स्वेटर
माँ ने आँगन में खेलते पाँच साल के बेटे कान्हा को आवाज़ दी-“बेटा नाश्ता कर ले।”
कान्हा अंदर तो आया पर पीछे-पीछे बैट लिये चौकीदार का बच्चा गोविंदा भी आ गया।
माँ ने थोड़ा हलवा गोविंदा को भी दे दिया।
“माँ इसे हलवा मत दो, ये मुझे बैटिंग नहीं करने देता।”
“नहीं बेटा ऐसा नहीं कहते… और फिर कान्हा और गोविंदा तो एक ही हैं।” माँ ने समझाते हुए कहा।
दोनों ने जल्दी जल्दी हलवा खत्म किया और बाहर अधूरा खेल पूरा करने दौड़ पड़े …।
दोपहर में कान्हा घोड़े बेच कर सो गया।
शाम को फिर खेल शुरु हो चुका था।
“अरे…कान्हा कभी बिन बुलाये भी आ जाया कर …बाहर कितनी ठंड है…।” माँ ने आवाज़ दी।
कान्हा के पीछे-पीछे उसकी पूँछ गोविंदा भी आ खड़ा हुआ…।
ये क्या ….माँ उन दोनों को देख चीख पड़ी।
“ये नया स्वेटर तो कान्हा मैंने तेरे लिये कश्मीर से मंगवाया था …..।” माँ ने सिर पकड़ लिया।
गोविन्दा नये स्वेटर में बड़ा सजा-धजा लग रहा था।
“आप ने ही तो कहा था कि कान्हा और गोविंदा तो एक ही है….।” कान्हा की गोल- गोल आँखें खुशी से चमक रही थीं।
उत्प्रेरक
“बहुत बहुत बधाई हो मधु…इस शहर में अपना मकान बना लेना …और वो भी अकेले नन्ही बच्ची के साथ ..सच में बड़ी उपलब्धि है। ” एक स्मित मुस्कुराहट के साथ गृहप्रवेश के कार्यक्रम में मधु की मकान मालकिन शीलाजी जो बहुत सख्त अनुशासन प्रिय केमिस्ट्री की प्रोफेसर रही हैं उन्होने आज मधु को शुभकामनाएँ दीं तो मधु ने भी आगे बढ़कर उनका स्वागत करते हुये उन्हे प्रणाम किया…..और अचानक जैसे फ्लेश बैक में पहुँच गई ….मधु अपनी नन्ही रोली के साथ सिंगल मदर होते हुये उनके किराये के मकान में रह रही थी वह उसके आफिस के बहुत पास था …इससे रोली का ध्यान रखना उसे कुछ आसान हो जाता था…परंतु मकान मालकिन शीलाजी का रवैया कभी मित्रवत नहीं रहा…और एक दिन जब वह आफिस से घर लौटी तो देखा रोली की आँखें आँसुओं से भरी थी ..कलर पेंसिल से दीवारों पर आड़ी तिरछी रेखाएं खींचकर उसके नन्हे हाथों ने जो कलाकारी की थी वह उसकी माँ की नज़र में तो बाल सुलभ मासूम सी हरकत थी पर शीलाजी के लिये दीवार खराब करना था जिससे उनका दिमाग भी खराब हुआ और पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया था ।…मकान बदलना इतना आसान नहीं था क्योंकि घर के पास हो ये भी जरूरी था। मधु तब तो कुछ न बोली पर उसी दिन एक प्लाट जो उसने देख रखा था वह छोटा सा था पर उसका सौदा पक्का कर लिया और कुछ आफिस वालों की मदद से ,कुछ लोन ले कर छोटा पर सुन्दर सा मकान बनवाना शुरू करवा दिया , और आज गृहप्रवेश पर मधु को इतना सुकून मिल रहा था ये देखकर कि उसकी नन्ही रोली चारों ओर ताली बजा बजा कर घूम रही है…अब उस मासूम को टोकने वाला कोई नही होगा।
आज के कार्यक्रम में शीलाजी के आते ही सब फिर याद आ गया।
उसके सिर पर हाथ रखते हुये वे बोली, “मधु मुझे पता है,तू मुझसे नाराज है।”
“नहीं …बल्कि आपके ही कारण इतनी जल्दी मकान बन गया…।”मधु बोलना चाह रही थी पर नहीं बोल पाई।
“बेटा केमिस्ट्री पढ़ाया है जीवन भर …कुछ लोग सख़्त लगते हैं पर उत्प्रेरक का काम करते हैं।”
चैरिटी
” हेलो मैडम,आप तो आईं नहीं …..!”
“हाँ , आज पहुँच नहीं पाई….।”
“पर मैडम कल तो तय हो चुका था, आपके कहे मुताबिक झोपड़ पट्टी के पचास बच्चे भी आ गये थे…।”
“होता है कभी-कभी …नहीं पहुँच पाई आज….। ”
“पर मैडम आज सुबह बहुत ठंड थी …पचास स्वेटर बाँटने का कहा था,स्वेटर भी आ गये थे, हम लोगों ने काफी प्रचार भी कर दिया था, बच्चे सुबह से ही आ गये थे, तीन घंटे तक इंतजार करते रहे…।”
“इतनी सी बात पर तुम्हारी सुई क्यों अटक गई है…अरे, उन बच्चों को वैसे रहने की आदत है, उन्हे कुछ नहीं होगा, चार-चार संस्थाओं में चैरिटी करती हूँ तुम संवेदनाएं मुझे मत सिखाओ…।”
“साॅरी मैडम…..।”
“दोनो बड़े पेपर वाले पत्रकारों को टाईम ही नही था,आंदोलन कवर कर रहे हैं ,एक दो दिन में जैसे ही फ्री होते हैं वो तो मैं अगली तारीख बताती हूँ…एक्सपोजर भी तो देखना पड़ता है।”
बुआ की साड़ी
“बुआ ने साड़ी वापस भेज दी है,उन्हे पसंद नही आई।” रीति ने अपनी माँ को पैकेट देते हुए कहा।
“क्यों? क्या रंग पसंद नहीं आया?”..निधि ने बेटी के हाथ से पैकेट लेते हुए पूछा।
“पता नही ….पर बुआ ऐसे कैसे कर सकती हैं?” रीति ने झल्लाते हुए कहा-“पिछली बार भी उन्हे एक बार में साड़ी पसंद नहीं आई थी फिर आपके साथ बाज़ार गईं थी, क्या किसी की गिफ्ट में मीन मेख निकालना अच्छी बात है?”
“माँ,आप मुस्कुरा रही हैं? रीति का गुस्सा सातवें आसमान पर था।
“रीति तुझे याद है तूने तीसरी बार में प्लाजो पसंद किया था मैं तेरे पापा के साथ तीसरी बार बाज़ार जाकर लायी थी।” निधि ने याद दिलाया।
“तो…? तो क्या मैं अब अपने पापा से भी पसंद नापसंद की बात न करूं?” रीति तमतमाकर बोली।
“वही तो मैं कह रही हूँ बेटा, ये घर भी तो तुम्हारी बुआ के पापा का ही है…क्या वो यहाँ भी अपने पसंद-नापसंद की बात न करें?”
केवल अपने घर ही तो हम ऐसी ज़िद कर सकते हैं…….।”
रीति आवाक माँ को देखती रही।
हमदर्द
“क्या जरूरत थी उनके बीच में बोलने की…
जय के दोनों हाथ पकड़कर माँ ने बुरी तरह से झकझोरते हुए कहा…. वहाँ पति-पत्नी के बीच की लड़ाई थी, तुझे कहा किसने था वहाँ दया दिखाने के लिए…?.. माँ कहते-कहते बुरी तरह से हाँफ रही थी… लेना देना कुछ नहीं तू उन्हें जानता तक नहीं,नई-नई तेरी सर्विस अब बिना मतलब पुलिस अपने घर आएगी।”
“माँ पहले तुम थोड़ा शांत हो जाओ…..और बताओ- शहर के बीचोबीच एक आदमी निर्दयता से एक महिला को मार रहा हो, उसकी बेइज्ज़ती कर रहा हो, गालियाँ दे रहा हो … तो क्या तुम यह सोचती हो कि उसे सिर्फ इसलिए नहीं बचाया जाये क्योंकि मारने वाला उसका पति है?”
“और भी तो लोग थे बेटा… कोई भी पति पत्नी के बीच में नहीं बोला …. ।”
“वह मेरे लिए एक इंसान थी और माँ एक बात बताओ, एक सरे राह मार खाती हुई स्त्री को यदि कोई बचाने नहीं आ रहा है तो क्या मैं भी न जाऊँ, सिर्फ इसलिए कि वह अपने पति से मार खा रही है?”
माँ अंदर तक काँप उठी…..
“पर बेटा शहर के बीचों बीच की बात है एकदम कोलाहल के बीच… लोग तो न सुनने का बहाना बनाकर अपने रास्ते निकल जाते हैं।”
“माँ वो बचाओ बचाओ चिल्ला रही थी … वहाँ कोलाहल बहुत था पर इतना भी नहीं कि एक इंसान की चीख एक इंसान न सुन सके।”
जाने क्यों उस गर्वित माँ के पास अब कहने को कुछ नहीं था।
वसंत
“अरे! बेटा तू… फोन भी नहीं किया कि आ रही है !” बेटी रीना को सामने खड़ी देख कर रमा कुछ चौक गई, मन थोड़ा सशंकित हुआ, बेटी का ससुराल यही शहर में है शादी के बाद का पहला वेलेंटाइन, इत्तेफाक से रविवार , रमा ने आज यही सोचा था कि रात को ही फोन करती हूँ। दोनों आज इंजॉय करने के मूड में होंगे….. पर बेटी तो अकेली दरवाजे खड़ी है।
“अंदर आओ बेटा….।” रमा एक तरफ हटते हुये बोली।”
रीना सर झुकाए आकर सोफे पर बड़े बेमन से बैठ गई।
“माँ आज भी रवि गाँव चले गये…माना कि हर रविवार को वहाँ जाते हैं माना कि उनकी माँ हैं वहाँ…पर क्या आज शादी के पहले वैलेंटाइन पर भी …. मेरी कोई वैल्यू नहीं माँ।”
रीना की आंखों से आँसुओं की झड़ी लग गई।
“अरे पागल, इतनी सी बात… मुझे तो लगा मालूम नहीं क्या हो गया है।”
“माँ.. आज तो सुबह मुझे सोया हुआ ही छोड़ कर चले गए, दिल अंदर से टूट गया है … जब सारा प्यार माँ पर ही उड़ेलना था तो मुझसे क्यों शादी की… सिर्फ खाना बनवाने के लिए ?” रीना हिचकियाँ लेकर रो रही थी।
“बेटा …याद रखना जो लड़के माँ को प्रेम नहीं करते वो पत्नी को भी प्रेम नहीं कर सकते,और ये ऐसी भावना है जो कभी तारीखों की मोहताज नहीं ।”
तभी डोरबेल फिर बज उठी।
दरवाज़े पर हाथ में दो झोले लिये मुस्कुराते हुए रवि खड़ा था।
“अरे आओ बेटा… अंदर आओ….।”
“देखिये न माँ… यह मोहतरमा यहाँ आ गईं और मैं आज गाँव नहीं जाने वाला था। सोचा था पहला वेलेंटाइन है दिन भर साथ रहेंगे पर माँ का फोन आ गया कि बहू के लिये बनारस से बसंती साड़ी ले आई हूँ । बसंत पंचमी मंगल की है तो बीच में आ नहीं पाओगे आज ही आकर ले जाओ, सुबह-सुबह रीना को सोता हुआ छोड़ कर ही चलता बना जल्दी आने के लिये… फोन कर इतना ही बताया था कि गाँव आया हूँ।”
माँ ने देखा रीना की जिन आँखों में आँसू थे वहाँ अब वसंत था, पर कुछ शर्मिन्दा सा।
संगति
गुप्ता जी का स्वर भर जैसे भर आया था, उन्होंने मीना जी के सामने अपने दोनों हाथ जोड़ लिये-“समझ नहीं आता किस तरह आपका शुक्रिया अदा करूँ,आपके बेटे मीत ने जिस तरह मेरे बेटे का साथ निभाया है, बस उसी साथ ने उसे दूसरी ज़िदगी दी है, वह तो हॉस्टल में बिल्कुल अकेला हो गया था,नशे में उसका जो हाल हुआ था, उससे निकलना अकेले में तो नामुमकिन था,उसके बाद डिप्रेशन … दूसरे सभी दोस्त साथ छोड़ गये..सब दोस्तों के परिवार वालों ने अपने-अपने बच्चों को उससे दूर रहने की हिदायत देकर उसे बिलकुल अकेला कर दिया था….गुप्ता जी ने पानी के दो घूँट पिये…तभी मीना जी ने उन्हें चाय का प्याला थमाते हुये कहा-“भाई साहब….आप तो मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं.।”
लेकिन गुप्ता जी ने कहना जारी रखा-“मैं आपकी जगह होता तो ऐसे नशे की गिरफ्त में आये बच्चे के पास अपने बच्चे को नहीं रहने देता, लेकिन आपने तो उसके पास रहने ही नही दिया बल्कि अपने बेटे को इतनी सकारात्मक सोच दी है कि ऐसी स्थिति में उसने अपने दोस्त का साथ नहीं छोड़ा और आज मेरे बेटे को वही आत्मविश्वास और मुस्कुराहट वापस मिल गई। ये आपके संस्कार ही हैं।”
गुप्ता जी मीत को ढेरों आशीर्वाद और उन्हे कृतज्ञता व्यक्त करते हुये रुख़सत हुये।
मीना जी के हाथ मोबाइल पर बेटे मीत का नंबर डायल कर रहे थे….
“मीत,तूने मुझे झूठ कहा था कि राही से अलग हो गया है, बल्कि तू तो उसी के कमरे में रह रहा था।”
“हाँ माँ, उसे छोड़ देता तो वो ज़िंदा नहीं बचता। वो नशे के कारण डिप्रेशन में था और तो और सभी दोस्तों ने उसका साथ छोड़ दिया था, क्योंकि सभी के परिवार वाले चाहते थे कि उनका बच्चा नशेड़ची के साथ न रहे।”
माँ का स्वर काँप गया-“पर बेटा तुझे कुछ हो जाता तो,संगति का असर तो होता ही है…मुझें तो पता भी नहीं होने दिया तूने कि तू उसी के साथ रह रहा है।”
“सच बोलता तो तुम मुझे उसके साथ रहने नहीं देती…और माँ संगति का ही तो असर हुआ है, मेरी संगति से ही तो वह बाहर आया।”
मीना जी को पहली बार बेटे द्वारा अपनी बात न मानने की खुशी हो रही थी।
रश्मि स्थापक
खंडवा
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दिया और बाती
अँधेरे को प्रकाश में बदलती हुई बाती ने दीये से कहा – “सुनो दीये, मैं कितनी असहाय हूँ जो उजाला फैलाने को जलती तो हूँ, पर तुम्हारी जीवन शक्ति रूपी तेल पीकर।”
बाती की बातें सुनकर दीया बोला – “बाती! तुम्हारे बिना मेरा अस्तिव कुछ भी नहीं है। मुझे ख़ुशी है कि अँधेरे को पराजित करने में, मैं तुम्हारी वजह से योगदान देकर अपने जीवन को उद्देश्यमय बना पाता हूँ। ”
बेटी
रानी के बाबू रामू, जोर-जोर से चिल्लाकर रानी की माँ से बार-बार यही कह रहे थे कि इस बार यदि बेटी हुई तो मार डालेंगे या फिर किसी कचरे के डिब्बे में फेक देंगे।
रामू की सारी बातें सुनकर, उसके घर में बंधी गाय जो कुछ ही महीनों में नये अंश को जन्म देने वाली थी, वह अपनी मूक वाणी और आसूँ भरे नेत्रों से यही कह रही थी कि “मुझसे तो बेटी की चाह रखते हो और खुद अपनी बेटी को मारना चाहते हो।”
अमोघ अग्रवाल
इंदौर
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बदलते दृष्टिकोण
सुबह-सुबह पूजा के लिए फूल तोड़ती मीनू माँ की आवाज पर रुक गई। वह गुस्से में जोर-ज़ोर से चिल्ला रही थीं। सदा की तरह निशाना भाभी थीं। जल्दी से गुलाब तोड़ अन्दर भागी मीनू।
“क्या हुआ माँ? क्यों हो रही हो इतनी गुस्सा?”
“तो और क्या करूँ, बता? इतने दिनों में घर के तौर-तरीके नहीं सीख पाई ये। कोई काम ढंग से नहीं होता इससे। एक तो महारानी जी चाय अब लाई हैं, उसमें भी चीनी कम।” माँ ने गुस्से में ही जबाब दिया।
“माँ मेरी चाय में तो चीनी सही थी, फिर तुम्हें क्यों कम लगी?” मीनू ने प्रश्नवाचक नजरों से भाभी को देखा। “वो दीदी, माँ जी की चाय में ज्यादा चीनी डालने पर आपके भाई नाराज होते हैं। माँ को शुगर है न।” भाभी ने सहमे स्वर में जल्दी से ननद को जबाब दिया।
“बस, सुन लो इसका नया झूठ। अब मुझे मेरे बेटे के खिलाफ भड़का रही है। वो मना करता है इसे!” माँ जी का गुस्सा और बढ़ गया।
“माँ, भाभी ठीक ही तो कह रही हैं। आप डायबिटिक हो। ज्यादा मीठी चाय पीओगी तो आपको ही दिक्कत होगी।” “अच्छा जी, तो अब ये भी बता दे कि मेरे लिए सब्जी में नमक, मसाले और तेल क्यों नाम का डालती है ? उसमें किसने मना किया है इसे ?” माँ ने व्यंग्य के स्वर में पूछा बेटी से।
“माँ, आप भी जानती हो—हृदय रोगी हो आप और ये सब नुकसान देता है आपको।”
“अच्छा देर तक भी इसीलिए सोती होगी कि जल्दी उठने से मेरी बीमारी बढ़ जायेगी।”
“माँ! क्या देर से उठती हैं भाभी? आजकल कौन उठता है सुबह पांच बजे! फिर रितु कितनी छोटी है, रात भर जगाती होगी भाभी को।” मीनू ने माँ को समझाना चाहा।
“और क्या दुख हैं इसे, यह भी बता… और तू कब से इसकी इतनी तरफदारी करने लगी! कल तक तो मेरी हाँ में हाँ मिलाती थी!!”माँ ने आश्चर्य से बेटी को देखते हुए कहा।
हाथ में पकड़े गुलाब का काँटा जोर से चुभ गया मीनू के हाथ में। नजरें झुकाकर जबाब दिया, “तब मैं किसी की भाभी नहीं थी माँ।”
तलाश
“क्या कर रहा है यहाँ ?”बंद सीलन भरी गली में उस बूढ़े को देख वो चिल्लाया।
“अपनी बेटी की ओढ़नी ढूंढ रहा हूँ।”बूढ़े ने आँखें और गड़ा दीं।
“यहाँ क्यों?”
” वो कह रही है इसी गली में खोई है ।”
“फिर मिली ?”
“अब तक तो नहीं।सुना है तार-तार कर दी।”
“तू भी पागल है!खोई हुई चीज भी मिलती है कभी।अच्छा बता बेटी यहाँ भेजी ही क्यों थी तूने ?”
“भूख से लड़ने।”
“कौन थे वो ? पता चला कुछ ?”
“हाँ चल गया पता।”
“कौन ! उसने राजदराना अंदाज में पूछा।
“थे इंसानियत के दुश्मन।”
“किसी ने देखा तो होगा ये सब।”
” नहीं ।सब मुर्दा थे।”
“फिर अब क्या ढूंढ रहा है ?टुकड़े हो चुकी होगी।”
“अब इंसानियत ढूंढ रहा हूँ।”
“हा हा हा !अब उसका क्या करेगा?”
“दूसरी बेटी की ओढ़नी बचाऊंगा।पर तू यहाँ क्या कर रहा है ?”
“मैं भी बरसों से वही तलाश रहा हूँ।चल मिल कर ढूंढते हैं।
बोनसाई
“चल तुझे फुरसत तो मिली मुझसे मिलने की ।पुरस्कृत होने पर ढेर सारी
बधाई
तुझे।”चहकते हुई अवि ने अपनी सखी अनु को गले लगाते हुए कहा।
“थैंक्स यार!फुरसत तो सच में मुश्किल से ही मिली है लेकिन ये तेरा प्यार है जो सौ काम छोड़ तुझसे मिलने आती हूँ।तू तो कभी बिटिया के लिए कोचिंग ढूंँढने में व्यस्त रहेगी। कभी उसे पढ़ाने में।एक शहर में रहते हुए भी मिलने नहीं आ सकती ।”शिकायती लहजे में बोली अनु।”
“सौरी यार ! लेकिन तुझसे रोज ही बात कर लेती हूँ। रूटीन टफ है थोड़ा ।आॅफिस, बच्चे ,घर ।इसी कारण मिलने कम आ पाती हूँ अनु। लेकिन तेरी चित्र प्रदर्शनी देखने जरूर पहुँचती हूँ। फिर कैसे कह सकती है ऐसा ?और तू भी तो कहाँ घर पर रूक पाती है ?”अवि ने मुस्कुरा कर कहा।
“तभी तो मैं तेरे लिए दुखी हूँ।”
“मेरे लिए दुखी !वो क्यों अनु ?मुझे क्या हुआ?”आश्चर्य से बोली अवि।
“अवि!तू भी मेहनत करती तो मेरी तरह पुरस्कार न सही लेकिन कुछ नाम तो होता तेरा भी आज।कैनवास पर रंग तो तूने भी मेरे साथ ही बिखेरे पर देख न तू कहाँ रह गई और मैं कहाँ पहुँच गई।”गर्व मिश्रित स्वर में कहा अनु ने।
“अच्छा है अनु तू पुरस्कृत हो रही है। मुझे भी खुशी हो रही है मेरी सखी प्रगति के पथ पर अग्रसर है। लेकिन तू जानती है ये मेरी प्रिआॅरिटी नहीं अभी।बच्चों का भविष्य बनाना ही मेरा उद्देश्य है अभी।ये फिर कभी जब समय मिला।और रंग तो अभी भी बिखेर लेती हूँ कैनवास पर।”अवि मुस्कुराई
“क्या अवि तू भी ? पति क्या करते हैं तेरे सारे दिन ?बच्चे उनके भी हैं ,तेरे अकेले के ही नहीं।तू क्यों अपनी प्रतिभा दबा रही है ?”
“बच्चे हम दोनों के हैं ये ठीक कहा अनु लेकिन सारा दिन थक जाते हैं। आॅफिस का लोड उन पर भी है।जितना वक्त मिलता है वो भी देखते हैं बच्चों को।”
“छोड़ तू मानेगी थोड़े ही कि तू नौकरानी बन गई है अपने ही घर की।खैर छोड़ ये बात! चल मेरे साथ ,एक बहुत बड़े कलाकार की पेंटिंग की प्रदर्शनी लगी है। ”
“नहीं अनु।फिर कभी।बच्चे घर आते होंगे।पिछले दिनों रूचि के एन्ट्रेंस एक्जाम के लिए छुट्टियाँ ली थीं तो काफी काम पेंडिग है ओफिस का।”
“तूने छुट्टियाँ क्यों ली ? मेरी बेटी का भी एक्जाम था रूचि के साथ ही।मैं तो घर नहीं रूकी। इतनी बड़ी हो गई है अपना काम खुद देखे।तू शुरू से ही महान है।कितने ही साल तूने अपने हाथ से खाना खिलाया है रूचि को।मैंने ये झंझट कभी नहीं पाले।तेरा तो प्रमोशन भी ड्यू था इस साल।”
“हाँ। तो क्या हुआ? अगली बार हो जायेगा।रूचि रात में अकेले जल्दी सो जाती है।साथ में मैं रही तो ठीक से पढ़ पाई।प्री मेडिकल था तो नर्वस थी थोड़ी।”
” तू भी न ! वो अपनी बनाई पेंटिंग देख रही है गमले में लगे बोनसाई की।बिल्कुल उसी के जैसे तुझे काट -छाँट कर सजावटी वस्तु बना दिया गया है।बस फर्क है तू घर का बोनसाई है और वो गमले का।और आफिस भी नहीं छुड़वाया कि पैसा भी आता रहे और तुझे लगे भी नहीं कि तू घर तक सीमित रह गई है।”
“माँ!कहाँ हो तुम ?”दोनों बच्चों का समवेत स्वर गूँजा ।
“यहाँ हूँ बेटा ड्रांइग रूम में।तुम्हारी अनु मौसी के साथ।”
“अरे वाह! मौसी भी आई हैं।
“तेरा रिजल्ट आने वाला था बेटा ,मैं बातों में देख नहीं पाई।”
“वही मैं कहूँ !माँ को दीदी से ज्यादा इंतजार था उनके रिजल्ट का जैसे माँ ने ही पेपर दिये हों फिर माँ ने देखा क्यों नहीं अब तक ?माँ दीदी ने टॉप रैंक ली है प्री मेडीकल में।”खुशी से चिल्लाया बेटा।
“ओह पेपर रिशू ने भी दिया था। मुझे तो याद ही नहीं रहा आज रिजल्ट आने वाला है।फोन करती हूँ घर।”अनु को जैसे याद आया।
“मौसी रिशू का सलेक्शन नहीं हो पाया। वो काफी दुखी थी।उसने मेहनत काफी की लेकिन कुछ कॉन्सेप्ट क्लीयर नहीं हो पाये।माँ आपने सच में बहुत अच्छे टीचर सलेक्ट किये मेरे लिए।आपके बिना ये मुश्किल था।”बेटी लाड़ से कँधों पर झूल गई।
“तू अभी मेरी उस पेंटिंग का कह रही थी न अनु।देख उस पर लगे रसीले फल कितने सुंदर लग रहे हैं ।”अवि ने कहते हुए प्यार से बिटिया के गालों को थपथपा दिया।
गिद्ध
“छोड़ो मेरी मम्मी को ।कोई हाथ नहीं लगायेगा मेरी माँ को।”कहते हुए निधि माँ के शरीर से लिपट रोने लगी।
“निधि बेटी रो मत।होनी को कौन टाल सकता है ?”बड़ी बुआ ने निधि को गले से लगा लिया। निधि के रोने में तेजी आ गई।
“बेटी!जा कोई नई साड़ी ले आ और नई न हो तो जो सबसे ज्यादा पसंद थी भाभी को वो साड़ी ले आ। कीमती हो तो संकोच मत करना आखिरी श्रंगार है ये इनका।”बड़ी बुआ कहती हुई रो पड़ी।
“लो भाभी अलमारी की चाबी लो। मुझसे ये नहीं होगा।”बड़ी ननद भीगी आँखों से चाबी भाभी को थमाने लगी।
“दीदी !मुझसे भी नहीं होगा।”
अचानक छोटी बहू छवि ननद से चाबी छीन कर बोली “मुझे दो चाबी। मुझे पता है वो कहाँ क्या रखती थीं ? मैं निकालूंगी मम्मीजी की पसंद की साड़ी।”
“ये क्या कर रही है छवि ?अन्दर आकर देख न लें बुआ।”बड़ी बहू प्रीति बोली
“देखने दो दीदी ।देखने की फिक्र की तो सारा जेवर हाथ से निकल जाना है। ये दोनों बहनें कुछ हाथ नहीं लगने देंगी हमारे।”
“कह तो तू ठीक रही है। फिर कुछ नहीं मिलेगा हमें।”
“बहू तुम मम्मी के नहलाने को पानी ले आओ।बाहर ये कौवे इतना शोर क्यों मचा रहे हैं ?”
“कोई जानवर बाहर मरा पड़ा है बुआ।”
“ओह ये कौवे और गिद्ध भी न मरा व्यक्ति दौड़े चले आते हैं ।छवि साड़ी जल्दी ला बेटा।”बुआ बोली
“ये लीजिए बुआजी ।”
“ये क्या ?जीजी पर इतनी साड़ियाँ थीं ।ये इतनी पुरानी और फीके रंग की क्यों लाई हो ?”
“ये मम्मी को बहुत पसंद थी।”
“अभी कुछ दिन पहले जो शादी पहन कर आई थीं वो साड़ी कहाँ है ?वो ही दे दो।अब ये कब इन्हें पहनने आयेंगी प्रीति ?”
“छवि ।बाहर सब शोर मचा रहे हैं। कोई दूसरी साड़ी दे।”प्रीति बोली
“दीदी पता है कितनी मँहगी है वो।कह दीजिए नहीं मिल रही ।पता नहीं कहाँ रखी होगी मम्मी ने।”
“वो नहीं मिल रही बुआ।” प्रीति ने अचकचाते हुए कहा।
“अच्छा! सोने का टुकड़ा दो मुँह में डालने को और गंगाजल, दही भी साथ ही ले आना।
“बुआ जी ये लीजिए।”
“बहू! ये इतना छोटा तार दिखाई भी दे रहा है। जीजी की नाक की नथनी कहाँ है? वही डालते हैं मुँह में।”
अब बड़ी चाची थोड़े गुस्से में बोली।
“लाती हूँ।”
“छवि !वो मम्मी की नथ तो दे जो मम्मी के ऊपर से उतारी थी।”
“दिमाग खराब हो गया है बुआ का दीदी। इतनी भारी नथ मुँह में डाल दें ।और आप भी दीदी क्या आपको नहीं चाहिए जेवर ?”
“छवि , चूडियाँ तो मैं ही लूँगी मम्मी की। जा उतार जल्दी मम्मी के हाथ से ।कहीं बुआ वही न तोड़ कर डाल दें मुँह में।”
अब प्रीति अधीर हुई।
“कानों के मेरे हुए । कहे देती हूँ दीदी। वैसे भी वो मुझे बहुत पसंद हैं।” छोटी बहू जल्दी से बोली।
“ये जेवर हार रखे तो मेरी शादी के लिए थे मम्मी ने। लेकिन आप दोनों को को ज्यादा जरूरत है भाभी। अब साड़ियों का भी बता दो ।” छोटी ननद व्यंग्य से बोली।
“मम्मी की साड़ियाँ मेरी पसंद की हैं। तो मेरी ही हुई। वैसे भी तुम क्या करोगी ? आजकल की लड़कियाँ कहाँ पहनती हैं साड़ी।”
“छवि ! कुछ मुझे भी देगी।”
“हाँ हाँ। सब बाँट लेंगे दीदी आधा आधा।”
“कहाँ रह गई तुम सब ? देर हो रही है ले जाने में। फिर रात में दाह-संस्कार नहीं होता।” बाहर से बुआ की आवाज आई।
“छवि! जल्दी कर।”
“हाँ रूको। देखने तो दे मुझे। कौन सी साड़ी देने से नुकसान कम होगा अपना।”
बाहर कौवों को शोर बढ़ता जा रहा था। और अन्दर बुआ की आवाज दबती जा रही थी।
360 डिग्री टर्न
“क्या बात है? इतनी गहन चुप्पी। क्या हो गया ?” अभी अभी आये ‘अ’ ने कहा।
“अखबार नहीं पढ़ता क्या ? कल एक पत्रकार को कुछ लोगों ने गोली मार दी क्योंकि उसने अपनी बहन को टीज करने पर उन्हें सुना दिया़।”
“ओह! इतनी अराजकता। अखवार खोलने में ही डर लगता है। ऐसी ही खबरें भरी होती हैं। कहाँ जाकर रूकेगा क्राइम। ”
“ये प्रशासन क्या करता है? इतना क्राइम फैल रहा है ? गुंडे मवाली खुले आम घूमते हैं।”
“नेताओं की खुली सपोर्ट है भाई। पहले तो प्रशासन ही पैसे खाकर बैठा होता है और अगर प्रशासन कुछ करे भी तो बचाव में सरकारें उतर आती हैं।”
“सारी ही पार्टियों का यही हाल है। चुनें भी आखिर किसे ?”
“मरता आम आदमी ही है।चोर-चोर मौसेरे भाई।”एक ओर बैठा ‘द’ बोला।
“हाँ। देश का बुरा हाल है। चोरी डकैती आम बातें हैं अब। दिन के उजाले में भी डर लगता है।” ‘स’ने कहा।
“लड़कियाँ ,औरतें कहीं भी तो सुरक्षित नहीं हैं। कैसे भेजें बाहर। मेरी बेटी जब तक घर वापस न आ जाये उसकी माँ दरवाजे पर ही खडी़ रहती है।” ‘अ’ उदासी के स्वर में बोला।
“बेरोजगारी ने मार दिया है। खोखले वायदे करते हैं नेता लोग। पहले तो नौकरी है ही नहीं , हैं भी तो रिश्वत और सिफारिश के बिना मिलती ही नहीं।”
“आम आदमी को कहाँ नौकरी ? हर जगह अँधा बाँटे रेवडी़ वाला हाल है। हम तो इनका वोट बैंक हैं बस।”
“अब अपने काम में भी कुछ बचत नहीं। जो कमाओ उसमें टैक्स ही इतने दो। लागत ही नहीं निकलती। घर के खर्चों में भी मुश्किल।” उदासी में डूबा स्वर उभरा।
“सरकारें आती हैं ,जाती हैं। सब अपना पेट भरते हैं। कोई आम जनता के लिए कुछ नहीं सोचता।”
” ऐसा कब तक चलता रहेगा। हम ऐसे ही पिसते रहेंगे।”
“खाली बातें करने से कुछ नहीं होगा। वो सब भ्रष्ट हैं।हम सब ईमानदारी से काम कर सकते हैं। भाई सिस्टम में घुसो और बदलाव की बयार लाओ।”
“हाँ। ठीक कहते हो। हम सब ईमानदारी से काम करेंगे।” सम्मिलित स्वर उभरे।
“ऐसा करते हैं हम अपनी एक नई पार्टी बनाते हैं। जिसके नेता होने की शर्त ही ईमानदारी होगी। ”
“हाँ यही सही होगा। अपना एक ऐसा ही नेता चुनते हैं । बताइये अपना नेता कौन होगा ?”
अब सब अपने अपने घर की तरफ मुड़ गये।
उपमा शर्मा
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हमदर्दी
पत्नी काफी दिनों से पीछे पड़ी हुई थी कि उसने अपनी सहेली का हाल-चाल पूछने जाना है ,कोई ऑपरेशन हुआ है उसका। आज दफतर से आधी छुटी लेकर उसे सहेली के पास ले जाने में आखिर सफल हो ही गया हूं। दफतर से छुटी कौन-सा मिलती है …एक बार आफिस चले जाओ, फिर तो निकला ही नहीं जाता।
पत्नी की सहेली के घर बैठे चाय पीते समय ये सभी बातें दिमाग में घूमती है।
मेरी पत्नी अपनी सहेली का हालचाल पूछते हुए उसको ‘हिदायते’ भी दे रही है, ‘‘देख बहन, अपना ख्याल रखना। महीना भर रेस्ट कर लेना । भारी काम न करना । सीलन वाले मौसम में टांके ठीक होने में समय लगता है। ध्यान से, नही तो फिर जिंदगी भर तंग होना पढ़ता है … घर के काम तो ऐसे ही होते रहेगे।’’
मैं सोचता हूं जब कोई किसी का हाल जानने जाता है तो हर आने जाने वाला बहुत सी नसीहतें और सावधानियां बता कर जाता है । यह सब सुन कर तो मरीज वेचारा वैसे ही चक्करों में पड़ जाता है कि किस की बात माने।
चाय के खाली हुए कप, प्लेट मेरी पत्नी खुद ही उठाकर सहेली के मना करने पर भी रसोई में रखने के लिए चली जाती है। मैं फिर सोचता हूं कि बर्तन रसोई में रख कर आने के बाद ही आज्ञा लेकर चलते है पर वह काफी समय तक वापिस न आई। मैं यूँ ही सेहत के बारे में हल्की फुलकी बातें मार कर टाईम पास करता हूं। सच पूछो तो मुझ से ऐसे झूठ-मूठ के शब्द नहीं बोले जाते।
पत्नी की वापसी पर विदा लेकर घर को चलते है। रास्ते में पूछता हूं , ‘भागवान ! बर्तन रखने में ही इतना टाईम.. मैंने तुम्हें कहां था कि जल्दी वापस चलना है.. खुद ही उठा कर ले जाते कप…….. जो चाय बना के लाये थे… तुम्हें बताओ इतनी क्या जल्दी पड़ी थी ……’’
‘‘हम उनका दुःख बटांने गए थे, बढ़ाने नहीं। यदि कप उठा कर रख आई तो इसमें क्या हो गया? बच्चों के काम तो ऐसे वैसे ही होते है…’’ उसने कहा ।
‘‘बर्तन रखने में इतना टाइम ?’’ मैं जोर से बोलता हूं।
‘‘दरअसल जब मैं रसोई में गई तो जूठे बर्तनों का ढेर लगा हुआ था। आज कल हर कोई मिलने जुलने वाला हाल जानने के लिए आ जाता है, मैंने सोचा चलो बर्तनों में ही हाथ फेर देती हूं। इसी में थोड़ा टाइम लग गया । ’’
वह झिझकते हुए मुझे पूरी बात बताती है। यह सुनने के पश्चात मेरी नजरों में उसका कद और बढ़ गया था।
रिश्तों की नींव
कई दिनों से घर में कारीगर लगे हुए हैं। आज ही शीशा लगाने का कार्य शुरू किया है।
बाऊ जी ने सुबह ही बडे कारीगर को ताकीद की है ”भाई ! शीशा जरा ध्यान से लगाना बडा मंहगा है। सावधानी से उठाना … ऐसे ही कही लेने के देने ना पड जाए…”
”नही बाऊ जी, आप तनिक भर भी टेंशन न लें … सारे चेले टेंड है” बडे कारिगर ने बाऊ जी के सख्त स्वभाव को देखते हुए कहा।
सभी साथ मिल कर शीशा लगा रहे हैं। इनमें एक कम उम्र का लडका भी है। सभी उसको ‘छोटू’ के नाम से पुकारते हैं।
दोपहर के पश्चात छोटू बाहर से शीशा उठाकर लाबी में ला रहा था कि भीतर फर्श पर फिसल जाता है। शीशा टूटने की आवाज सुनकर बाऊ जी एकदम कमरे से भागकर निकलते है।
छोटू बाऊ जी को आते हुए देखकर घबरा जाता है और निकल रहे खून वाले हाथ को पीछे छुपाता हुआ कहता है ”बाऊ जी… बाऊ जी.. मैने जानबूझ नही तोडा …. मेरा पाँव फिसल गया …मुझे काम से मत निकालना…..आगे से गल्ती नही करूंगा।”
”बेटा मैने कौन सा तुम्हें कुछ कहा है। कुछ नहीं होता …. चल बता कि तुम्हें चोट तो नहीं आई … हाथ आगे कर अपना …. कोई बात नही यदि शीशा टूट गया ” बाऊ जी बडे प्यार से बोले।
छोटू के हाथ से बहते हुए खून को देखकर उन्होंंने अपनी पत्नी को दवाई और पट्टी लाने के लिए आवाज दी।
”बेटा चीजें तो फिर बन जाती है….इन का क्या है, इंसान जिन्दा रहने चाहिएँ…तुम बिल्कुल चिंता मत करो। चल उठ ….मैं तुम्हें डाक्टर के पास लेकर चलता हूं,” बाऊ जी ने पट्टी बांधते हुए कहा।
सभी लोग बाऊ जी का यह व्यवहार देखकर और भी तेजी से काम निपटाने में जुट गए।
रूदन
रात काफी हो गई थी। उसने रोजमरा की तरह जोर जोर से रोना शुरू कर दिया कभी अपना सिर जोर जोर से दीवार से पटकता, तो कभी इधर भाग कर जाता तो कभी उधर भाग कर, बिल्कुल नीम पागलों की तरह, पर वह पागल नहीं था।
उसके पास न कोई आता न कोई जाता । जब से माँ-बाप भगवान को प्यारे हुए हैं.उसके बाद तो गाँव वाले ही तरस खा कर दूर से ही रोटी फेंक देते हैं। दिन भर तो पड़ा रहता, जैसे जैसे अंधेरा फैलने लगता तो उसका रूदन शुरू हो जाता।
वह दीवारों से बातें करने लगता । और है भी कौन जिससे वो बातें करे….. आज भी वही कर रहा है।
आप भी सुनो,‘मैं कोई पागल थोडे हूं…मैं तो बहुत अच्छा लड़का था। इसमें मेरा क्या कसूर था कि मेरी चाल-ढाल ही लड़कियों जैसी थी….. वह जोर से चीका। फिर बाजू से नाक को साफ करते हुए दीवार से बितायने लगा-मुझे सभी ‘लुगाई’ कह कर छेड़ते…..मेरे में बताओ क्या कमी थी …सभी अंग पूरे होने के पश्चात् भी मुझे मजाक का पात्र बनना पडता। जब थोड़ा बडा हुआ तो लडके मेरे से जबरदस्ती करना चाहते। तो बताओ मैं क्या करता…तू बता मैं क्या करता …उस ने जोर से मुट्ठी भींच कर दीवार पर मारी। फिर बोला – मैंने भी ठान ली थी….कुछ करने की….. गाँव में बधाई लेने पहुंचे ‘मंहतो’ के साथ उनके ढोल की थाप पर थिरकता हुआ साथ में जा मिला। बापू बेबे ने बहुत मना किया…..पर अब लगता है उसे समय मेरी मती मारी गई थी यह कहते हुए उसने जोर जोर से आपना माथा दीवार से मारना शुरू कर दिया। जब थका तो फिर बोलने लगा-
‘समाज के उलहाने भी कई बार बंदे को कडा कदम उठाने को मजबूर कर देते हैं।
उसकी मजबूरी भी उसके लिए पूरा आदमी होने के बाद न मर्द और न औरत वाली बन गई थी। एकाएक उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान आई और उसने जोर से ताली मारी और बोलने लगा-मुझे साथ लेकर डेरे का महंत बड़ा खुश हुआ था। मैं जब भी गांव-गांव लडकियों वाले कपडे डाल कर ठुमके लगाता तो रूपये पैसों के ढेर लग जाते। … एकाएक वह फिर रोने लगा। दीवार को हल्के हल्के से सहलाने लगा…मैं क्या करता मेरा मन वहाँ भी नहीं लगा। मैने बडे महंत को जब इसके बारे में बताया तो उनकी आँखों से आँसू निकल पडे, पर बोले एक शब्द भी नहीं, जैसे उनके दिमाग में कुछ चल रहा था। हम सभी साथियों ने उस रात खूब शराब पी और उसी रात महंत ने तेज हथिआर से …..उसने एक डंडा उठाया और दीवार पर जोर-जोर से मारने लगा…. उसी साले हरामजादे ….. मेरा पूरा जीवन बर्बाद कर डाला… कीडे पड़ेगे ….. यह क्या कर डाला उसने ….. मेरी चीज मुझे वापिस दे दो….वह लगातार जोर जोर से चिल्लाता जा रहा था। उसका रूदन चुप रात को चीर रहा था पर उसकी आवाज सुनने वाला रोज की तरह कोई नहीं था।
सम्मान
गाँव के एक क्लब की ओर से सेमीनार करवाने का फैसला लिया गया । क्लब के अध्यक्ष और कुछ स्दस्य सेमीनार के बारे में राजनेताओं, समाजसेवियों और पत्रकारों को बताने के लिए शहर गए । एक पत्रकार से क्लब के अध्यक्ष ने निवेदन किया, ‘हम क्लब की ओर से सेमीनार करवा रहे हैं, कवरेज के लिए आपको पधारना है ।’
‘किस दिन’ ? ना जी, उस दिन तो समय बिलकुल नहीं । मंत्री जी का दौरा है और…..।’
‘हमें पता है जी, वह तो सुबह आ रहे हैं । हमने प्रोग्राम शाम का रखा है ।’ अध्यक्ष जी बोले ।
‘ओह तो भी, मंत्री जी की कवरेज के बाद ओर बहुत कुछ चलता रहता है, इसलिए समय नहीं निकल पाएगा ।’
हमने भी प्रोग्राम के बाद बहुत कुछ रखा है, जनाब ।’
‘अध्यक्ष जी आप साफ साफ क्यों नहीं बताते, छुपाए क्यों जाते हो ?’ क्लब के सदस्य ने कहा ।
‘दरअसल उस दिन आप का सम्मान भी करना है ।’
‘अच्छा-अच्छा। चलो, निकाल लेंगे समय ।’ पत्रकार की आवाज थोड़ी बदली हुई थी।
‘यह तो आप को पता ही होगा कि सम्मान में ग्यावह सौ रुपए, शाल और मोमैंटो आदि भी होगा ।’ क्लब के अन्य सदस्य ने बीच में ही कहा ।
‘ओह जी कोई ना, मै……आप चिंता न करो, मेरे और साथी पत्रकार भी आएंगे । मैं कह दूंगा, पूरी कवरेज होगी ।’
मुक्ति
“बेटा, मेरी यही विनति है कि मेरे मरने के बाद मेरे फूल गंगा जी में डाल कर आना।” मृत्युशय्या पर पड़े बुज़ुर्ग बिशन ने अपने इकलौते पुत्र विसाखा सिंह की मिन्नत-सी करते हुए कहा। गरीबी के कारण इलाज करवाना ही कठिन था। ऊपर से मरने के खर्चे। फूल डालने जैसी रस्मों पर होने वाले संभावित खर्चे के बारे में सोच कर विसाखा सिंह भीतर तक काँप उठता था।
“लो बच्चा! पाँच रुपये हाथ में लेकर सूर्य देवता का ध्यान करो।”
फुटबाल जैसी तोंद वाले पंडे की बात ने उसकी तंद्रा को भंग किया।
उसे गंगा में खड़े काफी समय हो गया था। पंडा कुछ न कुछ कह उससे निरंतर पाँच-पाँच, दस-दस रुपये बटोर रहा था।
“ऐसा करो बेटा, दस रुपये अपने दहिने हाथ में रखकर अपने पित्तरों का ध्यान करो…इससे मरने वाले की आत्मा को शांति मिलेगी।”
अब उससे रहा नहीं गया, वह बोला, “पंडित जी, यह क्या ठग्गी-ठोरी चला रखी है। एक तो हमारा आदमी दुनिया से चला गया, ऊपर से तुम मरे का माँस खाने से नहीं हट रहे। ये कैसे संस्कार हैं?”
“अरे मूर्ख, तुझे पता नहीं कि ब्राह्मणों से कैसे बात की जाती है! जा मैं नहीं करवाता पूजा। डालो, कैसे डालोगे गंगा में फूल?…अब तुम्हारे पिता की गति नहीं होगी। उसकी आत्मा भटकती फिरेगी…।” पंडे ने क्रोधित होते हुए कहा।
“बापू ने जब यहाँ स्वर्ग नहीं देखा तो ये तुम्हारे मंत्र उसे कौनसे स्वर्ग में पहुँचा देंगे?…जरूरत नहीं मुझे तुम्हारे इन मंत्रों की…अगर तुम फूल नहीं डलवाते तो…” इतना कह उसने अपने हाथों में उठा रखे फूलों को थोड़ा नीचा कर गंगा में बहाते हुए आगे कहा, “ले ये डाल दिए फूल!”
उसका यह ढंग देखकर पंडे का मुँह खुला का खुला रह गया।
अपना घर
बहू की कही गई बातों के कारण वह सारी रात सो नहीं सका। सुबह सैर पर उसके मित्र ने पूछ ही लिया, “क्या बात है वेद प्रकाश, आज तुम्हारा मूड ठीक नहीं लग रहा। जरूर घर पर किसी ने कुछ कहा होगा।” “क्या बताऊँ भई! जब अपने जन्मे ही बेगाने हो जाएँ तो दूसरा कौन परांठे देगा। तुझे पता ही है कि रिटायरमेंट के कुछ समय बाद ही तुम्हारी भाभी तो भगवान को प्यारी हो गई थी…बस उसके बाद तो मेरा जीवन नर्क ही बन गया…।” “न… बात क्या हो गई?” मित्र ने पूरी बात जानने की उत्सुकता से पूछा। “बात क्या होनी थी… बस शाम को दोनों मियाँ-बीबी सिनेमा जाना चाहते थे…इसलिए जल्दी ही रोटियाँ बना कर रख दीं…बहू ने मुझे कहा– ‘पापा जी, रोटी खा लो’…।” “फिर?” “मैने कहा–‘बेटा, मुझे अभी भूख नहीं, बाद में आने पर दे देना।’…बस मेरे इतना कहने की देर थी कि बहू का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया–‘न, हमें और कोई काम नहीं…रात को आकर रोटी दें…हमने सोना भी है…हमारी भी कोई लाइफ है…न आप ठीक से जीते हैं, न दूसरों को जीने देते हैं।’…और भी बहुत कुछ कहा…” बोलते-बोलते उसका गला रुंध गया। “देख भाई वेद प्रकाश! करना तो तुम अपनी मर्जी…मेरी तो यही राय है…तुम्हारे पास पैसे-टके की तो कोई कमी नहीं, पर औरत के बिना इस उम्र में आदमी की ज़िंदगी नरक बन जाती है। मैं तो कहता हूँ कि किसी ज़रूरत-मंद पर चादर डाल ले…।” “तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया?… मैं इस उम्र में ऐसा काम करूँगा तो दुनिया क्या कहेगी?” “दुनिया की ज्यादा परवाह नहीं करते…सब को अपनी ज़िंदगी जीने का अधिकार है…और किसी वृद्ध-आश्रम में जाकर मरने से तो अपने घर में सुखी जीवन व्यतीत करना कहीं अच्छा है।” वेद प्रकाश अपने मित्र की बातों से सहमति-सी प्रकट करता अपने नए घर की तलाश में जुट गया।
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जगदीश राय कुलरियाँ
46, ईम्पलाइज कालोनी
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