उपहार
रमा जी मृत्यु शैय्या पर पड़ी थी, मीनी खबर सुनते ही पहुंच गई। रमा जी काफी दिनों से बीमार थी, अब आवाज भी चली गई थी। मां का बेरंग चेहरा देख कर मीनी का कलेजा मुंह को आ रहा था लेकिन अपना गम छुपाए, मां के पास बैठ गई।
तभी रमा जी ने इशारे से मीनी को अपने गहनों का बक्सा खोलने को कहा। मीनी ने बक्सा खोला और जिसमें मां का खानदानी हार और एक झुमका था। रमा जी ने इशारे से कहा, “तू रख लें।”
मिनी ने ‘ना’ में सर हिलाते हुए कहा, “मां आखिर कब तक कुसुम भाभी के साथ ऐसा बर्ताव करोगी, इतने वर्षों तक उन्होंने तुम्हारी सेवा की। मैं तो दो दिन के लिए आई और गई। इस हार पर सिर्फ भाभी का हक है, आज तुम अपने हाथों से उन्हें यह देकर अपने मन का मैल धो दो।”इतना कहकर मीनी भाभी को बुलाने चली गई।
“क्या हुआ मांजी?”, घबड़ाते हुए कुसुम भाभी ने कहा।
” भाभी… मां आपको कुछ देने के लिए बुला रही है।”, मीनी ने कहा।
कुसुम, मांजी के सिरहाने बैठी तो रमा जी ने गहनों का बक्सा कुसुम के हाथों में रख दिया। “मुझे यह नहीं चाहिए मांजी, मुझे आपका
रमा जी मृत्यु शैय्या पर पड़ी थी, मीनी खबर सुनते ही पहुंच गई। रमा जी काफी दिनों से बीमार थी, अब आवाज भी चली गई थी। मां का बेरंग चेहरा देख कर मीनी का कलेजा मुंह को आ रहा था लेकिन अपना गम छुपाए, मां के पास बैठ गई।
तभी रमा जी ने इशारे से मीनी को अपने गहनों का बक्सा खोलने को कहा। मीनी ने बक्सा खोला और जिसमें मां का खानदानी हार और एक झुमका था। रमा जी ने इशारे से कहा, “तू रख लें।”
मिनी ने ‘ना’ में सर हिलाते हुए कहा, “मां आखिर कब तक कुसुम भाभी के साथ ऐसा बर्ताव करोगी, इतने वर्षों तक उन्होंने तुम्हारी सेवा की। मैं तो दो दिन के लिए आई और गई। इस हार पर सिर्फ भाभी का हक है, आज तुम अपने हाथों से उन्हें यह देकर अपने मन का मैल धो दो।”इतना कहकर मीनी भाभी को बुलाने चली गई।
“क्या हुआ मांजी?”, घबड़ाते हुए कुसुम भाभी ने कहा।
” भाभी… मां आपको कुछ देने के लिए बुला रही है।”, मीनी ने कहा।
कुसुम, मांजी के सिरहाने बैठी तो रमा जी ने गहनों का बक्सा कुसुम के हाथों में रख दिया। “मुझे यह नहीं चाहिए मांजी, मुझे आपका प्यार मिल गया मेरा जीवन सफल हो गया।” इतना कहकर मांजी से लिपट, कुसुम फूट – फूटकर रोने लगी।
रमा जी ने उसके सर पर हाथ फेरा और अनंत में विलीन हो गई।
लक्ष्य
बहुत दिनों बाद दोनों दोस्तों का मिलना हुआ। मनोज ने रविशंकर के परिवार को खाने पर बुलाया था। दोनों परिवारों के बच्चे एक ही कक्षा में पढ़ते थे। इस बार दोनों ने दसवीं कक्षा में प्रवेश किया था। रविशंकर ने बच्चों के भविष्य की योजना जानने हेतु मनोज के बेटे रवि से सवाल करते हुए पूछा,” हां तो रवि बेटा तुम क्या बनना चाहते हो?”
“जी अंकल मैं होटल मैनेजमेंट का कोर्स कर एक बड़ा शेफ बनना चाहता हूं,” रवि ने कहा।
“हा हा हा, क्या मनोज, रवि का यही लक्ष्य है अब ये होटलों में प्लेट और चम्मचे धोएगा,” तंज कसते हुए रविशंकर ने कहा।
रविशंकर अंकल की बातें सुनकर रवि का चेहरा उतर गया।
“मेरा मनु तो डाॅक्टर बनेगा, लक्ष्य बड़ा होना चाहिए जिससे कि समाज में इज्जत हो, नाम हो। वेटर बनकर क्या होगा।,” रविशंकर बोले जा रहे थे।
मनोज सारी बातें चुपचाप सुन रहे थे क्योंकि रविशंकर को अच्छी तरह से जानते थे कि दूसरों को नीचा दिखाना उनका पसंदीदा काम था। दूसरी ओर मनु के चेहरे पर बेलगाम घोड़े से दौड़ते हुए अस्थिरता के भाव को महसूस कर रहे थे फिर धीरे से मनु से पूछा, “अच्छा बेटा आप बड़े होकर क्या बनना चाहते हो?”
“अंकल मैं इंजीनियर बनना चाहता हूं और म्यूजिशियन भी, फिर सोचता हूं कि मैं फुटबॉल प्लेयर बन जाऊं क्योंकि सभी कहते हैं मैं फुटबॉल बहुत अच्छा खेलता हूं।”, मनु खुश होते हुए बोला।
“रविशंकर तो कह रहे थे कि आप डाॅक्टर बनना चाहते हैं?”
“हां, मैं डाॅक्टर भी बन सकता हूं।”
“बेटा, आपको लगता है कि आप इंजीनियर, डाॅक्टर, म्यूजिशियन, फुटबॉल प्लेयर, ये सब बन सकते हैं अगर आप ऐसे सोचते हैं तो फिर आप कुछ नहीं बन सकते। आप को कोई एक लक्ष्य निर्धारित करना होगा और उसी को लेकर आगे कड़ी मेहनत करनी होगी फिर जाकर आप अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।, रविशंकर की तरफ देखते हुए मनोज ने कहा।
“हां.. हां वो तो मनु डिसाइड कर लेगा लेकिन तेरे बेटे को वेटर बनने की क्या सूझी?,” रविशंकर अभी भी मनोज की टांग खींचने से बाज नहीं आ रहे थे।
“सबसे पहले तो ये कि रवि शेफ बनना चाहता है वेटर नहीं और शेफ बनने के दौरान हर छात्र को टेबल मैनर्स सिखाए जाते हैं। ये सब ट्रेनिंग का हिस्सा है। दूसरी बात कि रवि ने अपना लक्ष्य स्वंय निर्धारित किया है। मैंने उस पर कोई दबाव नहीं डाला है और जब वह शेफ बनेगा तो मुझे उस पर गर्व होगा।,” मनोज ने कहा।
मनोज की बातें सुनकर रविशंकर बगले झांकने लगे क्योंकि दूसरों को नीचा दिखाने के प्रयास में स्वंय की मीट्टी पलीद हो गई।
नफरत के बीज
रवि को बरामदे में खेलता देखकर, रमा ने इशारे से अपने पास बुलाया। इस पर रवि ने कहा, “मैं तुम्हारे पास नहीं आऊंगा।” किसी को आस-पास न देखकर रमा रवि के पास जाकर पुचकारते हुए बोली, मैं तो तेरी छोटी मां हूं ना बेटे! तू मेरे पास नहीं आएगा”।
रवि अपने आपको छोटी मां के गोद से छुड़ाते हुए बोला, “तुम मेरी मां नहीं हो! मां कहती हैं, तुम डायन हो। तुमसे दूर रहना चाहिए नहीं तो तुम मुझे लेकर भाग जाओगी”, इतना कहकर वहां से भाग गया।
रमा आंखों में आंसू भरकर दूर तक उसे जाते हुए देख रही थी और कुछ मिनटों तक दीन-हीन सी बदहवास वहां बैठी रही तभी मनोज वहां आया और बोला, ” चलो रमा, अब रवि हमारा नहीं रहा। रमा रोते हुए कहने लगी, ” मनोज वो दिन मुझे आज भी याद है, जब विनिता दीदी ने मुझे अपने पास बिठाते हुए कहा था, “अरे पगली कौन कहता है, तू निसंतान है आज से रवि तुझे छोटी मां कहेगा। अगर मैं देवकी हूं तो तू यशोदा है, समझी! हम दोनों इसे मिलकर पालेंगे। आज से कभी अपने आपको निसंतान मत कहना। दीदी के गले से लगकर कितना रोई थी, ऐसा लगा जैसे बड़ी बहन मिल गई हो मुझे लेकिन जमीन-जायदाद को लेकर रवि के मन में मेरे खिलाफ जहर भर दिया, मुझे छोटी मां से डायन बना दिया।”
रमा, इसमें रवि की गलती नहीं है! बच्चे का मस्तिष्क एक खाली बोतल की तरह होता है तुम उसमें जो बीज डालोगी वो वैसे ही बन जाएगा और रवि के मन में तुम्हारे खिलाफ भाभी ने पहले प्यार के बीज बोए थे और अब नफरत के बीज बो दिए है। तुम दुखी न हो, हम एक-दूसरे के साथ हैं, यही हमारे लिए बहुत है।
बंदिश
अखबार में छपी बालात्कार की खबरें पढ़ कर नीमा चिंतित हो गई और कविता के कमरे में जाकर उसकी अलमारी से सारे छोटे और फैशनेबल कपड़े निकाल कर इकठ्ठा करने लगी।
मन ही मन बुदबुदाते हुए बोली, ” मैं ये सारे कपड़े फेंक दूंगी। कविता है तो उम्र में छोटी लेकिन ताड़ सी लंबी हो गई है, उसे देखकर कौन कहेगा कि वो सिर्फ बारह साल की लड़की है। मैं अपनी बच्ची की रक्षा कवच बनूंगी, वो जहां भी जाएगी, मैं उसके साथ जाऊंगी।”
तभी अंतर्मन से आवाज आई, “क्या तुम्हारे ऐसे कदम उठाने से कविता सुरक्षित हो जाएगी? क्या पूरे कपड़े पहनने से वो बच जाएगी? क्या वो लड़की है ये काफी नहीं है? अगर कुछ बदलना है तो अपनी सोच बदलो, उसे सशक्त बनाओ ताकि वो सामने आए मुसीबतों का डटकर मुकाबला कर सके। उसे अपनी लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित करो।”
“नीमा ने अंतर्मन की बात सुनी और धीरे धीरे सारे कपड़े समेट कर अलमारी में रखने लगी।”
भेड़िया
राधा अन्य दिनों की भांति आज भी खिलौने बेचने निकली, बच्ची को गोद में लिया उसके कुछ सामान एक झोले में रख कंधे पर टांग लिया और खिलौने की टोकरी सर पर रख ली और गली गली घूमकर खिलौने बेचने लगी। घोड़े ले लो, हाथी ले लो……भरी दुपहरी में पसीने से तर – बतर एक घर के पास रूकी और दरवाजे पर दस्तक दी। तभी अंदर से एक साहब निकले और कहा –
“बोल क्या काम है?”
“जी, मेमसाब.. (बात काटते हुए ) वो सो रही है।”
“जी, बच्ची को बहुत भूख और प्यास लगी है थोड़ा कुछ खाने को मिल जाता।”
“तुझे भूख – प्यास नहीं लगी” – कुटिल मुस्कान छेड़ते हुए साहब ने कहा।
“बातचीत की आवाज सुन मालकिन दरवाजे पर आई और सहमी राधा को देख उसने सारा मंजर भाप लिया, मालकिन को देखते ही साहब उल्टे पांव अंदर चले गए।”
“राधा और उसके भूखी बेटी को रोटीयां खिलाई और पानी पिलाया। तू इतनी छोटी बच्ची को इस तपती धूप में लेकर क्यों घूमती है? बच्ची बीमार हो गयी तो लेने के देने पड़ जाऐंगे” – मालकिन ने पूछा।
“क्या करूं मेरा काम ही ऐसा है। जमाना कितना खराब है ये तो आप देख ही रही है। इसे बाहर के भेड़ियों से तो बचा लूंगी लेकिन घर में छुपे भेड़िए से नहीं बचा सकती। धन्यवाद कहकर अपना सामान और बच्ची को गोद में लिया और खिलौने बेचने लगी, घोड़े ले लो, हाथी ले लो, गुड़िया ले लो……..।
तभी मालकिन की नजर टीवी पर दिखाए जा रहे समाचार पर पड़ी, किसी दरिंदें ने मासूम को रौंदा दिया। वो बड़बड़ाई सच में जमाना खराब है।
प्रगति त्रिपाठी
बंगलोर
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सपने
“दादी माँ! अपनी पसंद बताओ ना, क्या खाओगी”
मेरी बहू की बहू ने मेनू कार्ड मेरी तरफ कर पूछा तो आँखें छलक आईं
जब अपने बाउजी के घर में थी तो चारदीवारी ही मेरी दुनिया थी। सिर्फ मेरी ही नहीं! मेरी माँ, भाभी,चाची और दादी की भी। स्कूल सिर्फ सातवीं तक गई वो भी बड़े भाई के साथ। ललचाई नज़रों से आइसक्रीम के ठेले को देखती। जिसे कभी भाई ने बाहर खाने ना दिया था।
मेरे सपने भी तब चारदीवारी से बाहर के नहीं होते थे। लगता ही नहीं था कि इस चारदीवारी के बाहर की भी कोई दुनिया होती है।
ब्याह दी गई थी मैं सिर्फ पंद्रह साल में। एक नई चारदीवारी में थी जहाँ अब घूँघट भी निकल आये थे। बाबुजी की चारदीवारी इससे अच्छी थी। कमसे कम वहां खुलकर सांस ले पाती थी बिना रोक टोक किसी के सामने बैठ सकती थी। यहां जेठ,ससुर, सास या बड़ों के सामने बैठ नहीं सकती थी, बोल नहीं सकती थी।
धीरे धीरे मैं इसी में ढलती गई। ये अजीब लगने वाली चीजें अब मुझे अजीब नहीं लगती थीं। मैं इसी चारदीवारी में माँ बनी और फिर सास भी बन गई। मैंने अपनी बहू को भी यही सब सिखाया जो मुझे विरासत में मिली थी। उसे ये सब सहने में मुझसे ज्यादा दिक्कत हुई। मुझे उसके इस दिक्कत से बहुत दिक्कत होती थी। मैंने उसपर सख्ती बरती। बेटे ने कभी उसके पक्ष में आवाज उठानी चाही भी तो उसके पिता ने उसे चुप करा दिया। मैंने उसके संस्कार को भला बुरा कहा। धीरे धीरे वो भी इस चारदीवारी में ढलती चली गई। वो भी माँ बनी और अब वो भी एक सास है। मेरी हड्डियां कमजोर हो चली हैं। मगर मुझसे ज्यादा कमजोर मेरी बहू हो गई है। छूट दे रखा है उसने अपनी बहू को। वो बाहर भी जाती है। घूँघट भी नहीं लेती। और खुलकर हँसती है, गुनगुनाती है। मुझे ये सब अच्छा नहीं लगता। पर मेरे बेटे बहू को ये ठीक लगता है। मैं अतीत की चादर ओढ़े अपने छोटे छोटे सपनों को घर के चारों तरफ़ बिखरे देखा करती हूँ जो कभी पूरे ही नहीं हुए। मेरे वे सारे बिखरे सपने हँसते है मुझपर, मुझे मुँह चिढ़ाते हैं जब इस तीसरी पीढ़ी की बहू को ऊंचे ऊंचे सपनों को जीते देखते हैं। मेरी बूढ़ी हड्डियां ये देख, क्रोध,ईर्ष्या, घुटन से जकड़ जाती हैं।
पर आज मैं चाह कर भी इस उन्मुक्तता को अपने विरासत की जंजीरों से जकड़ नहीं सकती। आज तीसरी पीढ़ी की बहू को ऑफिस में कुछ कामयाबी मिली है। उसकी पार्टी किसी होटल में रखा है उसने। उसके ऑफिस के कुछ लोगों के अलावा मेरे बेटे बहू भी जाने वाले हैं। मैं कभी पैसे की तंगी में नहीं रही पर होटल कैसा होता है मैंने नहीं देखा। उन छोटे सपनों के बीच ये मेरा थोड़ा बड़ा सपना था। जो अब मुझे देख जोर जोर से हँस रहा है। सब तैयार हो रहे थे। मैं अपने अतीत से घिरी अपनी धुंधली आँखों से सब देख रही थी।
“दादी आज आप भी चलोगी हमारे साथ”
पोते के साथ छोटी बहू ने आते ही एक साड़ी मेरे सामने रख दी
“इसे पहन कर जल्दी तैयार हो जाओ दादी आप भी”
उसके इस प्यार भरे मनुहार ने मुझे मजबूर कर दिया। मैंने उनके साथ होटल निकलने से पहले अपने सपनों की तरफ हँसते हुए देखा।
“दादी! ..दादी! कहाँ खो गई आप…बताइए क्या खाना है आपको.?
मैं अपने अतीत से बाहर आ, भरी आँखों से छोटी बहू को देखने लगी। जो होटल के मेनू कार्ड को मेरी तरफ किये देख रही थी। इस दुनिया से जाने में शायद अब चंद साँसे ही बची हैं पर इस नई पीढ़ी के बच्चों ने, उन बची चंद साँसों पर से, मेरे उन चंद सपनों का बोझ कुछ कम कर दिया है।
मैंने आइसक्रीम की फोटो देख अपनी कपकपाती बूढ़ी उंगली उस पर रख दिया
सब बच्चे खुशी से ताली बजा उठे
मेरी आंखों के सपने..आँसू बन कर छलक पड़े..!
धड़कन
आज हाथों में शिमला की दो टिकटें लिए अपनी जिंदगी के गुजरे तमाशे याद आ रहें हैं..
“इससे पहले तो घर में नई शादी ही नहीं हुई, शिमला घूमने जाएंगे ये निर्लज्ज”
मन मसोसकर गाँव में ही रहना पड़ा था। क्यूंकि तब पैसों की तंगी भी थी। लव मैरिज तो नहीं हुई थी, मगर इनसे शादी के तुरंत बाद ही प्यार हो गया था। कम उम्र में ही हमारी शादी हो गई थी, तो प्यार क्या होता है इनके आने के बाद ही समझा।लगता था इनके लिए चाँद तारे तोड़ लाऊँ। वादा किया था कि, शिमला जरूर जाएंगे। यही सपना तब बहुत बड़ा लगता था। आज तो ख्वाबों के दायरे भी, बहुत बड़े हो गए हैं। बड़ी मुश्किल से शादी के कुछ सालों बाद, घर में एक टीवी आया, इनके साथ बैठ कर रंगोली और चित्रहार देखने का मन करता था, पर घर में बाकी बड़े भी ये प्रोग्राम एकसाथ देखते थे, तो ये कमरे से बाहर पर्दे के कोने को पकड़े, कभी गाने देखती और कभी मुझे, रोमांटिक गाने पर दोनों की धड़कनें तेज हो जाती थी, ये महसूस करते थे हम दोनों। इनसे प्यार करते करते कब अपनी गृहस्थी से प्यार हो गया पता ही नहीं चला। बच्चे बड़े होने लगे और ज़िम्मेदारी भी। शहर की ओर रुख किया। बच्चों को पढ़ाया लिखाया उनकी शादी की, पर दिल के किसी कोने में वो वादा अब भी जिंदा था शिमला वाला! बच्चे घूम कर हो आये हैं.. शिमला नहीं स्विट्जरलैंड! पर हमें क्या.. हमें तो शिमला जाना था। आज हम दोनों को फुरसत है, पैसा भी है, पर शरीर अब उतना साथ नहीं देता, इन्हें साँस लेने में तकलीफ होती है, और मेरी धड़कनों की रफ्तार धीमी हो रही है। पर मरने से पहले वो वादा पूरा करना चाहता हूँ इसलिए दो टिकटें ले आया हूँ। ये भी तैयार बैठी हैं। निकल पड़े हम शिमला के लिए हाथों में हाथ लिए, बस पर बैठते ही मैंने पूछ लिया
“दवा ले लिया है ना तुमने अपना?”
“आप हैं ना साथ..मेरी साँसे नहीं रुकेंगी”
इन्होंने अपना सर मेरे कंधे पर टिका लिया, और मेरी धड़कनें फिर से जवां होने लगीं।
बच्चे कहते हैं आपदोनो बूढ़े हो गए हैं, पर उन्हें क्या पता कि,
ख़्वाब कभी बूढ़े नहीं होते..!
दलाल
दो जरूरतमंद लोगों को आपस में मिलाकर उनके बीच का कमीशन कमाता हूँ। दलाल शब्द मुझे अच्छा नहीं लगता, मगर पेशे से दलाल ही हूँ। इसी कमीशन से मेरा घर चलता है। मोहल्ले की एक ताई को एक किराएदार चाहिए। मगर परिवार वाला। और एक परिवार को किराए पर घर चाहिए, जहाँ किचकिच ना हो.. कम पैसे में सेपरेट। दोनों को आज मिला दिया। किराएदार घर देखने अपने परिवार के साथ आया है। पूरा परिवार घूम घूम कर घर देख रहा है और ताई पूरे परिवार को घूर घूर कर।
“जी घर तो अच्छा है.. पानी तो बराबर रहता है ना?”
“ताई के घर में बिजली और पानी की कोई दिक्कत नहीं” मैंने अपने चिरपरिचित अंदाज में बोला
“जी बाकी सब तो ठीक है पर दस हजार ज्यादा है।घर भी थोड़ा पुराना है.. मैं आठ हजार दे पाऊँगा इसका और एडवांस भी दो महीने का ही” मुझे पता था ताई मानेंगी नहीं, और मानना भी नहीं चाहिए। आखिर ये घर का किराया उनका बड़ा सहारा है। और मेरा कमीशन भी कम हो जाता।
“ठीक है” ताई थोड़ी उदास हो बोली। ताई की हामी सुन मैं आश्चर्य से उनके पास गया और धीरे से बोला
“क्या बोल रही हैं ताई? मैं कल दूसरा किराएदार देखता हूँ”
“अरे तू देख नहीं रहा है,कितने प्यारे बच्चे हैं, लग रहा है मेरे बेटे का परिवार आ गया है, समझूँगी दो हज़ार बच्चों पर खर्च कर रही हूँ” ताई अब भी प्यार से परिवार को देखे जा रही थी..जैसे सच में उनका..! मैं समझ गया आज मेरा घाटे का दिन है
“मैं क्या बोल रहा हूँ माँ जी, आप उदास ना होइए दस हज़ार उतना भी ज्यादा नहीं.. किचेन एरिया बहुत अच्छा लगा पत्नी को..हम कल शिफ्ट हो जायेंगे” वो दस हजार के हिसाब से दो महीनें का एडवांस दे जाने लगे। मैं भी उनके साथ निकल गया
“ताई तो आठ हजार पर मान गई थी..फिर आपने..!” मुझ जैसे दलाल को इनकी बात समझ नहीं आ रही थी
“जी किराये के घर में माँ कहा मिलती हैं..”
आज पहली बार दो जरूरतमंदों को मिलाकर, खुशियां कमाई हैं मैंने..!
सौदा
इस बड़े शहर में एक छोटा सा कॉस्मेटिक शॉप है मेरा। पति ने खोला था मेरे नाम पर। झुमकी श्रृंगार स्टोर। आज एक नया जोड़ा आया है मेरे दुकान पर।स्टाफ ने बताया कि सुबह से दूसरी बार आये हैं।एक कंगन इन्हें पसंद है पर इनके हिसाब से दाम ज्यादा है। इन्हें देख इस दुकान की नींव, मेरा वजूद, और अपनी कहानी याद आ गई। ऐसे ही शादी के बाद पहली बार हम एक मेले में साथ गए थे। मुझे काँच की चूड़ियों का एक सेट पसंद आया था। तब आठ रुपये की थी और हम ले ना पाए थे। ये बार बार पाँच रुपये की बात करते मगर उसने देने से मना कर दिया।उन्हें मुझे वो चूड़ी ना दिलाने का अफसोस ज़िंदगी भर रहा था। क्यूंकि उस दिन मैं पहली बार उनके साथ मेले में गई थी और कुछ पसंद किया था।उसदिन इनके जेहन में इस दुकान की नींव पड़ गई थी। इतना प्रेम करते थे मुझसे कि फिर कभी कुछ माँगना ही ना पड़ा। मेरी खुशियों के लिए रातदिन एक कर दिया। ये सब याद कर मेरी गीली आँखे इनके फूल चढ़े तसवीर की तरफ गई जिसके शीशे में ये जोड़ी नज़र आ रही थी
“सर! सुबह ही कहा था कि हजार से कम नहीं होगा”
“चलिये ना, कोई बात नहीं! फिर कभी ले लेंगे” दोनों सीधे साधे गाँव के लग रहे थे बिलकुल जैसे हम थे। लड़की मेरी ही तरह स्थिति समझ रही है और लड़के में इनके जैसा उसे दिला देने की ललक और ज़िद्द। इस प्यार को मैं महसूस कर रही थी
“एक बार और देख लीजिए ना अगर सात सौ तक भी..!”
“एक ही बात कितनी बार बोलूं सर, नहीं हो सकता” जैसे मैं इनका हाथ लिए मेले के उस दुकान से वापस जा रही थी और ये मायूस हो कदम वापस ले रहे थे..ये जोड़ा भी दुकान से बढ़ने ही वाले थे
“रुकिए आपलोग! कौन सा कंगन पसंद है”
“ये गोल्डेन और रेड वाला मैम” स्टाफ ने कहा
“इसपर तो कल ही फिफ्टी परसेंट डिस्काउंट लगाने बोला था तुमको।”
“कब बोला था मैम”?
“अच्छा!लगता है मैं भूल गई थी..जी ये अब पाँच सौ का ही है, आप ले जाइए” लड़के की खुशी देख मुझे महसूस हो रहा था कि उसदिन ये भी ऐसे ही खुश होते।
स्टाफ मुझे ऐसे देख रहा था जैसे आज पहली बार मैंने घाटे का सौदा किया हो। पर उसे क्या पता..
खुशियों का सौदा नहीं होता..!
पिता
“पापा! दूसरी नयी साइकिल दिला दो ना”
मैं समझ सकता हूँ। साइकिल थोड़ी पुरानी हो गई है। इसी से स्कूल और ट्यूशन जाता है। बेटा बोल रहा था बार बार चेन उतर जाता है इसका।पर अभी नई दिला पाना थोड़ा मुश्किल है। बेटे को लेकर साइकिल दुकान उसे ठीक कराने गया। साइकिल दे हम वहीं बैठे थे कि एक और आदमी अपने बेटे के साथ आया। साइकिल देखता और दाम पूछता। ये सिलसिला लगभग आधे एक घंटे चलता रहा।
“देखिए जब आपको लेना ही नहीं तो सब साइकिल निकलवा कर टाईम खराब क्यूँ कर रहे हैं”
“जी लेना है.. कोई सस्ती वाली नहीं है क्या?
“तीन हज़ार से सस्ती क्या बताऊं तुम्हें.. दूसरी जगह देख लो” ग़रीब लग रहे थे हमसे भी, शायद दूसरी जगह भी देख आये थे। उसका बेटा निराश और वो परेशान सा था। हिम्मत जुटा कर उसके बेटे ने पूछा
“अंकल सेकेंड हैंड भी रखते हो क्या?” बाप आश्चर्य से उसे देख रहा था कि ये सेकेंड हैंड कोई महंगी तो नहीं!
“रखता हूँ पर अभी नहीं है” तभी मेरे बेटे की साइकिल ठीक हो गई थी।
“हो गई आपकी साइकिल ठीक, एकदम चैंपियन, ले जाइए” मेरे दिमाग में कुछ चलने लगा। कुछ पैसे थे मेरे पास कुछ..
“सुनो भाई इस साइकिल की कितनी दोगे?” मैंने साइकिल देख रहे आदमी से पूछा
“एक हज़ार” उसने झिझकते हुए कहा। मैं जानता था थोड़ा कम है। दो साल ही तो पुरानी थी
“जी ठीक है.. ले जाइए” मैंने उसे साइकिल दे अपने बेटे के लिए भी नई साइकिल ले ली। दोनों बच्चों की आँखे चमक गई थी, और दो पिता अपने बेटे के लिए,अपनी परिस्थिति के हिसाब से, उनके होंठों पर हँसी ले आये थे। हम घर की ओर चल पड़े
“थैंक्यू पापा! मैं नई साइकल लेकर बहुत बहुत खुश हूँ”
“और मैं पुरानी बेचकर” बेटा मेरे इस बात को अभी समझ नहीं पाया पर समझेगा एकदिन ..एक पिता बनकर..!
विनय कुमार मिश्रा
रोहतास (बिहार)
निमंत्रण
“अरे बीबीजी आप मेरे घर ?”
“हाँ शांति !अपनी बेटी की शादी के लिए तुझे आमंत्रित करने आयी हूँ |”
“अरे वो तो हमे पता ही है बीबीजी | रोज काम करने आते तो हैं | सादी में हमें तीन दिन वही रहना है जे भी बता चुकी आप |
“शादी का सारा काम तुझे ही करना है शांति | लेकिन शादी की पार्टी में तुझे कामवाली की हैसियत से नहीं, एक मेहमान की तरह आना है | बिटिया की आंटी को अपने पूरे परिवार के साथ आकर वर वधु को आशीर्वाद देना है|”
“पूरे परिवार के साथ ?”
“हाँ! ये लो तुम्हारा निमंत्रण पत्र !”
और श्रीमती गर्ग ने शादी का कार्ड और मेवा का डिब्बा ससम्मान शांति के हाथों में पकड़ा दिया|
बिल्ली और बंदर
दो बिल्लियों को एक रोटी मिली, दोनों ने हमेशा की तरह बड़े प्यार से आधा-आधा बाँट ली और बड़े इत्मीनान से बैठ कर खाने ही लगीं थी कि एक बंदर वहाँ से गुजरा । बिल्लियों को सूखी रोटी खाते देख उसकी आँखों में पानी भर आया । वह हाथ जोड़ कर उनके समीप गया । मात्र सूखी रोटी से काम चलाने के लिए हार्दिक दुःख एवं सहानुभूति जताई और इसके लिए वर्तमान शासक को जिम्मेदार ठहराते हुए स्वयं को शासक बनाये जाने पर समस्त बिल्ली बिरादरी को मुफ्त दूध उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया ।
दोनों बिल्लियों ने तुरंत एक बहुत बड़ी सभा बुलाकर वर्तमान शासक द्वारा उनकी बिरादरी की उपेक्षा और परिणामस्वरूप उनके दूध-जैसी आवश्यक वस्तु से वंचित रह जाने पर जोरदार भाषण दिया। सबने मिलकर वर्तमान शासक के विरुद्ध नारे लगाए और बंदर को आमंत्रित कर उसकी प्रतीकात्मक ताजपोशी की। बंदर ने उन्हें दूध उपलब्ध कराने के वायदे को फिर से दोहराया ।
बिल्लियों के समर्थन के चलते कुछ ही समय में बंदर शासक के पद पर आसीन हो गया। बिल्लियों ने कुछ समय इंतज़ार के बाद आखिरकार उसे उसका वायदा याद दिलाया ।
बंदर ने बेहद विनम्रता के साथ उन्हें बताया कि दूध वास्तव में बिल्लियों के लिए उपयुक्त भोजन नहीं हैं । क्योंकि दूध को पचाने के लिए आवश्यक एन्ज़ाइम उनके शरीर में बनते ही नहीं है जिसकी वजह से उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है और साथ ही यह अफ़सोस भी व्यक्त किया कि इतने वर्षों से सत्ता पर काबिज़ सभी शासक उनके लिए इतने महत्वपूर्ण अनुसंधान
से बिलकुल उदासीन रहे । पहली बार स्वयं उसने उनके स्वास्थ्य को राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर युद्ध स्तर पर कार्य किया है ।
कुछ बिल्लियों ने बंदर का जयघोष किया तो कुछ झूठे वायदे करने के आरोप में खरी खोटी सुनाने लगी । इस प्रकार बिल्लियों के दो धड़े बन गए हैं, जिनके बीच अक्सर आरोप-प्रत्यारोप से लेकर मारपीट और झगड़े होते रहते हैं ।
उधर बंदर ने घोषणा कर दी है कि अगर वह अगले चुनाव में आगामी पाँच वर्ष के लिए चुन लिए जाता है तो सभी बिल्लियों को उनके लिए सर्वथा उपयुक्त डिब्बा बंद मांसाहारी भोजन मुहैया कराया जायेगा |
मोहरा
बेटा मेरी समझ में ये तेरा गोरख-धंधा नहीं आता ? तू एक दिन, एक दल की तरफ से प्रदर्शन करता है, तो दूसरे दिन, दूसरे दल की तरफ से बसों को आग लगाता है| तीसरे दिन किसी तीसरे ही के साथ तोड़ फोड़… ।”
“अरे बापू !! हम सारी दुनिया के, सारी दुनिया हमारी, अपनी तो बस पैसे से यारी..!”
“और कल तो तू अपने ही लोगो के खिलाफ …|”
“बापू, जो जिस दिन पैसे देता है, उस दिन के लिए वो अपना हो जाता है, सिम्पल !”
“यानि तू जिस-तिस के हाथ का मोहरा बन के रह गया है । क्या इसी दिन के लिए तुझे पैदा …..”
“मोहरा मैं नहीं बाबा, वो हमारे एक दिन के बाप भाई होते हैं न, वो बनते है मोहरे ….. राजनीति की गंदी बिसात के मोहरे । कल मैंने बस को आग नहीं लगाईं थी, उनके लिए चूल्हा जलाया था, जिसमें उनकी वोट पकेंगीं ।”
“लेकिन, डर लगता है बेटा कभी-कभी तो चोट खाकर आता है तू खामख्वाह अपना खून बहा कर..”
“अरे बापू, पैसा कमाने के लिए कुछ तो बहाना ही पड़ता है न, अब पसीना बहाएँ या….|”
पकना एक कहानी का
गोष्ठी समाप्त होने पर हम दोनों हिंदी भवन से निकल रहे थे, जब उन्होंने कहा- ” क्या ख्याल है? कहीं बैठ कर चाय पी जाये ?
मैंने कहा- “आपका घर तो पास ही है, लेकिन मुझे तो घर पहुँचते-पहुँचते काफी देर हो जाएगी ।”
“अरे यार, अभी तो छह ही बजे है, बस थोड़ी देर बैठते है। साढ़े छह भी निकलोगे तो आठ बजे तक घर पहुँच जाओगे । कौन सा तुम्हें जाकर खाना बनाना है, वो तो भाभी ने बना कर रखा होगा। बड़े दिन से अपने रचना संसार पर भी कोई बातचीत नहीं हुई हैं । अच्छे लेखन के लिए यह विमर्श जरूरी होता है ।”
मैंने कुछ अनिच्छा से अपनी स्वीकृति दे दी । हम दोनों पास ही के एक छोटे से रेस्तरॉं में बैठ गए । चाय और समोसे के साथ हमारा साहित्यिक विमर्श कुछ बिंदुओं से गुजरता हुआ आजकल के बदलते परिवेश से उपजते सामयिक लेखन पर ठहर गया। मैंने उत्साह की रौ में कला और साहित्य में बाज़ारवाद के हावी होने से सम्बंधित एक प्रसंग सुना कर उसपर लिखी कहानी का भी संकेत कर दिया । वे बोले -” कहानी तो वाकई बढ़िया है, ये कहानी ग्रुप में पोस्ट की है ? मैंने तो नहीं पढ़ी ?”
मैंने कहा -“अभी नहीं, वरिष्ठ जन कहते है, कहानी को लिखकर कुछ दिन छोड़ देना चाहिए । कुछ समय बाद दुबारा पढ़ने से कई ग़लतियाँ स्वयं ही पकड़ में आ जाती हैं और कहानी सशक्त हो जाती है । वैसे मैं सोच रहा हूँ, आज घर पहुँच कर, दुबारा पढ़ कर आवश्यक सुधार कर के पोस्ट कर दूँ|”
घर पहुँचा तो श्रीमती जी रात के खाने के लिए इंतज़ार कर रही थी । भोजन से निबटते-निबटते नौ बज गए थे । मैंने लैपटॉप खोला, अपनी उपरोक्त कहानी को फिर से ध्यान से पढ़ा, किसी सुधार की आवश्यकता नहीं लगी सो उसे कॉपी कर पोस्ट करने के लिए ‘कहानी ग्रुप’ की वॉल पर गया । क्या देखता हूँ कि लगभग आधा घंटे पहले उक्त प्रसंग पर उन हितैषी साहित्यकार की कहानी पोस्ट हो चुकी है, जिस पर कमेंट और लाइक बरस रहे है ।
मेरी कहानी रसोई में पकती ही रह गयी थी और मेरी रेसिपी से बनी अन्य कहानी, खाने की मेज पर सबकी थालियों में परोसी जा चुकी थी। मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे किसी ने दिन दहाड़े मेरी पॉकेट मार ली हो और मेरे सामने ही मेरे वॉलेट से रुपये निकाल-निकाल कर खरीदारी कर रहा हो ।
अचानक एक “हैलो, हैलो” की आवाज़ मुझे इस दृश्य से वापस अपनी लिखने की मेज पर खींच लायी । मैंने पता नहीं कैसे, एक वरिष्ठ साहित्यकार का नंबर मिला दिया था ।
कुतरे हुए नोट
जैसे-जैसे आर्डर होती डिशेस की संख्या बढ़ती जा रही थी, प्रशांत की बेचैनी भी उसी अनुपात से बढ़ रही थी, उसे ऐसा लग रहा था, जैसे किसी ने उसके दिल को मुठ्ठी में जकड़ लिया है और दबाता ही जा रहा है ।
वह कॉर्पोरेट में नया-नया आया था और एक अघोषित नियम के चलते उसे स्टाफ को ‘न्यू जॉइनिंग ट्रीट’ देनी पड़ी। काफी कोशिश की उसने टालने की। अपनी आर्थिक स्थिति की तरफ इशारा भी किया, लेकिन किसी को उस सब से कोई मतलब नहीं था।
उनकी जिद और फ़िकरों का लब्बो-लुआब यह था कि कॉर्पोरेट में इतना कम कोई नहीं कमाता कि एक ट्रीट न दे सके । ज्यादा न सही, एक-एक ड्रिंक और हलके फुल्के स्नैक्स तो कोई भी अफोर्ड कर सकता है। अब वह कैसे बताता कि उसकी ठीक-ठाक तनख्वाह उन सब की तरह घर में एडीशनल नहीं बल्कि एकमात्र है। उसके पास न एक अदद पिता है, न पिता का घर । हिंदी फिल्मों की तर्ज़ पर एक माँ, एक कुँवारी बहन और एक खड़ूस मकानमालिक है। लेकिन न तो वह कह पाया और कहता भी तो वे सुनते नहीं। “कॉर्पोरेट की ईट ड्रिंक एंड बी प्रिपेयर फॉर हार्ड वर्क” वाली नीति में इस प्रकार का कहना सुनना होता ही नहीं ।
सो अब वे सब इस हाई-फाई बिल्डिंग में ही बने एक रेस्ट्रॉं में बैठे हैं। उसके कुछ खा न पाने पर उन्होंने कंजूसी का लेबल लगा दिया है। ट्रीट खत्म हो चुकी है। वह बड़ी लाचारी और बेकसी से देख रहा है- हर प्लेट में कुछ कुतरे हुए नोट पड़े हैं।
शोभना श्याम
न्यू देहली
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—शर्म——–
ठेकेदार के कार्य में लोच बहुत था। मटेरियल घटिया और कार्य भी घटिया…..। ना नुकूर करने के बाद सरकारी अफसर अपनी मुट्ठी गर्म कर आखिर कार्य को सही करार दिए। साहब के दोनों हाथ में लड्डू…. डिमांड भी पूरा और उस पर भी मुफ्त महँगे होटल में दावत.।
दावत. के बाद बेरा बिल लाया। ठेकेदार से अच्छे टिप मिलने के बाद साहब को भी सलाम ठोका, और आशा भरी नजरों से हाथ फैला दिया।
साहब का पारा गर्म…खदबदाते हुए खा जानेवाली नजरों से घूरते हुए बोले , ” तनिक भी शर्म नहीं…. मुफ्त की खाने की आदत हो गई है ..? ”
” सचमुच साहब ! मुफ्त के खाने में शर्म भी आती है…? ”
संस्कार
” का रे कलुआ , तेरी छोरी भाग गई है ….? तुम लोगों में यह आम बात है। कमाओ,खाओ,पियो और मौज करो।”
” सब किस्मत का खेल है , साहब । भगवान कभी मीठा, कभी कड़वा भी देता है । ” झाड़ू लगाते हुए बोला।
” जैसा संस्कार देगा, वैसा ही होगा। खैर तुम लोगों को संस्कार, नैतिकता की बातें पल्ले नहीं आएगी । ”
” ठीक ही फरमाते हैं , सरकार ! आप जइसन् लोगन से सीखना होगा । ”
” स्याला….तुम लोग खाक सीखेगा……”
तभी श्रीमती जी घबड़ाई हुई आई और बोली , ” बिटिया का अभी फोन आया है ।भागकर शादी करने जा रही है। ”
“क्या…” मुँह खुला रह गया । गुस्से से, ” कौन है वो हरामजादा ? ”
नजरे चुराते हुए,” वही भंगी बल्लो ।”
चेहरा फक्क पड़ गया और नज़रें जमीन में …जैसे कुछ ढूढ़ रहे हैं।
लोच
ठेकेदार के कार्य में लोच बहुत था। मटेरियल घटिया और कार्य भी घटिया…..। ना नुकूर करने के बाद सरकारी अफसर अपनी मुट्ठी गर्म कर आखिर कार्य को सही करार दिए। साहब के दोनों हाथ में लड्डू…. डिमांड भी पूरा और उस पर भी मुफ्त महँगे होटल में दावत.।
दावत. के बाद बेरा बिल लाया। ठेकेदार से अच्छे टिप मिलने के बाद साहब को भी सलाम ठोका, और आशा भरी नजरों से हाथ फैला दिया।
साहब का पारा गर्म…खदबदाते हुए खा जानेवाली नजरों से घूरते हुए बोले , ” तनिक भी शर्म नहीं…. मुफ्त की खाने की आदत हो गई है ..? ”
” सचमुच साहब ! मुफ्त के खाने में शर्म भी आती है…?
नेकी
” इत्ते कम… जेब में रुपये नहीं…. चले आते हैं जीभ लपलपाते हुए यहाँ |”
” ठीक कहती हो बाई जी…. मन बहका , तो आ गया तेरे कोठे पर.. अच्छा चलता हूँ । ”
बापस जाने को हुआ, तभी एक सुरीली आबाज सुन कदम रुक गए।
” ओए .. जो देता , रख ले खाला। भेज मेरे पास | ” सलमा ने कोठे के मालकिन से कहा ।
” का रे छोरी…खाबिंद लगता है….? बड़ा तरस आ रहा है इसके प्यास पर | ”
” हाँ, हाँ… रहम आता है, उन मासूम बच्चियों और इज्जतदार औरतों पर… कहीं हबस के प्यासे दरिंदें उन्हें शिकार न कर डाले | ”
सफ़ाई
सभी ने एकमत से स्वीकार किया कि ऊपर से नीचे तक विभाग के कार्यशैली में गंदगी व्याप्त है। सफाई जरूरी है। कड़क व घाघ बड़े अधिकारी ने मातहत को निर्देश दिया , “सफाई अभियान आज से ही आरंभ किया जाए । ”
सभा में सन्नाटा छा गया। हिम्मत कर युवा व शालीन अधिकारी ने नम्रता से कहा – ” सर,सीढ़ी की सफाई ऊपर से नीचे होती है, न की नीचे से ऊपर।
बॉस मौन हो गए…. कुछ पल बाद निर्लज्जता से हे ..हे ..करते हुए विषय बदल दिए।
भिखारी
मंदिर की सीढ़ी पर बैठे एक भिखारी ने कहा, “असहाय और अपाहिज को कुछ दे दो भईया । ”
राज ने पॉकेट में हाथ डाला | दस का नोट बापस रखते हुए, ” छुट्टे नहीं है | फिर कभी दूँगा |”
आशाभरी नजरों से देखते हुए, ” छुट्टे मैं दिए देता हूँ ….”
” रहने दे, तुमसे नहीं लूँगा | ”
” क्यों भईया..? ”
क्रोध से, ” जुबान लड़ाता हैंं….. तेरी इतनी हिम्मत.. ! ”
” मन न हो, तो मत दो भईया । भगवान तेरा भला करे | ”
हिकारत से, ” भिखारी कहीं का.. ”
” साधन , संपंन ,हट्टा कठ्ठा शरीर होते हुए भगवान से अभी माँगने ही गए थें न…? ”
राजीव कुमार
rkg1377@gmail.com