करोना काल
कर्तव्य
लॉक डाउन की घोषणा सुन कर तेजी से चले आ रहे विशु का फोन बजा और उसकी चाल कुछ धीमी हो गयी। सारा ध्यान फ़ोन के उस पार की आहट सुनने में लगा दिया। “भैया, अड्डे तक आ गयी हूँ। तुम बैठ गए?”
“मैं.. हाँ बस पहुँच रहा हूँ। तू अकेली क्यों निकली।”कहते कहते चाल पहले से भी तेज हो गयी।
“हॉस्टल से सब जा रहे थे.. रुकिए, अरे सुनिए तो.. घर से बात कर.. रुकिए।”
“चीनू, चीनू, क्या हुआ.. आह।” उधर से आती आवाज़ के बीच फोन कट गया। इधर एक जोर का लठ उसकी कमर पर पड़ा। होस्टल में रहते लाड़ली चीनू उर्फ आरती का पहली साल ही है। दूसरे शहर पढ़ने भेजने की सारी वकालत भी विशु और आरती ने ही की थी। आँख में आँसू दर्द से कम,चीनू की आवाज़ न आने के ज्यादा थे, दोबारा फोन मिलाता लेकिन उससे पहले पुलिस वाला फिर लाठी उठाए दिखाई दिया।
घबराए हाथों से मोबाइल गिर बिखर गया। जल्दी जल्दी मोबाइल समेटते में लाठी का एक और वार वह सह चुका था। इस बार मोबाइल उठाते हुए हाथ पुलिस वाले के पैरों की ओर बढ़ गए।
“भाग यहाँ से.. अब बाहर दिख मत जाना।”
वह पीछे वाली ही गली में भाग गया। तब तक फोन के पुर्जो को वापस जोड़, फोन ऑन किया कि फिर घण्टी बजी। कुछ भी सुने बिना उसका सीधा जवाब था, “आप चिन्ता मत करो पापा, मैं चीनू को लेकर ही घर आऊँगा।”
ठीक
खाली बस अड्डे से वापस होस्टल लौट आई चीनू को एक और साथ, श्वेता मिल गयी, लेकिन स्वभाव में दोनो विपरीत थे। जहाँ चीनू जरा सी विपरीत परिस्थितियों में डरी, सहमी रहने वाली लड़की, वहीं श्वेता परिस्थितियों से पंचिंग प्रैक्टिस/लोहा मोल लेने वाली लड़की। अभी चार छह दिन ही गुजरे थे कि एक दोपहर,
” फिर तेरा शुरू हो गया। कितनी बार समझाऊँ, हमें कोई खतरा नहीं है। बाजार में खाने का जरूरी सब सामान मिलता है। कुछ पैसे कैश भी हैं वैसे सब डिजिटल और हॉस्टल में ही रहना है। मैं ही बोले जा रही हूँ,अब बोलेगी भी कि हुआ क्या है?”
“बुआ बीमार हैं।”
“ओह अच्छा, चिंता मत कर ठीक हो जाएंगी।”
” पापा..”
” पापा को क्या हुआ?”
” वो बुआ को देखने अस्पताल चले गए, मम्मा, भैया सुबह से सब रोक रहे हैं लेकिन .. कितना खतरा है बाहर। पापा को कुछ हुआ तो!”
उसके आंख से फिर एक आँसू टपक गया, तभी फोन की घण्टी बजी और फोन रखने के बाद वो और भी ज्यादा रोने लगी।
इस बार श्वेता ने प्रह्नभरी निगाहों से उसकी आँखों मे झाँका तो चीनू बोली
“बुआ नहीं रही, पापा भी नही मिल सके। बिल्कुल अकेले ही ले गए बुआ को।” अब वो जोर जोर से रो रही थी।
” मतलब पापा तो ठीक हुए ना..” श्वेता के मन मे ये वाक्य जरूर था लेकिन वह कह न सकी।
बोझ
“अनजान होकर भी उनका और उनकी अम्मा का सामान बस से उतार दिया” बस यूँ गर्ल्स हॉस्टल की वार्डन मैडम को ठीक आदमी लगे थे। ढाई महीने ठोकर खाने के बाद के नौकरी मिली थी, जिससे भी अब हाथ धोकर जाना पड़ रहा है। हॉस्टल से सीधा घर पहुँचे। रास्ते बंद हो जाएं उससे पहले निकलने की तैयारी के बीच मे जीजा का फोन आ गया।
कह रहे थे कि “हम तो मर्द हैं, रूखी सुखी में भी समय काट लेंगें, तुम जा रहे हो तो बहन को भी ले जाओ।” मन तो बहुत किया था कि जवाब दे दें पर फिर जीजा का फूला मुँह पिचकाने को बहन ही हमे कोसते कोसते रिश्ता तोड़ने की धमकी तक दे डालती। रोती बहन को समेटना आसान है बजाय कोसती, बिखरती बहन को संभालने के। तो बस गए, जीजा को कुछ विदा थमाई और सबको ले जैसे तैसे बस अड्डे पहुँचे। देखा तो बस चल ही नहीं रही थी, पर लोग चल रहे थे, लम्बा रेला था। सबको किसी सरकार पर नहीं अपनी मजबूती पर भरोसा था। हजारन की भीड़ में हम भी उनके पीछे हो लिए, जो उनका होगा वो हमारा होगा, पर न उनका कुछ होना था न हमारा।
तीन दिन चले, कब खाए, कब सोये कुछ ठीक- ठीक नहीं पता। औरत और बच्चों को लेकर सड़क पर सोना पड़ा, सब सुरक्षित रहे। अच्छा है ना कि मालिक, ठेकेदार और दारू हमारे बीच नहीं थे।
रास्ते मे जिस से, जहाँ से जो मिलता गया खाने के लिए लेते गए, जीजा से अलग होते ही दीदी बदल जाती है, पोटली में जाने क्या क्या बाँध लायी थी। बच्चों को संभालना, सामान उठाना और सबको खिला के बचता.. तो खाती। मैं समझ तो सब रहा था बस सही समय नहीं था तो कह नहीं सका “अरी, जीजी तू बोझ थोड़ी ना है।”
चित्रा राणा राघव
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पहल
कॅरोना संकट के शुरू होते ही मैं ने अनुभव किया कि घर के काम हालांकि बढ़े नहीं है फिर भी एक अज्ञात सी चिंता मन को सताती रहती है।टीवी/रेडियो पर कॅरोना सम्बन्धी रोज़ के समाचार बुलेटिन मन को शांति देने के बजाय उद्वेलित ही करते हैं।कामवालियां भी कभी आती हैं और कभी नहीं।उनकी अपनी मजबूरियां हैं।मन को केंद्रित करने अथवा मन लगाने के लिए और घर के कामों के बोझ को हल्का करने के लिए मुझे एक युक्ति सूझी।घर के सभी छोटे-बड़े सदस्यों में काम बांट दिया।बालक बोतलें भर दिया करेंगे और उन्हें करीने से जमाएँगे भी।बिटिया सवेरे का खाना और नाश्ता बनाएगी।श्रीमतीजी के जिम्मे शाम की चाय और खाना बनाना।मैं ने घर-बाहर पोछा लगाने का ज़िम्मा लिया।बर्त्तन माँ-बेटी अपनी सुविधानुसार साफ करती हैं।उन्हें अपनी-अपनी जगह पर जमाने की ज़िम्मेदारी भी मैं ने ली।
‘आत्मनिर्भर’ होने की इससे बेहतर और क्या पहल हो सकती है?
शिबन कृष्ण रैणा
अलवर
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करोना कालः बेबसीः चार शब्द चित्र
भूख, बेरोजगारी और उसपर से बीमार मां-बाप ….कलम की नौकरी की तलाश मैं पिछले चार साल से भटकते बी.ए. पास रघुवीर ने हारकर रिक्शा किराए पर ले लिया है। पर हाय री किस्मत! इस करोना काल में तो कोई अब घर से ही नहीं निकलता…फिर भी चने चबैने लायक पैसे तो मिल ही जाते हैं , करोना और नो करोना, अब वह घर में बैठकर सबको यूँ भूख से बिलखते और धीरे-धीरे मरते भी तो नहीं देख सकता…
यह भी कोई जीने में जीना है!
जानवरों की तरह बस दिनभर खाते-पीते रहो और एक ही जगह खूंटे से बंधे बैठे रहो।
मंहगी रेशमी साड़ी से आंसू पोंछती सेठ जी की लाडली बहू के आंसू रोके न रुकते…
लोग सड़कों पर उतर आए हैं , ना वे खुली दावतें, न रेव पार्टी, ना ही समुद्र तट पर वे अटखेलियाँ…आखिर हम कबतक घरों में बन्द रहें, विकसित और धनाढ्य देशों के नागरिक हैं हम, जू के जानवर नहीं!
पहले एक भी ई मेल नहीं आती थी अब फिरसे बीसियों आने लगी हैं। बड़े अच्छे-अच्छे औफर हैं। मेरी तो अटैची लगी रखी है। दूसरी वैक्सीन लगते ही मैं तो चला कहीं घूमने।
नहीं यार,पहले दो चार महीने देख तो ले, हवा का क्या रुख़ है और ऊंट किस करवट बैठता है फिर संग-संग चलेंगे घूमने !
घुट गया हूँ घर में बैठे-बैठे-रुँआसे बाप ने शिकायत की तो अस्पताल में मौत का ताण्डव देखते बेटे ने कहा-शुक्रगुजार होओ कि जिन्दा हो , वरना कितनों को निगल गया यह करोना …वह भी असहाय और अकेले, छोटी-सी कैबिन में वैन्टिलेटर पर पड़े-पड़े ही!
शैल अग्रवाल
email: shailagrawal@hotmail.com
अंत में एक विज्ञान कथा
लेडी क्लोरीन की आत्मकथा
नमस्ते !
मेरा शुभ नाम क्लोरीन है। मुझे प्रयोगशाला में Cl2 के नाम से बुलाते हैं । मेरे पिताजी का नाम HCl है तथा मेरी माता जी का नाम MnO2 है।
मेरा जन्म 1774 ईस्वी में हुआ था। मेरे जन्म के बाद मिस्टर शीले ने मेरी देखभाल की। जब मेरी उम्र 14 वर्ष की थी तब मेरा विवाह dirty stacked lime नामक उम्रदार व्यक्ति के साथ कर दिया गया। उस समय बाल विवाह की प्रथा थी न इसलिए…..। 36 वर्ष के बाद सन 1810 ईस्वी में मिस्टर डेवी ने मेरे गुणों को देखकर मुझे तत्व के रूप में स्वीकार किया। हमारा दांपत्य जीवन प्रेम पूर्वक बीत रहा था। विवाह के 3 वर्ष पश्चात् मैंने पुत्र को जन्म दिया। प्यार से उसका नाम ब्लीचिंग पाउडर रखा गया। यह बड़ा ही होनहार और परिश्रमी है। मरीजों की सेवा करना और कीटाणुओं को नष्ट करना उसका काम है। आज भी डॉक्टर लोग उसका बड़ा सम्मान करते हैं।
मेरा स्वभाव- मेरा वजन हवा से ढाई गुना भारी है और मैं स्वभाव से अत्यधिक जहरीली हूं। जब मैं अपने छोटे भाई से मिलती हूं तो लोग हमें ‘लॉग वाटर क्लोरीन’ कह कर पुकारते हैं। क्रोध आने पर मैं गला घोट देती हूं।
जीवन की सर्वश्रेष्ठ घटना- यह 1847 ई. की एक मजेदार घटना है। मेरी इस कहानी के नायक हैं मिस्टर सिम्पसन…। एक बार मैं हरी- पीली साड़ी पहन कर अपनी प्यारी सहेली मेथेन (CH4) के घर जा रही थी । रास्ते में मनचले मिस्टर सिंपसन एवं उनके मित्र मुझसे छेड़खानी करने लगे। तभी मेरी सहेली आ गई । हम दोनों ने गुस्से में आकर क्लोरोफॉर्म (CHCl3) का निर्माण किया और मिस्टर सिम्पसन एवं उनके मित्रों को बेहोश कर दिया। वह अपनी गलती की सजा कई घण्टे अचेत अवस्था में रहकर भुगते। अब मुझे और मेरी सहेली को लोग गलत नजर से नहीं देखते हैं। हमारे क्रोध की सीमा व्यक्ति की अंतिम सांस तक है।
वेशभूषा- मुझे हरी- पीली साड़ी बहुत पसंद है। ग्रीक में क्लोरयस का अर्थ हरा- पीला है। इसलिए लोग मुझे क्लोरीन कहते हैं । मेरी सुगंध ऐसी है जिसे सूंघकर युवक सारी दुनिया को कुछ पल के लिए भूल जाते हैं।
उपयोगिता- मेरे पिता HCl बहुत ही भयानक हैं। जब वह मिस्टर कैल्शियम कार्बोनेट (CaCO3) से मिल जाते हैं तब वह डर के मारे सांस छोड़ने लगता है।
मेरी उपयोग निम्नलिखित हैं-
1. मैं आत्मा का संबंध परमात्मा से जोड़ती हूं।
2. अस्पताल में मरीजों का घाव साफ करती हूं और बेटा उनकी हिफाजत करता है।
3. जब मेरा प्रयोग युद्ध में होता है तो समानता का भाव प्रकट करती हूं और हार – जीत का निर्णय देती हूं।
आशा करती हूं कि मेरे स्वभाव के बारे में जानकर आपको अच्छा लगा होगा।
मेरी कमियों से सावधान रहें….।
– प्रीति चौरसिया ‘राधा’
डीएलएड.,
देवरिया, उत्तर प्रदेश।