एक ललित विधा- लघुकथाः शैल अग्रवाल

जिन्दगी संभवतः आज भी सबसे खूबसूरत कहानी है।
रहस्यमय, रोमांचक और आंसू-मुस्कानों में डूबी… पन्रे-पन्ने खुलती, अध्याय-अध्याय जुड़ती और बढ़ती जाती। बस इसका अंत मनमाफिक या हमारे बस में नहीं। इसकी सफलता-असफलता, प्रयास और गलतियों को ही नहीं, संतोष और अतृप्त कामनाओं तक को संजोए रहती हैं कहानियाँ। नायक खलनायक सभी होते हैं इनमें समाज की तरह ही। यदि कविता आह का गान है, जिसे किसी वियोगी कवि ने सर्व प्रथम गाया होगा तो कहानी किसी उल्लास में डूबी दादी नानी की याद या सीख है, जीवनोपार्जन से लौटे पिता के वे अनुभव हैं , या फिर गुरु के उस ज्ञान का निष्कर्ष हैं, जिसे वह परिवार और परिचित, अपने शिष्यों से साझा करने की इक्षा रखता है। धरोहर की तरह सौंपना और सहेजना चाहता है। वह प्रेम अनुभूति है जिसका रस संभालते-संभालते भी छलक ही पड़ता है। इन कहानियों को जिन्दगी का छाया-चित्र कहना, मेरी समझ में तो अतिशयोक्ति नहीं।
प्रायः लिखने के दो ही उद्देश्य होते हैं, कुछ साझा करना या फिर एक संदेश, बिगड़ती बात और परिस्थिति को सुधारने के लिए परिवर्तन की चाह। जब कोई अनुभूति सुख की या दुख की इतनी तीव्र हो जाए कि संभाले न संभले और विस्तार भी मांगे तो बतकही न रहकर कहानी बन जाती है और जब कम शब्दों में कहना हो तो लघुकथा।
लघुकथा थोड़े में सबकुछ कह देने की और अनकहा गुनन-मनन के लिए छोड़ जाने की विधा है। हम सभी के इर्द-गिर्द ऐसी अनगिनित कथाएं नितनित बिखरी पड़ी रहती हैं, जैसे कि किनारे पर खड़े होने पर भी एक बूंद सहसा उछले और अंतस तक सिहरा जाए या एक फिर एक चिनगारी उड़े और अचानक ही फपोले छोड़ जाए, चमड़ी पर ही नहीं मन पर भी, या फिर एक बात यादों में बरसों चंदन-सी महके, कानों में बारबार गूंजे । इन अविस्मरणीय पलों को शब्दों में पिरोने की कला ही लघुकथा है। लघुकथा आसपास बिखरे मुखरित मौन को ऐसे सहेजती है जैसे कि सात सुर संगीत को। बस तरल और तीव्र नजर के साथ एक सहानुभूति भरी कलम चाहिए। कहानी की तरह ही कहन या कथनी के अनुभव पर आधारित होकर भी लघुकथा पर कहानी नहीं । हाँ कहानी की हर संभावना और विस्तार लिए हुए अवश्य है। कभी-कभी तो एक ही लघुकथा में गेंदे के फूल-सी गुंफित कई-कई कहानियाँ हो सकती है। दूसरी तरफ छोटी से छोटी चन्द शब्दों की लघुकथा भी हो सकती है जैसे कि एक संकेत, एक दृष्टि पर्याप्त है पूरी बात समझाने को। वास्तव में प्यार, नफरत, मजबूरी, अत्याचार आदि शब्द तक, अपने आप में कई -कई लघुकथाएँ समेटे हैं हजार वृतांत, संदर्भ और अध्याय समेटे हुए।
कहते हैं मृत्यु के पहले कइयों की आंखों के आगे संपूर्ण जीवन-वृत्त एक चलचित्र की भांति चलता है। संभवतः लघुकथा यही हैं…वे चुटीली मीठी नुनखुरी यादें और अनुभव जिनमें बिजली-सी चमक है और साथ-साथ मन मस्तिष्क पर वैसे ही गरजती बरसती भी हैं भिगोने डुबोने को । कभी एक खूबसूरत फूल-सी खिल जाती हैं ये और अपनी खुशबू से आत्मा तक को सुवासित कर देती हैं तो कभी दवा के एक कड़वे घूंट का भी काम करती हैं रुग्ण मनःस्थिति के उपचार हेतु । इनमें उपन्यास या कहानी की तरह ही कई परतें तो हैं- आरंभ, मध्य और अंत भी है, परन्तु कहानी या उपन्यास जैसे विस्तार की सहूलियत नहीं। सीमित शब्दों में ही सबकुछ कहना है और पाठक तक पूर्ण रूप से संप्रेषित भी करना है इसे। फलतः और भी अधिक संयम और दक्षता चाहिए इसमें। और यहीं पर एक निपुण व सशक्त लघुकथा भिन्न हो जाती है औसत या कमजोर लघुकथा से। एक अच्छी लघुकथा वह सारे असर और माहौल पैदा कर सकती है जो एक अच्छी कहानी करती है फर्क बस इतना है कि पढ़ने में आधा धंटा या कई-कई दिन नहीं, बस कुछ मिनट ही लगेंगे।
शब्दों के अंतराल से भी यह सबकुछ कह जाती है, कह सकती है। मौन भी मुखरित है यहाँ पर…हंसता, रुलाता, बहलाता, गुदगुदाता। छोटी बात का भी गहरा असर है लघुकथा। कभी-कभी तो पुरानी नीतिकथा और कई सशक्त चुटकुले तक इसी के भाई-बन्धु से प्रतीत होते हैं। अकबर और बीरबल के प्रचलित कई किस्से याद आ रहे हैं, जिनकी तासीर एक अच्छी लघुकथा से कम नहीं। बीरबल की खिचड़ी और ईंट ला , गारा ला आज भी उतनी ही सामयिक है जितनी कि तब रही होगी। और यह एक दूसरा बड़ा गुण है किसी भी अच्छी रचना का। हर युग और समाज उसे समझ पाए, महसूस कर पाए।
खोजी नजर से देखा जाए तो लघुकथाओं का प्रचलन आदि काल से ही रहा है और संभवतः जबतक मानव है, वह सोचता व समझता है , रहेगा भी। चाहे हम इन्हें नीतिकथा नाम दें, लोककथा कहें या फिर धार्मिक और पौराणिक कथाएँ। बाइबल से लेकर भगवान बुद्ध की जातक कथाएं, हमारे अपने पुराण और भागवत की कथाएँ, पंचतंत्र की कहानियाँ, इब्सन की कहानियाँ…इन आधुनिक लघुकथाओं का प्राचीनतम रूप ही तो हैं ये सभी। सवाल उठता हैृ- क्या जरूरत है इनकी? वही जो थाली भरकर खाने के बजाय दिन में नाश्ते की भी होती है , हर वक्त पेट भरकर नहीं खाया जा सकता!
एक दर्द, एक मदद की पुकार, एक चेतावनी, एक संदेश, एक मार्मिक अनिभूति, एक वर्णन या संस्मरण कुछ भी हो सकती है एक यादगार लघुकथा की विषय वस्तु पर ये सब लघुकथाएँ नही। शिल्प है यह जिसमें एकाग्रता भी चाहिए और शिल्प भी। जैसे धूप अंधेरों को हटाती है, रूप-कुरूप जो भी बिखरा पड़ा है आंखों के आगे उजागर कर देती है, हम देखना चाहें या न चाहें-इसका मकसद तो सिर्फ हमें सावधान और सचेत करना है। लघुकथा वही दिखाती है जो यह दिखाना चाहती हैं । कुरूप को भी बगल बगल में रखकर आसपास के सत्य, शिव और सुंदर से आलोकित रखती है यह हमें। हवा धूप और पानी की तरह ही, काफी हद तक साहित्य भी हमें जीवित रखता है, मानसिक खुराक देकर प्रेरित करता रहता है। साथ-साथ समय या किसी कालखंड विशेष का लेखा-जोखा भी है आगामी पीढ़ी के लिए।
आज की इस दौड़ती-भागती जिन्दगी में जब लोगों के पास समय का अभाव-सा दिखता है, लघुकथा गर्म चाय के प्याले या टेस्टी-बाइट या फिर काफी हदतक फास्ट फूड का काम करती है…त्वरित उर्जा और स्वाद देती है। आश्चर्य नहीं कि लेखक व पाठक दोनों में ही प्रचलित हो रही है । समय की मांग हैं शायद ये लघुकथाएँ।
लिखने वालों ने बस चार लाइन में भी पूरी रामायण लिख डाली है, पूरी गीता लिखी है।
अंत में बस यही कहना चाहूंगी कि आकार या विस्तार नहीं, कथ्य ही अधिक प्रमुख है रचना में। कौन-सी विधा उपयुक्त है रचना के लिए यह रचनाकार का अपना और अंतिम निर्णय होता है- जैसे कि प्रत्येक का अपना सच और झूठ। कल्पना और वास्तविकता का एक मोहक संसार है सृजन , जहाँ
‘सच एक भंवर जिसमें दीवाने डूब जाते हैं
झूठ वो पुल लोग समंदर भी लांघ आते हैं।’

शैल अग्रवाल
संपर्कः shailagrawal@hotmail.com

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