आज भूमंडलीकरण की आंधी ने मनुष्य के सोच-विचार, रहन-सहन, भाषा और इस तरह सम्पूर्ण जीवन-शैली को अपने आगोश में ले लिया है | किसी ने ठीक ही कहा है कि जब मनुष्य की भाषा, भेस और भोजन में बदलाव दृष्टिगोचर होने लगे तो समझ लीजिए उसका भूमंडलीकरण आरंभ हो गया है | यह बदलाव महानगरों में ही नहीं अब तो छोटे कस्बों और कहीं-कहीं तो गांवों में भी नजर आने लगा है |
वैसे प्रतीकात्मक रूप से भूमंडलीकरण का आरंभ सन 1989 में घटित उस घटना को माना जाता है जबकि बर्लिन की दीवार को ढहा दिया गया था | परंतु वस्तुतः शीतयुद्ध के समय से ही समर्थ पूंजीवादी देशों ने भूमंडलीकरण की परिकल्पना कर ली थी और वे इसे अंजाम देने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने लग गये थे | उनकी राह में सबसे बड़ी बाधा थी समाजवादी अर्थव्यवस्था जिसका सशक्त पैरोकार था सोवियत रूस | सौभाग्य से मिखाईल गोर्बाचोव जैसे कमजोर इच्छा शक्ति वाले राष्ट्राध्यक्ष ने पूंजीवादी देशों का काम आसान कर दिया | उन्हें नोबल पुरस्कार और अन्य तरीकों के द्वारा ग्लास्नोस्त और पेरेस्त्रोइका का प्रशंसक बना दिया गया | परिणाम यह हुआ कि 1991 में सोवियत संघ विखंडित हो गया | अब एक ध्रुवीय विश्व या विश्व ग्राम बनाने के अभियान में कोई बाधा नहीं थी जहां श्रम की नहीं बल्कि पूंजी की प्रधानता हो, लाभ के समान वितरण की व्यवस्था की बातें न हों बल्कि मुनाफे का मोटो हो | समस्त विश्व एक बाज़ार बन जाय और जो राष्ट्र हैं वे बाज़ार की गलियों में तब्दील हो जाय | इस विश्वग्राम की भाषा, संस्कृति, पसंद-नापसंद दुनिया के सबसे शक्तिशाली पूंजीवादी देश द्वारा निर्धारित की जाय | इसके लिए विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन, अंतरराष्ट्रीयमुद्रा कोष ने छद्म रूप से तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपेक्षाकृत खुले रूप से अपना काम आरंभ कर दिया | दूसरी ओर पूंजीपतियों द्वारा संचालित चेनल इन नीतियों को लोकलुभावन ढंग से जन-जन तक पहुँचाने में तल्लीन हो गये | अब विज्ञापनों की जादुई दुनिया सामने थी | एक झूठा संसार रचा जा रहा था | झूठ को सच बनाने के लिए भारत में विश्व सुंदरियों की बाढ़ सी आ गई थी | वस्तुओं की बिक्री के लिए नारी देह को ही वस्तु की तरह प्रदर्शित किया जाने लगा | अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर नारी देह प्रदर्शन के पक्षधर बुद्धिजीवियों का एक वर्ग भी खड़ा कर दिया गया | भारत एक मंडी बन गया जहां हर शख्स बिकने को मानो तैयार बैठा था, यहाँ तक कि करोड़ो में खेलने वाले क्रिकेट खिलाड़ी भी | हिन्दी का क्रियोलीकरण होने लगा | अब वह हिंगलिश हो गई | भाषा अगर भ्रष्ट होती है तो संस्कृति भी नहीं बच पाती | भारतीय जीवन-मूल्यों का पतन हो रहा था, नए पश्चिमी मूल्य थोपे जा रहे थे | युवा वर्ग को सब्जबाग दिखाये जा रहे थे ताकि एक बहुत बड़ा खरीदार वर्ग खड़ा किया जा सके | शिक्षा का मुख्य उद्देश्य यही रह गया कि पढ़-लिखकर युवक बहुराष्ट्रीय कंपनियों को चलाने वाले प्रबन्धक बनकर निकलें | साहित्य, कला, इतिहास, दर्शन के ज्ञान से शून्य, रोबोट मात्र |
साहित्य में भी इसका असर दिखने लगा | नवउपनिवेशवाद के इस दौर में कई लेखक उत्तर आधुनिक हो गये और भूमंडलीकरण के खतरों से आँखें चुराकर परोक्षतः उसकी मदद करने लगे | उत्तराधुनिकतावाद ने समाजवाद और यथार्थवाद के अंत की घोषणा कर दी | कतिपय साहित्यकार उजाले की बातें करते-करते अंधेरे की गिरफ़्त में कैद हो गये |
परंतु अब भी कई भारतीय साहित्यकार, विशेषतः हिन्दी साहित्यकार भूमंडलीकरण के खतरों के प्रति सचेत ही नहीं हैं बल्कि विविध विधाओं द्वारा इसकी विसंगतियों को रचनात्मक रूप से पाठकों के सम्मुख रख रहे हैं | वे खामोशी के साथ एक नये यथार्थवाद की रचना कर रहे हैं जिसके लिए फ़्रेडरिक जेमसन ने अपनी पुस्तक ‘आर्कियोलोजीज ऑफ फ्यूचर’ में लिखा है, ‘उपभोक्ता समाज की उस शक्ति का प्रतिरोध करने वाले यथार्थवाद होना चाहिए जो मनुष्य और उसकी पूरी दुनिया को वस्तुओं में बदल देती है | उपभोक्ता समाज में यह शक्ति होती है कि वह मनुष्य के शारीरिक और मानसिक श्रम से उत्पन्न तमाम चीजों के साथ-साथ मनुष्य के विचारों, भावनाओं तथा सम्पूर्ण जड़ और चेतन जगत से उसके सम्बन्धों को भी बेची और खरीदी जाने वाली चीजें बना दे |’
हिन्दी लघुकथा में भूमंडलीकरण और तद्जन्य उपभोक्तावाद के खिलाफ यथार्थवाद की इस गढ़न को साफ देखा जा सकता है | हम अपनी बात रघुनंदन त्रिवेदी की दो वाक्यों की छोटी-सी लघुकथा से आरंभ कर सकते हैं जिसमें एक सहेली दूसरी से कहती है, ‘मैं तो मेधा पाटेकर जैसी बनूँगी |’ इस पर दूसरी सहेली पूछती है, ‘क्या मेधा पाटेकर श्रीदेवी से भी अधिक सुंदर है ?’बाजारवाद ने सफलता के सारे प्रतिमान बदल दिए हैं | स्त्री वही सफल है जो गोरी और सुंदर है | पुरुष वही सफल है जिसके मसल्स हैं, जो कद-काठी में ऊंचा है | साँवली स्त्रियॉं और दुबले तथा ठिगने पुरुषों का विश्वग्राम में कोई स्थान नहीं है | अब तो पुरुषों को गोरा बनाने की क्रीमों से भी बाज़ार अटा पड़ा है | भारतीय संस्कृति, जहां श्याम रंग की अपनी अलग छटा है, अलग धज है, अलग पहचान है उसे मटियामेट किया जा रहा है | यह छोटी-सी लघुकथा बहुत बड़ा इशारा करती है कि बाजारीकरण के चलते युवाओं की सोच को किस प्रकार प्रदूषित किया जा रहा है | भारतीय नैतिक मूल्यों के साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलवाड़ को सुकेश साहनी की लघुकथा ‘कसौटी’ नये शिल्प और नई कथावस्तु के साथ उजागर करती है | निम्न मध्यवर्गीय पिता की प्रतिभाशाली और महत्त्वकांक्षी पुत्री सुनन्दा एक कंपनी की ऑनलाइन परीक्षा में दूसरा स्थान प्राप्त करती है | अब एक माइनर पर्सनालिटी टेस्ट होना है| सुनन्दा को पूरा विश्वास है कि वह इसे भी क्लियर कर लेगी | फिर तो एग्जीक्यूटिव ऑफिसर का अपोइंटमेंट लेटर लेकर ही घर जायेगी | पर्सनालिटी टेस्ट में उससे जो प्रश्न पूछे जाते हैं उन्हें पढ़कर सुनन्दा के कान गरम हो जाते हैं | प्रश्न इस प्रकार हैं- विवाहित हैं ? इससे पहले कहीं नौकरी की है ? बॉस के साथ एक सप्ताह से अधिक घर से बाहर रही हैं ? बॉस के मित्रों को ड्रिंक सर्व किया है ? एक से अधिक मेल फ्रेंड्स के साथ डेटिंग की है ? किसी सीनियर फ्रेंड के साथ अपना बेडरूम शेयर किया है ? पब्लिक प्लेस में अपने फ्रेंड को किस किया है ? नेट सर्फिंग की है ? पॉर्न साइट्स देखती हैं? चेटिंग के दौरान खुद को वेब केमरे के सामने एक्सपोज किया है आदि | बावजूद इन ऊटपटाँग प्रश्नों के सुनन्दा प्रश्नों के जवाब देकर सबमिट कर देती है | किन्तु जो रिजल्ट आता है उसे देखकर सुनन्दा के पैरों तले की धरती खिसक जाती है | स्क्रीन पर लाल रंग से लिखा हुआ है- सॉरी सुनन्दा | यू हेव नोट क्वालिफाइड | यू आर नाइण्टी फाइव परसेंट प्योर | वी रिक्वायर एटलीस्ट फॉर्टी नॉटी |’ तो बहुराष्ट्रीय कंपनियोंकों नैतिक और चरित्रवान लड़कियों की जरूरत नहीं है | उन्हें कम से कम चालीस प्रतिशत आवारगी चाहिए | चालीस को तो वे धन बल से सौ में बदल देंगे | उन्हें नारी नहीं नारी देह चाहिए | देह ही उनके उत्पाद बिकवा सकती है | नारी जितनी अधिक एक्सपोज होगी उत्पाद उतना ही ज्यादा बिकेगा चाहे उसकी क्वालिटी घटिया ही क्यों न हो | खराब हो जाय तो फेंक दीजिए और नया ले आइए | बाज़ार आपके लिए पलक पांवड़े बिछाए बैठा ही है |
सूर्यकांत नागर की लघुकथा ‘बाजार’की माँ बहुत सुंदर थी | एक दिन किशोर बेटियों की नजर माँ के सिर पर उग आये कतिपय श्वेत बालों पर पड़ती है | गले में हल्की झुर्रियां दिखने लगी हैं | बेटियाँ बाजार से ढेर सारी शृंगार प्रसाधन सामाग्री ले आती हैं | माँ को सजाती हैं | खुश होकर कहती हैं, ‘माँ, देखो अब तुम पहले जैसी सुंदर हो गई हो |’इस पर माँ जो जवाब देती है वह आँखें खोल देने वाला है| माँ कहती है, ‘अब मैं माँ कहाँ रह गई? बाजार बन गई हूँ |’ हरदर्शन सहगल की ‘उधार की बगिया’ भी एक उल्लेखनीय लघुकथा है जिसमें बाजार द्वारा पालित-पोषित उधार की संस्कृति पर चोट की गई है |
भूमंडलीकरण के लिए हर वह चीज बाधक है जिससे राष्ट्रीयता की गंध आती है | चाहे वह भाषा हो, संस्कृति हो या फिर राष्ट्र प्रेम ही | इसीलिए सबसे पहले यहीं चोट की जाती है | अलका पाठक ‘आधी सदी’ लघुकथा में इस बात को बड़े ही तल्ख अंदाज में बयान करती हैं | कथानायक जब छोटा बच्चा था तो उसकी जयहिंद का जवाब लोग बड़े प्यार से देते थे | बड़ा हुआ तो उसकी जय हिन्द पर लोग हँसने लगे | बूढ़ा होने पर वह एक बार विदेशी कंपनी में नौकरी करने वाले युवक को सलाह देता है कि वह ऐसी कंपनी की नौकरी छोड़ दे तो सुनने को मिलता है, ‘बूढ़ा झक्की है |’ परंतु अंततः वह भी उसी कंपनी का क्रेडिट कार्ड ले लेता है | जब कर्मचारी याद दिलाता है कि इसका लाभांश विदेश में चला जायेगा तो वह कहता है, ‘कोई बात नहीं, हमारे नेता और अफसर रिश्वत और किस बैंक में ले जायेंगे …किसका देश साला |’ अब वह जय हिन्द नहीं कहता | योगेन्द्र्नाथ शुक्ल की ‘एक नया सुकरात’ के ट्रस्टी पुस्तकालय भवन तुड़वाकर दुकानें निकालने पर उतारू हैं ताकि धन अर्जित किया जा सके | पुस्तकें मनुष्य को संस्कारित करती हैं मगर आज संस्कार से बड़ी चीज संपत्ति हो गई है | यही बाजारीकरण है | बुजुर्ग लाइब्रेरियन को महसूस होता है कि वे सुकरात की मानिंद हैं, क्योंकि इन विकट परिस्थितियों को भोगना जहर पीने जैसा ही तो है |
निश्चित रूप से उपभोक्तावादी व्यवस्था में बुजुर्ग पीढ़ी अवरोधक का कार्य करती है | यह पीढ़ी अपव्यय में नहीं अपरिग्रह में, फेंकने में नहीं सहेजने में, फैशन में नहीं सादगी में, विदेशी संस्कृति में नहीं भारतीय संस्कृति में विश्वास करती है | ये सारी बातें उपभोक्तावाद के विरुद्ध जाती हैं | इसीलिए आज हमारे देश में बुजुर्गों की जिन्दगी उत्तरोत्तर दुरूह होती जा रही है |
वरिष्ठ लघुकथाकार युगल की ‘गुमशुदा’ का कनाडा में बस गया बेटा जब माँ की मृत्यु पर भारत आता है तो वह पिता भवनाथ पर सबकुछ बेच-बाचकर कनाडा चले चलने का दबाव बनाता है | अपनी जड़ों से जुड़े भवनाथ को यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं है | वह बेटे से बचने के लिए घर से गायब हो जाते हैं| इधर बेटा उनकी गुमशुदगी का इश्तहार छपवाता है ताकि पिता का पता चल जाय और वह अपने मंसूबे में कामयाब हो जाय | धर्मपाल साहिल की ‘पहचान’ में इसका उल्टा होता है | अल्जीमर्स के कारण स्मृति-भ्रंश का शिकार होकर अमरबाबू कई दिनों से घर से गायब हैं | एक भला मानुस उनकी जेब से प्राप्त पर्ची के आधार पर अमरबाबू को उनके घर पहुंचाने जाता है | लेकिन बेटा बहू उन्हें पहचानने से ही इंकार कर देते हैं | मुरलीधर वैष्णव की ‘एग्रीमेंट’ के दो भाई लंदन में सेटल हो जाते हैं | भारत में जब कैंसरग्रस्त माँ की मृत्यु होती है तो दोनों में एक एग्रीमेंट होता है | बड़ा भाई कहता है, ‘तू, माँ की डेथ पर चला जा, मैं पापा की डेथ पर चला जाऊंगा |’ मधुसूदन पाण्ड्या की ‘कन्फर्मेशन’ के बेटे को शिक्षक पिता उच्च शिक्षा के लिए अमरीका भेजते हैं ताकि वह भारत वापस आकर अच्छी नौकरी करते हुए उनके बुढ़ापे का सहारा बनेगा | किन्तु बेटा वहीं अमरीका में ही जम जाता है | इधर चाचा जब फोन पर पिता के बीमार होने की बार-बार जानकारी देते हैं तो वह जवाब देता है, ‘पिताजी तो बीमार होते रहते हैं और ठीक हो जाते हैं, मगर मेरे पास इतना समय नहीं है कि उनके पास बैठा रहूँ | आप डॉक्टर से बात करके कनफर्म करें कि वे कितने घंटों के मेहमान हैं | मैं मरणोपरांत रस्में निभाने आ जाऊंगा |’ कमल चोपड़ा ‘इतनी दूर’ लघुकथा में ग्लोबलाइज़ेशन की विसंगतियों पर प्रहार करते हुए बताते हैं कि तीसरी मंजिल पर रहने वाले बेटे को ग्राउंड फ्लोर पर एकाकी रहने वाले पिता की मृत्यु के समाचार पड़ोसियों से प्राप्त होते हैं | नवउदारवाद के युग में युवा पीढ़ी की संवेदनाओं के ठस होते जाने की कुछ और लघुकथाएँ हैं; ‘बर्फ होती संवेदनाएँ(इन्दु गुप्ता), भू मण्डल की यात्रा, भू मण्डल के स्वामी(उमेश महदोषी), तंग होती जगह(कृष्ण मनु), नेम प्लेट(माला वर्मा), अवमूल्यन(अजय गोयल), समझौता(रवीन्द्र नाथ त्यागी), बेटा(के के यादव) आदि |
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि किसी देश के लिए युवा वर्ग एक बहुत बड़ी शक्ति है | जरूरत इस शक्ति को सार्थक दिशा देने की है | परंतु हमने युवाओं को पूरी तरह भूमंडलीकरण के भरोसे छोड़ दिया है जहाँ देश की कोई अवधारणा नहीं है | एक विश्वग्राम है जिसमें भारत एक मोहल्ला भर है | प्रतिभाशाली युवा की दौड़ सबसे अमीर मोहल्ले अमरीका की ओर है | हसन जमाल ने इस दौड़ पर एक खूबसूरत लघुकथा लिखी है | वह दौड़ता जा रहा है | कोई पूछता है कि भाई तुम इस तरह क्यों दौड़े चले जा रहे हो, क्या कोई विपदा आन पड़ी है ? वह कहता है कि जानते नहीं, जमाना कितनी तेजी से भाग रहा है ? उसे ‘खुशफहमी’ है कि वह सबसे आगे निकल गया है | भगीरथ ने इस ‘अंधी दौड़’ को एक भूल-भुलैया की संज्ञा दी है | दौड़ाक परेशान होकर इस भूल-भुलैया को तोड़ देना चाहते हैं किन्तु मनोबल कमजोर होने की वजह से दौड़ जारी रहती है | कुछ जागरूक युवा जरूर हैं जो इस भूल-भुलैया से बचकर निकल आना चाहते हैं | शील कौशिक ने ‘हवा के विरुद्ध’ में इस बात को रेखांकित किया है | बेटा-बहू अमरीका में मेडिकल की पढ़ाई सम्पन्न करने के पश्चात वापस भारत आकर सेटल होने का मानस बनाते हैं | परंतु ऐसे प्रकरण उँगलियों पर गिनने लायक हैं | दूसरी ओर पद और पैसे के प्रलोभन में या फिर अन्य कारणवश विदेश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चाकरी करने वाले एशियाइयों की स्थिति विशेष सुखद नहीं है | अमरीका वासी लघुकथाकार सुधा ओम ढींगरा ने अपनी लघुकथा ‘अनुत्तरित’ में एशियाई कर्मचारियों की बेबसी का मर्मस्पर्शी चित्र खींचा है | दरवाजे पर ठिठके सुमित को अपने बॉस की आवाज़ सुनाई देती है जो उच्च अधिकारी से फोन पर बात कर रहा है, “सर, एशियाई, खासकर भारतीयों को पद देने की जरूरत नहीं होती | हर साल थोड़ा वेतन बढ़ा दें, अच्छा वेतन दे दें और बस पद का लालच देते रहें | सर, हटा दें इस पद को | काम तो सुमित से करवा लेंगे, मुझ पर छोड़िए |” सुमित को लगता है की उसका शरीर शून्य में लटक रहा है| देश की विसंगतियों से भागकर यहाँ आया था | अब भागकर जाए तो कहाँ जाए ?
आंकड़े बताते हैं कि आर्थिक उदारीकरण से समृद्धि बढ़ी है | परंतु यह समृद्धि केंद्रीयकृत है | भूमंडलीकरण के इस दौर में करोड़पतियों की तो कौन कहे अरबपतियों की भी बाढ़-सी आ गई है | विडम्बना यह है कि इसी रफ्तार से आमजन और अमीरों के मध्य खाई भी चौड़ाती जा रही है | इस बात को अशोक भाटिया ‘73 करोड़ का हवाई जहाज’ में वाजिब आक्रोश के साथ अभिव्यक्त करते हैं | तीनों बच्चे भूख के मारे रोते-रोते सो जाते हैं | माँ माथा पकड़े बैठी है | तभी बाप झोंपड़े में दाखिल होता है | उसे खाली हाथ आया देख पत्नी कहती है, ‘आज भी निखट्टू खाली हाथ आ गया’ और गुस्से में एल्युमीनियम की खाली पतीली उसकी ओर उछाल देती है | आगे लेखक जो टिप्पणी करता है वह विकास के आंकड़ों की बखिया उधेड़ देने वाली है , ‘यह वह समय था जब मुकेश अंबानी ने अपनी पत्नी को 73 करोड़ का हवाई जहाज तोहफे में दिया था |’ अनवर शमीम की लघुकथा ‘और हाथी रो रहा था’ आंकड़ों के हुनरबाजों का मुंह चिढ़ाते हुए बताती है कि यदि एक दिन भी हड़ताल हो जाए तो मेहनतकशों की मुफ़लिसी मुंह बोलने लगती है | श.ल.म.प्रचंड की लघुकथा ‘अंतर’ में दो दोस्त बातें कर रहे हैं अपने तीसरे दोस्त द्वारा पोयजन खाकर मर जाने की | इस पर वहाँ खड़ा नौकर कहता है, “रंज मत करो बाबू साहब | आपके दोस्त की किस्मत अच्छी थी | हमारा कलवा तो बेचारा भूख से ही मर गया |” यह लघुकथा भूमंडलीकरण के महगान पर करारा प्रहार है | सुरेन्द्र गुप्त की ‘रज़ाई’ में जिस गंदी और जर्जर रज़ाई को घरवाले हाथ लगाना भी पसंद नहीं करते उसे निपटाने के लिए जब नाले के पास रख दिया जाता है तो एक बुढ़िया बड़े चाव से उठाकर ले जाती है, आगामी सर्दियों के लिए ईश्वर का वरदान समझकर | आज देश का बड़ा तबका इसी तरह अमीरों की जूठन इस्तेमाल करने के लिए अभिशप्त है | कमल चोपड़ा की ‘खेलने के दिन’, रामनिवास मानव की ‘सोने की जंजीर’, बलराम अग्रवाल की ‘गो भोजन कथा’, मधुदीप की‘नियति’ तथा रामकुमार घोटड की ‘पेंट की सिलाई’भी भूमंडलीकरण की चकाचौंध के मध्य वास्तविक भारत की तस्वीर से हमें रूबरू कराती हैं |
भूमंडलीकरण का एक पक्ष सूचना क्रांति है | मोबाइल के पश्चात इन्टरनेट ने दुनिया को बहुत छोटा कर दिया है | सचमुच में एक विश्वग्राम | आप दुनिया के किसी कोने में बैठे आत्मीय के साथ पलक झपकते अपनी भावनाएँ, अपने विचार साझा कर सकते हैं | लगता है कि वसुधैव कुटुम्बम की अवधारणा साक्षात हो रही हैं | सतीश दुबे की लघुकथा ‘प्रेम ब्लॉग’ में ब्लॉग के माध्यम से बरसों के बिछुड़े प्रेमी पुनः भावनात्मक रूप से परस्पर जुड़ जाते हैं | उमेश महदोषी की ‘इन्टरनेट का मंदिर’ में पिता की विचित्र बीमारी से जूझते हुए बेटा नेट पर अमरीका के डॉ.एबोट का पता पाता है जो ठीक ऐसे ही मरीजों का इलाज कर चुके हैं | उनके इलाज से जब पिता ठीक हो जाते हैं तो माँ भगवान के सामने मत्था टेककर आभार प्रकट करती है | इस पर बेटा कहता है, “माँ, असली कृपा करने वाला तो यह इन्टरनेट है जिसने हमें डॉ.एबोट से मिलवाया |” लेकिन इन्टरनेट के भी अपने विरोधाभास हैं | सतीश दुबे अपनी लघुकथा ‘साइबर साहित्य’ में इसकी सबसे बड़ी बुराई पॉर्न साइटों की ओर इशारा करते हैं जिनकी गिरफ्त में किशोर और सयाने सभी फँसते चले जा रहे हैं | इसी प्रकार ‘मानसिक व्यभिचार’ (अंतरा करवड़े), ‘दर्पण के अक्स’(आभा सिंह), ‘गुरुदक्षिणा’(सतीश दुबे), ‘फेसबुक की एक पोस्ट’(भगीरथ) आदि लघुकथाएँ नेट और चेट की विसंगतियों को उजागर करती हैं |
मैं अपनी बात जॉन एशबेरी की कविता ‘सेल्फ पोर्ट्रेट इन अ कोन्वेक्स मिरर’ को उद्धृत करते हुए समाप्त करना चाहूँगा | वे कहते हैं कि ग्लोबलाइज़ेशन इटली के चित्रकार फ्रान्सेस्को मज़ोला द्वारा सोलहवीं सदी में बनायी गई उत्तल दर्पण में कैद स्वयं की तस्वीर की तरह है | बदन भले ही भरा-भरा दिख रहा है परंतु चित्रकार दर्पण की सीमाओं में कैद होकर रह गया है | वह इस कष्टप्रद स्थिति से बाहर निकलना चाहता है मगर यह संभव नहीं हो पा रहा है |
उम्मीद है कि साहित्य इस चुनौती का सामना करते हुए उत्तल दर्पण(ग्लोब) में कैद मनुष्य को मुक्त कराने में सहायक हो सकेगा ताकि वह दुनिया के आईने में अपना वास्तविक प्रतिबिंब देख सके | निस्संदेह लघुकथा इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है |
संदर्भ:
1.Globalization and contemporary literature:Nico Israel:Literature Compass-1
2.शल्य क्रिया के शिल्प में वध:प्रभु जोशी:समकालीन भारतीय साहित्य, अंक-156
3.Archaeologies of the future:Fredric Jameson
4.भूमंडलीय यथार्थवाद की पृष्ठभूमि:रमेश उपाध्याय ; कथन, अंक-79
5.भूमंडलीकरण के दौर में हमारी सांस्कृतिक चिंताएँ:भगीरथ ; संरचना, सन-2011:सं-कमल चोपड़ा
6.समकालीन हिन्दी लघुकथा और समय का सच: माधव नागदा; अपना-अपना आकाश
7.बूंद से समुद्र तक:डॉ.सतीश दुबे
8.लघुकथा डॉट कॉम:सं-सुकेश साहनी, रामेश्वर कांबोज हिमांशु
9.संरचना, सन-2012:सं.-कमल चोपड़ा
माधव नागदा
20 दिसंबर 1951 को नाथद्वारा(राजस्थान) जनपद के छोटे से गाँव लालमादड़ी में जन्मे माधव नागदा ने सन 1973 में रसायन विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की A तत्पश्चात बी.एड. करने के उपरांत अध्यापन के क्षेत्र में क़दम रखा A साहित्यिक जीवन में पदार्पण कहानी लेखन से किया A कहानियाँ सारिका, धर्मयुग, हंस, मधुमती, वर्तमान साहित्य, सम्बोधन, कथाबिंब, नवभारत टाइम्स आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर चर्चित हुईं | बाद में लघुकथा] कविता तथा समीक्षा विधाओं में हाथ आजमाए A डायरी लेखन में भी रुचि A हिन्दी और राजस्थानी दोनों भाषाओं में समान रूप से लेखन A हिन्दी में अब तक चार कहानी संग्रह] तीन लघुकथा संग्रह, एक कविता संग्रह, एक डायरी तथा एक लघुकथा-आलोचना की पुस्तक प्रकाशित A दो कहानी संग्रह मराठी में अनूदित A लघुकथा संग्रह ‘आग’ का मराठी, सिंधी तथा अंग्रेजी में भी प्रकाशन A कई प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत और सम्मानित A राजस्थान साहित्य अकादमी के पूर्व सदस्य एवं राजस्थान साहित्यकार परिषद, कांकरोली के संस्थापक सदस्य | संप्रति प्राध्यापक(रसायन विज्ञान) से सेवा निवृत्ति के उपरांत अपने गाँव लालमादड़ी में स्वाध्याय] स्वतंत्र लेखन व सामाजिक कार्य में व्यस्त A
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