” डोन्ट टच मी ”
अपने बचपन के दोस्त को अपनी तरफ इस तरह देखते हुए सुधीर जी सही मायने में झुझंला गये…और बोले…
” यार ऐसे क्यों देख रहा है ..???
.मैं खुद बहुत परेशान हो गया हूँ…..तेरी भाभी के पागलपन से…साल भर पहले तक सब ठीक था …पर पता नहीं???
अचानक से रितु को क्या हुआ…..अब सुबह से लेकर दिन के दो बजे तक उसका पूजा पाठ खत्म नहीं होता है..घर की किसी चीज को छू लेगी तो तुरंत नहाकर आयेगी…मतलब बीस से तीस बार तो सिर्फ नहाती है…वो घर की किसी चीज को हाथ नहीं लगाना चाहती किसी दरवाजे खिड़की यहाँ तक की लैन्डलाइन फोन भी …अब इन सब कामों के लिए भी नौकर रखा है…और जब नौकर नहीं आता तो सब हम करते है..”
” फिर तुमने किसी डॉक्टर को नहीं दिखाया..”
.दोस्त ने जिज्ञासा वश पूछा…
“दिखाया था यार…वो बोले कुछ भी नहीं हुआ है कुछ लोगों को ज्यादा साफसफाई की आदत होती है…पर यार मैं अब सच पागल होने लगा हूँ….एक बात बोलूँ …साल भर में मुश्किल से दो बार तेरी भाभी मेरे पास आयी है… और उसके बाद सारी रात नहाती रही…”
अभी सुधीर जी अपनी व्यथा बता ही रहे थे तभी रितु ने आवाज लगाई…
” सुनिये तो जरा गेट खोल दिजिए… हमें बाजार कुछ सामान लेने…जाना है…”
रितु की बात पर सुधीर जी ने अपने दोस्त की आँखों में देखा…जैसे आँखों आँखों में कह रहे हो …देखा मै सही कह रहा था ना…रितु पागल हो गयी है…
सुधीर जी की आँखो के सवाल से घबरा कर उनका दोस्त ही रितु के लिए गेट खोलने चला गया और बोला…
” भाभी जी आपके साथ बाजार भी चलूँ क्या…रास्ते में…बाजार में तो बहुत कुछ छूना होगा…तो आप अपवित्र हो जायेगी ना….”
इस सवाल पर रितु ने आँसुओं के मोती सी भरी आँख उठा कर देखा…और बोली..
” नहीं भैया वहाँ ऐसी कोई परेशानी नहीं होगी…वो सब जगह साफ होगी …वहाँ आपके दोस्त ने कुछ छुआ नहीं होगा ना…”
और यह कहकर असंमजस में खड़े दोस्त को खड़ा छोड़ रितु छपाक से घर के बाहर निकल गयी….
रितु की आँखों के आगे एक साल पुराना मंजर लहरा रहा था….
रितु का अपना घर…
अपना कमरा
अपना पलंग
अपना बिस्तर
अपने कपड़े
अपनी सबसे अच्छी सहेली
और अपना पति….
और फिर मंजर बदला…
” अपने बच्चे…. अब रितु के पैरों में पड़ी हुयी बेड़ियों की जकड़न और बढ़ गयी थी…”
” डेढ़ सयाना ”
उसने एक बाद फिर दीदू की आँखों में जगमगाते जुगनूओं को देखकर जो खुशी महसूस की वो चाह कर भी उसे लफ्ज़ो मे बयां नहीं कर सकता था और दीदू क्या आजकल तो सब घर वालों की आँखों में ऐसी ही चमक रहती थी और रहती भी क्यों ना….
दीदू को उनकी पसंद का जीवनसाथी मिल गया था…बिल्कुल वैसा जैसा उनको चाहिए था..अभी वो दीदू के आँखों में चमकते जुगनुओं को गिनने की कोशिश कर ही रहा था की तभी उसके सर पर एक चपत पड़ी…
“‘ कहाँ खोया रहता है तू हर वक्त ????
वक्त देखो….कित्ती देर हो रही है हमें …जल्दी से गाड़ी निकालों…””
दीदा की बात पर उसने हड़बड़ा कर घड़ी देखी और फिर अपनी रहस्यमयी मुस्कान छुपाते हुए बोला…
” अरे दीदा सिर्फ पाँच ही तो बजे है.. इतनी कौन सी देर हो गयी ????….अच्छा हाँ भूल गया मैं ….जीजू से मिलने जाना है इसलिए इत्ती जल्दी हो रही आपको…”
अभी वो दो चार बकवास और करता पर तब तक दीदा उसके पीठ पर मुक्कों की बौझार कर चुकी थी…और वो खुद को बचाते हुए जल्दी से गाड़ी निकालने चल दिया…आखिर उसे अपनी शामत थोड़े ना बुलानी थी….
1090 चौराहे पर हर तरह…जैसे खुशियों का जमघट लगा था…हर तरह हँसते मुस्कुराते चेहरे…लवर्स के लिए वो जगह किसी इबादत गाह से कम नहीं थी….दीदा को भी यहाँ के मोमोज बहुत पसंद थे…और इसी बहाने जीजू से मुलाकात हो जाती…जीजू के आते ही…वो आर्डर करने के बहाने इधर उधर हो गया…और दीदा की आँखों में जीजू को देखते ही में एक बार फिर…हजारों दिये एक साथ जल गये थे…जीजू पता नहीं कौन सा मंत्र दीदा के कान में फूँक रहे थे…जो पल पल उनके गाल पहले गुलाबी और फिर लाल हो गये थे…बस दस दिन बाद ही तो दीदा की शादी थी…और इकलौता भाई होने की वजय से…उनकी कमर का तो अभी से बैन्ड बज गया था…हालांकि उसके चार दोस्तों का सपोर्ट चौबीस घन्टे उसके साथ था …पर शादी ब्याह में काम भी तो कितने होते है..
उसने एक बार फिर कल होने वाले कामों की लिस्ट को मन ही मन दोहराया…और दीदा के फेवरिट फ्राइड मोमोज़ आते ही वो दी जीजू के पास चला आया…दीदा ने मोमोज देखते ही जल्दी से गरमागरम मोमोज अपने मुँह में रखा …उनका मुँह जलता देख…वो और जीजू दोनों हँस पड़े…दीदा उस वक्त बिल्कुल मासूम छोटी सी बच्ची लग रही थी…अभी दीदा कुछ बोलने ही वाली थी
कि तभी एक बच्चा आया…और दीदा के हाथ में ढेर सारे गुलाब थमाते हुए बोला….
वो जो भैया…दूर खड़े है…उन्होंने आपके लिए भेजा है…और बोला है…
” भले ही आज आप सब भूल गयी है…पर यह गुलाब की महक तो याद होगी ना…आप शादी करके खुश रहना….जिस दिन आप डोली में बैठोगें…हमारा भी जनाज़ा उसी दिन रुखसत होगा ”
दीदा के चेहरे का रंग उड़ गया…उन सबने मुड़ कर देखा तो कोई दिखाई नहीं दिया….दीदा को समझ में नहीं आ रहा था…की उन्हें तो उनका बचपन का प्यार घर वालों ने खुद दिलवा दिया…तो यह कौन अपनी यादों की दास्तां सुना रहा है…
दीदा शायद कुछ समझने की कोशिश ही कर रही थी की जीजू के आँखों के बेयकीनी उन्हें लहूलुहान कर गयी…जीजू बिना कुछ बोले दीदू के हाथ से …सगाई की अगूँठी निकाल कर ले गये…और दीदा कटे वृक्ष की तरह उसकी बाँहों में झूल गयी…
अब उसके कानों में ढेर सारे कहकहे गूँज रहे थे….वो भी तो..अपने दोस्तों के साथ मिलकर ऐसे ही किसी भी अन्जान लड़की को फूल और मैसेस भेजकर उनकी हैरानी पर बहुत खुश होता था…
बहुत मजा आता था उन सबको जब वो लड़की हैरान परेशान होती थी…और उसके साथी से उसकी लड़ाई हो जाती थी…कितना हँसते थे वो पाँचों दोस्त अपनी शरारत पर…
पर समझ उसे आज आया था..आग से खेलने पर …वो किसी ना किसी को…अक्सर जला ही देती है …फितरत से मजबूर जो है…वो…
” नेहा अग्रवाल नेह ”
लखनऊ
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हाँ, फिर भी
आज उसे छुट्टी हो गई | तीसरी रिपोर्ट भी नेगेटिव आई थी | उसकी खुशी का पारावार न रहा | वह ट्राली बेग लेकर धीरे-धीरे अस्पताल के मुख्य द्वार से बाहर निकला | बरामदे में समूचा चिकित्सा स्टाफ दोनों ओर पंक्तिबद्ध खड़ा था | फिलवक्त डॉक्टर और नर्सें बिना ही पीपीई किट के थे | अब वह अपने रहनुमाओं को ठीक से देख सकता था |
उसने ट्राली का हेंडल छोड़ दिया | टोपी को माथे पर ठीक से सेट किया | फिर पीछे मुड़कर शुक्रिया अदा करने के लिए दाहिना हाथ ललाट तक ले गया कि ताली बजा रहे एक डॉक्टर पर उसकी नज़र टिक गई | डॉक्टर की दायीं भौंह पर चोट का निशान था | फिर उसने बारी-बारी से सबकी ओर देखा | एक नर्स जो अपेक्षाकृत ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ बजा रही थी उसके दाहिने हाथ पर कच्चा पट्टा बंधा था | मास्क के बावजूद उसने दोनों को पहचान लिया | प्रत्येक चिकित्साकर्मी की आँखों में अजीब सी चमक थी | ऐसी जैसे उनका बहुत करीबी मौत के मुँह से निकलकर अपने घर जा रहा हो |
उसकी आँखों से मानो खारे पानी के झरने फूट पड़े |
उसी ने तो सबको उकसाया था | भड़काऊ वीडियो उसी ने वायरल किए थे | वही तो था जिसने पहला पत्थर मारा था | फिर तो मोहल्ले वाले पागल कुत्तों की तरह पीछे हो लिए थे | स्क्रीनिंग के लिए आया स्टाफ सिर पर पैर रखकर भागा | कुछ तो घायल हो गए थे |
कौन जानता था कि यह घातक वायरस उसे ही चपेट में ले लेगा | वैसे एक वायरस तो उसके भीतर पहले से ही मौजूद था | नफरत का वायरस | आज दोनों वायरस खतम हो गए | वह बच गया | और उसे बचाने में शायद वही डॉक्टर आगे था जिसे उसने मारने की कोशिश की थी | उसी सिस्टर ने बार-बार हौसला बंधाया जिस पर उसने पत्थरों की बारिश करवाई थी | कमाल है | क्या फरिश्ते ऐसे ही होते हैं !
वह दौड़कर उस डॉक्टर के पैरों से लिपट गया जिसकी दायीं भौंह पर चोट का निशान था |
“आपने मुझे क्यों बचाया डॉक्टर ? मरने क्यों नहीं दिया ? आप नहीं जानते, मैंने आपके साथ क्या किया है |”
“जानता हूँ | हम लोगों ने तुम्हें पहले ही दिन पहचान लिया था |” डॉक्टर ने उसे गले लगाते हुए कहा|
“आप जानते थे फिर भी…?”
“हाँ, फिर भी…|”
सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी
मुझे आजकल दो दृश्य बहुत बेचैन किए दे रहे हैं |
पहला दृश्य मैंने ज्ञानेंद्रपति के साथ देखा था | सुनसान सा क्षेत्र | खेतों को चीरती हुई रेल पटरी | पटरी पर एक ऊँट छौना अठखेलियाँ करता हुआ | कभी बैठता, कभी लेटता, कभी खड़ा होकर आस-पास चर रहे अपने बुजुर्ग साथियों की ओर टुकुर-टुकुर ताकता , कभी छलांगे भरता | इतने में ट्रेन आती है | ड्राइवर को दूर से भूरा-सा धब्बा दिखाई पड़ता है | पान-फली चबा रहे ऊँटों को खतरे का आभास हो जाता है | वे गर्दन उचकाकर देखते हैं | दौड़कर छौने को घेर लेते हैं | इंजन सीटी बजाता हुआ समीप आता है तो उसे ढाही मारते हैं | किन्तु कोई नहीं बच पाता | न तो वे आठ ऊँट-ऊँटनी और न ही वह मासूम छौना |
दूसरा दृश्य यहाँ से कुछ आगे | महानगर बनने के अभियान पर निकले एक शहर की सड़क पर | यहाँ भी वे आठ होते हैं, खूंखार चेहरे वाले | दूसरी तरफ होता है एक नौजवान | नौजवान के चेहरे की मासूमियत उसी छौने जैसी | आठों उसे घेर लेते हैं | उनके चारों ओर एक घेरा और बनता है; तमाशबीनों का | घेरे के भीतर से करुण क्रंदन उभरता है | आठों रेल इंजन में तब्दील हो जाते हैं | इंजन को ढाही मारने कोई आगे नहीं बढ़ता | नौजवान दम तोड़ देता है |
मेरे मन में एक सवाल उठता है | इस सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कौन है ? ऊँट या आदमी ?
खरा सोना
हमेशा की तरह रिटायर्ड तहसीलदार देवीप्रसाद हाथ में छड़ी लहराते हुए अकड़ के साथ चल रहे थे | साथ निभा रहे थे मास्टर रामलाल | विनम्र किन्तु आत्मविश्वास से भरपूर | दोनों छः बजे ही प्रातःकालीन भ्रमण पर निकल पड़ते | देवीप्रसाद दरवाजे पर खड़े रहकर रौबदार आवाज़ लगाते, ‘‘मास्टर जी, चलो |’’
“आया, सर |” रामलाल बरसों की आदत से लाचार शिष्टता से उत्तर देते |
“मास्टर जी, पास में पैसा है तो सब कुछ है वरना कोई नहीं पूछता |” देवीप्रसाद ने चलते-चलते एकाएक रुककर कहा और कुछ-कुछ हिकारत से मास्टर जी की ओर देखा |
“जी,सर |”
“आपको विश्वास नहीं होगा, आज की तारीख में मेरे लॉकर में दो किलो सोना है | सुना? पूरा दो किलो |” वे एक खास अंदाज़ में मुस्कराये , होठों को बायीं ओर फैलाकर | “आपके पास ?” सवाल पूछते ही वे हो हो कर हँस दिए, “माफ करना मास्टर जी, मैंने भी क्या बेवकूफी भरा प्रश्न पूछ लिया |”
“जी सर |” मास्टर जी बोले | देवीप्रसाद की त्योरियाँ चढ़ गईं, “क्या कह रहे हो ?”
“तहसीलदार साहब आपको भी विश्वास नहीं होगा, मेरे पास दो सौ किलो सोना है | वह भी लॉकर में नहीं बल्कि खुले में |”
देवीप्रसाद जी की आँखें सिकुड़ गई, “मास्टर जी, आपने पहली बार मेरे सामने मज़ाक किया है | क्या आप अपना खुले में रखा सोना मुझे दिखा सकते हो?”
“नेकी और पूछ-पूछ | आज शाम को ही घर आ जाइए | मेडम को भी लेते आना | भोजन साथ ही करेंगे |”
मेडम और तहसीलदार साहब की खूब आवभगत हुई | मास्टर जी की दोनों बहुओं और बेटों ने दौड़-दौड़कर किचन और डाइनिंग रूम एक कर दिया | इतना प्रेम, इतना आदर ! पति-पत्नी अभिभूत हो गए | उन्हें रह-रहकर अपने बेटे याद आने लगे जो ऊंची नौकरी पाकर विदेश चले गए थे | घर-बार भी वहीं बसा लिया |
खाना खाकर देवीप्रसाद जी ने एक लंबी डकार ली, इधर-उधर नज़रें घुमायीं फिर थोड़ा झिझकते हुए बोले, “मास्टर जी, अब आपका वो दो सौ किलो सोना भी दिखा दो | मेडम भी बहुत उत्सुक है |”
“सर, सोना आपके सामने ही है | मेरे दोनों बेटे और दोनों बहुएँ | ये जितने मनोयोग से आपकी खातिरदारी कर रहे थे उतनी ही तन्मयता से हमारी भी सेवा करते हैं | है न खरा सोना ? चारों मिलाकर पूरा दो सौ किलो |”
परिचय
जब से उसका स्थानान्तरण आदेश आया है सब मन ही मन खूब पुलकित हैं| खूबीचन्द चपरासी से लेकर बड़े बाबू खेमराज तक सब| कैसी होगी वह? युवा अधेड़ या वृद्ध? फैशनेबल या सीधी-सादी? दिलफेंक या गुमसुम? गोरी या काली? खूबसूरत या कमसूरत? किसे पसन्द करेगी? वर्मा को या शर्मा को? कौन बनेगा उसका खासमखास? बड़ा बाबू या बॉस? तरह-तरह की अटकलें| तरह-तरह के अनुमान| लोग बार-बार स्थानान्तरण आदेश देखते गोया उसकी उम्र लिखी हो या सूरत दिखती हो या सीरत का अन्दाजा होता हो| आदेश को सूंघते और मुस्कराते मानो कोई अनाम खुशबू उनके नथुनों में बस गई हो|
आखिर वह दिन भी आ गया जब उसने जॉइन किया| सभी ने उसमें अपनी-अपनी कल्पना का कोई न कोई रंग खिलते पाया| वह रूपवान नहीं तो कुरूप भी नहीं थी| कमसिन नहीं तो अधेड़ भी नहीं थी| हँसोड़ तो नहीं किन्तु विनोदी स्वभाव की थी| फैशनेबल होते हुए भी फूहड़ नहीं थी| रंग गेंहुँआं| आंखों में सबके प्रति एक आत्मीय भाव| सभी उसका परिचय पाने को उतावले हो उठे| सो एक परिचय पार्टी ही रख दी गई| औपचारिक परिचय के पश्चात् लोगों ने उससे तरह-तरह के सवाल पूछना शुरू किया| कितने साल की सर्विस हो गई है? इसके पहले कहाँ-कहाँ रही? शिक्षा कहाँ तक? विषय क्या-क्या? रुचियाँ,पसन्द, नापसन्द वगैरह-वगैरह| एक होड़ सी| उसने सबको यथायोग्य शालीनता और विनम्रता से जवाब दिया| फिर भी लोगों की उत्सुकता निःशेष नहीं हो पा रही थी| वर्मा ने पूछा, “आपके हस्बेन्ड का क्या नाम है?”
“मिस्टर कमल|” उसने बेरुखाई से उत्तर दिया फिर किसी और बात में लग गई|
“आपके हस्बेन्ड क्या करते हैं?”
उसने कोई ध्यान नहीं दिया| शायद जानबूझकर|
“आपके हस्बेन्ड कहाँ हैं आजकल?”
वह उखड़ गई|
“क्या मतलब है? मेरे हस्बेन्ड से क्या लेना है आपको?” उसकी आवाज रुँध सी गई| “क्या मैंने आप लोगों की वाइफ के बारे में कोई सवाल पूछा है….?” आगे वह कुछ नहीं बोल सकी और महफिल को छोड़कर तीर की तरह बाहर निकल गई|
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कर्मयोगी
गणमान्य, नौकरीपेशा, रिटायर्ड, पंच, सरपंच सब आ गए | केवल योग शिक्षक का आना शेष था |
पेमा काका कंधे पर हल लादे जा रहा था | उसके दूसरे हाथ में बैलों की रास थी | इतने सारे लोगों को स्कूल के यहाँ इकट्ठा देख उसके पैर ठिठके, न चाहते हुए भी पूछ बैठा, “आज सुबै-सुबै कोई खेल है कै ?”
“अरे भोगा, आज योगा है योगा | इत्तोई नी जाणे | सारी दुनिया करे है | तू भी आ जा |” एक वार्ड पंच ने लगभग डाँटते हुए कहा |
“आऊँ होकम |”
“होकम-वोकम नहीं | सरपंच साब भी आये हैं | बुलावे है |”
“बस, यो गयो और यो आयो | आप चालू करो |” काका को कुछ समझ में नहीं आया | वह खेतों की तरफ जाने को आतुर बैलों को लेकर चल पड़ा |
योग आधे घंटे का था किन्तु दो घंटे लग गए | प्रशिक्षक ने एक-एक आसन की व्याख्या की | भरस्त्रिका, कपालभाति, अनुलोम-विलोम ,भ्रामरी की बारीकियाँ समझाईं | फायदे गिनाये | खुद करके दिखाया | तत्पश्चात योगार्थियों से करवाया | योगोपरांत सरपंच साहब की तरफ से चाय-नाश्ता, विकास की चर्चा, अच्छे दिनों की बातें | फिर विसर्जन |
पेमा काका का खेत रास्ते में था | लोगों ने देखा कि काका दीन-दुनिया से बेखबर, हल हाँकने में मगन है | पीछे-पीछे उसकी पत्नी मक्का का एक-एक दाना यों छोड़ती जा रही है जैसे बेशकीमती मोती हो | लगभग आधे खेत की बुवाई हो चुकी है |
योगगुरु रुका | सभी रुक गए | योगी ने हाथ जोड़े | लोग समझे नहीं | इधर तो पश्चिम है | सूर्य उधर है, पूरब की तरफ | कहीं गुरु को दिशाभ्रम तो नहीं हो गया ? शहर का आदमी है, पहली बार गाँव आया लगता है | या फिर काका जैसे अनाड़ी को योग कराने की मंशा है ?
योगगुरु लोगों का असमंजस ताड़ गया | हल चलाते काका की ओर देखते हुए दोनों जुड़े हाथ माथे के लगाए, फिर सिर जरा झुकाया और उच्च स्वर में बोला, “एक योगी का कर्मयोगी को प्रणाम |”
माधव नागदा
लालमदाड़ी(नाथद्वारा)-313301(राज)
मोबाइल नंबर- 09829588494
ईमेल-madhav123nagda@gmai.com
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बदलते दृष्टिकोण
सुबह-सुबह पूजा के लिए फूल तोड़ती मीनू माँ की आवाज पर रुक गई। वह गुस्से में जोर-ज़ोर से चिल्ला रही थीं। सदा की तरह निशाना भाभी थीं। जल्दी से गुलाब तोड़ अन्दर भागी मीनू।
“क्या हुआ माँ? क्यों हो रही हो इतनी गुस्सा?”
“तो और क्या करूँ, बता? इतने दिनों में घर के तौर-तरीके नहीं सीख पाई ये। कोई काम ढंग से नहीं होता इससे। एक तो महारानी जी चाय अब लाई हैं, उसमें भी चीनी कम।” माँ ने गुस्से में ही जबाब दिया।
“माँ मेरी चाय में तो चीनी सही थी, फिर तुम्हें क्यों कम लगी?” मीनू ने प्रश्नवाचक नजरों से भाभी को देखा। “वो दीदी, माँ जी की चाय में ज्यादा चीनी डालने पर आपके भाई नाराज होते हैं। माँ को शुगर है न।” भाभी ने सहमे स्वर में जल्दी से ननद को जबाब दिया।
“बस, सुन लो इसका नया झूठ। अब मुझे मेरे बेटे के खिलाफ भड़का रही है। वो मना करता है इसे!” माँ जी का गुस्सा और बढ़ गया।
“माँ, भाभी ठीक ही तो कह रही हैं। आप डायबिटिक हो। ज्यादा मीठी चाय पीओगी तो आपको ही दिक्कत होगी।” “अच्छा जी, तो अब ये भी बता दे कि मेरे लिए सब्जी में नमक, मसाले और तेल क्यों नाम का डालती है ? उसमें किसने मना किया है इसे ?” माँ ने व्यंग्य के स्वर में पूछा बेटी से।
“माँ, आप भी जानती हो—हृदय रोगी हो आप और ये सब नुकसान देता है आपको।”
“अच्छा देर तक भी इसीलिए सोती होगी कि जल्दी उठने से मेरी बीमारी बढ़ जायेगी।”
“माँ! क्या देर से उठती हैं भाभी? आजकल कौन उठता है सुबह पांच बजे! फिर रितु कितनी छोटी है, रात भर जगाती होगी भाभी को।” मीनू ने माँ को समझाना चाहा।
“और क्या दुख हैं इसे, यह भी बता… और तू कब से इसकी इतनी तरफदारी करने लगी! कल तक तो मेरी हाँ में हाँ मिलाती थी!!”माँ ने आश्चर्य से बेटी को देखते हुए कहा।
हाथ में पकड़े गुलाब का काँटा जोर से चुभ गया मीनू के हाथ में। नजरें झुकाकर जबाब दिया, “तब मैं किसी की भाभी नहीं थी माँ।”
रोबोट
बड़े ट्रंक का सामान निकालते हुए शिखा ने बड़े ममत्व से अपने पुत्र राहुल के छुटपन के वस्त्र और खिलौनों को छुआ। छोटे-छोटे झबले,स्वेटर, झुनझुने, न जाने कितनी ही चीजें उसने बड़े यत्न से अब तक सम्हालकर रखी थीं।
अरे रोबोट ! वह चिहुँक उठी। जब दो वर्ष का था बेटा, तो अमेरिका से आये बड़े भैया ने उसे ये लाकर दिया था। कई तरह के करतब दिखाता रोबोट पाकर राहुल तो निहाल हो उठा। उसमे प्राण बसने लगे थे उसके। पर शरारत का ये आलम कि कोई खिलौना बचने ही न देता था। ऐसे में इतना महँगा रोबोट बर्बाद होने देने का मन नही हुआ शिखा का । जब भी वह रोबोट से खेलता, उस समय शिखा बहुत सख्त हो उठती बेटे के साथ । आसानी से वह राहुल को खिलौना देती ही नहीं। लाखों मनुहार करने पर ही कुछ समय को वह खिलौना मिल पाता । फिर उसकी पहुँच से दूर रखने को न जाने क्या-क्या जुगत लगानी पड़ती उसे ।
शिखा के यत्नों का ही परिणाम था कि वह रोबोट अब तक सही सलामत था। राहुल तो उसे भूल भी चुका था। फिर अब तो बड़ा भी हो गया था, पूरे बारह वर्ष का। अपनी वस्तुओं को माँ के मन मुताबिक सम्हालकर भी रखने लगा था।
” अब राहुल समझदार हो गया है, आज मै उसे ये दे दूँगी। बहुत खुश हो जाएगा , उसका अब तक का सबसे प्रिय खिलौना । ” स्वगत भाषण करते हुए उसकी ऑंखें ख़ुशी से चमक रही थीं।
तभी राहुल ने कक्ष में प्रवेश किया।
” देख बेटा ,मेरे पास क्या है ?” उसने राजदाराना अंदाज में कहा।
” क्या है माँ ?”
” ये रोबोट, अब तुम इसे अपने पास रख सकते हो । अब तो मेरा बेटा बहुत समझदार हो गया है।”
” अब इसका क्या करूँगा माँ ?” क्षण मात्र को राहुल के चेहरे पर पीड़ा के भाव उभरे, फिर मुँह फेरते हुए सख्त लहजे में बोला ” मैं कोई लिटिल बेबी थोड़े ही हूँ जो रोबोट से खेलूँगा। ”
‘ चुनौती ‘
जूनागढ़ रियासत में जबसे वार्षिक गायन प्रतियोगिता की घोषणा हुई थी संगीत प्रेमियों में हलचल मच गई थी। उस्ताद ज़ाकिर खान और पंडित ललित शास्त्री दोनों ही बेजोड़ गायक थे। परन्तु उनमे गहरी प्रतिद्वन्दिता थी। रास्ट्रीय संगीत आयोजन के लिए दोनों पूरे दम खम के साथ रियाज़ में जुट गए , वे दोनों ही अपने हुनर की धाक जमाने को बेकरार थे। अक्सर दोनो के चेले चपाटों के बीच सिर फुटव्वल की नौबत आ जाती। खान साहब के शागिर्द अपने उस्ताद को बेहतर बताते तो शास्त्री जी के चेले अपने गुरु को।
खान साहब जब अलाप लेते तो लोग सुध बुध खोकर उन्हें सुनते रहते, उधर शास्त्री जी के एक एक आरोह अवरोह के प्रवाह में लोग साँस रोककर उन्हें सुनते रह जाते। दोनों का रियाज़ देखकर निर्णय लेना मुश्किल हो जाता कि प्रतियोगिता का विजेता होने का गौरव किसे मिलेगा। बड़ी-बड़ी शर्ते लग रही थीं कि उनमें से विजेता कौन होगा।
शास्त्री जी की अंगुलियाँ सितार पर थिरक रही थीं, वह अपनी तान में मगन होकर सुर लहरियाँ बिखेर रहे थे । पशु पक्षी तक जैसे उन्हें सुनकर सब कुछ भूल गए थे, तभी एक चेला भागा हुआ चला आया
” गुरूजी, अब आपको कोई भी, कभी चुनौती नही दे पाएगा, आप संगीत की दुनिया के सम्राट बने रहेंगे ”
” क्यों क्या हो गया ?”
” गुरु जी अभी खबर मिली है कि आज रियाज़ करते हुए खान साहब का इंतकाल हो गया ” शिष्य ने बहुत उत्तेजना में भरकर बताया।
सुनकर शास्त्री जी का मुँह पलभर को आश्चर्य से खुला रह गया, फिर आँखों में अश्रु तैर गए। उन्होंने सितार उठाकर उसके नियत स्थान पर रखकर आवरण से ढंका और माँ सरस्वती को प्रणाम किया। फिर सूनी नज़रों से आसमान ताकते हुए भर्राए स्वर में कहा
” आज मेरा हौसला चला गया…अब मैं जीवन में कभी गा नहीं सकूँगा।”
किस ओर ?
“हम बालको को इस्कूल पढ़ने भेजे हैं या बेमतलब के काम के लिए। जब देखो मैडमजी नई नई चीजें मंगाती रहवे हैं । ”
“अम्मा अगर आज शीशे और फेविकोल नही ले गया तो मैडम जी मारेंगी। ”
“हमाए पास नही है पैसे, किसी तरह पेट काटकर फीस के पैसों की जुगाड़ करो तो रोज इस्कूल से नई फरमाइस। जीना मुसकिल कर दिया है इन मास्टरनियों ने।”
“अम्मा …”
“चुपकर छोरा, दो झापड़ खा लेगा तो तेरा कछु न बिगड़ जाएगो।”
राजू बस्ता टाँगकर मुँह लटकाए हुए विद्यालय चल दिया। पर पिटाई के भय ने उसकी गति को बहुत धीमा कर दिया था। कल ही तो मैडम ने सजावटी सामान न ले जाने पर उसे खूब भला बुरा कहा था और दो चांटे भी लगाए थे। सबके सामने हुए अपमान ने उसके कोमल मन को बहुत आहत किया था। सुस्त चाल से चलता हुआ जा रहा था कि रेलवे लाइन के पास कुछ किशोर लड़कों के समूह ने उसका ध्यान आकर्षित किया। वह उत्सुकता से उस ओर चल पड़ा।
वहाँ कुछ किशोर बच्चे जुआ खेलने में मगन थे। एक दो बच्चों के हाथ मे सुलगते हुए बीड़ी के ठूँठ भी फँसे हुए थे। उसे देखकर उन सबका ध्यान उसकी ओर आकर्षित हुआ।
“आ जा, खेलेगा क्या ?”
वह मौन रहा, उसे समझ न आया कि क्या जवाब दे।
” बोल न, खेलना है तो बैठ जा। ” एक ने फिर पूछा।
” मेरे पास कुछ नही। ” उसने विवशता बताई।
पूछने वाले ने उसका जायजा लिया और फिर उसकी निगाह राजू के बस्ते और उसमें रखी किताबों पर जम गई। उसकी आँखों मे एक चमक उभरी।
“ये है तो इतना माल।”
उसकी निगाह का पीछा करते हुए राजू की दृष्टि भी बैग पर जम गई और चेहरे पर कुछ असमंजस के भाव उभर आये।
” लेकिन ये तो पढ़ने के लिये … ”
” अब तक क्या मिल गया पढ़कर? एक बार दाँव लगाकर देख। अगर जीत गया तो ये सब माल तेरा ” राजू की दृष्टि एक, दो और पाँच के नोटों के ढेर पर पड़ी ।उसके हाथ बस्ते पर कस गए और चेहरे पर कशमकश उभर आई, और फिर बस्ता धीरे धीरे कंधे पर से नीचे सरकने लगा।
बुज़दिल
” क्या बात है श्रवण, बहुत परेशान दिख रहे हो? सब ठीक तो है न ?” उसे भोजन को बस अनिच्छा से कुतरता देखकर अनु ने प्रश्न किया।
” हाँ अनु, सब ठीक है।”
” मुझे लगा था कि बेशक हम जीवनसाथी न बन पाए पर अच्छे मित्र तो हमेशा रहेंगे।” उसने शिकायत की।
” इसमे कोई शक ही नही अनु, हम अब भी अच्छे मित्र हैं। ” श्रवण ने उनका मनुहार किया।
” तो फिर बताओ न कि इतने उखड़े हुए क्यों नज़र आ रहे हो ?”
” तुम ये तो जानती ही हो कि मेरे विवाह को कई वर्ष बीत गए ”
” हाँ तो ?”
” पर अब भी हम निसन्तान हैं। इस बात को लेकर माँ और दादी जब देखो तब मानसी को ताने देती रहती हैं।”
” किसी डॉक्टर से मिले तुम ?”
” सारे चेकअप करवा लिए, कुछ भी समस्या नही निकली। घर का माहौल बहुत खराब हो गया है। हर वक़्त के ताने, मानसी का रोना… मन बहुत खराब हो जाता है मेरा।”
” क्या तुम यह सोचते हो कि इसमें मानसी की कोई गलती है ?”
” नहीं, ऐसा तो नहीं ”
” तो माँ और दादी से कहते क्यों नहीं, कि औरत भी एक इंसान है, कोई बच्चा पैदा करने की मशीन नहीं। जो एक मशीन ने ठीक काम न किया तो दूसरी खरीद लाए । ”
” अब तो दादी मेरी दूसरी शादी की बात भी करने लगी हैं। जी चाहता है घर छोड़कर कहीं चला जाऊं।” उसकी बात का जवाब न देकर श्रवण ने आगे कहा।
” तो बच्चा गोद ले लो।”
” पर वह अपना खून तो नहीं होगा।”
” क्यों, तुम्हारे खून में ऐसी कौन सी बात है, जिसका चलना इतना ज़रूरी है ?”
” अरे ! क्या बात कर रही हो ?”
” नहीं बताओ न, तुम्हारे खून में स्पेशल क्या है? कौन से महाराणा प्रताप या शिवाजी तुम्हारे यहाँ पैदा हुए हैं?’
” बेकार की बात मत करो। ” अब वह झुँझला गया था।
” तुम्हारे वंश का चलना इतना ज़रूरी क्यों है? एक ऐसा बुज़दिल, जो बेहिसाब मोहब्बत के बावजूद भी घरवालों की मर्जी के खिलाफ अपनी पसंद की लड़की से शादी की हिम्मत नही जुटा पाया,जो अपनी बेगुनाह बीवी के साथ नही खड़ा हो पा रहा। ”
वह खामोश रह गया।
” अरे आई वी एफ तकनीक है, और भी कई रास्ते हैं। अगर इस बार तुमने अपनी पत्नी का साथ नहीं दिया तो ईश्वर भी तुम्हे माफ़ नही करेगा।”
कुछ देर वह सर झुकाए सोचता रहा। अनु भी खामोश रही। फिर वह उठ खड़ा हुआ
” चलता हूँ, कोशिश करूँगा की गलत हालात को सही कर सकूँ।”
” ऑल द बेस्ट ” अनु सन्तोष के साथ मुस्कुरा दी।
मुफ़्त शिविर
छोटे-छोटे बच्चे,दो वक़्त की रोटी जुटाने की मशक्कत, और बिटिया की जान पर मंडराता खतरा देखकर परमेसर सिहर उठा। अंततः उसने अपनी एक किडनी देकर बेटी के जीवन को बचाने का संकल्प कर लिया।
” तुम तो पहले ही अपनी एक किडनी निकलवा चुके हो, तो अब क्या मजाक करने आये हो यहाँ ?” डॉक्टर ने रुष्ट होकर कहा।
” जे का बोल रै हैं डागदर साब, हम भला काहे अपनी किटनी निकलवाएंगे। ऊ तो हमार बिटिया की जान पर बन आई है। छोटे-छोटे लरिका हैं ऊ के , सो हमन नै सोची की एक किटनी उका दे दै।”
” पर तुम्हारी तो अब एक ही किडनी है, ये देखो ऑपरेशन के निशान भी हैं। ”
” अरे ऊ कौनौ किटनी न निकलवाई हमने। ऊ तो मुला नसबन्दी का आपरेसन हुआ था।” वह डॉक्टर की मूर्खता पर ठठाकर हँस पड़ा ।
” ऊ जा साल सूखा पड़ा था, तबहीं एक सिविर लगा था। सबका मुफत में नसबन्दी का आपरेसन करके हज्जार रुपैया ,एक कम्बल ,अउर इशट्टील का खाने का डब्बा दै रै थे। तबहिं हमन नै आपरेसन करवा के हज्जार रुपैय्या अपनी अन्टी में …..” कहते कहते वह रुक गया। और उसकी आँखें भय से फैल गईं।
ज्योत्स्ना कपिल
बरेली
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तस्वीर वाली औरत
कैनवास पर एक सुन्दर औरत की तस्वीर लगभग तैयार हो चुकी थी। बस अब विभूति उसमें श्रंगार भर रही थी। आँखों में काजल, माथे पर बिंदिया, कानों में झुमके, गले में काले मोतियों की माला और हाथों में रंगबिरंगी चूड़िया। ‘वाह….अब एकदम परफैक्ट लग रही है’ विभूति मन-ही-मन मुस्कुरा उठी। तस्वीर मुँह से बोल रही थी। उसकी रंग सज्जा, शिल्पकारी और सजीले भाव ने तस्वीर की औरत को बेहद आकर्षक बना दिया था। विभूति मंत्र मुग्ध होकर उसे देखने लगी तभी पीछे से एक हाथ आगे आया और ब्रश उठा कर चूड़ियों पर फेर दिया बिंदिया और गहने सब धुँधले हो गये। पूरी तस्वीर का श्रंगार मिट गया। कच्चे और गीले रंगों की भाषा बदल चुकी थी। अब तस्वीर वाली औरत के हाथ की मुठ्ठियाँ भिचीं हुई और भोहें तनी हुई थी चेहरा कठोर परन्तु आत्म विश्वास से भरा हुआ था…….विभूति ने पलट कर विस्मय से अपनी माँ का सख्त चेहरा देखा जो बिल्कुल उस तस्वीर वाली औरत की तरह दिखाई पड़ रहा था।
सुबह का सपना
भीड़ तेज़ी से लाल चौक की ओर बढ़ रही थी और उसकी संख्या भी बढ़ती ही जा रही थी। नारे की आवाज़ बुलंद और बुलंद होती जा रही थी।
‘भारत तेरे टुकड़े होंगे। इंशा अल्लाह। इंशा अल्लाह!’
‘भारत तेरे टुकड़े होंगे। इंशा अल्लाह। इंशा अल्लाह!
और भीड़ की अगुवाई कर रहा था एक दुर्दांत आतंकवादी जिस पर भारत सरकार ने एक करोड़ का ईनाम रखा था।
भीड़ में ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जिनके हाथों में बंदूक देख उन्हें इंसान कहना, इंसानियत को गाली देने के समान हो। सड़क के किनारे किनारे कुछ पुलिस और सेना के जवान भी थे जो अपने आपको असहाय महसूस कर रहे थे। उनके उबलते खून को नेताओ ने ठंढा कर रखा था। उनके आँखों के सामने उनकी मातृभूमि को कोई रौंद रहा था और वह दर्शक की भाँति चुपचाप देख भर रहे थे। धीरे धीरे स्थिति नियंत्रण से बाहर होने लगी। सेना के एक जवान के मुँह पर बंदूक के बट से प्रहार किया गया। मुँह से खून बहने लगा। उसके साथियों ने अपने बंदूकें तान लीं और कैप्टन की ओर देखा। कैप्टन की आँखों ने बन्दूकों को कमजोर कर दिया और वह झुक पड़े। कैप्टन ने माइक सम्भाली,”भाइयों और बहनों। कृपया अपना प्रदर्शन शांतिपूर्ण तरीके से करें।”
जबाब में ठहाके की आवाज़ गूँजी। इस ठहाके ने जवानों को और भड़का दिया। इस बार उन्होंने खून भरे आँखों से कैप्टन की ओर देखा। अबकी कैप्टन ने कुछ इशारा किया।
उसने फिर माइक सम्भाली और सावधान की मुद्रा में आ गया,”जन-गण-मन अधिनायक जय हे, भारत भाग्य विधाता।’ पीछे-पीछे जवानों के तेज़ कोरस ने साथ दिया।
सहसा भीड़ थमने लगी। धीरे-धीरे उनमे से भी कुछ लोग सावधान की मुद्रा में खड़े होने लगे। राष्ट्रगान गाने वालों की संख्या तेज़ी से बढ़ने लगी।
अब चलंत भीड़ की संख्या काफी कम दिख रही थी।
कैप्टन ने उद्घोष किया,”भारत माता की”
‘जय’ की आवाज़ से पूरा इलाका ही गुंजायमान हो उठा।
कैप्टन जारी रहा,”भारत माता की”
‘जय’ की आवाज़ आतंकवादियों के सीने को गोलियों से भी अधिक छलनी कर रही थी।
अब कैप्टन अपने रौ में आ गया,”बंदूकधारियों, या तो अपने आपको कानून के हवाले कर दो या गोली खाने के लिये तैयार हो जाओ।”
सभी बंदूकधारी कानून के गिरफ्त में आ चुके थे।
‘भारत माता की जय’ अभी भी इलाके को गुंजायमान कर रही थी।
ट्रिन-ट्रिन …ट्रिन-ट्रिन अलार्म की आवाज़ से मेरी नींद खुल गयी। घड़ी देखी तो सुबह के पाँच बज रहे थे। वर्षों पहले दादी अम्माँ के कहे शब्द अचानक मेरे मन-मस्तिष्क में गूँजने लगे,’ सुबह का देखा सपना सच होता है।’
क्या यह सपना भी सच होगा?
26 जनवरी
आज वोट का दिन था। मंगरू और चन्दर दोनों तेज़ी से मिडिल स्कूल की ओर जा रहे थे।
” अरे ससुरा, तेज़ी से चलो न! देर हो जाएगा।”
” भाय, वोट के कारण सवेरे से काम में भिड़ गए थे। ठीक से खाना भी नहीं खा पाये।”
स्कूल पर पहुँचते ही देखा कि पोलिंग वाले बाबू सब जाने की तैयारी कर रहे हैं।
“मालिक, पेटी सब काहे समेट रहे हैं?” चन्दर ने हिम्मत दिखाया।
“वोट खत्म हो गया तो अब यहाँ घर बाँध लें क्या?”
“लेकिन अभी तो पाँच नहीं बजा है। रेडियो में सुने थे कि….”
” रेडियो-तेडीओ कम सुना करो और काम पर ध्यान दो। समझे।
” जी मालिक। पर पाँच साल में एक बार तो मौका मिलता है हम गरीब को, अपने मन की बात…
“तुमको ज्यादा नेतागिरी समझ में आने लगा है क्या?” सफेद चकचक धोती पहने गाँव के ही एक बाबू साहेब पीछे से गरजे।”
“चल रे मंगरु। लगता है कि इस बार भी अपना वोट गिर गया है!”
” भाय, एक चीज़ समझ में नहीं आता है कि हम निचला टोले वाले का वोट हमरे आने से पहले कैसे गिर जाता है?”
इससे पहले कि वह कुछ जबाब देता, पुरबा हवा बहने लगी और उसके अंदर से दर्द की गहरी टीस उठी,”आह!”
आरक्षण
जैसे ही आनन्द ने घर में कदम रखा, पिताजी की आँखों में दहकते अंगारों ने उसका जोरदार स्वागत किया।
“कहाँ थे दो दिन तक?”
“वो, नानी गाँव चले गए थे। माँ…माँ को फोन करके बता दिये थे।”
“नानी मर गयी थी कि फिर एसएससी में लटक गये!”
“हाँ, इस…इस बार भी …नहीं निकला।” आवाज़ आनंद के गले मे अटक रहा था।
“देख लो अब तुम अपना कि दिल्ली जाना है या मुम्बई। बेहूदा कहीं का। विजय का भांजा निकाल लिया। मिशिर जी की बेटी भी निकाल ली। लेकिन इस ढक्कन से कुछ नहीं हुआ।”
…..
“और तो और रमुआ का बेटा और भतीजा दुन्नु पास हो गया।”
“रमुआ के बेटा और भतीजा तो आरक्षण से पास हुआ है।”
“रमुआ के बेटे का बराबरी तू करेगा रे! ओकरा पैर के धुअन भी नहीं है। ऊ सबेरे खेत में काम करता है। स्कूल से आने के बाद गाय भी चराता है। रात में मकई और आम का रखबारी करते हुये पढ़ाई किया है।”
……
“और एक तुम हो जिसको हम न कभी आटा पिसाने भेजे और न ही कभी पेठिया से तरकारी लाने। इस हिसाब से तो आरक्षण तुमको भी मिला। आगे से कभी आरक्षण का नाम लिया न तो जूता भिगाकर मारेंगे।”
आनंद डरते डरते आगे बढ़कर पिताजी का पैर पकड़ लिया। “बस! एक साल हमको और दे दीजिए। अगर पास नहीं हुए तो माँ कसम आपको अपना मुँह नहीं दिखाएंगे।”
“आरक्षण का दर्द तो हम भी समझते हैं बेटा लेकिन क्या करें! जिंदगी ऐसे नहीं चलती है ना! सरकार ने हमको सर्वश्रेठ बनने के अलावा कुछ और बनने का विकल्प
छोड़ा ही नहीं है न!”
कवच
हाथों से मेहन्दी का रंग अभी छूटा भी न था कि चूड़ियों को आपस में टकराकर तोड़ दिया गया | साड़ी का रंग लाल से सफेद हो चुका था और हँसी-मुस्कुराहट इतिहास की बातें। सास भी अपने इकलौते बेटे को खोने के गम में डूब जाना चाहती थी मगर बहू का चेहरा देख संभल जाती |
इस बीच मँझले नन्दोई का आना-जाना बढ़ गया था। पहले जो मज़ाक आँखों तक ही सीमित रहता था, वह अब शब्दों और छुअन की ओर बढ़ने लगा था। पति को याद करने और भगवान को कोसने के सिवा कोई दूसरा चारा भी तो न था उसके पास |
आज फिर आये थे मालदह आम लेकर।
वह ननदोई के लिये आम काटकर कमरे में ले गई।
“बैठिये न! खड़ी क्यों हैं ?” नन्दोई ने बड़े प्यार से कहा।
“जी..मैं ठीक हूँ।”
“ठीक कहाँ हो ! अजी! जो होना था सो हो गया। अब इस तरह पहाड़-सा जीवन थोड़े ही न कटेगा।” कहते हुये जबरदस्ती हाथ पकड़ अपने नज़दीक बिठा लिया।
“ये क्या कर रहे हैं आप?” अनीता ने उठने की कोशिश करते हुये औपचारिक हो कहा “आम खाइये न आप !”
“तुम भी मालदह आम से कम थोड़े न हो ! साले साहब के जाने के बाद मेरी भी तो कुछ जिम्मेदारी बनती है न!” और हाथ ने मर्यादा की सीमा रेखा पार करने की कोशिश की।
अनीता झटके से अपने आपको छुड़ाती हुई आँगन की ओर दौड़ पड़ी।
सास की अनुभवी आँखों को घटनाक्रम आँकने में एक पल भी न लगा। पीडा व रोेष मिश्रित भावो में सास ने जिम्मेदारी लेनी चाही मगर “आगे का कठिन सफर तो उसे अकेले ही तय करना होगा” यह सोच उसने बहू को अपने पास बिठा लिया |
” सुन बहू! मै जब ब्याह कर ससुराल आयी तो सास का साया सिर पर नहीं था | ससुर ने सारी जिम्मेदारी अकेले ही सम्भाली थी | कभी कोई कमी महसूस न होने दी। फिर एक दिन वो भी चल बसे। पर मरने से पहले तेरे दादा ससुर ने अपनी खडाऊँ मुझे देते हुये कहा था कि बहू! यह खडाऊँ मैं विरासत के रूप में तुझे देता हूँ। सम्भाल कर रखना इसे, जरूरत पड़ेगी |”
बहू के कंधे पर हाथ रख उसने भर्राये गले से कहा, “बेटी, मुझे तो इसकी जरूरत अब तक न पड़ी लेकिन तुझे अब इसकी सख्त जरूरत है। पुरखों की विरासतें यूँ जाया नहीं जाती |” कहते हुये सास ने खडाऊँ को जोर से जमीन पर पटक दिया | खडाऊँ छिटका, गुलाटियाँ मारते हुये बरामदे से कमरे की ओर दौडा़ | अंदर से चीखने की आवाज़ सी आई |
अनीता ने आश्वस्त नजरों से सास की तरफ देखा और अपना सिर सास के कंधे पर टिका दिया |
बथुआ
स्कूल से आते ही मुनियाँ ने बस्ता पटका और दौरी लेकर खेत की ओर निकल पड़ी। अपनी सहेलियों को आवाज़ देकर बुलाया। फिर दो मिनट रुकने को कह वापस घर की ओर भागी।
“माय, हम जा रहे हैं बथुआ तोड़ने।”
माँ का जबाब तो नहीं आया पर फुफेरी बहन पारूल पूछ बैठी,”मैं भी चलूँ तुम्हारे साथ?”
“हा हा हा!तुम चलोगी बथुआ तोड़ने!दिल्ली से आयी हो दो चार दिन के लिये। आराम करो घर में।”
“मुझे भी साथ ले चलो न! प्लीज।”
“चलो जब एतना ज़िद कर रही हो तो।”
घर से मुश्किल से पचास लग्गा दूर केदार मिसिर का दस कट्ठा का प्लाट था। उसमें मकई के छोटे छोटे पौधे से ज्यादा बथुआ के पौधे ही थे। सब सहेली बथुआ तोड़ने में भिड़ गयीं। दस मिनट भी नहीं बीता होगा कि गन्दी-गन्दी गालियाँ कानों को चुभने लगीं।
“अरे सब कोय भागो!सनकहबा आ रहा है। भागो जल्दी।”
“पारूल भाग! पकड़ लिया तो मारेगा भी और घर पर आकर बेज्जत भी करेगा।” मुनियाँ भागते हुये चीखी।
जिस बात का डर था वही हुआ। मिसिर जी ने पारूल को पकड़ लिया, “रे, केकर बेटी है? तुम को पहले कभी हम देखे नहीं!”
“मेरे पापा का नाम मिस्टर विनोद सिन्हा है।”
” अच्छा!हमरा गाँव में तो कोई मिस्टर हय्ये नहीं है। किसके यहाँ आयी है?”
“रामचन्दर महतो नाम है मेरे मामाजी का।”
“अच्छा तो रमचंदरा के यहाँ आयी है। अब ई बताओ। बथुआ तोड़ने में मकई का जो नुकसान हुआ, ऊ कौन भरेगा।”
“कितने का नुकसान हो गया आपका?”
” तीन-चार सौ रुपिया का।”
“मैं भर दूंगी। पर, आपने जो हमारा नुकसान किया, वह कौन भरेगा?”
“हम क्या नुकसान कर दिये तुम्हरा?”
“गन्दी-गन्दी गालियाँ जो दिये आप! उसका क्या?”
…….
“क्या हुआ? मुँह में ताला लग गया। मेरे नाना की उम्र के हैं आप। आपकी पोती-नतनी के बराबर हैं हम सब!”
“हाथ जोड़ते हैं,अब इससे आगे कुच्छो मत कहो। भयंकर गलती हो गिया हमसे। दक्खिन मुँह घुर के कहते हैं कि हम जीवन में कभियो किसी को गाली नहीं देंगे।”
पुत्रहीन
द्यूत-क्रीड़ा में पराजित होकर पाण्डव वनवास चले गये थे। कुन्ती पुत्र-वियोग में तड़पती हुई तेरह वर्ष पूरा होने की प्रतीक्षा कर रही थीं। एक-एक दिन पहाड़ साबित हो रहा था। आँखें सावन की तरह बरसती रहती थीं।
एक दिन दासी की आवाज़ ने उन्हें चौंका दिया, “महारानी की जय हो! महारानी गान्धारी ने आपको याद किया है। द्वार पर सारथी आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।”
बिना एक भी पल गँवाये कुन्ती रथ पर सवार हो गान्धारी के पास पहुँचीं।
“प्रणाम दीदी!”
“आयुष्मती भवः। आओ बहन, आओ! क्या हुआ! आवाज़ में कुछ उदासी सी है!”
“पुत्र-वियोग का दर्द दीदी… आप नहीं समझ पाएँगी। आपके तो सभी सौ के सौ पुत्र साथ हैं न!”
“सौ पुत्र!” उनकी पीड़ा बोल पड़ी, “सौ नहीं। कुन्ती, केवल एक पुत्र! विकर्ण!”
“केवल एक पुत्र! दीदी,आप ऐसा क्यों कह रही हैं?”
“पुत्र में जब तक पौरुष न हो तो उसका होना न होना एक समान ही है न! और पौरुष तो उसमें है न जो अन्याय का प्रतिकार कर सके।”
….
“क्या हुआ? कुन्ती, तुम चुप क्यों हो गयी?”
“यदि आप केवल एक पुत्र की माँ हैं तो मैं… मैं तो पुत्रहीन ही हुई न! क्योंकि मेरे तो पाँचों ही पुत्र…”
अब कुन्ती की आँखों से बहते नीर गान्धारी की आँखों को भी भिगो रहे थे।
मृणाल आशुतोष
समस्ति पुर