड़ा रहता है… आने-जाने वालों की नज़र लग गयी होगी। तेल बत्ती से नज़र उतार देती।’ करवट ले मुड़ी। पति के खर्राटे व शिशु-रुदन रात्रि की नीरवता को भंग कर रहे थे। हाज़त महसूसी उसने। उठी। वॉशरूम गयी। लौटी। रुदन और ऊँचाई पकड़ने लगा। मेनगेट तक आई। कुंडा खोलने लगी।
‘पूछूं तो जरा…’ रूक गयी। ‘इस वक़्त ? …. गली में कोई चोर-उचक्का छुपा बैठा हो तो… आजकल है भरोसा किसी का ?…’ पलटी और बिस्तर में घुस गयी।
दाईं तरफ दो, बाईं तरफ तीन करवटें बदलीं। बच्चे के स्वर में अब घरवालों का स्वर भी शामिल हो गया। मोबाइल देखा। ढाई बजा था। सुना था पेट के बल लेटने से अच्छी नींद आती है। पलट गयी बिलकुल। हाथ पैर शांत थे हलकी फड़कन के साथ।
दिल…गला सूखता-सा लगा।
‘लाइट ऑन करूँ… नहीं… इनकी नींद ख़राब हो जाएगी। पूरे दिन के थके होते हैं बेचारे।’ अँधेरा टटोला। उठाई बोतल। अधलेटी पीने लगी। मुँह से घूँट का फव्वारा छूटा। धाँस आ गयी थी। खांसते-खांसते हलकान हो गयी।
“क्या हुआ ?” पति की जाग खुली।
कमर सहलाई उसकी। थोड़ा चैन पड़ा। घड़ी ने चार बजाए। बच्चे के रुदन से कमरा भरा-भरा था।
“मोनू का बेटा अभी तक रो रहा है ?”
“हाँ।”
“तुमने उठाया नहीं मुझे ?”
“वो मैंने सो…च्चा… चलो, इक बार देख लो उसे… बच्चा है।” मनुहार-सी की उसने।
पति नाइट-सूट में ही चप्पल पहनने लगे। उसने तेजी से मेनगेट का कुन्डा खोल दिया। —————–

अंडेवालाः
नुक्कड़ पे रेहड़ी लगाके दुबला सा, गंवार सा आदमी अंडे बेचता है | एक के ऊपर एक कई एग ट्रे रखी हैं | साथ ही गर्म तवा भी जिस पर आमलेट बनता है | कुछ छुट्पुटिया सामान भी | मैं अंडे लेने उसकी रेहड़ी पर पहुँची ही हूँ | चार अंडे का ऑर्डर दिया है | यकायक मेरी तीन साला बेटी मेरा हाथ छुड़ाकर तिर्छी सी झुक गई है | मैं हैरान | तभी देखती हूँ कि अंडेवाले के सिकुड़े से मुंह पर अर्थपूर्ण मुस्कान फ़िसल आई है जो मुझे बिल्कुल नागवार गुजरी | मैं परेशान और ये … मुस्कान ? मैं उसे बिना कुछ बोले थोड़ा सा झुकती हूँ | अब आश्चर्य मिश्रित मुस्कान की बारी मेरी है | रेहड़ी के दोनो पहियों पर लम्बवत एक लकडी का फ़ट्टा बिछा है | उस पर एक तरफ़ डलिया है जो शायद डस्टबिन का काम कर रही है | बाकी कुछेक रद्दी पेपर | उसी सब के बीच दो चार किताबें हैं जिन्हें हाथ में पेंसिल लिये गहरी सांवली रंगत पर सपनों की झिलमिलाती चमक सजाए एक पाँच – छह वर्षीय बच्चा पढ़ रहा है | उसकी मोटी आँखों में दूर तक उजाला साफ़ दीखता है | मेरी बेटी को देख उस उजाले का एक टुकड़ा उसके गालों तक उतर आया है | मैं सीधी खडी होती हुई अपना दायाँ हाथ बढ़ा देती हूँ अंडेवाले के सम्मान में |

जिन्दगी यूँ भी
‘शादी करना चाहता हूँ, तुमसे।’
ठठाकर हंस पड़ी वह, ‘सदी का विनर जोक।’
‘आई मीन इट।’
‘नो, नैवर । नहीं चाहिए सोकाल्ड दया, तरस । तुम छिछोरे आशिकों ने समझा क्या है ? एक लगा रहा पीछे, घास न डाली तो तेजाब का गुलदस्ता थमा गया और अब तुम … इत्ती भी इजाजत नहीं दूंगी ओ पुरुष, कि तुम अपमान करते रहो औरत का । मेरी जिन्दगी है, करियर है, मां बाप हैं । तेजाब से लिपट मेरी खूबसूरती यदि बदसूरती के पायदान पर लुढ़क आई है तो क्या …मैं खत्म ? देखो, जिन्दा हूँ मैं पुख्ता सबूतों के साथ और खुश भी …अकेली ही । प्रवेश वर्जित है पुरुषी तांक झांक का …’
‘गौर से देखो मुझे । मैं तुम्हारा वही प्यार हूँ । जब मैं नहीं बदला तो फिर तुम ? आम सी तनख्वाह में आम आदमी । रिपोर्टर हूँ । सुन्दर, शिक्षित लड़कियों के फ़ोटो भेजे हैं माँ ने ।’ जेब से फ़िसल गए कुछ छायाचित्र ।
‘ तो … जाओ वहाँ ।’
‘ औरत के संघर्ष की जिन्दा कहानियाँ देखी हैं मैने । लाइव कवरेज की है । हौसला लिया है उनसे और अब चाहता हूँ कि… ‘
‘समाज सुधारक बनने चले हो ।’
‘ नहीं, डाइरेक्ट दिल से । हमारे मध्य खुले प्रेम के पंखों को निस्सीम वितान दो । उन्हें झुलसाओ मत।
गहरी नज़रों से तौल रही थी वह उसे ,” शक है कि प्रेम आगे भी रहेगा अलबत्ता कुछ और जरूर ही हो जाएगा ।’
‘उस तरफ़ भी तुम्हारी ही पहल होगी। तोपर भी तलाक़ का विकल्प तो खुला ही है ।’ उसके कहे में सच्चाई का टुकड़ा तलाश रही थी वह ।
‘इट टेक्स टाइम ।’
‘पूरा लो। मैं यहीं मिलूंगा सदा।’
घरवाले तैयार थे। स्वयं वह … ‘न … न …पहले की बात जुदा थी । तब मेरा सौंदर्य इसे जीवन देता था किंतु अब मरघट की काली जली फफोलेभरी उदासी का घर है मेरा चेहरा । यह एक सामान्य युवक, मुझ बेतरह बदसूरत औरत से …’
तेजाबी इश्क़ में जली सखियों से चर्चा की । रिस्पांस पोजिटिव था । किन्तु – परंतु से खुद वह हिल नहीं पा रही थी ।माँ ने समझाया,
‘ बेटी, उसे क्या मिल रहा है तुमसे शादी कर … और फिर हम कब तक बँधे रहेंगे तुम्हारे साथ । पूरे जीवन की कँटीली सड़क पर शायद ही कोई दूसरा मिले ‘।यकायक माँ के शब्दों का अर्थ उसकी आँखों से फ़िसल चेहरे पे उलीच गया ।
‘ ओह, माँ भी…’ मोबाइल उठाया, ‘ प्रशांत, मेरे ऑफ़िस के बाहर मिलो एंगेजमेंट रिंग के साथ ।’
‘देखो प्रशांत, ये है एंगेजमेंट रिंग और ये है फ्रेंडशिप बैंड । आज मेरा समय बेहद क्रूर है । यदि तुम मेरे पति बनते हो तो शायद मेरे समय की क्रूरता मे नाममात्र की कमी आए या इजाफा भी हो सकता है । किंतु पलट इसके मेरा भविष्य सुखद औ सहज होने की राह रौशन होगी जब तुम मुझे ये बैंड पहनाते हो ।’ प्रेयसी की आंखों में अपने लिए प्रेम नहीं वरन दोस्ती का पारदर्शी नेह आलोड़ित हो रहा था ।
प्रशांत ने उसकी झुलसी कलाई पर फ्रेंडशिप बैंड बाँध दिया। उसका वर्तमान खिलखिला उठा जिसकी गूँज भविष्य को थपथपा रही थी।

शोभा रस्तोगी

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फ़ाईनआर्ट
“सुबह-सुबह मुँह लटकाये काहे बैठी हो बिटिया?”
“अगर पैसों का इन्तज़ाम हो गया होता और हम भी कालेज टूर पे चले गए होते तो आज कोई परेशानी न होती। कालेज ट्रिप से लौट रहे सभी साथी गाँव वाली सड़क से ही गुज़रेंगे तो घर आने की कह रहे है।अब सब को इस कच्चे टूटे मकान में कैसे बुलायें?”
“बिटिया तुमको शहर में पढ़ा रहें है। वो ही हमारी हैसियत से बाहर की बात है।वो तो तुम वज़ीफ़ा ले आई और हम खेत गिरवी रख दिये तो तुमको पढ़ा पा रहे है। अब तुम पढ़ लिख कुछ बन जाओ तो अपना भी महल खड़े हो जाएगा।”
“तब तक दोस्तों और प्रोफ़ेसर के आगे नाक कटवाते रहें?”
उसने चिढ़ कर कहा तो बापू का मन बुझ सा गया फिर कुछ विचार कर बोला
“आने दो सबको बिटिया चौपाल में सबकी व्यवस्था करवा देते है।”
वो इस बात से थोड़ा सहज हुई और अपने दोस्तों को लेने गाँव की सड़क की ओर चल पड़ी।
सब को ले वापस आई तो राह में ही बापू ने उसे रोक हौले से कहा
“बिटिया चौपाल तो आज ख़ाली न है।”
अब रोष और निराशा भरी नज़रो से उसने बापू को देखा और स्वयं में ही शर्मिंदा होते हुए सबको अपने घर ले गई।
घर में प्रवेश करते ही सबके मुँह से वाह! वाओ! जैसे शब्दों की झड़ी लग गई।
उस कच्चे टूटे मकान को उसकी अनपढ़ माँ ने लीप-पोत के सुंदर अल्पना से सज़ा दिया था और सब की निगाहे उस अल्पना से हट ही न रहीं थी।तभी उसके प्रोफ़ेसर बोले
“अल्पना! अब मैं समझा जिसकी माँ स्वयं इतनी कलात्मक हो उसकी बेटी तो फ़ाइन आर्ट की होनहार स्टूडेंट होगी ही”
किसी ऊँची हवेली के गुंबद से नज़र आने लगे उसे अपने माँ बापू।

रेखाचित्र
रेखाचित्र प्रतियोगिता में प्रथम स्थान की घोषणा के साथ ही सिया का नाम पुकारा गया तो उसकी आँखो से अश्रुधारा बह निकली और वह अपनी भतीजी दिया के प्यार से गले लग गई। वह वक़्त उसकी नज़रों के सामने घूम गया जब वह उसके हठ के आगे झुक गई थी-
“बुआ! मैंने आपके रेखाचित्र एक प्रतियोगिता के लिये भेजे थे और वो चुन लिये गये है अब आपको उनके दिये विषय पर चित्र बनाना है।”
“नहीं दिया! मैंने तुमको पहले भी माना किया था।मुझसे ये सब न होगा मैं घर के बाहर कैसे जाऊँगी?”
“मैं ले जाऊगी आपको।आप अपनी ताक़त को अपनी कमज़ोरी न बनायें आप बस अपनी कला का प्रदर्शन कीजियेगा।”
“सच ही तो है।मैं कमज़ोर ही तो हूँ बिना किसी के सहारे के मैं कुछ नहीं कर सकती।”
“पर बुआ एक बार आप चित्र का विषय तो सुन लो।विषय पता है आपको क्या है? मातृत्व है!
बिना कुछ भी बोले सिया प्रतियोगिता के लिये चल पड़ी और परिणाम था उसका प्रथम आना। जब मंच पर दिया उसे ले कर गई तो जज ने कहा जो आपने अपनी रेखाओं से कहा है। अब शब्दों में हम सब से कहिये। और सिया ने कहना शुरू किया
“माँ और बच्चे का अनोखा रिश्ता नाल से कट के भी अलग नही होता वह दोनो एक दूसरे के पूरक होते हैं। माँ के हाथ में होता है बच्चे का वर्तमान और भविष्य माँ उसे हर बला से बचाती है। लगाती है नज़र का टीका पर मैं कहना चाहती हूँ कि बस नज़र का टीका ही मत लगाओ उसे स्वास्थ्य जीवन देने के लिए भी हर टीका लगाओ क्योंकि मैं नहीं चाहती कि कोई और मेरे जैसे एक पैर पर जीवन जिये।”
उसके बनाये रेखाचित्र का सार जानकर पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से भर गया।

मैला
सफ़ाई का जुनूनी कीड़ा था सूमी दी के दिमाग़ में। हर वक़्त हर चीज़ उनकी चमचम करती रहती।
घर द्वार सब क़रीने से व्यवस्थित मजाल क्या कि कोई भी चीज़ अव्यवस्थित हो या मैली-कुचैली हो।
हमारे छोटे से घर को अपने शौक़ से अभाव में भी सुंदरता का जामा पहना रक्ख़ा था उन्होंने। सात भाई- बहन के परिवार में सबसे बड़ी थी वह। इतने बड़े परिवार में जब कमाने वाला सिर्फ़ एक पिता हो तो संपन्नता तो दूर की मेहमान ही बनी रहती है। विपन्नता के पाँव पूरी तरह से तो न पसरे थे। फिर भी आँगन कुठार जब-तब अपनी पीड़ा किसी न किसी दराज़ से कह ही गुज़रते थे। बस सूमी दी का साफ़ सुथरा तौर तरीक़ा हमारे घर में रौनक़ बनाये रखता था।
सूमी दी कि क़िस्मत ने करवट बदली और हमारे अँगना उनकी बारात आई, उनसे दुगुनी उम्र के पुरुष हमारे जीजा जी बन उन्हें अपने घर की रौशनी बनाकर ले गये।
हम सब भी ख़ुश थे। दी की सुपर रिन की चमकार में अब जीजा के सिक्कों की खनक भी शामिल हो जायेगी और उनकी सफ़ेदी खिल उठेगी।
आज जब महीनों बाद सूमी दी की ससुराल आया तब उनके घर-आँगन की गंदगी देख हतप्रभ रह गया। मैं पूछ ही बैठा उनसे।
“दी! आप के होते आप का घर इतना गंदा कैसे? आप ये सब गंदगी बर्दाश्त कैसे करती हैं?”
सर्द गहराती रात में शरीर की ठिठुरन को दूर करने के लिये आग सेंकतीं सूमी दी जैसे झुलस उठी और बोली-
“जब तन-मन ही गंदा हो तो घर-द्वार की साफ़-सफ़ाई रख क्या करना है।”
तभी सामने बनी बैठक के पट खुले, लिपी- पुती सी वह नार, गज़रे की सुगंध और शराब की गंध के साथ जीजा जी और वह दालान पार कर जाते दिखे। मलिन मुख हो गई सूमी दी ने अलाव को और तेज़ कर दिया हमारे आस-पास का वातावरण उस सर्द रात में भी सुलग उठा और मेरा मन मुझसे सवाल कर उठा।
भला मेरी दी की चमक और उसकी चमक में दी को क्यूँ मैला होना पड़ा।

ज्योत्सना सिंह
गोमती नगर
लखनऊ

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