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वो जनवरी महीने की खुशनुमा सुबह थी । यह करीब आठ बजे की बात रही होगी । समय मुझे इसलिए याद है क्योंकि आठ बजे में अपनी कोचिंग क्लास शुरू करता हूँ । रोजाना की तरह कोचिंग क्लास के दरवाजे पर लगे ताले को खोल रहा था । मेरे आस-पास चार-पाँच छात्र खड़े थे । वे सब मुझ से पहले वहाँ पहुँच चुके थे ।
दरवाज़ा खुला ही था अचानक सड़क पर एक आदमी हाथ में काला झंडा पकड़े सड़क पर दिखाई दिया।। उसके पीछे कुल चार-पाँच लोग थे । सभी तेज़ स्वर में नारे लगाते हुए जा रहे थे ।
हम सब उन्हें देखते हुए क्लास में प्रवेश करने ही जा रहे थे कि एक लड़का हड़बड़ाते हुए वहाँ से जाने लगा । जाते-जाते बोला- “सर मैँ इनके साथ जा रहा हूँ ।”
मैंने पूछा- ” मगर क्यों ”
“सर जिन्होंने झंडा पकड़ा हुआ है, वो मेरे अंकल हैं ।”
उसे जाते देख दो छात्र और उस भीड़ में जा मिले।
मैं बिना एक शब्द कहे चुपचाप अपनी कक्षा लेने लगा ।
कक्षा समाप्त होने पर ताला लटका दिया और अपना दुपहिया स्टार्ट कर घर की ओर जाने लगा । जैसे ही भवानी चौक पहुँचा । बड़ा जाम देख मैं भी दूसरे वाहनों के साथ वहीं ठहर गया ।
सहसा एक व्यक्ति पर दृष्टि पड़ी ! काला झंडा पकड़े वही आदमी! अब उसके पीछे करीब सौ- दो सौ की भीड़ जमा थी और नारों के स्वर बुलन्द हो चुके थे।
ख़ुमार
“ऐ सुनो”
“हम्म”
“अपनी आँखें तो खोलो”
“क्या है…सोने दो न”
“देखो क्या लाया हूँ तुम्हारे लिए ”
उनींदी पलकें मिचमिचाती वह पलंग पर बैठ गई । हाथों से बिखरे बालों को संवारते हुए उसने धीमे से अपनी बोझिल पलकें खोलीं ।
“बोलो क्या लाए हो ?”
बिना एक शब्द कहे चंदन ने एक काग़ज़ की पुड़िया माधुरी की हथेली पर रख दी।
“अरे वाह ! आपको कैसे पता चला मुझे यह पसंद है? ”
बोझिल पलकें पूरी तरह खुल गईं ।
“तुम्हारे मन की बात मैं नहीं जानूँगा तो कौन जानेगा।”नेह में भीगे लफ्ज़ झरोखे से होकर बाहर बिखरी चाँदनी से जा मिले थे ।
“जल्दी बताओ न,किसने बताया आपको मेरी पसंद के बारे में ।”
“तुम बस आम खाने में विश्वास रखा करो। पेड़ गिनने में सुहानी रात बर्बाद मत किया करो ।”
अचानक माधुरी ने पलंग से नीचे कदम रखा तभी चंदन बोल पड़ा ” कहाँ चल दीं अब,सब सो चुके हैं बाहर । यार ये तुम्हारे लिए है । घर के बाकि सदस्यों के लिए नहीं ।
” मेरे अकेले के लिए ही क्यों लाए ! मंटू भैया और निशु दीदी को भी इसी में से दे आती हूँ ।”
“अर्रे देवी ! सब सो गए हैं..” आवाज़ की फुसफुसाहट इतनी धीमी थी कि कमरे में भी न फैल सकी ।
“अच्छा ठीक है,मैं ही खा लेती हूँ । कहते हुए उसने पुड़िया खोल ली ।
“लेकिन चंदन…” हाथों को वहीं रोकते हुए माधुरी ने एक प्रश्न और उछाल दिया ।
“लेकिन क्या !”
“सुबह सोकर उठूँगी तो लाल ओंठ देखकर सासु माँ क्या सोचेंगी..अच्छा नहीं लगेगा । दो दिन हुए हैं बहु को आए और गुपचुप पान खाती है..”
“कुछ नहीं सोचेंगी, तुम जल्दी से खाकर खत्म करो इसे।”
माधुरी ने चुपचाप पान मुँह में रख लिया ।
” एक बात कहूँ,आप बहुत अच्छे हो” कहते हुए माधुरी चंदन के सीने से जा लगी ।
आसमान में खिला चाँद भी हौले-हौले सरकते हुए बादलों के पीछे जा छुपा था ।
तभी तेज झटके के साथ माधुरी फिर से खड़ी हो गई ।
“क्या हुआ मधु..”
“आप अब कभी पान मत लाना ।”
” क्यों ”
“मुझे पान खाने के बाद न रुकने वाली हिचकियाँ शुरू हो जाती हैं ।”
अब कमरे में हिचकियों का बोलबाला था और चंदन खामोशी से लेटा, अपने पान लाने पर खुद को कोसता जा रहा था ।
रांझणा
” क्या समझते हो, भयभीत हो जाऊँगी तुमसे ।” उसके कंधों पर लगभग झूलते हुए बोली थी वह ।
जवाब में उस वक्त उसने कुछ भी नहीं कहा था । चुपचाप खड़ा अपनी हाज़िरी बजाता रहा ।
“अरे कुछ तो बोलो, मेरे मिट्टी के माधो। कहते हुए दूजी बाँह पर हुलसते हुए झूलने लगी थी वह ।
अपने काम का तो एकदम पक्का था वो । मालिक के आदेश पर सर्दी,गर्मी,बरसात की मार भी मौन मूक रहकर झेल लेता । कभी उफ्फ तक न करता।
ओर किसी में इतनी हिम्मत न थी कि उसके आसपास भी मंडरा सके । बस एक यही थी अनोखी,जो अलबेली सी अठखेलियाँ करती रहती ।
लेकिन जब से अनोखी ने उसके खेत में डेरा जमाया तब से ये हमारा कड़क सिंह, मोम का पुतला बनकर रह गया था । सच, कुछ तो बात थी इस अनोखी में। जब भी आती, बयार मदमस्त हो बहने लगती।
आज हवाओं में ख़ुमारी नहीं है । वृक्षों से लिपटे पत्ते बेजान नज़र आ रहे हैं। उदासी का घना कोहरा खेत में दूर-दूर तक पसरा हुआ है। उसकी स्थिर आँखों में किसी की प्रतीक्षा के बादल साफ़-साफ़ दिखाई दे रहे हैं ।
आख़िर आज क्यों नहीं आई ! क्या हुआ होगा.! असंवेदनशील मन अचानक संवेदनशील बन चिंतित हो उठा ।
आसमान में उड़ते पक्षियों की टोली उसके सर पर से होकर गुजर गई लेकिन उनके सुरों में वो बात नहीं जो अनोखी की चहक में होती है ।
अचानक उसकी अकड़ से भरे मुख पर हल्की सी सरसराहट हुई ! किसी के सुकोमल पंखों का मखमली अहसास उसके तन और मन दोनों को झकझोर गया! यह कोई और नहीं! अनोखी ही थी ।
वह उसके सिर पर, पंख फैलाए तिनका चोंच में अटकाए अल्हड़ता से फुदकने लगी ।
तभी चहकते हुए अनोखी ने उसकी ओर अपनी गोलमटोल निगाह फेंकी । फुदकती अनोखी को उस पल वह घास-फूस से बना बिजुका नहीं बल्कि प्रेम में आकंठ तक डूबा एक रांझणा नज़र आया।
” मन मयूर ”
एफ बी पर कपल चैलेंज देख विभोर ने रसोईघर में कलछी चलाती पत्नी को पुकारा ।
“शुभ्रा, जल्दी आओ इधर !” उसके हाथों की अंगुलियाँ अब पोस्ट डालने के लिए फड़फड़ा-सी रही थीं ।
“अरे रुको,आई थोड़ी देर में । मेरी सब्जी समूची जल जाएगी..!” कमरे की दीवारें आवाज़ की तल्खी से कंपित हो उठी थीं ।
थोड़ी देर बाद शुभ्रा विभोर के ठीक सामने आ खड़ी हो गई।
“अच्छा बताइए जल्दी! क्या काम है आपको ?”
“अरे यार! हम दोनों का कोई फ़ोटो हो तो देना ज़रा ”
“फोटो! मगर क्यों ? कहते हुए अचंभित-शुभ्रा की भंवें तन-सी गईं थीं ।
“अब बेकार के सवाल तो करो मत ।”
अब तक कपल चैलेंज मन में ” चोर मचाए शोर “बन पंख फैला चुका था ।
शुभ्रा अपने कमरे में पहुँची । हड़बड़ाते हुए दराज़ खोल अनगिनत एलबम्स में से एक एलबम चुनते हुए पति के समीप आ गई ।
“लीजिए एलबम…” इस वक्त शुभ्रा के चेहरे पर कौतूहल मधुमक्खी बन भनभना रहा था ।
” वैसे एक बात बताइए ,आज इत्ते साल बाद पुरानी एलबम देखने की चाह कैसे उमड़ आयी आपके मन में? मन में छुपा प्रश्न हवा में उछल पड़ा ! सुघड़ हाथों के लटके-झटके देती मन ही मन कुछ बुदबुदाती शुभ्रा रसोईघर की ओर दौड़ चली…
दिए गए चैलेंज को पूरा करने के लिए कमर कसते हुए विभोर एलबम के रंगबिरंगे पन्नों को पलटने लगा । वह वर्तमान की सुरंग से निकलता हुआ सीधे भूतकाल के सघन वन में जा पहुँचा था ।
एक तस्वीर में नवविवाहित पत्नी के खिले-खिले चेहरे से टपकता नूर, सुरमई नयनों का शरबती खुमार, लहराते घनी जुल्फों की छांव दो- पल के लिए विभोर को दुनिया जहान से कहीं दूर ले गए ।
उन दोनों की एक के बाद एक कई तस्वीरें आँखों के रास्ते उसके दिल में समाने लगी थीं ।
” ऐ शुभ्रा, इधर तो आओ जरा ” मिश्री घुले स्वर कमरे से गुज़र रसोईघर तक तैरते हुए पहुँच गए ।
“बोलिए क्या है ? ” इस वक्त पत्नी की उलझी जुल्फों में आटे दाल के भाव झूल रहे थे ।
” देखो ये तस्वीर ! ऋषिकेश की है न !” ऋषिकेश की खूबसूरत वादियाँ विभोर की खोई हुई आँखों में लक्ष्मण झूला बन हिलोरे मार रही थीं ।
” हाँ भई ऋषिकेश की ही है ! अब जाऊँ…अस्तव्यस्त पल्लू को दुरस्त करती हुई शुभ्रा पहुँच गई फिर से अपनी
चिर-परिचित जगह,जहाँ गरम मसालों की सौंधी महक और सिकती चपातियों की खुशबू आपस में मिल, रोज़ की तरह अपनी गुफ़्तगू में मशगूल हो चुकी थी ।
ओवर डोज़
लाइट्स….कैमरा…एक्शन….! ये शब्द सुनते ही अचानक उसके पैर ऐंठने लगे। हाथों में झनझनाहट सी महसूस होने लगी । मुखारबिंद पर छलछलाते पसीने की बूँदें बहुत कुछ अनकहा बयाँ कर रही थी । अचानक आँखों के सामने स्याह अँधेरा छा गया । लगा जैसे, आसमान की छत कदमों तले बिछ सी गयी हो..! सिर को दोनों हाथों से पकड़ते हुए वह बैठ गई जमीन पर । उसके बाद क्या हुआ, उसे कुछ पता नहीं ।
खिड़की से छन-छनकर आती रोशनी कमरे के अंधकार को दूर करने का भरसक प्रयास कर रही थी । उसने धीमे से बंद पलकें खोलीं । बिखरी जुल्फों को बाँधते हुए उसने महसूस किया- ओह अंदर से कितनी खोखली हो चुकी हूँ मैं…इस मायावी नगरी के मोह में फँस कर किस तरह दलदल में धसती चली गई मालूम ही न चला । अवसाद के घने कोहरे से निकलने के जो मार्ग चुना वह भी एक दलदल के सिवाय कुछ नहीं…
उसी वक्त गहन नीरवता को भंग करते पदचापों की तेज ध्वनि उसके कानों से टकराई।
“क्या है ये सब, सौम्या! कल का मेरा पूरा शिड्यूल बिगाड़ दिया तुमने! सब कुछ अगर इसी तरह चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं, जब तुम किसी गुमनाम कमरे में नितांत अकेले ज़िंदगी के बचे तमाम दिन गुजार रही होंगी।”
आगन्तुक की आवाज़ की तल्खी उसके मन की झल्लाहट का आईना बनी हुई थी।
“तो अब क्या कर रही हूँ,अब भी अंधकार को रोशनी समझ जिए जा रही हूँ ” कहते हुए उसकी आँखों की कोर भीग उठी।
” सुनो सौम्या, शूटिंग के समय जो स्थिति हुई है न तुम्हारी यह पहली दफ़ा नहीं हुई है। तुम्हारी ऐसी हालत देखते हुए मैंने एक फैसला लिया है। अब तुम्हारी जगह मैं हिना को ले रहा हूँ । क्योंकि अब और नुकसान नहीं उठा सकता!
सौम्या के उत्तर की प्रतीक्षा किए बगैर वह, लंबे डग भरता हुआ, बाहर निकल गया।
जाते हुए जूतों की चरमराहट की आवाज़ सौम्या के कानों में कई देर तक चुभती रही थी।
इस चकाचौंध भरी दुनिया के पीछे छुपे अंधकार की सज़ा भोगने के लिए कोई और नहीं,वह खुद जिम्मेदार थी।
अचानक उसकी सामान्य गति से चलती साँसे फिर से अवरुद्ध होने लगीं । अपनी इन साँसों को संयत करने के लिए उसके पास सिर्फ एक ही उपाय शेष रह गया था। वह तेजी से बिस्तर से उठी । दराज़ में रखा पैकेट निकाला उसमें से एक पुड़िया को जल्दी से खोलते हुए वह उसे अपने नथुनों के पास ले गई और फिर.. एक लंबी श्वास भरते हुए वह बिस्तर पर औंधे मुँह गिर पड़ी।
एक बार फिर से वह हमेशा की तरह, उस रंगीन दुनिया में पहुँच चुकी थी जहाँ पर अवसाद की कोई छाया न थी । अब उसके आसपास छाई हुई थी तो केवल धुंध ही धुंध…
पराई
मायके आए हुए मुझे पूरे दस दिन हो चुके थे.
पति विशाल से फोन पर बातचीत करने के बाद उठी ही थी कि देखा,माँ अपना बक्सा खोले बैठी है. बक्से के खुलते ही एक चिर-परिचित भीनी सुगन्ध से सुवासित हो उठा था पूरा घर !
छोटे से रेलवे क्वाटर में रहते हुए मैंने माँ,बाबा और बिट्टू के साथ अपने बचपन के वो सुनहरे दिन गुजारे थे.पूरे दिन हम दोनों भाई- बहनों की धमा चौकड़ी! और शोर शराबे से गुलज़ार रहता था हमारा वो पुराना घर.
माँ बक्से में सहेजकर रखी वस्तुओं को बाहर निकालती जा रही थी.
“अरे कुन्नू ! देख तेरी गुड़िया !” माँ के ये शब्द कान में पहुँचते ही मैं लगभग भागते हुए माँ के करीब पहुँच गयी!
माँ के सलवटों से भरे हाथों में मौजूद थी मेरी कपड़े से बनी प्यारी दुलारी गुड़िया !
ये गुड़िया माँ ने ही बनाई थी। बिट्टू के कई खिलौने, और पुराने गेम्स भी निकलने लगे जैसे –लूडो,शतरंज, सांप सीढ़ी! और उसकी चहेती गेंद भी थी.
माँ उन अनमोल वस्तुओं का अंबार लगाती जा रही थी. समझ में नहीं आ रहा था ,क्या देखूँ और क्या नहीं ! उत्साह और उमंग से लबरेज़ होते हुए मैं सभी वस्तुओं को हाथ में उठाए जा रही थी.
तभी माँ ने मेरे और बिट्टू के छोटे-छोटे परिधान निकालने शुरू कर दिए. वस्त्रों के बीच अचानक दृष्टिगोचर हुआ मेरा वो गुलाबी लहंगा ! जिसे देख कर बिल्कुल बावरी हो गयी ! वह लहँगा अब तो घुटनों से भी ऊपर पहुँच गया था . मन में उस वक्त अपने बड़े हो जाने का बहुत अफसोस हुआ.
माँ मुझे देख मुस्कुरा रही थी.
तभी एक श्वेत श्याम तस्वीर पर नज़र पड़ी.माँ, बाबा मैं और बिट्टू. बहुत ही सुंदर लग रही थी माँ इस तस्वीर में. अब तो चलने फिरने में भी दिक्कत होती है. हाथ-पैरों में कंपन सा होता रहता है.
हम दोनों माँ बेटी मधुर यादों में खोए हुए बीते दिनों को याद कर ही रही थीं कि तभी बिट्टू कमरे में आ गया.इतवार होने से वह घर पर ही था.
कमरे में घुसते ही, बिखरी वस्तुओं को देखते ही वह बोल उठा– ” क्या माँ आज फिर से पुरानी चीजें निकाल लीं। कब से कह रहा हूँ, दे दो ये सारा कबाड़,किसी कबाड़ वाले को. घर में अब यह बक्सा अच्छा नहीं लगता. कितनी ही बार नैना भी बोल चुकी है मुझ से. इन बेकार पड़ी वस्तुओं का अचार डालोगी क्या”
मैं हैरत से बिट्टू का मुँह ताकने लगी थी.
माँ कुछ देर तो चुप रही फिर नम आँखें लिए बोल पड़ी–” सही कह रहा है रे बिट्टू तू .तेरे पिताजी के जाने के बाद इसमें रखे उस खजाने से तो तेरी पढ़ाई-लिखाई हो गई और अब जो चीजें बची हैं,सच में, ये बेकार ही हैं”
बिट्टू उनकी बात अनसुनी कर कमरे से बाहर निकल गया.
मैं उस गुलाबी लहँगे को थामे संज्ञा शून्य सी खड़ी थी.कुछ सोचते हुए मैंने माँ से धीमे से कहा–‘माँ, अगर तुम इजाज़त दो तो इस अनमोल धरोहर को मैं अपने साथ ले जाऊं ।”
भीगी पलकें लिए माँ ने काँपते हाथ आगे बढ़ाए और मेरा माथा चूम लिया ।
डिम्पल गौड़
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मोहपाश
आयशा अकेली रहती थी| उसके पति ने दूसरा निकाह कर लिया था। कुछ साल ही शौहर के साथ रह पाई| एक बेटा हुआ| उसको संगीत और कपड़े सीने आते थे। उससे ही बेटे को पढ़ाया-लिखाया और बेटा विदेश में विवाह कर वहीं का हो गया। आयशा सोचती, “अब माँ बाप भी छोड़ गए अकेली ज़िंदगी कैसे चलेगी|” हर समय इवादत नेक कामों में लगी रहती। उसके पड़ोस की लड़की अमीना उसके पास आ जाती और साथ हाथ बंटा देती और बाजार बगैरा साथ जाती। एक रात फोन की घंटी बजी आयशा ने फ़ोन उठा लिया। दूसरी तरफ मर्दाना आवाज़ थी बोला, “आप कौन हो इतनी रात तक सोई नहीं|” आयशा ने सोचा शायद कही बेटा बोल रहा है| बोली, “नींद नहीं आ रही थी। तुम तो दूर हो मुझसे, कैसे नींद आये|” लड़का बोला, “अच्छा जी आज तो मीठी बातें सुन रहे हैं, चलो तुम बोलो हम सुनते जाते हैं|” आयशा को लगा शायद कोई गलत नंबर है और बंद कर दिया। आयशा को इस सिलसिले से अजीव सी सिहरन महसूस होने लगी, वर्षो बाद रिश्तों में प्रेम भरी पुरुष की आवाज़ सुनी थी। एक दम आयशा खुद को परिवर्तित महसूस करने लगी| अब उसका खुद को ढंग और व्यबहार में जिंदादिली थी| अमीना आयशा में तब्दीली देख बहुत खुश हुई और उसको आगे बात जारी रखने को बोली, “शायद बेटा बहू से छुप ना रावता बनाता हो, अगर बेटा न भी हुआ इंटरनैट पर तो अकेलेपन से बचने का यही तरीका है|” आयशा को ये बात खौफ ले आई| अगले दिन फोन आया आयशा ने बोला, “ये मेरा घर का पता है तुम आ जाओ|” वो सचमुच आ गया तो अमीना और आयशा को देख फूल आयशा को देता सा रुक गया| दोनों से बात कर वो आयशा के पाओं में गिर पड़ा और बोला, “मेरी वालिदा नहीं है, मुझे आपसे बात करके सकूं और हौसला मिलता है।” फिर उसने कहा, “आपसे गुप्तगू से मेरी बैंक पेपर की तैयारी करके मुझे नौकरी मिल गई।” मिठाई का डिब्बा खोल सबके मुँह का ज़ायका मीठा हो गया|
कठपुतलियाँ
“तुम हर्षिता यहाँ पुस्तकालय में बैठी हो, मैने तुम्हें कहाँ-कहां नहीं ढूँढा| क्या बात तुम उदास क्यों हो?” हार्दिक ने पूछा| हर्षिता आंखे भरी बोली, “मेरी शादी तय हो गई है, हफ्ते भर में विवाह हो जायेगा| पापा के एक दोस्त के बेटे के साथ रिश्ता पक्का हुआ है| मै तो तुझसे रिश्ता तोड़ने आई हूँ और अब कोई चारा नहीं है| लडकियां तो कठपुतलियाँ मात्र ही होती हैं|” हार्दिक बोला, “तुम घर ये बात बता नहीं सकती थी कि मैने लड़का देख रखा है| ऐसा लगता है कि अब हम तड़फ-तडफ़ के ही जीवन गुजारेंगे| ये मैं होने नहीं दूँगा| हम कल रात को भाग जायेंगे| मै पैसे बगैरा का इंतजाम करता हूँ, तुम भी कुछ साथ ले आना| कल पक्का शाम को आऊंगा, नहीं तो ये तेरा कठपुतला हमेशा बिस्तर पर पड़ा सुबकता रहेंगा|” हर्षिता ने कठपुतलियाँ बनाने का डिप्लोमा किया था| घर में अपना कमरा इनसे सजा रखा था| हर्षिता अपनी कठपुतलियों को उठा अपनी चिंताओं और कुंठाओ में खोने लगी| कृष्ण-राधा के पुतले को उठा प्रेम में खो गयी और अपना सामान बाँधने लग गयी| माँ ने हर्षिता को बुलाया, “बेटी, ये सोने का सैट देख ले तेरे लिये लिया है| मैं तेरी बुआ के साथ देले-लेने के कपड़े लेने जा रही हूँ|” हर्षिता ने सैट को अपने सामान में रख लिया| हर्षिता जाने लगी उसे पहले आँखों में आँसू भरी पुतला सोहनी दिखी, “मत कर ऐसा इसका अंत बदनामी और विनाश के इलावा कुछ नहीं|” तभी उसकी आंखे हीर पुतले से मिली, “मुझे देखो बारह बर्ष तक इस चक्र में रही और आखिर परिवार ने मेरा अंत जहर देकर कर दिया| हमेशा के लिये उनके माथे पर बदनामी का टिका न भूलने वाला लग गया|” हर्षिता अपनी कठपुतलियों में घिरी खूब आँसू गिराते सब घर मर्यादा जान चुकी थी|
“कोई समय नहीं”
मेघना बचपन से अकेले ही जीव पक्षियों के साथ पली बड़ी हुई थी| उसके ममी-पापा दोनों सर्जन थे जो हर समय हस्पताल, क्लीनिक या कॉन्फ्रेंसेज़ में व्यस्त रहते थे| उनके पास अपने बच्चे के लिए कोई समय नहीं था, बस धन और शौरत के पीछे रहना जीवन लक्ष्य था| अकेली मेघना स्कुल के बाद अपने कमरे में पिंजरे में बंद पक्षी को अपना साथी समझती| आज विवाह के बाद फिर बैठी घर में पिंजरे को पकड़ खुद को बहलाती बोली, “हमारी नियति शुरू से ऐसी ही है| पहले ममी-पापा साथ नहीं होते थे| विवाह के बाद पति हर समय अपनी ही दुनिया में मस्त हैं| मीठू, तुम्हारे सिवा मुझे कोई नहीं समझता|” मेघना सोच रही थी कि खिड़की के बाहर दूर बैठा खग अपनी स्वछंद स्वतंत्र जिंदगी का आनंद ले रहा है और हम किसी साथ के इंतज़ार में हमेशा बैठे सोचते रहते हैं| मेघना ने इसी कशमश में पिंजरा खोल दिया और बोली, “जाओ, तुम तो खुली हवा में सांस लो, ऐसी ज़िंदगी का क्या फायदा? अपनी मर्ज़ी से खुद के लिए जीने में ही वास्तविक ख़ुशी मिलती है|” मेघना बेकाबू और अशांत मन से अपना बैग तैयार कर पत्र लिख अकेले पहाड़ों में घूमने निकल पड़ी|
स्वरचित -रेखा मोहन १५/१०/२०
शिक्षिका
पटियाला पंजाब
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चायपार्टी
कविता बहुत परेशान हो गई थी, दो दिन से इलेक्शन आॅफिस आते आते ,अपने शोध कार्य के सिलसिले मे उसे पिछले सारे चुनावों के परिणाम चाहिये थे , सोच रही थी ,आज तो किसी भी तरह अपना काम करना ही है,
आफिस के बड़े बाबू ने एक दुबले पतले लम्बे कद काठी खिचड़ी बालों वाले व्यक्ति को बुलाकर बताया कि “ये हमारे जिद्दा हैं, अब ये ही कबाड़ खाने की धूल से भरी फाईलें निकाल सकते है, आप इन्हें की बतायें ..पर हैं कुछ टेड़े से, यह कह बड़े बाबू ने जिद्दा को आंख मारी,
जिद्दा उर्फ जीतेन्द्र सिंह अपने पान से रंगे टेड़े मेड़े दांत दिखा फिक्क से हंस पड़े।
आप बैठिये ,अभी निकालता हूं मैडम जी… बस आया ,
“बड़े बाबूजी को चाय देदूं..फिर”
“जरा बड़े साहब बुला रहे हैं , ये गया ..बस ये आया..”
मैडम अभी आ रहा हूं.. बाहर कोई मिलने वाला आ गया है,बस आकर फाईल निकालता हूं।
घन्टों गुजर गये जिद्दा के नये नये बहाने ,परेशान कविता …
अचानक उसने सामने से निकलते जिद्दा का आवाज दी ..जिद्दा जरा सुनो , “इस रुम में कितने लोग बैठते हैं”?
तीन लोग बैठते है मैडम जी,
तो ठीक है, अब तो भूख लग आई है..एक काम करो, ये लो पैसे ,अपने और सभी लोगों के लिये समोसे और चाय ले आओ ..और हां मेरे लिये सिर्फ चाय..बचे पैसे अपने पास रख लेना,
समोसा पार्टी के कुछ देर बाद ही जिद्दा मुस्कुराते हुये आये बोले “मैडम जी कमरे के साइड में रखी उस बड़ी मेज में हमने सारी फाइलें रख दी है आप चाहें तो आज से या कल सुबह से अपना काम शुरू कर कर लीजिये”।
बाजीगर
बड़ी गहमा गहमी थी ,पूरा गाँव छावनी में तब्दील हो चुका था ..दो परिवारो की आपसी रजिशं इस हद तक पहुंच चुकी कि नन्हें, मासूम, निर्दोष बच्चों को अपने बच्चो की हत्या के बदले में मार दिया गया , इस रजिशं और बदले की आग में दो परिवार तबाह हो गये,
इस हत्याकांड को कुछ राजनीतिक दलों ने हाथों हाथ लपक लिया।
पुलिस , प्रशासन ,बड़े -छोटे हर दल के नेता आ जा रहे थे। बयान बाजी चरम में थी,और बाजीगर गाँव में डेरा डाले,
बयान 1
“राज्य सरकार और केन्द्र सरकार दलित विरोधी है इन्ही की शह पर दलितों की हत्या की जा रही है”।
बयान 2
“जब से केन्द्र और राज्य में इस दल की सरकार बनी है तब से दलितों और गरीबों को सताया जा रहा है मासूम दलितों को मारा जा रहा है ,इन्हें सत्ता में रहने का हक नही”
बयान 3
“ये दलित विरोधी सरकार केन्द्र के इशारे में काम कर रही मासूम दलितों की हत्या कि जा रही है” बयानों की बाढ़ खतरे के निशान से ऊपर बहने लगी”,
नेताओं के ऐसे विचित्र बयान और टी आर पी के भूखे समाचार चैनल …इन दोनों बाजीगरों ने ऐसा बाजीकरण किया कि दोपहर होते होते सारी दुनियां जान चुकी थी , कि ..”मरने वाले मासूम ,निर्दोष बच्चे इंसान नही थे, वे इन बाजीगरों के राजनैतिक उपकरण “दलित”थे ।
सफर
आंख खुली तो उसने अंधेरे में मोबाइल ऑन कर देखा, रात के बारह बज रहे थे। ट्रेन भी रुकी हुई थी, शायद कोई स्टेशन आ गया था। दो लोग चढ़े वहां से। एक हट्टा-कट्टा नौजवान व दूसरा अधेड़।
नौजवान ने अपना सामान सीट के नीचे डाला व अपनी २५ नंबर की लोअर बर्थ पर चादर बिछाने लगा।
अधेड़ व्यक्ति ने नौजवान से पूछा, ” क्या आप अपनी लोअर बर्थ मुझसे एक्सचेंज कर लेंगे? आपकी बड़ी मेहरबानी होगी। मेरी २७ नंबर बर्थ है, पर मेरे पैर में रॉड पड़ी है, मैं इतनी ऊपर नहीं चढ़ सकता।”
युवक ने बिना उसकी ओर देखे ही ना में सिर हिला दिया व अपनी बर्थ पर लेट गया।
” मुझे बहुत बुरा लग रहा है, यदि इसकी जगह मैं होता तो तुरंत बर्थ एक्सचेंज कर लेता। ” साईड ऊपर की ३२ नंबर की बर्थ पर लेटे व्यक्ति ने आंखें मलते हुए कहा, ” वैसे आपको तो लोअर बर्थ मिल जानी चाहिए थी।”
” हां, पर ऑनलाईन रिज़र्वेशन कराने पर कभी-कभी लोअर बर्थ नहीं मिलती, वैसे मुझे कभी दिक्कत भी नहीं हुई, कोई-न-कोई रिक्वेस्ट करने पर बर्थ एक्सचेंज कर ही लेता है, वैसे टिकट चेक करने आए थे तब टीटीई ने आश्वासन तो दिया था।” उसने आशा भरे लहजे में कहा।
“लो जी, ये जवान तो खर्राटे भरने लगा !” ३२ नंबर वाले ने हिकारत से उसे देखते हुए कहा।
नीचे की बाकी दोनों बर्थ पर बुजुर्ग महिलाएं सो रही थीं। अब वह टीटीई के आने का इंतज़ार करने लगा।
” कब तक खड़े रहेंगे आप? इस जवान की बर्थ पर ही कूल्हे टिका लीजिए जब तक टीटीई आए।” ३२ नंबर वाले की नींद भी उड़ चुकी थी, कुछ युवक की हरकत व कुछ उस व्यक्ति की परेशानी देखकर।
दोनों की नज़रें बार-बार एसी की ठंडी हवा में घोड़े बेचकर सो रहे युवक पर टिक जातीं।
कुछ देर बाद युवक ने खह्ह्ह्ह… करते हुए करवट ली, पिंडली चटकाते हुए पैर फैलाए जो उस अधेड़ से जा टकराए। उसने अपने पैर सिकोड़ लिए, एक नज़र फेंकी व बेपरवाह होकर फिर सोने का उपक्रम करने लगा।
मिनट भर बाद ही उसने फिर सीधे होकर बाहों से वी बनाया व आंखों पर चिपका लिया । पैर यूं ही सिकुड़े रहे।
किनारे बैठे अधेड़ व्यक्ति ने भी अपने आप को थोड़ा सिकोड़ लिया।
” देखा! ये हैं आज के बच्चे! बेशर्म किस्म के, भावनाओं से रहित, इंसानियत से तो इनका नाता ही नहीं शायद। ऐसा तो नहीं कि ये आपकी बात को बर्थ हथियाने का बहाना समझ रहा हो।” ३२ नंबर वाले ने कयास लगाया।
युवक फिर कसमसाया। अबकी बार करवट बदलते हुए उसने पूछ ही लिया, ” आप अब तक मेरे पैरों में बैठे हैं?”
“जी, क्या करूं फिर, टीटीई का इंतज़ार कर रहा हूं।”
“इसका बाप होता तब भी ये ऐसा ही करता?” ३२ नंबर वाले से रहा नहीं गया।
तभी एकाएक वो उठा, बिना कुछ बोले, हाथ पैर लगभग पटकते हुए अपने चादर कंबल, तकिया समेट कर ऊपर वाली बर्थ पर जा चढ़ा व ऊपर की बर्थ पर रखे चादर, कंबल व तकिया नीचे की सीट पर ज़ोर से पटक दिए।
सफर जारी था।
**शर्मिन्दगी**
अतुल्य बेटेअमोघ से वीडियो चैट करते खुश नजर आ रहे थे ।अचानक गम्भीर होते हुये बोले-
अमोघ एक बात कहना चाहता हूं तुमसे ..
हां बोलिये पापा ,ऐसी स्पेशल क्या बात है , जो आप परमिशन ले रहे है।
कल शैल से बात हो रही थी बेटा ,उसने बताया कि तुम घर के काम में उसका हाथ नही बंटाते ,
अच्छा आप से शिकायत की है मेरी ..हां इस बात को लेकर उसे मुझसे शिकायत रहती है,
तुम दोनों ही सर्विस करते हो ,बराबर कमाते हो,और ये अमेरिका है ,वहां सब काम करते हैं,
हां पापा कोशिश करूगां ,सोचता हूं ,पर भूल जाता हूं असल में पापा पता नही क्यों ऐसा लगता है कि घर का काम हम लोगों के लिये नही हैं।
प्लीज डोन्ट मांइन्ड पापा ,असल में मां भी तो जॉब करती हैं, उनकी मदद करते हुये कभी आपको नही देखा ,ना कभी भैय्या और मैने मां की मदद की, न आपने कभी कहा।
लगता ये हमारा काम नही ,क्योकि आदत में शुमार नही , दूसरा शैल की मदद करने लगता हूं तो मां के प्रति किये अन्याय का बोध बढ़ जाता है और मन की बैचेनी भी..
यह सुन अतुल्य ने भी अजीब सी बैचेनी और शर्मिन्दगी महसूस की।
कुसुम जोशी
गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
“सेफ्टी वाल्व”
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प्रेशर कूकर गैस पर चढ़ा कर अनु पति अविनाश पर बरस पड़ी।
“अब तो तुम्हारी शकल देख-देख कर भी गुस्सा आता है,आखिर हो तो उन्ही का खून।किस मनहूस घडी में तुम मेरी सीढ़ी चढ़े।”कूकर के तापमान के साथ उसका पारा भी चढ़ता जा रहा था।
“मैं तो हर रिश्ते में ठगी गयी,सबने मेरा इस्तेमाल ही किया,माँ बाप क्या!सास ससुर क्या!भैया भाभी क्या!और ननंद नंदोई जी ने तो बंटाधार ही कर दिया,चुगली कर कर के घर से ही निकलवा दिया और रही सही कसर तुमने घर छोड़ कर पूरी कर दी,कोई तकाज़ा भी नहीं किया,जो उन्होंने बाद में ठिकाने लगा दिया।”
अविनाश ने टालते हुए कहा”अब जब हमने सब कुछ अपने दम पर बना लिया है तो क्यों पुराने गड़े मुर्दे उखाड़ रही हो?”
“मुर्दे पुराने हैं तो क्या हुआ,ज़ख्म तो हरे हैं,अपने घर वालों के खिलाफ तो कुछ सुन ही नहीं सकते न!सही है!मैं तुम्हारे लिए अपना खून भी बहा दूँ तो क्या हुआ,मैं तो गैर हूँ न!घुटना तो पेट की तरफ ही मुड़ेगा न!”अनु ने फिर कुरेदा।
पहली और दूसरी की तरह इधर तीसरी बार भी सीटी बजने पर सेफ्टी वाल्व से निकल रही भाप से ढक्कन कमर हिला हिला कर नाच रहा था फिर बैठ जा रहा था,जैसे वो अवांछित भाप के निकल जाने से खुद की और कूकर की सलामती के लिए प्रसन्न तो था मगर डरा भी हुआ था।गैस बंद कर दी गयी।
“बस कूकर ज़रा ठंडा हो जाने दो,फिर खाना लगाती हूँ।”इस बार अनु की आवाज़ में कुछ ठंडक लगी।
अविनाश को लगा जैसे वो स्वयं इन भापरूपी ज़ख्मो के ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा हुआ एक ढक्कन है,”अगर वो नाच सकता है तो भड़ास निकलते वख्त मैं क्यों नहीं।”भोजन के पश्चात् वो भी कमर हिलाते हुए बाय कह कर निकल लिया।
“तू मेरे साथ कोई रात गुजार”
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एक तरफ बीवी के खर्राटे और दूसरी तरफ रिफिल लगे होने के बावजूद कानो पर भिन् भिन्।तीन चार झापड़ मैं अपनी ही कनपटी पर मार चुका था।हर बार वो बच जाता।वो मुझे मुझसे ही पिटवा रहा था।
छुट्टी का दिन था।पास के मैदान में लाउडस्पीकर्स पर चल रहे प्रवचनों के कारण दोपहर में भी झपकी नहीं ले पाया था।रजाई से हाथ बाहर निकालते ही वो सचेत हो जाता।”उतावलेपन से काम नहीं चलेगा,धैर्य से काम लेना होगा।”मैंने अपनी रणनीति बदलकर उसे प्रलोभन दिया।हाथ बाहर ही रखे और उसकी लैंडिंग का इंतज़ार करने लगा।
“अब तुम मेरा खून पी सकते हो,तुम्हारे लिए हेलिपैड तैयार है।”उसे इस बात का विश्वास दिलाने के लिये शातिर चाल चली।भिन्,भिन् की आवाज शांत हो गयी।ट्रैन के इंजन की दूर से आ रही आवाज़ भी अब उसके आने का संकेत लग रही थी।वो फिर आया।चेहरे के चक्कर लगाता रहा परंतु बैठा नही।जैसे वो षड्यंत्र भाँप गया हो।
“अरे,आइये बैठिए और मेरा खून पीजिए।”मैंने निवेदन किया।
“अरे,तुममे खून बचा ही कहाँ है!पानी हो चुका है।”उसने एक ताना मारकर मुझे पानी पानी कर दिया।
“हत्या,लूट,बलात्कार,गरीबी,महंगाई,बेरोजगारी,धार्मिक कट्टरतावाद,उग्र भीड़ द्वारा हत्याओं के खिलाफ तो कुछ बोल नहीं पा रहे हो और मुझे मारकर बड़े शेर बनोगे।थोड़ा बहुत कुछ लिख डालोगे फिर टिपण्णी देखोगे।” उसकी भिन् भिन् में सच्चाई थी।
“सही कह रहे हो,मुझे तुम्हारा जीवन लेने का कोई अधिकार नहीं है।”लज्जित हो मैंने समर्पण कर दिया।वो आश्वस्त और निश्चिंत होकर बैठ चुका था।
“बीवी के सामने तो दुम हिलाते हो,बोलती बंद हो जाती है।”चटाक की आवाज़ के साथ एक जोरदार झापड़ ने गाल के साथ साथ मसूड़े और जबड़ा तक हिला कर रख दिया।हथेली में गीला, चिपचिपा अहसास अंधेरे में भी उसकी मौत की पुष्टि कर रहा था।
“देश की समस्याओं तक तो ठीक था,साला पर्सनल होता जा रहा था।”
जीवन साथी
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खबर कुछ ऐसी थी जिसे सुनकर किसी को आश्चर्य नहीं हुआ बल्कि वर्षों से इसी इंतजार में थे।रात के सन्नाटे में जब भी कुत्ते एक स्वर में रोते तो लोग कहते “लगता है आज अंकलजी जाने वाले हैं।”और फिर पता पड़ता कोई और वृद्ध चला गया।ऐसे ही देखते देखते कई लोग चले गए थे पर आज खबर आ ही गयी कि शिवहरे अंकल जो पिछले आठ वर्षों से लकवाग्रस्त हो बिस्तर पर पड़े थे,चले गए।
शिवहरे आंटी और एक अटेंडर गोवर्धन बराबर उनकी तीमारदारी में लगे रहते,वो भी टेढ़े मुँह से जैसे तैसे बोल लेते थे जिसे ऑन्टी जी समझ जाती थी पर हिल डुल नहीं पाते थे।कहते हैं रिटायरमेंट के बाद एक ऑपरेशन के दौरान डॉक्टर द्वारा गलत नस कट जाने से वो लकवाग्रस्त हो गए थे।
अपार्टमेंट के लोग जब भी छत पर धूप सेंकने जाते तो देखते,गोवर्धन साइकिल से आता,अंकल की पिशाब की थैली बदलता,उन्हें उठाकर बाहर धूप में कुर्सी पर बिठाकर कुनकुने पानी से नहलाता और कपडे बदलता।कड़कड़ाती ठण्ड में भी कुछ लोग नहाये या न नहाये,अंकल का स्नान जरूर होता था।
आज घर के बाहर भीड़ जुटने लगी थी,पुत्र कोई था नहीं,दोनों बेटी दामाद दूसरे शहर में थे उन्ही के आने का इंतजार था।अपार्टमेंट की महिलाएँ कॉरिडोर में आकर बात करने लगी,किसी ने सड़ा सा मुँह बनाकर कहा-“देखा जाये तो इतने सालों से ऑन्टी जी एक जीते जागते माँस के लोथड़े के साथ ही तो रह रही थी,अच्छा हुआ उन्हें मुक्ति मिली।”एक और ने कहा “जब ले जाएं तो तो कोई आधे घंटे पहले बता देना,बैठ आएंगे।”गोवर्धन का काम खत्म हो चुका था,उसे अंकल के सारे कपडे पोटली बाँध कर दे दिए गए।मोहल्ले की महिलाएँ ऑन्टी के पास बैठकर ढाँढस बंधा रहीं थी।किसी ने कहा “हौंसला रखिये,अब अंकल जी भी कितने साल कष्ट भोगते,ये सोचिये भगवान जो भी करता है अच्छा करता है”।इतना सुनते ही ऑन्टी के आँसू फूट पड़े और रोते रोते बोलीं “मैं उनकी सेवा कर तो रही थी न!वो बोलते थे और मैं सुनती थी,उनकी घर में एक प्रजेंस थी,उनकी सेवा में मेरा समय कट जाता था,अब मैं क्या करूँगी !!!!”
कपिल शास्त्री.भोपाल।
जात-बिरादरी
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छुट्टी के दिन, दोपहर के भोजन के बाद झपकी लगी ही थी कि ‘ची ची ची ची’ करती डोर बेल बज उठी।
“अरे यार,ये शनि महाराज वाला भी गलत वक्त पर आता है।” मैंने खीजकर पत्नी से कहा। फिर टेबल पर पड़े हुए कुछ सिक्के ढूंढे और उनींदी आँखें लिए डगमगाता हुआ दरवाज़ा खोलने चल दिया। दरवाज़ा खोला तो एक नहीं, चार व्यक्ति मुस्कुराते हुए खड़े थे। उनमें से एक के हाथ में रजिस्टर था।
” नहीं पहचाना! हा, हा, हा, हा!”
नींद की खुमारी टूटी और धुंधली दृष्टि साफ हुई तो पहचानते हुए अभिवादन किया, “अरे आइये,आइये,नमस्कार ! आप तो हमारे जात-समाज के सामाजिक मंडल के अध्यक्ष हैं न! एक-आध साल बाद देखा है इसलिए…. हें, हें, हें,हें।” खिसियाते हुए मैंने उन्हें सोफे पर बिठाया।
“आप तो मीटिंग्स में आते ही नहीं। तो हमने सोचा क्यों न हम ही चले चलें। आपकी सदस्यता का भी नवीनीकरण करना है… हें, हें, हें,हें। ” अध्यक्ष जी ने मुस्कुराते हुए अपनी नरम-गरम नाराजगी दर्शायी।
सैद्धान्तिक रूप से तो मैं इस संकीर्णता का समर्थन नहीं करता हूँ पर मंडल समाज के हित में जो कार्य कर रहा है उसके लिए मैं नियमित रूप से सदस्यता भरता रहता हूँ। ऐसा कुछ तो मैंने उन्हें नहीं बोला बस धंधे-पानी में अपनी व्यस्तता और उन तारीखों में शहर से बाहर रहने का झूटा हवाला दिया। परंतु वह जैसे मेरा अनमनापन कुछ कुछ भांप रहे थे कि, “अरे छोड़ो-छोड़ो ये तो बहाने हैं।”
“छोटा सा समाज है,हमें संगठित रहना है। दुनिया भले ही बहुत आधुनिक हो चुकी है परंतु जनम-मरण,शादी-ब्याह में आज भी जात-समाज के लोग ही काम आते हैं। बाकी सब तो बस बधाई और विनम्र श्रद्धांजलि दे देंगे। आपके पिताजी तो जात के गौरव थे, उनकी मृत्यु व कर्मकांड के समय भी पूरा समाज इकट्ठा था।” उन्होंने जता कर याद दिलाया।
“हम सब कितने डरे हुए हैं या अपनी अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना चाहते हैं।” ये बात भी मैंने मन ही मन अपने आप से ही कही।
याद आया समाज की एक पत्रिका भी निकलती है जिसमें कभी सहयोग शुल्क देने के बाद सेकंड डिवीज़न नौनिहालों के नाम भी छप जाते थे।
“आपकी बेटी भी तो शादी लायक हो चुकी है न? हें, हें, हैं,हें।…..” कुटिल हँसी हँसते हुए जैसे उन्होंने कोई अचूक तीखा बाण छोड़ा हो जिसका कोई तोड़ न हो।
“हाँ, अभी तो पढाई खत्म करके नौकरी से लगी है। अभी शादी नहीं करना चाहती। जब खुद को इस लायक समझेगी कर लेगी, हें, हें, हें।…..” मैंने भी हँसते हुए बात टाल दी।
“फिर भी करनी तो पड़ेगी,हें, हें, हें, हें।” उन्होंने भविष्य का घेरा डाला।
मैं मजबूर तो न था मगर ऐसा लगा जैसे मेरे अपने ही घर में वो मजबूरी सूँघते हुए मुझे कटघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं।
“पिछले अध्यक्ष और आप अपने-अपने समर्थकों के साथ फंड्स को लेकर समाज के व्हाट्सएप्प ग्रुप पर कैसे कुत्तों की तरह लड़ पड़े थे। ये बात भी न..न…न..न..ना…..।” मैंने कहना चाहा। फिर सोचा कौन बहस में पड़े,जितनी जल्दी जाएँ, अच्छा है।
“आइयेगा,पच्चीस तारीख को मीटिंग रखी है,भोजन की भी व्यवस्था है,प्रत्येक परिवार से सिर्फ 400 रुपये ले रहे हैं।” आमंत्रण और सहयोग राशि का संगम बोल रहा था।
सदस्यता और सहयोग राशि लेने के बाद वे चारों उठ खड़े हुए। दरवाज़े पर जाते-जाते फिर हँसे, “बेटी की शादी करनी है तो आना तो पड़ेगा हा, हा, हा, हा।” समवेत स्वरों में चारों की हँसी में इस बार भयभीत करने वाली एक चेतावनी झलकी जो मुझे चुभी परंतु जिसे खारिज करते हुए मैं उनसे भी जोर से हँसा, “हा, हा, हा, हा।जरूर।”
उनके जाने के बाद बेडरूम से वार्तालाप सुन रही पत्नी भी बोल पड़ी, “बिटिया की शादी के नाम से डरा रहे थे हा, हा, हा, हा।”
“यार हम डरे हुए तो नहीं हैं। पर चिंता तो करनी पड़ेगी न। जात-बिरादरी में अभी से बात चलानी पड़ेगी।” मैंने पत्नी को छेड़ा।
“मुझे पागल कुत्ते ने काटा है जो मैं बिटिया की शादी अब तुम्हारी जात में करूँगी। मैं तुम से ही भरपाई।”
“लो घूमफिरकर कर तुम भी जात पर ही आ गईं।”
और फिर अपनी झेंप मिटाने के लिए मैं भी जोर से हँसा, “हा,हा,हा।”
ज़िन्दगी मेरे घर आना
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“सुनो,मैं तो पड़ी हुई हूँ,अब तुम अपना ख्याल रखना,हमेशा मास्क लगाकर रखना।”
“मैं तो अपना ख्याल रख रहा हूँ,तुम्हारी बात करने में साँस फूल रही है।इसलिए कम बात करो।ज्यादा कॉल रिसीव मत करो।”
“हाँ,जब भी ऑक्सीजन की नली निकालकर बाथरूम जाती हूँ और साँस फूलने लगती है।”
“दवाइयाँ चल रही हैं,धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।थोड़ा हिम्मत से काम लो।”
“हाथ मे केन्यूला लगा दिया है।उसमें इंजेक्शन पर इंजेक्शन घोंप रहे हैं।मैं दर्द से तड़प उठती हूँ।कुछ इंजेक्शन तो सीधे पेट में घोंप देते हैं।”
“हाँ,ये तकलीफ तो सहनी पड़ेगी।इंट्रावेनस, इंट्रामस्क्युलर और चमड़ी के नीचे दिए जानेवाले तीनों लगेंगे।”
“लगता है अब मैं नहीं बचूँगी।शायद आखरी वक्त तुम्हें देख भी न पाऊँ।”
“कैसी बातें कर रही हो!कितने लोग रिकवर कर गए हैं।घबराओ मत सात-आठ दिनों में नेगेटिव हो जाओगी।मैं तुम्हारे लिए एक महंगा इंजेक्शन लेने जा रहा हूँ।उससे हालत में जल्द सुधार होगा।”
“ज़रा सा पीठ दर्द भी होता था तो तुम मेरी मालिश कर देते थे।नहीं भी होता था तो मैं बोलती थी कि मुझे कुछ-कुछ कर दो और तुम्हारे स्पर्श से मुझे कुछ-कुछ होने लगता था।”
“हाँ,आज तो पास भी नहीं आ सकते और कुछ-कुछ होता है भी नहीं गा सकते।”
“सुनो,तुम वीडियो कॉल पर आओगे,तुम्हें कुछ दिखाना है।”
“वॉइस कॉल पर ही तुम्हारी फूलती हुई साँसों को सुनकर मेरा दिल बैठा जा रहा है।लगता है साँसों से साँसे जुड़ी हुईं थीं।वीडियो कॉल पर तुम्हारा हमेशा खिला-खिला मुस्कुराता हुआ चेहरा काला पड़ता हुआ नहीं देख पाऊँगा।”
“फिर भी आओ।”
“हाँ,ये देखो यहाँ एक खिड़की है उसके बाहर की लोकेशन देखकर समझ लो।यहाँ से मैं जाने से पहले अलविदा करूँगी।”
“नहीं!तुम्हें लौटकर आना है।एक ज़िन्दगी मेरे घर से गयी थी और ज़िन्दगी मेरे घर आना।”
“इतना न करो प्यार”
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पत्नी को थोड़ा उदास देखकर सुदीप रेडियो की आवाज में आवाज मिलाकर नाक से गाने लगा “किस बात पे नाराज हो,किस बात का है गम।”गाने में और नजरों में ही एक प्रश्न था।तो बात ये निकली कि दूर महानगर में पढ़ने वाली मम्मी की प्यारी बेटी जी ने बार बार फोन करने की आदत पर थोड़ा झिड़क दिया था,जो माँ की ममता पर गहरी चोट कर गया था।
“निर्मोही है तुम्हारी तरह,रमती जोगी है,जहाँ जाती है वहीँ की हो जाती है,अब यार दोस्त माँ बाप से भी बढ़कर हो गए!बड़ी कहती है “मेरे दोस्त मेरा मजाक उड़ाते हैं कि तू तो मम्माज गर्ल है।मेरी भेजी हुई मठरी,चूड़ा,केक तो सब चट कर गए और मेरे हाथ के स्वाद की तारीफ भी कर रहे थे।अब मैं भी कोई इतनी नाककटी नहीं हूँ,अब नहीं लगाऊँगी,देख लेना!”पत्नी आरती ने इस तरह नम आँखों और रुँधे गले से एक चुनोतिपूर्ण कार्य की प्रतिबद्धता दर्शायी और अपना गम गलत किया।संयोग से उसी समय रेडियो पर “दिन महीने साल गुजरते जाएँगे” गीत बज उठा।सुदीप फिर शुरू हो गया “देखेंगे,देख लेना,देखेंगे ए ए ए…. देख लेना।”
फिर थोड़ी देर बाद स्क्रीन सेवर में बेटी के बचपन का फोटो देखकर सय्यम टूट गया और डरते डरते मिस्ड कॉल दे कर छोड़ दिया।
सुदीप प्रश्नवाचक निगाहों से देखकर चश्मे के पीछे से भवें उचकाकर फिर गाने लगा “क्या हुआ तेरा वादा,वो कसम वो इरादा।” “माँ हूँ न!तुम नहीं समझोगे।”उसने स्पष्ट किया।इतने में ही बेटी का फोन आ गया “क्यों बूढ़े माँ बाप की याद नहीं आती!”उसने बेटी को ताना दिया।”बूढ़े और आप!क्यों लाठी टेक कर चलने लगे हो क्या!फेसबुक,व्हाट्सएप्प प्रोफाइल फ़ोटो डालते समय तो बड़े जवान हो जाते हो और मेरे सामने बूढ़े!मम्मी नाटक जरा कम करो।”बेटी ने सम्वेदनाओं की अतिशयोक्ति को यथार्थ पर लाते हुए स्पष्ट किया “मम्मी,दिल पर मत लो,पहले मैं काम्प्लेक्स में थी मगर अब लगता है मैं तो बहुत अमीर हूँ,यहाँ करोड़पतियों के बच्चे मेरे साथ पढ़ते हैं,वो बोलते हैं,पैसे तो हमारे पास खूब आ जाते हैं पर दो दो तीन तीन महीने तक मम्मी पापा के फोन नहीं आते,जिसके लिए हम तरसते हैं वो तेरे पास भरपूर है,वो ज्यादा हर्ट न हो इसलिए आपको ऐसा बोला था।मुझे भी आप दोनों की बहुत याद आती है।पापा को मेरी तरफ से एक जमकर किस्सी देना,अब रखती हूँ,लव यू मॉम।”अब पापा गाये जा रहे थे-“नजराना भेजा किसी ने प्यार का।”
“हार-जीत”
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सर के पीछे पड़ी हलकी सी चपत से ही इस युद्ध का शंखनाद हो चुका था।तकियों को अस्त्र शस्त्र की तरह इस्तेमाल करने के बाद बात मल्लयुद्ध तक आ पहुँची थी।
“आज तो तेरी ईंट से ईंट बजा दूंगा”विकास उसकी आँखों में देखकर गुर्राया।
“मैं भी पापा आज आपको नहीं छोडूंगी।”
पलंग के ऊपर बाप बेटी सांड की तरह भिड़े हुए थे।इस युद्ध के लिए पापा ने ही अपनी पाँच वर्षीय बेटी अंजलि को ललकारा था और घुटनो के बल आकर बेटी की ऊँचाई की बराबरी कर ली थी।
किसी मिटटी पकड़ पहलवान की तरह दोनों के पँजे और सर आपस में भिड़े हुए थे।फिर पापा ने सावधानी से बेटी को उठाकर नरम गद्दे पर पटक दिया,इससे वो और उग्र हो गयी और उठकर ताबड़तोड़ मुक्के बरसाने लगी जिससे बचते हुए पापा ने भी पुरानी मारधाड़ से भरपूर महान पारिवारिक फिल्मों के नायकों की तरह मुँह से “ओ ढिशुम ओ ढिशुम” की ध्वनि निकाली और तीन चार मुक्के उसकी बगल से निकाले।बच्ची भी कहाँ हार मानने वाली थी,उसने तीन चार असली के जड़ दिए और वह पापा के सीने पर चढ़ गयी और चित कर कर ही दम लिया।इतने में ही पत्नी शालिनी ने आकर जब देखा कि करीने से चढ़ाए गए गिलाफ तकियों से विमुख हो अचेतावस्था में पड़े हैं तो तमतमा गयी।दोनों को अलग किया और बिफर कर बोली “ये क्या पागलपन मचा कर रखा है बाप बेटी ने घर में!”फिर बेटी को बाहर जाकर खेलने की समझाइश दी।उसने मम्मी को गर्व से बताया कि “मैंने पापा को हरा दिया” और विजयी मुद्रा में प्रस्थान किया।
“इस पागलपंती में दुनियादारी के सारे टेंशन भूल जाता हूँ।”दर्द होती जगह पर मसलते हुए विकास ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा।
“ये छटाक भरी,तुम्हे पीट पाट कर चली जाती है और तुम कुछ नहीं कर पाते!”पत्नी ने आश्चर्य व्यक्त किया।विकास ने भी उसकी ठुड्डी पकड़कर कहा “ये तुम्हारी शक्ल की है न,इसलिए बच जाती है।”ये सुनकर शालिनी मुस्कुरा उठी और पूछा “क्या तुम भी अपने पापा से इतने ही फ्रेंडली थे?”इस बात पर उसके चहरे पर उदासी छा गयी और बोला “नहीं था।वो मुझसे मन से प्यार तो करते थे पर कभी इजहार नहीं किया,मैं भी उनके गुस्से के डर से दूर दूर छिटका,छिटका ही रहता पर मैं भी चाहता था कि मेरे पिता मेरे दोस्त जैसे होते।”कहकर विकास ने एक ठंडी सांस छोड़ी।
कपिल शास्त्री, भोपाल।