दर्द की रेखाएँ
“अब इनका जल्द ही कुछ अलग इन्तज़ाम करो,”मालती झुंझलाकर गुस्से में बोले चली जा रही थी , “मम्मी जब तक थीं,तबतक तो ठीक था,लेकिन अब इनको कौन झेले ?” उसका मुँह बराबर चल रहा था, ” दोनो बच्चे बिगडे जा रहे हैं। रात भर खाँसते रहते हैं ।सोने नहीं देते । दिन में पूरे घर में चलते रहते हैं। दो घण्टे भी इनसे शान्ति से बैठा नहीं जाता । स्कूल से बच्चों के लौटने से घण्टा भर पहले ही आफत मचा देते हैं और गेट तक चक्कर लगाते रहते हैं।
सुबह-शाम बच्चों के पीछे लगे रहते हैं । इनकी वजह से बच्चों की पढाई का नुकसान हो रहा है। परसों से मयंक के इम्तहान शुरू हो रहे हैं ।
मुझे तो उसकी बहुत चिन्ता हो रही है ।–तुम ऐसा करो,ऊपर बरसाती में इनके रहने का इन्तज़ाम कर दो ।”
नरेश हकबका गये,” कैसी बातें करती हो ?
बच्चों को सामने न देखकर बाबू जी कैसे रह पायेंगे अकेले? सीढ़ियाँ भी चढ-उतर नहीं पायेंगे ।”
“तो वृद्धाश्रम भेज दो, “मालती तपाक से बोली।
“हद हो गयी,”गुस्से के कारण वह और कुछ कह नहीं पाया । तेज़-तर्रार पत्नी के सामने उसकी एक न चल पायी और बाबू जी के बिस्तर-कपड़े और कुछ ज़रूरी सामान ऊपर बरसाती में पहुँचा दिया गया ।
दिन भर घर में चहल क़दमी करने वाले,बच्चों के साथ खेलने वाले,बेटेऔर बहू का मुँह देख कर जीने वाले बाबूजी अपनी बेचैनी में मौन हो गये । परीक्षा देते समय मयंक के सामने दादा जी खड़े हो जाते। उनके चेहरे पर उपेक्षा,अपमान और अकेलेपन के दर्द की अनगिनत रेखाएँ उभर आतीं ।
सुरक्षाकवच
शहर में बहुत – सी दूकानें खुलने लगीं थीं। पान के शौकीन सरयू प्रसाद लखनवी को पता चला कि गली के मोड़ पर कालू पान वाले की ठेलेनुमा दूकान भी आज खुल गयी है। वे अपने को रोक नहीं पाये और छड़ी उठा कर पीछे के दरवाज़े से दबे पाँव खिसक लिए। कालू से दो पान लगवाकर मुँह में एक ओर रखते हुए वे अपने पक्के मित्र श्रीनिवास के घर की ओर बढ़ गये। दरवाज़े की घंटी बजायी-एक बार, दो बार, तीन बार। कोई उत्तर नहीं। दीवार की टेक लेकर वे खड़े हो गये और अतीत की यादों में खो गये। आहट लगी तो उन्हें लगा कि श्रीनिवास ने खुशी से चीखते हुए उन्हें गले से लगा लिया। दरवाज़ा खुला तो श्रीनिवास आश्चर्य से बोल पड़े, “आप यहाँ, क-क-कैसे, यानी कि यहाँ कैसे! मतलब ठीक तो हैं!”
पान भरे मुँह को ऊपर उठा कर सरयू प्रसाद बोल पड़े, “ओ हो, मियाँ, अन्दर तो आने दो।”
“जरा यहीं ठहरिए” कहकर वह अन्दर गये और सेनेटाइजर की शीशी लेकर आ गये और उनके हाथों में कुछ बूँदों को डालकर उनकी छड़ी पर छिड़कने लगे। उसके बाद उन्होंने जूते बाहर ही उतरवा लिए और आगे – आगे कुछ दूरी बनाकर चलते हुए उन्होंने दरवाज़े के पास रखी कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। पोते – पोतियो को प्यारे दादू के आने की आहट मिली तो वे चीखते हुए बाहर आने लगे। उससे पहले ही झट से उठकर श्रीनिवास ने अन्दर की ओर वाला दरवाज़ा बन्द कर दिया और कोरोना महामारी के विषय में बातें करने लगे। सरयू प्रसाद की पान की पीक बाहर आने को मचल रही थी। वे मुँह उठाकर दरवाज़े के एक ओर रखे गमले पर पिचकारी मारने के लिए घूमे ही थे कि श्रीनिवास चीख उठे, “अरे – अरे, क्या कर रहे हैं आप! इधर नहीं, बाहर जाकर नाली में थूकिए, भाई!”
न पानी, न जूस, न चाय, न भाभी के हाथ के बने गर्म – गर्म पकौड़े, न तश्तरी में लौंग लगे पान के बीडे, न उत्सुकता, न प्रसन्नता! सरयू प्रसाद को लगने लगा कि रिश्ते का सारा जूस कोरोना ने चूस लिया और आत्मीय घनिष्ठ सम्बन्ध एक कंकाल मात्र रह
गया। उन्हें घुटन भरे जेल के कमरे जैसा अपने घर का एकान्त कमरा सुरक्षा कवच लगने लगा और वह अपनी छड़ी उठाकर घर की ओर चल दिये।
छोटी कोठरी
” कितना होशियार है, मेरा बेटू। इसीलिए तो सबसे नामी स्कूल में पढ़ा रहा हूँ, जिससे बड़ा होकर बेटू बहुत बड़ा इंजीनियर बने अपने पापा की तरह।”
मासिक परीक्षा में बेटे अक्षत के अच्छे नम्बर आने से आज विक्रम बहुत खुश थे।
” पापा, इंजीनियर बन जाने पर मेरे पास खूब पैसे होंगे,”बेटू की आँखें अपने को बड़ा होते देख रहीं थीं।
” और क्या! ”
” बड़ी सी गाड़ी होगी। बड़ा सा घर होगा! ”
” बिल्कुल होंगे मेरे बेटू के पास।”
पापा की बात सुनकर अक्षत की खुशी का ठिकाना नहीं था।
पापा ने मुस्कराकर कहा,” फिर सुन्दर सी बहू आयेगी मेरे बेटू की। ”
अब बेटू के चेहरे पर हल्की हल्की शर्म झलकने लगी।
“फिर–“, बेटू की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी।
” फिर, फिर प्यारे -प्यारे दो बेटे होंगे। ”
बेटू को यह बात पसन्द नहीं आयी। वह बोल पड़ा, “नहीं, दोनो बेटे नहीं, एक बेटा और एक बेटी, पापा।
“अच्छा बाबा, एक बेटा और एक बेटी”,उसने बेटू को पूरी तरह खुश कर दिया और पूछने लगा, “अब बोलो बेटू, फिर क्या होगा। ”
बेटू कहीं दूर देखता हुआ बोल पड़ा, “फिर, दोनो पढ़ने जायेंगे। ”
” फिर–”
” फिर मम्मी पापा बूढ़े हो जायेंगे।”
“फिर – -”
“फिर हम लोग बड़े बडे कमरों में रहा करेंगे और मम्मी पापा को पीछे वाली कोठरी में रखेंगे जैसे आपने दादू को दी है। ”
अरे,श्रद्धा,तूने सूट क्यों पहन लिया? अपने खास रिश्तेदार के बेटे की शादी है।
परिवार के सारे लोग होंगे,पड़ोसी भी होंगे,क्या कहेंगे ! लल्ला के साथ सूट में तू अच्छी ना लगेगी ! मैं बताऊँ,तू लाल वाली साड़ी पहन ले और सफेद प्लास्टिक के फूलों का गजरा लगा ले अपनी लहराती हुई चोटी में । सच कहूँ,तू बहुत ही सुन्दर लगेगी ।”
” पर,मम्मी जी,साड़ी पहनने में बहुत देर लग जायेगी “, श्रद्धा ने बहाना खोज लिया।
“कोई ना लगेगी ।मिन्नी और दामाद जी भी
तो अभी तक नहीं आये हैं। सब लोग साथ ही तो चलेंगे – – -ये ल्लो,नाम लिया और आ गये ।”
सासू जी बालिश्त भर का टॉप और कसी हुई जींस पहने हुए अपनी बेटी मिन्नी कोबड़े गर्व और प्यार से निहारती हुई गले लगाने
दौड़ पड़ीं ।
वसीयत
“कोई वसीयत भी लिखा रखी है क्या इन्होंने”, तौलिए से हाथ पोछते हुए दिनकर ने पत्नी से पूछा।
“मैं क्या जानूँ, पापा जी क्या मुझे बताकर अपने काम किया करते हैं”, शीला ने मेज से नाश्ते के वर्तन समेटते हुए कहा।
“असल में मुझे इनके सभी निवेश और ज़मीन – मकान बगैरह के कागज़ात देखने हैं। मैं समझता हूँ मुझे वे सभी अपने पास रख लेने चाहिए।” दिनकर की आँखें चमक रहीं थीं।
” क्यों “, शीला के मुँह से निकल पड़ा।
” क्यों – – क्या पागल हो गयी हो? कोरोना महामारी बुरी तरह फैली हुई है। कोविड – 19 से बड़े – बूढ़े लोग दम तोड़ रहे हैं। आजकल तो किसको क्या हो जाये, कोई ठिकाना है! “दिनकर चिल्ला उठा।
” देखिए, पहले पापा जी के खान पान और दवाइयों पर ध्यान देना है, जो ज़रूरी है। उन्हें कुछ नहीं होगा। अभी-अभी तो रिटायर हुए हैं। अगर आपको परेशानी हो रही हो, तो छोटे भैया को बोल दो, वह ले जायेंगे”, शीला की बात से दिनकर को और भी गुस्सा आ गया, ” अरे मूरख, समझती क्यों नहीं! इन्हें रखने से तो मुझे फ़ायदा ही है। मैं तो दूसरी बात कह रहा था”, दिनकर की इस दूसरी बात को समझने से पहले ही शीला पापा जी के लिए काढ़ा बनाने के लिए चल दी।
मिथलेश दीक्षित
लखनऊ, उ.प्र.
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प्रश्न चिन्ह
अचानक रघुवंशी चाचा बाज़ार में उसे मिल गये । उन्हें देख के वह हतप्रभ रह गया कि हज़ारों किलोमीटर दूर स्थित एक छोटे से गॉंव से वे चैन्नई जैसे महानगर में कैसे आ गये ?
प्रणाम एवं चरणस्पर्श के बाद उसने पूछा चाचा आप अचानक यहॉं कैसे ? उन्होंने बताया कि उनके बेटे रामू ने
रामेश्वरम की तीर्थ यात्रा का प्रबन्ध पर्यटन विभाग के माध्यम से किया है और अब दो दिन बाद वापसी है इसलिए चैन्नई भ्रमण कर रहा हूँ ।
उसने चाचा से अनुरोध किया कि वे उसके साथ उसके घर चलें जिससे वह उनका सत्कार कर सके । जबकि उसके मन में सत्कार कम बल्कि अपना वैभव दिखाने की तीव्र लालसा थी ।उसके घर में आकर चाचा भी उसके सत्कार एवं बंगला,नौकर -चाकर , बाग -बग़ीचा , गाड़ियों को देखकर दंग रह गये । अचानक पूछ बैठे कि बेटा मॉं के जाने के बाद तुम्हारे बापू गॉंव में अस्सी साल की उम्र में अकेले ही रह गये हैं । उन्हें अपने साथ यहीं क्यों नहीं बुला लेते हो ?
उसने जबाब दिया “चाचा आप तो जानते हो कि बापू की बहू के साथ बिल्कुल नहीं बनती है वे यहॉं कैसे रह सकते हैं । गॉंव में आप लोगों के साथ ठीक ही तो हैं। मैं हर माह उनके लिए पैसा तो भेजता रहता हूँ ।”
चाचा जबाब सुनकर सन्न रह गये लेकिन इतना कहे बिना न रह सके कि “तुम कितने ही वैभवशाली हो जाओ लेकिन तुम्हारा यह जबाब तुम्हारी योग्यता पर एक गंभीर प्रशन चिन्ह है ??”
पेंशन
बैंक के केबिन से मेरी दृष्टि बाहर एकत्र बुजुर्ग ग्राहकों पर पड़ी। मैंने अपने चपरासी से पूछा ” यह भीड़ कैसी है ? ”
चपरासी ने जबाब दिया ‘ सर, आप भूल गये आज तो वृद्धावस्था पेंशन का वितरण दिवस है , इसलिए आज सभी बैंक आये हैं ।
” हॉं , याद आया ” यह कहते हुए मैं अपने कार्य में व्यस्त हो गया ।
नमस्ते बेटा , अचानक यह सुनकर मेरा ध्यान भंग हुआ । मैंने उनका अभिवादन करते हुए प्रश्नवाचक दृष्टि से उनके साथ आये एक लड़के की ओर ध्यान से देखा तो उन्होंने परिचय कराते हुए कहा कि “ये मेरे छोटे बेटे का बेटा है जो मेरे साथ आया है ।”
कार्य में व्यस्त होते हुए भी मैंने उत्सुकतावश
पूछा कि “पिछली बार आपके साथ जो पोता आया था , वह इससे उम्र में छोटा है या बड़ा ।”
अचानक उनके चेहरे के भाव बदल गये और उनकी आवाज़ भर्रा गयी ,करूण भाव से बोली ” बेटा पिछली छ:माही में , मैं अपने बड़े बेटे के साथ रह रही थी इसलिए उसका बेटा मेरे साथ आया था । अब अगली छ:माही में , मैं छोटे बेटे के साथ रहूँगी , इस कारण छोटे बेटे का पुत्र आज मेरे साथ पेंशन लेने आया है ।”
‘पलायन की त्रासदी ‘
अचानक रौबदार आवाज सुनकर दोनों ही पति -पत्नी बच्चों सहित सहम गये । अंधेरे रास्ते में बड़ी सी गाड़ी में सवार मुँह पर मास्क लगाये अन्य तीन लोगों के साथ अंजान व्यक्ति को उतरते देख रामू उस घड़ी को कोसने लगा जब कोरोना के डर से मकान मालिक ने उसे घर से बेघर कर दिया था और वह बिना सोचे समझे गुस्से में परिवार सहित पलायन कर अपने गाँव के लिए पैदल ही निकल आया । अभी मुश्किल से तीस किलोमीटर ही चल पाया था जबकि गाँव दो सौ पचास किलोमीटर दूर है और इन अंजानो के बीच सुनसान में घिर गया ।
उस रौबदार इंसान ने पूरे परिवार सहित गाड़ी में बैठने का आदेश दिया और रामू दहशत के मारे यंत्रचलित सा परिवार सहित गाड़ी में बैठ गया । रामू ने उसे अंधेरे में किसी से बात करते देखा ।अगले पाँच -सात मिनट के बाद उसे सपरिवार उतार दिया गया जहाँ से कुछ लोग उसे पैदल एक बड़े से मकान में ले गये जहाँ परिवार के लिए भोजन व ठहरने की व्यवस्था थी ।
रामू ! अवाक सोचता रहा कि वह अंजान कोई ‘अवतार’ था या इंसान !
टोल टैक्स
लगभग दो घन्टे तक लाईन में लगे रहने के बाद जब टोल टैक्स जमा करने का नम्बर आया तब अव्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए कार मालिक ने कहा कि विदेशों में सेंसर के माध्यम से पूर्व में जमा टैक्स के आधार पर गाड़ियों फ़र्राटे से निकल जाती हैं जबकि हमारे यहॉं कमज़ोर कर्मचारियों की वजह से अनावश्यक समय बर्बाद होता है । इसमें सुधार होना चाहिए ।
तभी टोल टैक्स की खिड़की पर बैठे व्यक्ति ने कहा महोदय , ” मैं कमज़ोर नहीं बल्कि वक़्त के हाथों मजबूरी का मारा हूँ । उसने अपने कंधे पर पड़े कम्बल को खिसकाकर अपने कटे हाथ कि ओर इशारा करते हुए कहा कि क्या विदेशों में भी युद्व में अपना हाथ गँवा चुके सैनिक को जीवन यापन के लिए काम करना पड़ता है ?”
सुनकर मैं अवाक् !!!!
महागुरू विषय विशेषज्ञ
महाविधालय के रसायन विभाग में प्रवक्ता के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने अनेकों सेमीनारों ,कार्यशालाओं एवं पुनश्र्चर्य पाठ्यक्रमों में सहभागिता की है जिसके कारण उनका नाम रसायन विज्ञान के विशेषज्ञ के रूप में सम्मान से लिया जाता है ।
आज उन्हें डाक से रसायन विज्ञान पर लिखी गयी एक नई पुस्तक प्राप्त हुई जिसके लिए लेखक ने उनसे अनुरोध किया था कि वे अपने विधालय में पुस्तक को पाठ्यक्रम में शामिल कराने हेतु सहयोग प्रदान करें ।
पुस्तक पढ़ने के बाद उनके सामने पिछले प्रशिक्षण कार्यक्रम की एक -एक घटना सामने आने लगी जिसमें कार्यक्रम के संयोजक महोदय प्रत्येक दिवस पर क्रमश: सभी प्रतिभागियों से अपने -अपने प्रिय टापिक पर चर्चा कराने के बाद अंतिम नोटस सभी की सलाह को शामिल कर अपने पास जमा कर लेते थे । उन्हीं सभी नोटस को संकलित कर उन्होंने एक पुस्तक के रूप में अपने नाम से बिना किसी मेहनत के प्रकाशित करवा दी । वही पुस्तक उनके हाथ में थी ।
उन्होंने आश्चर्य चकित होते हुए तथाकथित महागुरू को प्रणाम किया और सोचने लगे कि क्या प्रतिष्ठित पदों पर आसीन लोग भी ऐसा कर सकते हैं ?
सेवानिवृत्ति
आज के मुख्य अतिथि अध्यक्ष महोदय के भाषण के अंश “आज के कार्यक्रम के संचालन एवं भव्य आयोजन के लिए में दिवाकर शर्मा को विशेष बधाई देता हूँ जिन्होंने दर्शकों को अपनी वाक् पटुता से मेरे देर से आने के बाबजूद रोके रखा ।” लगातार उसके मन को पीढ़ा दे रहे थे कि मैंने पूरे कार्यक्रम का संयोजन एवं संचालन किया लेकिन वाह वाही दिवाकर को , यह क्यों हुआ ? क्षेत्रीय प्रबन्धक से चर्चा करने पर उन्होंने कहा ” यह सही है कि आपने ही सारे प्रबन्ध किये थे तथा इसका सम्पूर्ण श्रेय आपको ही को जाता है । परन्तु मुझे दिवाकर को प्रमोट करना था इसलिए मैंने अध्यक्ष महोदय के कार्यक्रम स्थल पर आने की सूचना प्राप्त होते ही आपको बहाने से बुलाकर संचालन की बागडोर दिवाकर को दे दी । वह मेरे मित्र का बेटा है । आप तो अब सेवानिवृत होने ही वाले हैं , इससे आपको अब क्या फ़र्क़ पड़ता है ?। ”
निहाल चन्द्र शिवहरे
374, नानक गंज , सीपरी बाज़ार ,
झॉंसी -284003
मोबा. 9415949103
मेल-ncshiv@gmail.com
मातृ -शक्ति
“यही चित्र “पिता “को पूरी तरह अभिव्यक्त कर रहा है।पिता कोई भी हो, कैसा भी रूप हो, उनका साथ हमेशा सुरक्षा का अहसास देता है।
“पितृ -दिवस” पर प्रथम पुरुस्कार इसी को जाता है”कहते हुए मुख्य अतिथि ने जैसे ही पुरुस्कृत चित्र पर से आवरण हटा कर विजेता का नाम घोषित किया, विजेता के रूप में अपना नाम सुन मनस्वी चौंक पड़ी।उसने तो चित्र रखा ही नहीं था,फिर कैसे ?गर्ल्स कॉलेज में चल रहे पितृ-दिवस के इस आयोजन के अंतिम दिन सबका आना अनिवार्य न होता तो वो कभी आती भी नहीं।
ये चित्र उसका अधूरा सपना था।जन्मदाता के बारे में उसकी सोच का,जिसे उसने चित्रकला की बारीकियाँ सीखते ही सर्वप्रथम उकेरा था,अपने पिता की गोदी में छुपी नन्ही-सी बेटी का। पर जब असलियत पता चली तो उसने इस चित्र छुपा कर रख दिया था,क्योकि पिता नाम से ही उसके मन में टीस उठने लगती थी।
उसके साथ ही बैठी उसकी रूममेट रिया मनस्वी को बधाई देते हुए उससे आ लिपटी तो उसे समझते देर नहीं लगी कि ये कारस्तानी उसी की है। “ये तुमने ठीक नहीं किया रिया” वो कह उठी।
अपना नाम बार-बार पुकारे जाते सुन वो लड़खड़ाते हुए उठी।फिर संभल कर दृढ़ और सधे क़दमों से आगे बढ़ कर स्टेज पर पहुँची। माइक हाथ में लेते हुए उसने चित्र को चुनने के लिए धन्यवाद देते हुए आगे कहा-
“स्त्री की कोख में पनपकर बच्चा जन्म लेता है तो सबको पता चल जाता है उसकी माँ के बारे में।पर मात्र स्त्री को ही पता होता है इस बच्चे के जनक का नाम। अगर एक नासमझ -नाबालिग की कोख में कोई अनजान पापी जबरन बीज रोपित करे तो वो होने वाले बच्चे को कैसे बतायेगी कि उसका जनक कौन है?
ये चित्र मेरा सपना जरुर था पर पूरा किया मेरी माँ ने।आज मुझे ये बताते हुए कोई संकोच नहीं है कि इस जबरन रोपे हुए बीज को नष्ट करने के बदले समाज से लड़ते हुए उन्होंने मुझे जन्म दिया।
मैंने स्वयं अपना ये चित्र नहीं रखा था प्रतियोगिता हेतु।पर आज मैं चाहती हूँ कि “पितृ -दिवस “के बदले “मातृ -शक्ति “रूप में इसका चुनाव कर पुरुस्कृत किया जाये।
इलज़ाम
‘रूक जाइये पंडित जी ,फेरे अभी नहीं होंगे।’
मण्डप में फेरों के लिए उठने जा रहे वर-वधू सहित सारे घराती और बाराती वर के पिता श्रीकांत जी की बुलंद स्वर में कही गई बात सुन कर सन्न रह गए।
श्रीकांत जी स्वयं अपनी बेटी की शादी में दहेज़ जुटाते हुए इतने परेशान हुए थे कि पहले ही सोच लिया था बेटे की शादी बिना दहेज़ के करेंगे। बेटे का रिश्ता जब तय हुआ तो खुद से किया ये वादा निभाया भी। अब ऐन फेरों के वक़्त ये सब ?
लड़की के पिता सुशील जी हाथ जोड़ते हुए हुए सामने आ गए ” क्या हुआ भाई सा० ?”
श्रीकांत जी को मेहमानों के बीच अभी कुछ देर पहले ही चल रहा वार्तालाप याद आ गया।
“अरे बिना दहेज़ के इतनी बड़ी पोस्ट पर बैठे लड़के का रिश्ता कर दिया। ये बात कुछ गले नहीं उतर रही.” एक कह रहा था।
“अरे नहीं भाई ! कुछ लोग होते हैं जरुरत से ज्यादा आदर्शवादी। -दूसरे ने कहा
” आदर्श वादी,माय फुट,” पहले ने व्यंग से कहा “लड़के में ज़रूर कोई खोट होगा”
“नहीं-नहीं ये शादी तो सभी की पसंद से हो रही है। दोनों परिवार में अब तो बहुत अच्छी दोस्ती है। दूसरे ने फिर सफाई दी।
“तो भाई चुपके से कैश रूप में माल ले लिया होगा ” ऐसे मुफ्त में बेटे की शादी तो कोई पागल-बेवकूफ ही करता है.” तीसरा एक आँख दबा कर हँसते हुए कह रहा था।”
सुशील जी को हाथ जोड़े सामने खड़े देख श्रीकांत जी ने उनके जुड़े हुए हाथ अपने हाथों में ले लिए।
” सुशील जी, आप फेरों के पहले एक बार फिर सोच लीजिये एक पागल-बेवक़ूफ़ के बेटे से अपनी बेटी की शादी करेंगे या नहीं ? ” भरे गले से कहते हुए श्रीकांत जी ने थोड़ी देर पहले का मेहमानों के बीच चल रहा सारा वार्तालाप सबके समक्ष रख दिया.।
इलज़ाम लगाने वाले सिर झुकाये खड़े थे और सुशील जी श्रीकांत जी को गले से लगाये कह रहे थे
” मुझे तो यह विश्वास है कि ऐसे ही पागल भगवान् का रूप होते हैं. “
प्रायश्चित
अनाथालय में संचालिका सुजाता को आये हुए ज्यादा वक़्त नहीं हुआ था।
उन्होंने देखा लाव -लश्कर और सरकारी अमले के ताम- झाम के साथ सौगात का ढेर लेकर आये बड़े लोगो के बदले वसुधा जी के आने पर अनाथालय की बच्चियाँ स्वतः ही खुश हो जाती हैं।उनके बारे में सिर्फ यही पता था कि वह एक मध्यमवर्गीय परिवार से है।पति को खो चुकीं हैं और बेटा बाहर विदेश में नौकरी कर रहा है।
वसुधा जी को न फोटो खिंचवाने का शौक था,न कही अखबार में छपने का और न अपने किये हुए काम को समाज द्वारा सराहे जाने की अपेक्षा थी। वह तो बस बच्चियों से बतियाती।उनके साथ समय व्यतीत करतीं।
वसुधा जी के प्रयत्नों से न केवल लडकियाँ पढ़ रही थी, बल्कि कुछ लडकियाँ उच्च शिक्षा के लिए भी चयनित हुईं।
आज उनके सदप्रयासों से एक लड़की की शादी भी संपन्न होने जा रही थी।अनाथालय में शादी का ये पहला मौक़ा था।कन्यादान वसुधा जी ने ही किया.
रस्मों के संपन्न होने के बाद सुजाता वसुधा जी से मुखातिब हुई।
“आभार शब्द बहुत छोटा है वसुधा जी।किन शब्दों में आपका शुक्रिया अदा करूँ ?आप कितना कुछ कर रही हैं इन बच्चियों के लिये।’’
वसुधा जी आँखों में विषाद झलक आया ‘’ये तो प्रायश्चित है मेरा।अपनी बच्ची को तो नरपिशाचों से नहीं बचा पाई थी मैं’’
सुजाता के मन में सिहरन हुई ‘’वसुधा जी की बेटी के साथ जबरदस्ती और हत्या हुई।’
‘’आपने उन्हें सज़ा नहीं दिलवायी? ‘’ प्रत्यक्ष में उसने पूछा।
किसे सजा दिलवाती ? वो सब उसके अपने, सबसे नज़दीक के लोग थे।
सुजाता के ज़ेहन में कौंधा ’ओह्ह!!तो ये दहेज़-ह्त्या का मामला है।’’
वसुधा जी अपनी रौ में बोलती जा रहीं थी ’कैसे सज़ा दिलवाती,वो सब मेरे अपने भी तो थे।’’
‘’और किस तरह दिलवाती ? मैं भी तो शामिल थी उसकी ह्त्या में।मैंने पुरजोर विरोध किया होता,तो उसकी ह्त्या कदापि न हो पाती।
सुजाता ने आश्चर्य से उनकी तरफ देखा,वसुधा जी की आँखें बह निकली थीं।
‘’जन्म देने के बदले कोख में ही मार दिया था मैंने उसे’’
अंतिम अस्त्र
“एक बार फिर से विचार तो करो, तुम जो चाह रही हो शोभा, क्या वो ठीक है? मैं बहुत छोटा था तभी से पापा के न रहने पर माँ ने अपना सर्वस्व लगा कर मुझे पाला-पोसा।अपनी पूरी जमा-पूँजी मेरी शिक्षा और शादी में लगा दी।एक मात्र सम्पत्ति घर को भी बेच कर हमें पैसा दिया हमारे इस घर के लिए। अब उन्हें यहाँ से कहाँ छोड़ आऊं ?” समीर ने आर्द्र स्वर में पूछा।
माँ ने जो कुछ किया वो तो हर माँ -बाप करते हैं और जो भी किया तुम्हारे लिए किया।मैंने तुम्हे आज तक का वक्त दिया था। मैं तो बस इतना जानती हूँ,आज के बाद इस घर में वो होंगी या मैं।“ शोभा ने तल्खी से कहा।
शोभा की बातों से आहत समीर अन्दर आया।माता -पिता के बीच उच्च स्वर में हो रहे विवाद से सहमे दोनों बच्चे दादी से चिपक कर बैठे थे।समीर के लिए सदैव ममता की शीतल छाँव बनकर खड़ी उसकी माँ शांत और निर्विकार बैठी थीं।उसको देखते ही वो बोल पड़ीं-
“मैंने अपना सूटकेस जमा लिया है। मैं नहीं चाहती तुम दोनों के बीच झगड़े का कारण बनूँ।तुम खुश रहो इसी में मुझे संतोष होगा।”
छलकते आँसू सँभालता समीर अपने कमरे में चला गया।उसके फ़ोन पर किसी के साथ चल रहे वार्तालाप की हलकी-सी आवाज़ सुन शोभा को आभास हो गया कि समीर जाने की व्यवस्था कर रहा है।वह अपनी जीत पर खुश हो गयी।
थोड़ी देर बाद समीर के ऑफिस की गाड़ी आ गयी थी।
“आओ माँ ,चलें” कहते हुये समीर ने माँ का सूटकेस और सामान तो ड्राईवर को दिया,साथ ही अपने कमरे में से भी दो बड़े सूटकेस ले आया।
शोभा ने अचरज से पूछा “ये सामान किसका है?”
“मेरा” समीर ने जवाब दिया।‘ऑफिस से जो क्वार्टर आबंटित हुआ था वो मैंने छोड़ा नहीं था।माँ के साथ मैं वहीँ रहूँगा।माँ ने पापा के न रहने पर मज़बूरी में अकेले मेरा पालन-पोषण किया,पर मैं तुम्हे हर माह घर-खर्च देता रहूँगा।’ समीर ने आगे कहा-
‘आगे चल कर हमारा अनुकरण करते हुए हमारे बच्चे तुम्हे अकेला न छोड़ दें ,इसलिये मैं माँ के साथ रहने जा रहा हूँ।’
—***—
अनमोल
एक साथ दो-तीन बार घंटी बजने से चिढ़ते मानसी ने दरवाज़ा खोला तो सामने एक सब्जी वाले को देख उसे गुस्सा आ गया।.
“सब्ज़ी नहीं लेना मुझे “रूखे स्वर में कहते हुये वो दरवाज़ा बंद करने को हुई कि सब्जी वाले ने उसके सामने एक पैकेट कर दिया ‘’ये आपके लिए’
पैकेट में दो-तीन प्रकार के फल और कुछ ताज़ी सब्जियाँ देख मानसी ने हैरानी से पूछा “ये किसने भिजवायें हैं?”
“मेरी तरफ से।आप ने शायद मुझे नहीं पहचाना “कहते हुए उसने जेब से थैली में पैक एक दस रूपये का फटा-पुराना नोट उसे दिखाया।ये आपने मुझे दिया था।उस दिन आपकी बात दिल से जा लगी थी।एक संस्था से अपाहिजों के लिए बनी हाथ गाड़ी मुझे मिली थी।उसी पर ये छोटी -सी ट्राली कुछ पैसे उधार लेकर जुड़वाई और सब्जी बेचने का काम शुरू किया है।”
मानसी ने एक बार फिर उस व्यक्ति को देखा।उसे लचक कर चलते देख उसे याद आ गई वो घटना।
“भीख माँगने वालों से चिढने वाली मानसी ने इसके भीख मांगने पर चिढते हुए काम करने की सलाह दे डाली थी। अपाहिज होने का हवाला देते हुए इसने फिर से याचना की, तो मानसी ने ये फटा नोट उसको दे दिया था।
“एक रूपये के बदले ये लोगे?”
वो खुश हो गया था “क्यों नहीं बहनजी, ये तो दस रुपये हैं।”
“पर नोट फटा है न’ मानसी ने फिर से कहा था।
“फटा है तो क्या, कीमत तो दस रुपये ही है न” उसने ज़वाब दिया।
“फटा होने से नोट की कीमत कम नहीं हुई तो एक पाँव थोडा लचकने से तुम जैसे इन्सान की कीमत कम कैसे हो गई ?
मानसी अपनी सोच से वापस आई।
मानसी के हाथ में पैकेट थमा विह्हल होते हुए बोला ‘’ये नोट मैंने सम्भाल कर रखा है.’’
“आपके ही कारण मुझे अपना वास्तविक मूल्य पता चला ”
सुलगते आँसू
ऑफिस पहुँचकर मानसी ने घडी देखी और चैन की साँस ली। समय के पहले ही आ गयी थी वह। कुछ देर में उसके साथी पुरुषकर्मी और उसके अलावा दूसरी महिला सहकर्मी रीना भी आ गये।
कुछ मिनट शान्ति से बैठने और सबसे से हलके-से अभिवादन के बाद वो काम जुट गयी । “ये काम सिर्फ आप ही कर सकती हैं ” कह कर कल ही अधिकारी ने लाद दिया था उस पर ये काम। उसे आज ही लंच टाइम तक पूरा करके देना था।
थोड़ी देर बात करके सभी काम में व्यस्त हो गये। पर कुछ समय पश्चात ही चाय, पान, सिगरेट, गुटखे की तलब पुरुष सहकर्मियों को बाहर की ओर खींचने लगी। उनका बाहर आना-जाना चल रहा था।
काम समाप्ति और अधिकारी के अप्रूवल के बाद उसे मेल कर ही रही थी कि उन्होंने एक पत्र लाकर उसे दिया ‘’ये पत्र भी ज़रा अभी मेल कर दो।’’
उसने घडी देखी,लंच टाइम होने ही जा रहा था। पत्र को टाइप करते हुए उसने पढ़ा। ये ऑफिस में स्टाफ बढाने हेतु पत्र था, जिसका मज़मून कुछ इस प्रकार था। ‘’ये जिलास्तर की शाखा होते हुए भी यहाँ केवल सात कर्मचारी हैं , जिनमे से भी दो महिलाएँ हैं’’ आगे वो नहीं पढ़ पायी।
” जिनमे से भी दो महिलाएँ हैं ” ये पंक्तियाँ उसे चुभने लगी।
घर की जिम्मेदारियां पूरी करके ऑफिस आते हुए उसे सबसे गैर- जरुरी खुद कुछ खाकर निकलना लगता है। अभी भूख से आंतें कुलबुला रही है। उसने आस पास नज़र दौड़ाई। सभी पुरुष सहकर्मी लंच खा कर बाहर चाय और पान की तलब में पुनः बाहर जा भी चुके थे। सिर्फ रीना जी वहाँ थी जो लंच के लिए उसका इंतज़ार करती हुई सीट से उठे बिना काम में व्यस्त थी। उसकी तरह उनकी भी मज़बूरी थी कि वो देर तक नहीं रुक सकती थीं। शाम होते ही घर की जिम्मेदारियाँ जो नज़र आने लगती हैं।
मानसी की आँखों से एक आँसू टपका । दूसरा टपकता उसके पहले ही उसने उसे अपने गाल पर रोक दिया। पत्र को टाइप कर उसे मेल कर दिया। उसकी कॉपी प्रिंट कर अधिकारी के पास पहुंची।
‘’आपने कुछ गलत लिख दिया था इसमें ,” जिनमे से भी 2 महिलाएँ हैं ” के स्थान पर ” जिनमे भी सिर्फ दो ही महिलाएँ हैं ” होना चाहिए था, बाहर खाली पड़े हाल की तरफ इशारा करते हुए मानसी ने कहा ‘मैंने उसे सुधार कर मेल कर दिया है’अधिकारी को हतप्रभ छोड़ उनके सामने पत्र की प्रति रखकर पलटी और रीना से बोली
‘चलिये रीना जी, वक़्त हमारा भी है, अभी तो लंच का ही सही।
महिमा श्रीवास्तव वर्मा
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बेरोज़गारी
दोनों महिलाएँ अबकी बहुत दिनों बाद मिली थीं। अपनी-अपनी घर-गृहस्थी की चर्चा के बाद दोनों अपने जवान बच्चों की बेरोज़गारी और कैरियर की बातों पर आ गयी थीं। विमला देवी ने अचानक पूछ ही लिया- “क्यों री सरला, क्या हुआ तेरे विनोद का, कहीं नौकरी लगी?”
सरला बोल पड़ी- “अरे विमला, पढ़ाई तो उसने बहुत की। उसका दोष कहूँ या उसके भाग्य का, अभी तक नौकरी नहीं मिली…और तेरे राजन का क्या हुआ?”
विमला बताने लगी- “होगा क्या, बेचारे की क़िस्मत रूठी है। पक्की सेटिंग हो गयी थी साढ़े पाँच लाख में, पर किसी ने पौने आठ लाख दे दिये और दलाल मुकर गया…पर हमने उम्मीद नहीं छोड़ी, अगली बार जी-जान लगा देंगे।”
सरला ने महसूस किया कि उसके बेटे का कोई दोष नहीं। हाँ, पैसे के ज़ोर के आगे उसके बेटे की क़िस्मत रूठी हुई है।
हैसियत
ट्रेन में काफ़ी भीड़ थी। इधर-उधर नज़रें दौड़ाने के बाद भी जब प्रो. दिवाकर को सीट नहीं मिली तो उन्होंने पास बैठे एक व्यक्ति से थोड़ा खिसक जाने का विनम्र आग्रह किया। उस व्यक्ति ने प्रोफ़ेसर साहब को झिड़क दिया। बेचारे प्रोफ़ेसर साहब अपना-सा मुँह लेकर रह गये, तभी ट्रेन अगले स्टेशन पर रुकी। डंडा पटकते हुए एक पुलिस वाले ने अन्दर प्रवेश किया और घुड़कते हुये उसी व्यक्ति से ज़ोर से कहा- “अबे खिसक, दो की जगह में बैठा है।” “…अरे साहब आप बैठो, जगह ही जगह है”, यह कहते हुये वह खड़ा हो गया। उस व्यक्ति के इस उत्तर से प्रोफ़ेसर साहब को अपनी हैसियत पर तरस आ रहा था।
छंगू भाई
छंगू भाई का अपने इलाक़े में जलवा था। वे साधन-सम्पन्न तो थे ही, दल-बल से भी कमज़ोर न थे। गलियों में घूमना और आये दिन झगड़े व मारपीट करना उनकी आदत नहीं, शौक़ थे। दूकानदारों से सामान लेकर पैसे न देना, धार्मिक एवं सामाजिक आयोजनों के बहाने चंदा वसूली तथा संरक्षण के नाम पर हफ़्ता वसूली; यही छंगू भाई की आमदनी के ज़रिया थे। रोज़ शाम को अपने चेलों के साथ रिक्शे की सवारी का आनन्द लेना उनकी नियमित दिनचर्या थी। किसी रिक्शेवाले की मज़ाल क्या कि छंगू भाई से पैसे माँग ले। ऐसे ही एक शाम छंगू भाई ने एक रिक्शेवाले को रोका। शायद वह इलाक़े में नया था, उसने वहीं से पूछा- “हाँ बाबूजी, कहाँ चलना है?” “अबे यहाँ आ लाटस्साब, वहीं से बकवास न कर!” पिस्टल बाबा, जो छंगू भाई का दाहिना हाथ था, ने आँखें तरेरकर ज़ोर की झिड़की दी। “अरे बाबूजी, हम तो पूछे बस थे, बइठ जाओ जहाँ चलना हो।” छंगू भाई पिस्टल बाबा के साथ सवार होकर रिक्शे की सवारी का आनन्द लेने लगे। वे सारा इलाक़ा घूम-घामकर वापस अपने अड्डे पर आ गये और रिक्शे से उतरकर अन्दर जाने लगे, तभी रिक्शेवाले ने टोका- “बाबूजी पइसवा तो दे दो।” “किस बात का पइसवा रे, हम तोर चहता हैं का?, अड्डे में बहुत देर से अकेले बैठा राजन चमचा अचानक तैश में आ गया था। “भ्भाग जा स्साले, नहीं तो भून डालेंगे।” पिस्टल बाबा का गर्म ख़ून और गर्म हो गया था। “बाबूजी, अतना गरम काहे होइ रहें हैं, हम अपना महनताना ही तो माँगें हैं, हराम का थोड़े न…।” तभी छंगू भाई ने उस रिक्शेवाले के गाल पर एक ज़ोर का थप्पड़ रशीद कर दिया- “हरामखोर, चुप स्साले…।” इस थप्पड़ ने रिक्शेवाले के ख़ून में भी जी भर उबाल भर दिया…और छंगू भाई इससे पहले कुछ समझ पाते, रिक्शेवाले ने उनके थोबड़े पर चार-पाँच तड़ातड़ जड़ दिये। छंगू भाई ने पीछे मुड़कर अपने साथियों की ओर देखा, वे दोनो नदारद थे और भीड़ खड़े तमाशा देख रही थी। मौके की नज़ाक़त समझते हुए छंगू भाई बीस की नोट उस रिक्शेवाले को थमाकर चुपचाप वहाँ से चले गये।
(इस लघुकथा पर इसी नाम से लघु फ़िल्म भी बन चुकी है)
सच्चा प्यार
रितु और पर्वतेश वर्षों बाद एक-दूसरे से मिले थे। दिल्ली की कँपकँपाती सर्दी में अचानक दोनों का यूँ मिलना दैवीय संयोग नहीं तो और क्या था! पर्वतेश से बिछड़े हुए रितु को लगभग आठ वर्ष हो चुके थे। “तुम यहाँ कैसे?”, रितु ने ही प्रश्न किया। “आयकर विभाग में ज्वाइनिंग के पश्चात् यहीं नियुक्ति हुयी है मेरी…और तुम?”, पर्वतेश ने जवाब के साथ सवाल भी किया। “बस यूँ ही।” रितु इतना कहकर चुप हो गयी। दोनों अतीत की यादों में खो गये; कॉलेज, पार्क, रेस्तराँ, मौज-मस्ती, सैर-सपाटा और न जाने क्या-क्या…। दोनों मगन थे, अतीत सामने नर्तन कर रहा था। अचानक दोनों के चेहरे बिगड़ गये। अब वे पल भी सामने नर्तन करने लगे, जब दोनों हिन्दी फ़िल्मों के नायक-नायिका की भाँति एक-दूसरे से बिछड़े थे और रितु अपने पापा की सद्इच्छा के समक्ष सर झुकाकर इंजीनियर नितिन सक्सेना की डोली में प्रविष्ट हो गयी थी। एक बच्चे का पिता बन जाने के बावजूद तब से आज तक पर्वतेश एक पल के लिये भी रितु को नहीं भूला था। इतने वर्षों बाद रितु को अपने सामने पाकर पर्वतेश बहुत देर तक ख़ामोश नहीं रह सका और अचानक रितु को अपनी बाँहों में भरने लगा, किन्तु रितु को अपनी सीमाएँ मालूम थी- “यह क्या कर रहे हो पर्वतेश! मैं किसी और की हूँ, तुम किसी और के; अपनी हद में रहो।” और पर्वतेश को झिटक दिया। पर्वतेश तपाक से बोला- ‘‘क्या तुमने मुझसे सच्चा प्यार नहीं किया था…क्या तुम मुझे भूल गयी हो?” रितु बोली- “मैं तुमसे आज भी सच्चा प्यार करती हूँ और तुम्हें भूली भी नहीं हूँ; किन्तु पर्वतेश, सच्चा प्यार सदैव आत्मीयता चाहता है, देह की ख़ुशबू नहीं। विधाता ने मेरा दैहिक बन्धन किसी और के साथ तय किया है, मैं उसे और उसकी अमानत को सरेआम बदनाम नहीं कर सकती। शायद तुम्हारे प्यार में कलुशता थी, इसी कारण मैं तुम्हारी जीवन-संगिनी नहीं बन सकी।” सही मायनों में सच्चे प्यार की अहमियत और सच्चे प्यार की परिभाषा, दोनों ही पर्वतेश ने आज समझी थी।
धर्म
जैसे ही वह युवा ट्रेन में घुसा। भीड़ देखकर सीट मिलने की उम्मीद छोड़कर दीन-हीन भाव से खड़ा हो गया। ट्रेन में बैठते ही वह संन्यासी वेशधारी व्यक्ति भक्ति-ज्ञान-धर्म के कई प्रसंग एक के बाद एक सुनाने लग गया। नश्वर जीवन का क्या महत्व है…, आत्मा देह त्यागने के पश्चात् कहाँ जाती है आदि-आदि। आस-पास बैठे लोग उसे अत्यन्त विनीत भाव से सुन रहे थे। वे उसके ज्ञान के समक्ष नतमस्तक थे। अब स्वामी जी अपनी सीट में आराम से पैर फैलाकर बैठ चुके थे और श्रद्धानत श्रोता, उस गुरु को कोई कष्ट न पहुँचे, इसलिए नीचे बर्थ में बैठ गये थे। अब स्वामी जी का तेज़ और आँखों की चमक देखते ही बन रही थी कि तभी सामने की सीट पर बैठी जीवन के लगभग अस्सी-बयासी वसंत देख चुकी प्रौढ़ा ने स्वामी जी से अचानक प्रश्न किया- “स्वामी जी धर्म क्या है?”
धर्म, मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं- “धृतिः क्षमा दमो अस्तेयं, शौचमिनिन्द्रय निग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधी, दशकं धर्म लक्षणम्।।”
अब प्रौढ़ा ने पुनः प्रश्न किया- “स्वामी जी, इन दस में से आप कितने का पालन करते हैं।” स्वामी जी ने घुड़ककर कहा- “क्या मतलब?”
“मतलब यही कि जो हमें बैठने के लिए स्थान दें, उन्हें ही उनके स्थान से प्रतिस्थापित कर देना धर्म के किस लक्षण में आता है?” प्रौढ़ा ने अपनी बात पूरी कर दी। स्वामी जी झुँझला गये और खिड़की से बाहर की ओर झाँकने लगे।
– डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’
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