छाया अग्रवाल, अब्दुल ग़फ़्फ़ार, मीनू खरे, गिरीष पंकज


लड़कियाँ
अब लड़कियाँ गुड़ियों से नही खेलतीं, उनका ब्याह नही रचातीं, उन्हें सजाती-संवारती भी नही हैं और न ही खुद के ब्याह के सपनों से इतराती हैं। फफूंद लगे दोहाथे पर रोती भी नही और न रौब के दीमक से सिहरती हैं।
बुनती नही अब वो फन्दा-फन्दा अपने उधड़े रिश्ते के दुशाले का और बची हुई कतरनों से नही सीतीं सबकी खुशियों का जामा।
रजाई में छुप कर अब वो नही हँसती, जोरदार ठहाकों से डरती नही हैं।
जाग पड़ी हैं लड़कियाँ बहकावे की नींद से और नही सोतीं वो अब किसी के फुसलावे पर। थकती नही हैं वो अब मीलों दौड़ने से, जान गयीं हैं ठहराव की सड़न।
कूदना भी आता है उन्हें बाड़े से बाहर। धड़कती नही हैं वो लाचार सी खड़ी-खड़ी और न पहनती हैं मौन रहने का पारम्परिक लिबास।
लड़कियाँ अब थोड़ा बेशर्म हो गयीं हैं।

अपराध बोध
शहर से दूर, नयी कालोनी में नया घर विधी और गौरव ने बड़ी जद्दोजहद से बनवाया था। ये घर ही नही उनके सपनों का महल था जिसमें सारी जमापूँजी लगा दी गयी थी। इसीलिये मुख्य द्वार पर नजर विरोधी यन्त्र के रूप में एक काला भूत वाला मुखैटा भी लगा था।
आज गृह प्रवेश था करीबी रिश्तेदारों के साथ सभी पड़ोसियों को भी निमन्त्रण भेजा गया था। कुछ आये और कुछ नही आ पाये, खास तौर पर सामने वाला परिवार जो अपनी किसी परेशानी के चलते आ तो नही पाया मगर वहीँ से कार्यक्रम देखता रहा। उनका घूर-घूर कर देखना विधी और गौरव को नागवार गुजरा और फिर उसी दिन शाम को उनकी अधनंगी वायरिंग में आग लग गयी। काफी नुकसान तो हुआ ही साथ ही पड़ोसियों के प्रति उनकी कड़वी सोच और पुख्ता हो गयी। वह उन्हें कोस ही रही थी कि पता लगा कि उनका जवान बेटा चार महीने से लापता है और जब तक कोई सुराग नही मिल जाता तब तक वह लोग कहीँ किसी शुभ कार्य में नही जायेगें।
अब विधी अपराध बोध से मौन थी, उसके मुँह से निकले कोसते हुये शब्द वापस नही आ रहे थे।

करवा चौथ
प्रभाकर जी आज बहुत खुश थे। उम्र के पचासवें पड़ाव पर आकर उनका विवाह जो हुआ था। पक्का रंग, छोटा कद और अदनी सी नौकरी उनके विवाह में रुकावट बनी रही थी। खैर देर आये दुरुस्त आये। आज करवा चौथ था। वाकि मर्दो की तरह उनकी पत्नी भी व्रत रखेगी, निर्जल रहेगी, उनको पति परमेश्वर के रुप में पूजेगी और छलनी से चेहरा देख कर अपना व्रत खोलेगी। ये सब उनके लिये एक सपने जैसा था। इन्ही अपेक्षित विचारों की खुशबू से वह रोमान्चित हो उठे। चाल को तेज करते हुये सबसे पहले एक गजरा खरीदा, फिर मिठाई की दूकान से कुछ मिठाई और अन्त में काँच की रंग- बिरंगी चूड़िया। खुद की अहमियत से उत्साहित वह घर पहुचें।
पत्नी ने न श्रंगार किया था और न ही व्रत रखा था। वह रोज की तरह ही सामान्य सी दिख रही थी। प्रभाकर जी का प्रेमभाव जो हिलोरे ले रहा था ध्वस्त हो गया। वह बुझेमन से अन्दर घुसे तो देखा तो डायनिंग टेबुल पर खाना सुन्दर तरीके से सजाया गया था। साथ ही उनकी दवाओं का डिब्बा भी रखा था। बाथरुम में कपड़े टँगे थे। घर साफ सुथरा था। सुबह उनके द्वारा फैलाई गयी फाइलों को करीने से लगा दिया गया था। पूजा घर में दिया जल रहा था और वह उनके आने की राह देख रही थीं।
मालती मुस्कुरा कर चाय बनाने अन्दर चली गयीं। प्रभाकर जी ने अनमने मन से पूछा- “कैसी तबियत है तुम्हारी?
” सुबह शुगर बहुत डाउन हो गयी थी। कुछ मीठा खाया और कुछ देर आराम किया अब ठीक हूँ और आपने तो लन्च किया न? या फिर वही लापरवाही?”
प्रभाकर जी चिन्तित हो उठे- “ये मैं किसे सजाने-संवारने की सोच रहा था। जो भीतर से इतनी खूबसूरत हो उसे सजने सवंरने की क्या जरुरत? करवा चौथ महत्वपूर्ण है या जो सब मालती ने किया वह? अगर उसे कुछ हो जाता तो?” खुद में बदलाव कर वह गौरान्वित हो उठे। गजरा, चूड़ी और मिठाई टेबुल पर रख दिया और मालती का हाथ थाम कर मुस्कुरा दिये- “जाओ तुम आराम करो बाकि का काम मैं देख लूँगा।


तस्वीर वाली औरत
कैनवास पर एक सुन्दर औरत की तस्वीर लगभग तैयार हो चुकी थी। बस अब विभूति उसमें श्रंगार भर रही थी। आँखों में काजल, माथे पर बिंदिया, कानों में झुमके, गले में काले मोतियों की माला और हाथों में रंगबिरंगी चूड़िया। ‘वाह….अब एकदम परफैक्ट लग रही है’ विभूति मन-ही-मन मुस्कुरा उठी। तस्वीर मुँह से बोल रही थी। उसकी रंग सज्जा, शिल्पकारी और सजीले भाव ने तस्वीर की औरत को बेहद आकर्षक बना दिया था। विभूति मंत्र मुग्ध होकर उसे देखने लगी तभी पीछे से एक हाथ आगे आया और ब्रश उठा कर चूड़ियों पर फेर दिया बिंदिया और गहने सब धुँधले हो गये। पूरी तस्वीर का श्रंगार मिट गया। कच्चे और गीले रंगों की भाषा बदल चुकी थी। अब तस्वीर वाली औरत के हाथ की मुठ्ठियाँ भिचीं हुई और भोहें तनी हुई थी चेहरा कठोर परन्तु आत्म विश्वास से भरा हुआ था…….विभूति ने पलट कर विस्मय से अपनी माँ का सख्त चेहरा देखा जो बिल्कुल उस तस्वीर वाली औरत की तरह दिखाई पड़ रहा था।

मिस्टेक
‘आप बहुत सुन्दर लिखती हो’ हर रचना पर उनका यह कमेंट मानसी को खुशी और प्रोत्साहन देता रहा। आज भी मानसी ने एक नई रचना डाली और फिर उन्होनें वही कमेंट किया शायद टाइपिंग में थोड़ी मिस्टेक हुई थी सिर्फ एक अक्षर की, पढ़ कर मानसी स्तब्ध थी, उन्होनें लिखा था- ‘आप बहुत सुन्दर दिखती हो’


छाया अग्रवाल
बरेली

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शूगर फ्री

उन्होंने एक दूसरे का हाथ थाम रखा था। हिना ट्रेन में खिड़की के पास बैठी गीली आंखों से उसे देख रही थी और बिलाल खिड़की के बाहर खड़ा डबडबाते आंखों को छलकने से बार बार रोक रहा था। उन आंखों में बला का दर्द छुपा था।
दोनों को एक दूसरे का चेहरा देखकर बार बार रुलाई आ रही थी। फिर भी दोनों एक दूसरे को जी भर कर देख लेना चाहते थे। तभी ट्रेन की सीटी बजी और हिना फ़फ़क फ़फ़क कर रोने लगी।
ट्रेन सरकने लगी। वो और ज़ोर ज़ोर से रोने लगी। अगल बग़ल के मुसाफ़िर भी दम भर के लिए ग़मग़ीन हो गए।
बिलाल ट्रेन के साथ साथ दौड़ने लगा।
ट्रेन रफ़्तार पकड़ने लगी। उन्होंने एक दूसरे का हाथ छोड़ दिया।
बिलाल ने गमछे से अपने तर बतर चेहरे को पोंछा।
हिना ने आंखों से ओझल होने से ठीक पहले कहा – ” अब्बू अपना बहुत ख़्याल रखिएगा।”
“और हां – – चाय में हमेशा शक्कर की जगह शूगर फ्री ही डालकर पीजिएगा।”
ट्रेन की रफ़्तार तेज़ हो गई। हिना ने आख़िरी बार खिड़की से पीछे झांकते हुए ज़ोर से कहा – “दवा टेबल पर रखी है, टाइम-टाइम पर लेते रहिएगा।”
बेटी की दूर से आती हिदायत सुनकर बिलाल तड़प उठा और ट्रेन निकल गई।
बिलाल बेटी को बिदा कर के स्टेशन पर पकड़ी के पेड़ के नीचे देर तक बैठा सिसकता रहा।
जब हिना की मां समीना को कैंसर हुआ था तब वो सिर्फ़ तीन साल की थी। तब से बिलाल मां और बाप दोनों का फ़र्ज़ अदा करता चला आ रहा था। बचपन में बेटी का पाख़ाना पेशाब से लेकर नौजवानी में उसके कपड़े लत्ते तक संभालता रहा था बिलाल।
पिछले साल दिल्ली के चार्टर्ड एकाउंटेंट मोहसिन से उसका निकाह हुआ था लेकिन बाप और बेटी में इतनी उनसियत थी कि ज़ईफ़ बाप को तन्हा छोड़कर हिना का जाने का मन नही कर रहा था। वही तो अबतक बाप का सहारा थी। अब कौन खाना बनाएगा!
कौन बाप के कपड़े धोए सुखाएगा!
कौन वक़्त वक़्त पर दवाएं खिलाएगा!
यही सब बातें बेटी को रुला रही थीं।
बुढ़ापे में बीमारी, ज़िंदगी की रौशनी मद्धिम होने की अलामत होती है। इस उम्र में बाप को ख़िदमत और सहारे की ज़रूरत थी लेकिन निकाह के बाद तो बेटियां अपने शौहर की अमानत हो जाती हैं। ज़िंदगी की एक नई इबारत लिखने के लिए शौहर बीवी का साथ ज़रूरी होता है इसलिए उसे शौहर के घर जाना ही था।


काला आदमी

उस काले आदमी की कहानी में कुछ भी नया नही है। जब वो चुक्का मुक्का बैठ कर बीड़ी का धुआं अपने अंदर खींचता है तब उसकी आँखें सिकुड़ कर सड़क को दूर तक घूरने लगती हैं।
सड़क के किनारे, बर्गद के पेड़ के नीचे प्लास्टिक तना छप्पर उसके रहने की जगह है। दोनों घुटनों से छाती को दबाकर बीड़ी चूसते हुए अपने पाँव तले की ज़मीन को घूरना उसकी आदत बन चुकी है।
वह काला आदमी वहाँ इसलिए है कि जो कुछ भी वह पीछे छोड़ आया है उसमें जन्नत जैसा कुछ भी नही था। साढ़े सात धूर ज़मीन जवानी के दिनों में ही लाला के सूद में चली गई थी।
कुदाल चलाते चलाते अब उसकी बूढ़ी हड्डियों की लचक ग़ायब चुकी है। वो चाह कर भी सीधा खड़ा नही हो पाता। बिल्कुल धनुष जैसी टेढ़ी कमर हो चुकी है उसकी।
हालांकि जवानी के दिनों में वो काला ज़रूर था लेकिन टेढ़ा नही था। गामा पहलवान की तरह तना हुआ सीना और सुल्ताना डाकू जैसी तेज़ चाल थी उसकी। जब चलता तब तेतरी, तपेसरी समेत दर्जनों लड़कियां आहें भर भरकर रह जातीं।
अब तो उसके लिए ना झुकना आसान है ना चलना, इसलिए ज़्यादातर चुक्का मुक्का ही बैठा रहता है। इस तरह बैठकर अपनी माटी से घंटों बतियाना उसे अच्छा लगता है।
ना तो उसकी सिकुड़ी हुई थैली में पिछले कल की कोई कतरन बची है और ना ही बग़ल में पड़े अधखुले छाते में बीते दोपहर की कुछ किरणें ही बची हैं। छाते की कमानी भी, उसकी ज़िंदगी की तरह कब की छटक चुकी है।
उसके पास आज रात के लिए एक कटोरा भात और कुछ हरी मिर्चें हैं और साथ में कल मज़दूरी लगने की उम्मीद भी। दो चार धूर ज़मीन कोड़ने, आर डरेड़ छांटने और नाला नाली काछने के लिए कुछ लोग उसे याद भी कर लेते हैं।
ध्यान से देखने पर जल्द ही अन्दाज़ा लग जाता है कि उसके सिकुड़े हुए सीने में एक लम्बी पुरानी हूक छुपी है।
तेतरी दस साल पहले टीबी की बीमारी से ख़ून थूक थूक कर मर गई थी। उसकी बहन तपेसरी बागड़ थी। उसका बियाह नही हुआ था इसलिए बहन के मरने के बाद वो बहनोई की लुगाई बनकर रहने लगी। लेकिन पलेग ने उसे भी छीन लिया। दोनों में से किसी से कोई बच्चा भी नही हुआ।
उसी हूक को दबाने में वह अपनी सारी ताक़त लगाए रखता है। यादों की कुर्चियां उसे चैन से जीने नहीं देतीं। अपने पाँव तले की ज़मीन को घूरना उसे इसलिए भी अच्छा लगता है कि उसमें तेतरी और तपेसरी की उल्टियां दफ़न हैं। कभी कभी लकड़ी से कुरेदकर उल्टियों में शामिल ख़ून के थक्कों को निकालने की असफल कोशिशें भी करता रहता है। और ऐसा करते हुए उसकी बूढ़ी आंखों में कबका सूख चुका पानी उमड़ आता है।
उसके ज़िंदा रहने की कोई वजह भी बाक़ी नहीं है फिर भी वो जी रहा है। बहुत ही कम बोलता, लोगों की बातें ध्यान लगाकर सुनता और अपनी छोटी छोटी आंखों से मुलुर मुलुर ताकता रहता है वो काला आदमी।

पार्ट टाइम

बात 1980 की है। दिसंबर की सर्द रात थी। मैं पार्क एवेन्यू होटल में रिसेप्शनिस्ट के पद पर उसी दिन बहाल हुआ था।
शायद वो दोनों सहेलियां थीं।
रात के दो बज रहे थे। दोनों आपस में बातें करते होटल से निकल रही थीं। धीरे-धीरे सीढ़ियों से उतरते हुए मेरे पास से गुज़रीं। शायद उन लोगों ने ऊंघते देखकर मुझे नज़र अंदाज़ करना बेहतर समझा। जबकि मैं जाग रहा था।
नींद नही आ रही थी इसलिए कि नई जगह नया काम था। वो दोनों इतने जोश में थीं कि उन्हें एहसास ही नही था कि कोई उनकी बातें सुन भी रहा है। रात की ख़ामोशी में उनकी सरगोशियां भी तेज़-तेज़ सुनाई दे रही थीं।
पहली – मेरा तो इस महीने का रुम रेंट निकल गया और किराना वाले का ऊधार भी। आदमी बड़ा दिलदार था। लौटते वक़्त हाथ में सौ-सौ के दो और नोट भी थमा दिया। और काम – – सिर्फ़ दस मिनट में तमाम – –
दूसरी – मेरे बच्चों की दो महीने की स्कूल फ़ी और बाबूजी की दवा नाग़ा चल रही थी। भला हो तुम्हारा जो तुमने काम दिलवा दिया। ग्राहक बूढ़ा तो था लेकिन – – साला चूस के रख दिया – – ख़बीस कहीं का – – – पोर पोर दुख रहा है।
पहली ने पूछा – बख़्शिश कितना दिया!!
दूसरी – पूरे पांच सौ
पहली – पांच सौ !!! यानी डबल!!!
दूसरी – हाँ
पहली – तु तो बड़ी लक्की है यार – – पहली बार में ही डबल कमाई।
दूसरी की आंखों में ख़ुशी और पश्चाताप के आंसू चमक रहे थे।
मुझे याद आया कि शाम में तो ये दोनों औरतें हिजाब पहने अपने अपने शौहर के साथ रूम नंबर 116 और 117 में गईं थीं। फिर इतनी रात गए ये बेहेजाब – – और अकेले – – कहां जा रही हैं!
मैंने काउंटर बेसिन का नल खोला और मूंह धोने लगा। तबतक वो दोनों जा चुकीं थीं।
जब ग़ुनूदगी दूर हुई तब समझ में आया कि दरअसल ये पार्ट टाइम बीवियां हैं जो अपनी ज़रूरतों के हुसूल के लिए यहां आती होंगी।
फिर मैंने अपनी नींद ख़राब करना बेहतर नही समझा और काउंटर पर सिर रखकर सोने की कोशिश करने लगा।

रसमलाई

शादी विवाह का मौसम चल रहा था। होटल शिवराज के पीछे हमेशा की तरह आज भी फेंके गए बचे खुचे खानों और मिठाईयों का अंबार लगा था। यक़ीनन रात को यहां किसी अमीर की पार्टी रही होगी।
इसके पहले की नगर परिषद की कचड़ा गाड़ी आकर इस अंबार को उठा ले जाती दुखरन मूंह अंधेरे ही अपनी टीम के साथ वहां पहुंच चुका था।
दुखरन का हाथ जब कचरे के ढेर में मिठाई के डब्बे से टकराया तो उसके चेहरे की चमक भांपते हुए उसका दस वर्षीय पोता विकास बोल उठा – “रसमलाई हाथ लगी है क्या बाबा!”
“देखते हैं बऊआ” कहते हुए जब दुखरन ने हाथ बाहर निकाला तो सचमुच रस टपकता हुआ मिठाई का डब्बा निकला। जिसमें शायद रसमलाई ही थी। विकास की आंखें चमक उठीं। मुनमुन और चुनमुन, दोनों कई दिनों से रसमलाई की मांग कर रही थीं।
मिठाई के डब्बे को हासिल करने के लिए विकास से पहले उसका प्यारा दोस्त शेरा उसपर झपट पड़ा, जो दूर खड़ा लार टपका रहा था।
“साला कुत्ता – – – – तेरे खाने लायक़ सामान तो चारों तरफ़ बिखरा पड़ा है लेकिन तुझे तो फ्रेश माल चाहिए – – -” कहते हुए विकास उदास नज़रों से अपने दोस्त, कुत्ते को मिठाई चट करते हुए देखता रहा।
उधर राजा और रानी बिजली के पोल पर कांव – कांव करते इस इंतज़ार में बैठे थे कि कब ये आदमी और जानवर हटें की उनकी चोंच भी लज़ीज़ व्यंजनों का लुत्फ़ उठा सकें।
कांव – कांव – की शोर सुनकर विकास ने बिजली के पोल की तरफ़ देखा और चाउमीन के गुच्छे उछालते हुए कहा ” लो खाओ! तुम लोग भी क्या याद करोगे।”
बहरहाल पिछले लगन की तरह इस लगन में भी अमीरों के छोड़े और फ़ेंके हुए खानों से उन लोगों का काम बड़े मजे़ में चल रहा था।
सुबह हो चुकी थी। धीरे धीरे कचरे के अंबार से दुखरन ने घर भर के लिए भोजन का जुगाड़ कर ही लिया और विकास और शेरा के साथ चल पड़ा अपनी कुटिया की तरफ़।
फिर क्या था – राजा और रानी ने कांव कांव करते हुए कौओं की पूरी फ़ौज बुला ली और टूट पड़े कचड़े के ढेर पर।
रास्ते में सजाए जा रहे पंडाल की तरफ़ ईशारा करते हुए दुखरन ने विकास से कहा “बऊआ घर चलके कपड़ा लत्ता फींच लेना। कल यहां बड़े लोगों की भीड़ में घुसकर खाना है, तो कपड़े लत्ते तो साफ़ सुथरे होने चाहिए!”
विकास मुस्कुराते हुए चलता रहा और ये सोच कर ख़ुश होता रहा कि चलो कल के खाने का इंतज़ाम भी हो ही गया।
शेरा भी उनकी बातें समझता हुआ पंडाल की तरफ़ आशा भरी निगाहों से देखे जा रहा था।
घर पहुंचते ही विकास की मम्मी खाने की पोटली पर यूं झपटी जैसे कल से ही खाने के इंतज़ार में बैठी हो। फिर मुनमुन और चुनमुन बिना पलकें झपकाए पोटली खुलने का इंतज़ार करने लगीं कि देखें इसमें से क्या क्या निकलता है!

अब्दुल ग़फ़्फ़ार

वायरस

वुहान में कुल 86 अदद क्वारंटाइन सेंटर काम कर रहे थे।
सुबह के चार बज रहे हैं। अंधेरे और उजाले के बीच संघर्ष जारी है। पौ फटने को हैं। सड़कों पर दूर दूर तक मरघट जैसा सन्नाटा पसरा हुआ है।
एक क्वारंटाइन सेंटर के बग़ल में एक अस्पताल है जिसकी खिड़कियों से अंदर कुछ हरकत नज़र आ रही है।
क्वारंटाइन सेंटर और अस्पताल के बीच की गली में एक महिला अचेतन अवस्था में पड़ी हुई है।
गुक्सियान के खुले मुँह और खुली आंखों पर मख्खियां मंडरा रही हैं और पेट के निचले हिस्से के स्कर्ट पर ख़ून के धब्बे सूखी हुई रोटियों की तरह अकड़ चुके हैं। उसकी फटी हुई आंखें धीरे धीरे बंद हो रही हैं। तभी एक बड़ी वैन आकर उसके क़रीब रुकती है, जिसमें पहले से ही कई लाशें भरी पड़ी हैं।
पीपीई किट पहने दो स्टाफ गुक्सियान की लाश को वैन में फेंकते हैं और चल पड़ते हैं।
सौ सवा सौ किलोमीटर चलने के बाद वैन एक खुले मैदान में रुकती है। वैन में बैठे कुल चार स्टाफ़ बारी बारी से दर्जनों लाशों को वैन से नीचे उतारते हैं। सभी लाशों को एक दूसरे पर इकट्ठा करते हैं और उनपर इतना पेट्रोल डालते हैं कि लाशें पूरी तरह भींग जाती हैं। फिर वैन को लगभग चार-पांच सौ मीटर पीछे दरख़्तों के बीच ले जाकर खड़ा करते हैं।
तीन स्टाफ वैन के पास ही रुकते हैं जबकि चौथा स्टाफ लाशों के ढेर पर एक छोटा सा आग का गोला फेंकता है और तेज़ी से वैन की तरफ़ वापस दौड़ पड़ता है।
लम्हे भर में आग की लपटें आसमान छूने लगती हैं।
सभी एक दूसरे के शरीर पर कोई केमिकल छिड़क रहे होते हैं तभी आग की लपटों के बीच से निकलकर एक जिंदा औरत चींखती चिल्लाती बाहर की तरफ़ भागती है।
वो औरत गुक्सियान रहती है।
इस तरह ज़िंदा लाश को अपनी तरफ़ आते देखकर चारों स्टाफ वैन में बैठकर भागने लगते हैं।
उनकी समझ में नही आता कि ये क्या हो रहा है।
उनमें से दो स्टाफ़ सिर निकाल कर पीछे की तरफ़ देखते हैं तो गुक्सियान चींखती चिल्लाती वैन के पीछे दौड़ती हुई नज़र आती है।
कौन हो सकती है! कहां से उठाया था !! जैसे दर्जनों सवाल उनके मन मस्तिष्क में अचानक पैदा होते हैं।
धीरे धीरे उनके होश ठिकाने आते हैं।
चारों एक दूसरे का चेहरा पढ़ते हैं और वैन रोक देते हैं।
फिर गुक्सियान को वैन में लादते हैं और तेज़ी से हॉस्पिटल की तरफ़ चल पड़ते हैं।

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काली माँ
सुबह के साढ़े सात बज चुके थे पर कन्याएँ अभी तक नहीं आईं थीं।दफ़्तर में सुबह दस बजे बहुत ज़रूरी मीटिंग थी । इसीलिए अष्टमी जीमने सुरभि ने कन्याएँ सुबह सात ही बजे के लिए न्योती थीं फिर भी कन्या अब तक न आयीं! वो परेशान।तभी घंटी बजी।कन्याएँ ही थीं।सुरभि चहक उठी।पाँव धुला कर सबको आसन पर बिठाया । एक आसन ख़ाली दिखा।
“एक आसन ख़ाली कैसे है?” सुरभि ने पूछा।
“आंटी मेरी बहन को बुखार है।वो नही आई..”
“अरे! तो कल ही बताना चाहिए था”
“कल नही था बुखार।आज आया।”
सुरभि फिर परेशान।छः कन्या तो खिलाते नहीं।इतनी जल्दी सातवीं कहाँ से लाये! कई फ़ोन मिलाये पर काम नहीं बना।सुरभि को बॉस की गुर्राहट याद आ रही थी पर क्या करे! तभी घंटी बजी। कपड़े धोनेवाली नुसरत की बेटी ज़रीन आई थी।एक कन्या बोली
“आंटी सातवीं कन्या ज़रीन को ले लें ?”
सुरभि के मन में जैसे भूचाल आ गया। वो भुनभुनाई, “ज़रीन को कन्या जिमाऊँ! बच्चे भी कैसी बात बोल देते हैं!” पर वो संयत होकर बोली
“नहीं ज़रीन की मम्मी डाँटेगी”
“आंटी वो नही डाटेंगी। स्कूल के नाटक में ज़रीन काली माँ बनी थी तो उसकी ड्रेस उसकी मम्मी ने ही सिली थी”
“नहीं ज़रीन तुम्हारी मम्मी छत पर हैं। वहीं जाओ ” कहते हुए सुरभि ने दरवाज़ा तो बंद कर लिया पर द्वन्द्व से घिर गयी वो।
“अजब बात हैं !कन्या-पूजन मुसलमान लड़की का !!!कभी नही ! कन्या तो देवी का रूप हैं …पूजन में पवित्रता चाहिये..मुसलमान तो….! स्कूल में काली माँ का रोल अलग बात है और पूजा-पाठ अलग है! मैं ऐसा नही करूँगी! उसने छः कन्या ही जिमाने का निर्णय लिया।थालियाँ लग चुकी थीं! विराजित कन्याएँ साक्षात देवी लग रहीं थीं! तभी सुरभि को लगा कि जिन्हें दुर्गा, काली,पार्वती मानकर वो पूज रही है उन्ही कन्याओं ने तो ज़रीन को जिमाने की बात कही है! तो इसे देवी माँ का आदेश ही क्यों न माना जाय? जब हर कन्या देवी हो सकती है तो ज़रीन क्यों नही ?! इस तर्क ने सुरभि का द्वन्द्व मिटा दिया।वो हैरान थी कि जो बात नन्हें बच्चे समझ गये उसे वो नही समझ पायी! सुरभि ने बच्चों से पूछा
“क्या मैं तुम्हारी काली माँ को भी बुला लूँ जीमने”
“ज़रीन को?”बच्चे हँसे।
“हाँ”
“जी आंटी!”सभी बच्चों ने ताली बजा दी।
अगले पल सातवाँ आसन भर चुका था। सुरभि के आँगन में साक्षात काली माँ अन्य देवियों संग अष्टमी जीम रही थीं!

रिटर्न-गिफ्ट
शन्नो की असाधारण सहनशीलता ने मुझे आज भी झकझोरा।
मैंने पूछा “शन्नो तुम इतना क्यों सहती हो?”
“पैसे के लिए दीदी! 10 हजार कम नहीं होते.”
“आंटी जितना काम तुमसे लेती हैं उतना कोई नहीं करेगा.”
“कोई दस हजार तनखाह भी तो नही देगा कामवाली को!”
“तिमंजिली कोठी की सफाई,इतने लोगों का खाना बनाना,कपड़े धोना,प्रेस करना! ऊपर से रोज़ भद्दी-भद्दी गालियाँ …बुरा नही लगता ?”
“हम समझ लेते हैं,10 हजार तनखाह के साथ डाँट-गाली फ्री गिफ्ट है.” वो हंस दी.
“ठीक!तुम्हे बुरा नहीं लगता तो मुझे क्या?”
“लगता है बुरा !गाली से भी ज्यादा बुरा लगता है इनके घर के टॉयलेट धोना ।”
“तो क्यों धोती हो टॉयलेट?”
“टॉयलेट में ही तो रिटर्न-गिफ्ट छुपा है”
“मतलब?”
“मतलब यह कि जिस दिन गाली-डाँट की गिफ्ट ज़रूरत से ज्यादा हो जाती है उस दिन टॉयलेट साफ़ करने के बाद बिना हाथ धोए पराठा बना कर खिलाती हूँ मैडम को रिटर्न गिफ्ट में।हिसाब बराबर!”
शन्नो को पहली बार धूर्तता से हंसते देखा।
रिटर्न गिफ्ट बहुत महँगा लगा।

अन्नदाता
तीन दिनों से सहर अली ने कुछ नहीं खाया था. अन्नदाता की चिन्ता उसे खाये जा रही थी।कैसा होगा ‘अन्नदाता’ ? नया समझ कर जंगल में कहीं दूसरे लंगूर उस पर झपट न पड़ें। मुँडेर पर आज बन्दर बैठा देख हूक सी उठी सहर अली के मन में।किसी बंदर की हिम्मत थी भला ‘अन्नदाता’ के रहते पास फटकने की! सौ फ़ीट दूरी से बंदरों की टोली भागती थी उसे देख कर।लोग उसे दिहाड़ी पर बुलाकर बंदर भगवाते थे जिससे सहर अली के परिवार का पेट पलता था इसीलिए उसने प्यार से अपने लंगूर का नाम ‘अन्नदाता’ रखा था।एक दिन सरकारी आदेश आया कि लंगूरों को पालना वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत दण्डनीय अपराध है।अफ़सरों ने सहर अली को अपने लंगूर को जंगल में छोड़ने के आदेश दिए।उसने हाथ पैर जोड़े कि लंगूर उसकी रोज़ी रोटी है पर प्रशासन न पसीजा।सहर अली को अन्नदाता को जंगल में छोड़ना पड़ा जिसका विछोह उससे बर्दाश्त नही हो रहा था।रात हो गई थी।बीवी बोली
“ सोचो अब परिवार कैसे पलेगा? एक लंगूर का स्यापा रोटी नही दे देगा.” सहर अली को बीवी पर गुस्सा आया पर बच्चों के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा।सोचते-सोचते आँख लग गई।सुबह बेटी की चिल्लाहट से उसकी नींद खुली।
“अब्बू अब्बू जल्दी आओ।” सहर अली घबरा कर दौड़ा।
“अब्बू नीम के पेड़ पर देखो.”
अगला पल मानो सहर अली पर खुदा की नेमत बन कर बरसा। नीम के पेड़ पर ‘अन्नदाता’ बैठे थे।सहर अली की आँखें बरसने लगी।सहर अली को देखते ही अन्नदाता नीचे उतर आया।सहर अली की मानो दुनिया लौट आई थी।मन किया चिपका ले उसे अपने सीने से पर बीवी ने कहा “इसे तुरंत भगा दो।किसी ने रिपोर्ट कर दी तो जेल हो जाएगी।” बीवी की बात सुन सहर अली अवाक था पर कुछ देर बाद वो सचमुच अपने अन्नदाता को लाठी लेकर घर से भगा रहा था…

दूसरी रिपोर्ट
फोरेन्सिक लैब से आयी दोनो डीएनए रिपोर्ट्स लेकर डॉ. चड्ढा अपने जिगरी दोस्त बलजीत के घर के लिए निकले ही थे कि बलजीत का फ़ोन फिर आया.
“चमन की रिपोर्ट मिली? गड़बड़ है ना?”
“घर आकर बताता हूँ.” कह कर डॉ.चड्ढा ने फ़ोन काट दिया।
बलजीत अपने पड़ोसी सम्पत पाटिल और पत्नी सान्या की घनी निकटता को लेकर काफ़ी समय से घुल रहा था।उसे शक था कि उसका छोटा बेटा चमनदीप, उसका नहीं बल्कि सम्पत पाटिल का बेटा है।यही कारण था कि बड़े बेटे नमनदीप को चाहने और चमनदीप को झिड़कने का कोई मौक़ा बलजीत नहीं चूकता था.
“मेरा तो केवल एक बेटा है नमनदीप।तू तो एलियन है चमनदीपे!”जैसे जुमले आम थे।शक में साँस लेना भी मुश्किल होने लगा तो डॉ. चड्ढा ने चमनदीप के डीएनए टेस्ट का सुझाव दिया।उनकी ख़ुद की लैब होने के कारण गोपनीयता सुनिश्चित थी।बलजीत तैयार हो गया पर ब्लड सैम्पल देते वक़्त चमनदीप बालहठ कर बैठा;
“अकेले मैं ही अपना ब्लड क्यों दूँ?पहले नमनदीप ब्लड दे तब ही मैं अपना ब्लड दूँगा.”
मजबूरी में चमनदीप के साथ नमनदीप का भी ब्लड सैम्पल लिया गया और दोनो की डीएनए रिपोर्ट आज डॉ. चड्ढा के पास थी। बलजीत के घर पहुँच उन्होंने चमनदीप की रिपोर्ट दोस्त को दी.रिपोर्ट पढ़ना था कि बलजीत फूट-फूट कर रोने लगा.
“ओए रब्बा कितना बड़ा पाप हो गया! मैं अपने ही ख़ून को नहीं पहचान पाया….अपने ही बेटे पर शक किया…..माफ़ कर दे चमनदीपे ..मेरे राजा बच्चे !” …
बलजीत का रोना हृदयविदारक था।डॉ.चड्ढा की भी आँखें नम हो आईं थीं।थोड़ी देर बाद डॉ. चड्ढा घर लौट रहे थे।पॉकेट में पड़ी दूसरी रिपोर्ट निकाल डॉ. चड्ढा ने एक बार फिर पढ़ी जिसमें लिखा था “नमनदीप का डीएनए बलजीत से मैच नही करता अत: नमनदीप बलजीत का बेटा नहीं है। “
डॉ.चड्ढा ने लाइटर जलाया और दूसरी रिपोर्ट लौ के हवाले कर दी।

बढ़त
हिन्दूवादी नेता लाला शिवचरन की नृशंस हत्या के बाद सिलसिलेवार हत्याओं से शहर दहल चुका था।मामला हिन्दू-मुसलमान का था।बदले और दूसरी क़ौम पर बढ़त हासिल करने की कार्यवाही दोनो ओर से जारी थी।
जगन बहुरूपिया शाम के शो में बजरंग बली बनने के लिए बदन पर घी और पीला सिंदूर लेपने ही वाला था कि बुरी तरह हाँफता एक नौजवान उसके घर में घुस आया।
“मुझे छुपा लो । मार डालेंगे वो मुझे!”
“कौन मार डालेगा तुझे?”
“वो पीछे आ रहे..जल्दी छुपा दो मुझे ”
“तू मुसलमान है?”
“हाँ”
“तब तो मुश्किल है!तुम लोगों को ढूँढ-ढूँढ के मार रहे हैं ये लोग!”
“जल्दी छुपाओ मुझे।आते ही होंगे वो!” कहते हुए लड़का जगन के ही पीछे छुपने लगा।
लड़के को छुपाने की एक ही तरकीब सूझी बहरूपिये जगन को।आव देखा न ताव उसने कटोरे में रखा घी और सिंदूर का लेप पलक झपकते लड़के के बदन पर पोत मारा।लाल लंगोटा, गदा,चोला, माला,मुकुट और पूँछ लगा कर लड़का साक्षात बजरंग बली लग रहा था।
“अब आराम से जा।अब कोई न मारेगा तुझे! उलटा वो हाथ जोड़ेंगे,पैर छुएँगे तेरे!”
लड़का अब निर्भीक हो, सड़क पर जा रहा था।कुछ बाइक सवारों ने पास से गुज़रते हुए फ़िकरा कसा
“गज़्ज़ब!इन लोगों के भगवान भी सड़क पर मारे-मारे घूमते हैं!”
“ही ही ही ही”
“कल हमारा आदमी मरा है।ये मौक़ा बढ़िया है बढ़त लेने का..”
“मतलब?”
“चलो आज बजरंग बली को अल्लाह मियाँ के घर की सैर करा दें”
कई गोलियाँ एक साथ चलीं। भगवान और अल्लाह का घर बढ़त के लहू से पुत गया।

मीनू खरे

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मूल्यांकन
एक प्रतिभासंपन्न बुजुर्ग रचनाकार से किसी ने पूछा-”आपका समुचित मूल्यांकन अब तक नहीं हो सका, क्यों?”
रचनाकार ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया, ”यह साहित्य का माफिया-काल है भाई. यहां मुँहदेखी आलोचना का चलन अधिक है. लेकिन चिंता मत करो, मेरे मूल्यांकन का समय नजदीक आ रहा है। कुछ लोगों का समय से पहले और कुछ का बाद में भी मूल्यांकन होता है।”
”मगर वो समय कब आएगा?” जिज्ञासु ने प्रश्न किया, तो सर्जक खाँसते हुए बोला, ”कहा न, आने ही वाला है। मृत्यु का समय नजदीक है। मृत्यु के बाद अपने आप मूल्यांकन शुरू हो जायेगा। निश्चिन्त रहो।”
प्रश्नकर्ता मौन हो गया। उसकी आँखें भर आयीं।
..मगर सर्जक अब भी मुस्करा रहा था।

समय की कमी
सेठ जी का सारा समय दौलत कमाने में निकल जाता था।
एक बार उनके घर एक धर्मगुरु पधारे। उन्होंने कहा- ”सेठजी, जीवन बड़ा ही अनमोल है और क्षणभंगुर भी इसलिये कुछ दान-पुन्य करते रहें। ध्यान भी करें। अध्यात्म के लिए भी निकालें।”
सेठजी हाथ जोड़ कर बोले – ” गुरुजी, मन तो बड़ा करता है पर क्या करूँ। मेरा लड़का अभी कुछ छोटा है, यह अपने व्यवसाय को बेहतर ढंग से चलाने लगे। बस, दो -तीन साल और मेहनत कर लूँ। उसके बाद तो समय-ही-समय है. जैसा आप कहेंगे, वैसा करूँगा।”
धर्मगुरु ने मुस्कान फेंकी, ”तुम कैसे तय कर रहे हो कि तुम्हारे पास दो-तीन साल है? ईश्वर के विधान को तुम कैसे समझ सकते हो? खैर, जैसी तुम्हारी मर्जी।”
धर्मगुरु चले गए, सेठ जी व्यवसाय में मगन हो गए। उन्हें अपने स्वास्थ्य की बड़ी चिंता थी इसलिए प्रतिदिन सुबह थोड़ा-बहुत पैदल घूम लेते थे। एक दिन टहल रहे थे कि एक ट्रक ने चपेट में ले लिया और वे परलोक सिधार गए।
अंतिम समय उन्हें गुरुजी का कथन याद आ रहा था।
…तब तक बड़ी देर हो चुकी थी।

दयालु सरकार

पुलिस वाले बहुत परेशान थे। आंदोलन करने वाली जनता पर वे जब कभी पूरी ताकत से डंडे चलाते, तो डंडे टूट जाते थे। सब ने आशंका व्यक्त की कि पिछली बार डंडा-खरीदी में शायद कुछ घोटाला हुआ था, इसलिए कमजोर डंडे थमा दिये गये। कानून-व्यवस्था को संभालने के लिए तो मजबूत डंडे चाहिए। इस ‘महान समस्या’ को लेकर सब सरकार से मिले। सरकार हमेशा की तरह बड़ी ‘संवेदनशील’ थी। ‘भयंकरकिस्म की दयालु’ भी। उससे सिपाहियों की पीड़ा देखी न गई। वह ‘द्रवित’ हो उठी। उसने फौरन ही समस्या का निदान कर दिया।
फिर क्या था, सारे सिपाही प्रसन्न होकर वापस लौट गये ।
अब सबके हाथों में लकड़ी नहीं, स्टील के डंडे थे।

भ्रम..
”आज नेताजी का जन्मदिन है ।”
इतना सुनना था कि वह खुशी से झूम उठा, फिर ”वाह! अभी आया” बोलकर कहीं चला गया। कुछ देर बाद लौटा, तो उसके हाथों में फूलों की माला थी । एक बुके भी। मैं प्रसन्न हो गया कि नेता जी के प्रति कितना सम्मान है,इसके मन में।
” मगर यह बुके क्यों?” पूछने पर वह बोला, “नेताजी को मैं माला पहना दूँगा,तुम बुके दे देना।”
”मगर मूर्ति बुके कैसे लेगी ?”
“नेताजी मूर्ति नहीं हैं, बन्धु । साक्षात इंसान हैं ।”
मैंने कहा, ” लगता है, तुमको कुछ भ्रम हो गया है। मैं नेताजी सुभाषचंद्र बोस की बात कर रहा हूँ। आज उनका जन्मदिन है।”
“ओह! ऐसा क्या। मैं समझा, नेता रामभरोसेजी का जन्मदिन है। खैर, फूलवाला परिचित है। अभी जाकर माला-बुके वापस कर आता हूँ।”
मित्र चेहरा लटका कर लौट गया।

ख़बर
वह धर्मस्थल के लिए निकली ही थी कि अचानक उसकी नज़र टेबल पर रखे ताज़ा अखबार के मुख्य समाचार पर पड़ी और उस ने जाने का इरादा बदल दिया ।
पिता ने पूछा, ”अरे! रुक क्यों गई?”
”अब कभी वहाँ नहीं जाऊंगी”, यह कहकर लड़की ने पिता की आरती उतारी, प्रणाम किया, फिर उनके सामने अखबार रख दिया ।
पिता ने तुरत खबर पढ़ी, ”धर्मस्थल में एक महिला के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद उसकी हत्या।”
पिता बेटी के धर्मस्थल न जाने का कारण समझ चुके थे।

आत्मा की आवाज़
सामने गांधी की तस्वीर टँगी थी। नीचे बैठ कर वह रिश्वत ले रहा था। तभी अचानक उसकी आत्मा ने धिक्कारा: “गांधी की नाक के नीचे यह कृत्य! वे देखेंगे, तो क्या सोचेंगे”
आत्मा की आवाज़ सुनकर वह फौरन उठा और जेब से रुमाल निकाल कर उसने गांधी की तस्वीर को ढँक दिया।

श्री. गिरीश पंकज ( रायपुर ) छतीसगढ़
साहित्यकार/ गजलकार/ व्यंग्य विधा में पारंगत/ दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित/ अनेक सम्मानों से सम्मानित। कई देशों की यात्राएं की।

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