आइना
शहर की पाॅश कॉलोनी के आलीशान गार्डन में, दो छोटे बच्चे खेलते हुए बोले,
“बच्चों को फ्रूट खाना सबसे अच्छा होता है।” पहले बच्चे ने कहा।
“नहीं, ग्रीन वेजिटेबल खाना अच्छा होता है।” दूसरे ने कहा।
” मेरी टीचर ने मुझे बताया है, फ्रूट खाने से ताकत आती है।” पहले ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा।
“मेरी मॉम कहती हैं, अगर मैं रोज ग्रीन वेजिटेबल खाऊॅंगा, तो कभी बीमार नहीं पड़ूॅंगा।” दूसरे ने भी अपनी बात रखी। “फ्रूट खाना गुड होता है…..”
“नहीं ग्रीन वेजिटेबल……।”
दोनों बच्चे अपनी बात पर अड़े थे, तथा कोई भी हार मानने तैयार न था।
“ये लड़के सुनो!” वही गार्डन में अपने पिता की सफाई में मदद कर रहे माली के छोटे बच्चे को बुलाते हुए कहा।
“जी।” माली का बेटा सकुचाते हुए पास आकर बोला।
“तुम बताओ फ्रूट खाना अच्छा है कि ग्रीन वेजिटेबल?” पहले बच्चे ने कहा।
कुछ देर तक सोचने के बाद, अपने दिमाग पर जोर देते हुए मालिक के बेटे ने कहा “रोटी! ”
क्वालिटी टाइम
अरसे बाद दोनों घर में अकेले थे। मौसम भी सुहाना हो रहा था। घने बादल, ठंडी हवा के साथ रिमझिम बारिश की फुहारें कुछ अलग ही समाॅं बाॅंध रही थी। पति हमेशा की तरह कमरे में आफिस की फाइलों में व्यस्त थे।
“यह लीजिए, चाय के साथ आपके पसंद के प्याज के पकोड़े।”- पत्नी ने पकौड़ा उनके मुँह में डाल कर, मुस्कुराते हुए कहा।
कितने समय बाद आज वह पत्नी को भर नजर देख रहे थे। अचानक उनके मशीनी शरीर में इंसानी स्पंदन महसूस होने लगा। आज पत्नी कुछ ज्यादा ही सुंदर लग रही थी या वे ही थोड़ा रूमानी हो रहे थे, कहना मुश्किल था।
“तुम भी तो मेरे पास आकर बैठो।”- पत्नी का हाथ प्यार से पकड़ते हुए कहा।
“अरे!…आप खाइए, मुझे रसोई में काम है।” – पत्नी ने बनावटी आवाज में कहा।
“बैठो न! आज हम कितने दिनों बाद, घर में अकेले हैं, वर्ना सारा दिन घर और बच्चों में व्यस्त होती हो।”
“आपके पास भी कहाँ टाइम रहता है। दिन भर आफिस, और घर पर भी फाइलों में ही डूबे रहते हैं।”
“क्या करूँ? इस बार मुझे प्रमोशन चाहिए ही है। तीन साल हो गए एड़ी चोटी का जोर लगाते, अब तो मेरे जूनियर भी मुझ से आगे निकल गए हैं।”
“चिंता न कीजिए, इस बार आपको जरूर तरक्की मिलेगी। मैंने भगवान से प्रार्थना की है।”
“अच्छा यह सब छोड़ो, आओ कुछ अपनी बातें करते हैं।”- पति ने शरारत से आंखें चमकाते हुए कहा।
ठंडी हवा के झोंके के साथ, सौधी खुशबू ने आकर कमरे को भर दिया।
“हटिए न आप भी।” -पत्नी के गाल शर्म से गुलाबी हो गए।
“सुनो न!..मुझे तुमसे कुछ कहना है।”- पति ने प्यार से कहा।
“अरे हाँ! याद आया मुझे भी आपसे कुछ बताना है।”- अचानक से पत्नी के चेहरे का गुलाबी रंग उड़ गया।
“कहो? ”
“बिट्टू के स्कूल से फीस भरने का नोटिस आया है। पूरे पाॅंच हजार भरने हैं।”- पत्नी ने चिंतित होते हुए कहा।
कमरे में फैली खुशबू कुछ कम सी होने लगी। पति के चेहरे पर भी चिंता की लहर दौड गई।
“सब इंतजाम हो जाएगा।”- अपने आप को संभाल कर पुनः पत्नी को बैठाते हुए बोला।
“और हाँ…गाँव से भी माॅं जी का फोन आया है, इस बार फसल खराब हो गई है। तो साल भर का अनाज नहीं भेज पाएँगी, उसका इंतजार हमें ही करना पड़ेगा।”
“अच्छा!” पति का चेहरा अब तनाव ग्रस्त हो गया।
“कल मकान मालिक भी धमका रहा था। पिछले महीने, चाचा की बेटी की शादी ने घर का सारा बजट ही बिगाड़ दिया है।”-पत्नी अपनी धुन में कहे जा रही थी।
“हाँ..हाँ देखता हूंँ। “-अचानक से पति ने पत्नी का हाथ छोडकर, फाइल उठा ली और पन्ने पलटने लगा।
“अरे! आप भी तो कुछ कह रहे थे न? ” – पत्नी ने कुछ सोचते हुए कहा।
“ऊं.. हाॅं कल से ऑफिस के डब्बे में दो रोटियाँ और ज्यादा रख देना। सोचता हूंँ ओवरटाइम कर लूँ।”
अब कमरे से खुशबू पूरी तरह उड़ चुकी थी। और धीरे -धीरे उसका इंसानी शरीर मशीन में तब्दील होने लगा।
नि:शब्द
अपनी साँसों की ऊपर -नीचे होती रिदम को संयत करते हुए, अनिल के कान केवल अनाउंसमेंट पर टिके थे। उसकी तरह ही अनेक सहकर्मी भी इसी ऊहापोह की स्थिति में खड़े थे।आज मंदी की चपेट में आई कंपनी से कर्मचारियों की छटनी होने वाली थी। इसलिए सभी अपने- अपने भविष्य को लेकर चिंतित खड़े थे।
“मिस्टर अनिल शर्मा, यू आर नाउ इन, एण्ड प्रमोटेड टू सीनियर पोस्ट।”
अनाउंसमेंट सुनकर उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था, क्योंकि जहाँ उसके कई काबिल साथी नौकरी से हाथ धो बैठे थे, ऐसे में प्रमोशन होना, उसके लिए सपने से कम नहीं था। वजह थी कंपनी के दिए कार्य को, पूरी ईमानदारी से नियत अवधि में पूरा करना तथा कभी अनावश्यक अवकाश न लेना था।
उसकी खुशी का पारावार नहीं था। इसलिए ऑफिस से निकल कर, रास्ते से एक सुंदर गुलाब के फूलों का गुलदस्ता खरीद कर, टैक्सी ड्राइवर को कार तेज चलाने को कह, जल्दी बैठ गया। उसका वश चलता तो, आज उड़ कर पहुॅंच जाता।
कार की पहियों के साथ, उसका मन भी कहीं तेजी से अतीत में घूमने लगा।
पत्नी उससे ज्यादा पढ़ी- लिखी ही नहीं, उससे समझदार भी थी। यह बात वह शादी के कुछ दिन बाद ही समझ गया था। क्योंकि उसने आते ही, घर के साथ-साथ बाहर की भी आधे से ज्यादा जिम्मेदारियाँ, अपने ऊपर सहर्ष ले ली थी।
अपाहिज पिता को हर हफ्ते हॉस्पिटल ले जाने के लिए, छुट्टी लेने कि उसकी समस्या को पत्नी ने बिना किसी गिले-शिकवे के हल कर दिया, मिली राहत से, उसके दिल ने थैंक्यू कहना चाहा पर “ये तो उसका फर्ज है।”- सोच पुरुष अहं ने कहीं न कहीं रोक दिया।
बैंक, बिजली-पानी बिल आदि की लंबी लाइनों में खड़े होने की उबाऊ जद्दोजहद से भी उसे आजाद कर दिया, तब उसके दिल ने खुश हो, थैंक्यू बोलना चाहा तो “ठीक है, इतना बडा काम भी नहीं कर रही।”- पुरुष अहं फिर आडे आ गया।
बच्चों के लगातार उत्कृष्ट प्रदर्शन से, पिता होने के नाते अपनी तारीफ सुन, वह गर्व से भर उठता और उसका दिल पत्नी को धन्यवाद कहने आतुर हो उठता। “तो क्या हुआ? ये तो माँ का ही फर्ज होता है।”- पुरुष अहं ने एक बार फिर फन उठाकर उसे रोक लिया।
“सर! ..आपका घर आ गया।”- ड्राइवर की बात सुनकर वह अतीत से वर्तमान में लौटा। गेट के बाहर, पत्नी को बेचैनी से चहल कदमी करते देख, जल्दी से पास आकर गुलदस्ता देते हुए, मुस्कुराकर बस एक ही शब्द कहा-
” थैंक्यू।”
आज पुरुष अहं पहली बार दूर मौन खडा था।
(मौलिक)
धड़क
कुछ देर यूँ ही असमंजस से खड़ी रहकर, आखिर उसने घॅंटी बजा ही दी, और दरवाजा खुलते ही बिना कुछ देखे, तीर की तरह सीधी किचिन में आकर तेजी से हाथ चलाने लगी। वह तो जल्दी से जल्दी अपना काम खत्म कर, यहाँ से निकल जाना चाहती थी। इसलिए दाल-चावल का कुकर लगाकर, रोटी की तैयारी के लिए, आटा निकालने लगी। एक तरफ तो हाथ आटा गूँथ रहे थे, तो वहीं दूसरी ओर उसके मन में कल रात की बात घूम रही थी।
रात खाना से निपट सोने जा ही रही थी कि, उसका मोबाइल बज उठा, स्क्रीन पर नंदा दीदी का नंबर देख उसने झट फोन उठा लिया।
“गुड्डी ..कल काम पर घर आ जाना।”
पर! दीदी..आप तो,एक हफ्ते के टूर पर बाहर गई हैं न?”
हाॅं…अरे! मैं तुझे बताना भूल गई, मेरा लंदन वाले भाई, जरूरी काम से इंडिया आ रहे हैं, तो प्लीज तुम उनके खाने- पीने की व्यवस्था कर देना।”
“पर. ..दीदी!!. ..”
“देख मना मत करना, दो दिन की ही बात है। और मैंने तेरे भरोसे पर, उन्हें बड़े हक से घर रहने को कह दिया है, अब मना करूँगी तो अच्छा नहीं लगेगा।”
“ठीक है दीदी।”- बुझे मन से उसने हामी भर दी। वह चाह कर भी मना न कर पाई। एक नंदा दीदी ही थी जिसने, उसके आड़े वक्त पर हमेशा उसकी मदद की थी।
तभी कुकर की सीटी की आवाज से, उसकी तन्द्रा भंग हुई। गैस बंद कर, वह भिन्डी धोकर काटने लगी। तभी उसने महसूस किया कि बाहर के कमरे से साँसो के तेज- तेज चलने की आवाजें आ रही थी। सुनकर उसके शरीर में सिहरन सी दौड गई। एक अंजान शख्स के साथ, घर में बिल्कुल अकेली है, सोचकर घबरा उठी। थोडी देर बाद, वो आवाज, उसे अपने करीब आती महसूस होने लगी। सब्जी काटने की सबसे बडी छुरी हाथ में कस कर पकड, मुट्ठियों को भीच, किसी अनहोनी के लिए, अपने आप को तैयार करने लगी, कि तभी,
“इफ यू डोंट माइंड, .. पानी पीने मिल सकता है? “- उस अजनबी ने, एक्सरसाइज के बाद आए पसीने को टॉवेल से पोछते हुए कहा
“हाँ..”- डरी हुई आवाज में, बोलते हुए वह थरथर काँपने लगी।
” वाट हैपिन्ड, आर यू ओके? …सिस्टर।”
“क्या?.. सिस. .सिस्टर? मतलब बहिन।”- सुनकर, उसके कानों में मिश्री सी घुल गई, और मन में भरा सारा डर पल भर में जाता रहा।
“”हाँ … भैया, मैं बिल्कुल ठीक हूँ।”- संयत होकर, मुस्कुराते हुए उसने कहा।
अनुत्तरित
अस्तित्व पर मंडराते खतरे को देखते हुए, मंडल की आपातकालीन बैठक बुलाई गई। जिसमें आमंत्रित सभी ग्रह, उपग्रह, तारे, उल्का पिंड आदि, सभी नियत समय पर पहुंच, बैठ चुके थे। सूर्य ने बैठक की अध्यक्षता करते हुए कहा प्रारंभ किया – “सदियों से चली आ रही, हमारी अक्षय ऊर्जा राशि अचानक खत्म होने के कगार पर आ पहुंची है| अंतरिक्ष का तापमान भी परिवर्तित हो रहा है, इससे हम सब का अस्तित्व खतरे में आ पहुंचा है| इन्हीं सब बातों के कारण और निवारण के लिए, आप सब अपना -अपना मत प्रस्तुत करें|”
बैठक में आए सभी सदस्य, एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करने लगे। बहसें होने लगी, वाद विवाद हुए, और फिर गहराई से, कारणों की पड़ताल की गई।अन्ततः सभी के आरोप की सुई, पृथ्वी की तरफ घूम गई।वे सब एक ही स्वर में, पृथ्वी को दोषी ठहरा रहे थे।
“पृथ्वी ने जीवन उत्पत्ति के मिले गुण का दुरुपयोग किया है, उसकी सहृदयता,ममत्व भाव का, उसकी संतान मानव ने गलत उपयोग किया है|”- वृहस्पति ने कहा।
“मानवों के किए कृत्यों से, आज यह संकट की स्थिति उत्पन्न हुई है|”- मंगल ने भी सुर मिलाया।
“क्या तुम अपनी सफाई में कुछ कहना चाहती हो?”- सभी की बातें सुनने के बाद, सूर्य ने पृथ्वी की ओर मुखातिब होते हुए कहा।
सुनकर भी पृथ्वी मौन रही।
“क्या तुम्हारे पास इन आरोपों का कोई जवाब है?”- सूर्य ने फिर से कहा।
पर पृथ्वी बिना कुछ कहे सिर झुकाए खड़ी रही। उसको इस तरह खड़े देखकर, सदस्यों में कानाफूसी होने लगी।
“बताओ, तुम क्यों इस तरह चुपचाप खड़ी हो?”- सूर्य ने गर्म तेवर दिखाते हुए कहा।
तब पृथ्वी ने धीरे से कहा – “क्योंकि मैं माँ हूँ”
अर्चना राय
भेड़ा घाट, जबलपुर
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बदसूरत चाँद
आसिफ़ कॉलेज जाने के लिए अपनी साइकिल दरवाजे़ से बाहर निकाल ही रहा था की उसकी नज़र सामने घर के दरवाजे पर टंगे टाट के परदे के पीछे से झांकते चेहरे पर अनायास पड़ गई।
पुराने झीने टाट के पर्दे के पीछे चांँद -सा खूबसूरत चेहरा देखते ही उसके समूचे शरीर में सिहरन सी दौड़ गई ।हद से ज़्यादा खूबसूरती भी आदमी को अंदर तक हिला कर रख देती है, इसी मन:स्थिति से आसिफ एकाएक घिर गया ।वह चांँद -सा चेहरा धीरे से मुस्कुराया, फिर अपनी बड़ी बड़ी शफ़्फ़ाफ़ और बेदाग आंँखों से शोख हंसी बिखेरता हुआ टाट के परदे के पीछे ही छुप गया। आसिफ को लगा मानो खुले साफ़ आसमान में चौदहवीं के चमकते चांँद को अकस्मात ही काले बादलों ने छुपा लिया। वह बेमन से कालेज चला गया ।कॉलेज में सारा दिन अन्यमनस्क रहने के बाद वह जल्द ही घर लौट आया।
उस मुसलमानी मोहल्ले में ज्यादातर लोग निम्न वर्ग के रहते थे। उसके घर के सामने यूसुफ पठान का घर है ।लेकिन उस घर में तो उसकी बूढ़ी मां और एक छोटे भाई के अलावा कोई नहीं रहता , फिर उस घर में चांँद कहां से चमक उठा।
आसिफ का परिवार धनाढ्य एवं शिक्षित होने के कारण सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। युसूफ गल्ले का काम करता था। उसका सारा दिन गल्ला तोलते व
ढ़ोते ही निकल जाता ।इसलिए आसिफ की युसूफ से कभी-कभार ही दुआ सलाम हो पाती। लेकिन अब आसिफ की युसूफ में दिलचस्पी पैदा होने लगी ।उस शाम पहली बार उसने यूसुफ का बेसब्री से इंतज़ार किया ।घर के नजदीक आते ही आसिफ़ उससे तपाक से मिला ।उसकी मां की खैरियत पूछी ,फिर आखिर में पूछ ही बैठा,” युसूफ! आजकल तुम्हारे घर मेहमान आए हुए हैं?”
– “नहीं ‘मेहमान बगैरा तो कोई नहीं आया ।हां ,जुम्मन मामू की लड़की ज़ेबा जरूर आजकल घूमने-फिरने आई हुई है ।”यूसुफ ने लापरवाही से जवाब दिया।
आसिफ़ अब उस चाँद का नाम जान चुका था।ज़ेबा– बहुत प्यारा नाम है ।जैसा नाम वैसा ही रूप रंग। अब वह दिन का चैन और रात की नींद खो चुका था ।रात में ज़रा नींद लगती तो वह परी चेहरा सामने आ जाता ,वहउसको रात -रात भर ख्वाब में निहारता रहता, उसको मोहब्बत भरे ख़त लिखता ।अब आसिफ कि युसूफ के घर परिवार में दिलचस्पी और भी बढ़ती चली गई ।कभी-कभार वह यूसुफ की गै़र मौजूदगी में जानबूझकर उसकी मां से मिल आता।इस बहाने वह परी चेहरा मुस्कुरा कर उसका स्वागत करता नजर आता।
एक दिन उसने सोचा इस तरह इशारों से दिल की बात कहने, लुका -छिपी करने और ख़्वाबों में मोहब्बत के ख़त लिखने से कुछ नहीं होने वाला। क्यों ना दिन के उजाले में जागते हुए ख़त लिखा जाए और उस चांँद तक पहुंचाया जाए ताकि उसके दिल का भी हाल मालूम हो सके।
एक दिन भरी दुपहरी में आसिफ दरवाजे़ पर खड़ा था की अक्समात् ज़ेबा अपने दरवाजे के टाट परदे को थोड़ा हटाकर आसिफ को देख मुस्कुराई। आसिफ़ का दिल अंजानी आशंका से ना जाने क्यों जो़र-जो़र से धड़कने लगा। फिर उसने काफी हिम्मत बटोर कर आगे बढ़ कर जेब में से एक पर्चा निकालकर उसे इशारे से समझाया कि यह प्रेम पत्र है, इसको पढ़ कर जवाब देना। और वह पत्र उसकी ओर बढ़ा कर देना चाहा तभी वह घबराकर पीछे हटी और अंगूठा दिखाकर बड़ी मासूमियत से बोली ,”–मैं तो अनपढ़ हूं ,ख़त कैसे पढ़ूंगी और उसका जवाब कैसे दूंगी?” और फिर वह उस पुराने झीने टाट के परदे के पीछे ओझल हो गई। आसिफ का बढ़ा हुआ हाथ एकाएक वज़नी सा हो गया। वह मुश्किल तमाम हाथ को पीछे ला पाया, उसे लगा जैसे उसका चाँद बदसूरत हो गया है।
सह-अस्तित्व
किसी के बहकाने पर एक दिन पेड़ ने पत्तों से कहा,”
तुम बहुत घमंडी हो,और ये भूल रहे हो कि तुम्हारा अस्तित्व मेरी कृपा पर निर्भर है।”
पत्ते कुछ देर खामोश रहे, फिर बोले,” नहीं, ऐसा नहीं है।हमारे बिना आपका अस्तित्व भी अधूरा है, यदि आप असहमत हैं तो हम आपसे अलग हो रहे हैं।”इतना कहकर पत्ते नाराज़ होकर एक एक करके पेड़ से गिर पड़े।
काफी समय गुज़र गया।उस पेड़ पर पत्ते नहीं हुए। तब उस पेड़ को सूखा जानकर जड़ से काट दिया गया।
शोर
शाम होते ही गांव के मन्दिर की घंटी बजने लगी,तभी उसके समीप स्थित मस्जिद में मग़रिब की अज़ान होने लगी।अज़ान की आवाज़ मन्दिर की घंटी की आवाज़ से दबने लगी।अगले दिन सुबह ही मौलवी साहब ने विश्वस्तों से सम्पर्क किया और मस्जिद में लाउडस्पीकर लगा दिया गया।
दूसरी शाम मस्जिद की अज़ान की आवाज़ से मन्दिर की घंटियों की आवाज़ दब गई।अब पुजारी जी ने अपने विश्वस्तों से सम्पर्क किया और शीघ्र ही मन्दिर में भी लाउडस्पीकर लग गया।
अगली शाम वातावरण में मन्दिर की घंटी की आवाज़ और मस्जिद की अज़ान की आवाज़ आपस में गड्मड हो गई और अब न तो मन्दिर की घंटी की
आवाज़ सुनाई दे रही थी और न ही मस्जिद की अज़ान की आवाज़।
वातावरण में सिर्फ़ एक शोर सा व्याप्त था।
शराफत अली खान.
343,फाइक इन्क्लेव, फेस-2,बरेली-243006(उ.प्र.)
मो. 7906859034
ईमेल-sharafat1988@gmail.com
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कविता
——
” सुनो ,मैं बताती हूँ ,मैं घर का आँगन हूँ ,
जहाँ मैं झाड़ बुहार करती हूँ ।
मैं कमरा हूँ ,जहाँ मैं सबके आराम का ख़्याल रखती हूँ ।
मैं रसोई हूँ ,जहाँ मैं सबका पेट भरती हूँ।
मैं छत भी हूँ ,जिस पर घर का बेटा पतँगे उड़ाता है।
मैं ड्राइंग रूम की सज्जा भी हूँ,
जहाँ होता है मेरे अच्छे काम का इनाम और अधिक काम।”
“मुबारक हो सँजू कितना सुन्दर घर बना है तेरा ।”
कविता की अन्तिम पँक्ति सोचते हुए, सँजू अपनी सहेली मन्जू के काॅम्पलीमेन्ट का सहज ही कोई जवाब न दे पायी । बस मुस्कुरा भर दी ।
“क्या लिख रही हो, इतनी तन्मयता से ? ” मन्जू ने पूछा।
” कुछ नहीं एक कविता लिख रही थी, अन्तिम पँक्ति सूझ ही नहीं रही।”
” चल छोड़ , फिर कभी लिख लेना कम से कम अपना नया घर तो दिखा । ” मन्जू ने आँखें चौड़ी करते हुये कहा
” ठीक है चल , ” सँजू काॅपी पेन एक तरफ रख कर उठ गई ।
बेडरूम से होते हुये ड्राइंग रुम तक देखने के बाद दोनों मेन गेट के बाहर का जायज़ा लेने लगी ।
” वाउ ! तेरा घर तो घर , इसकी नेम प्लेट तक कितनी स्टाइलिश है, रेडियम की है, न। इसमें तेरे छोटे भाई का नाम है न ? ”
मन्जू नेम प्लेट पर हाथ फेरते हुये कुछ उत्साह मिश्रित उत्सुकता से एक ही साँस में पूरा वाक्य बोल गयी।
अचानक सँजू, मन्जू को नेम प्लेट के आकर्षण में वहीं बंधा छोड़ अँदर आई , और आकर उसने अपनी अंतिम पँक्ति पूरी की ….
” मैं मुख्य द्वार की साँकल ,
सबकी सुविधा और सुरक्षा के लिये खुलती और बंद होती हूँ।
मैं समूचा घर हूँ,
बस घर की नेम प्लेट नहीं ।”
चिमटी
——
आत्मा पर बडा बोझ था , जो रातों में सपना बन कर डराता था और दिन में सोच ।
अब क्या करूंँ , मैं तो था ही कायर, लेकिन वह तो समझदार थी, उसे अपनी जान देने की क्या जरूरत थी।वह मरकर मुक्त हो सकी भला क्या…, और मै जीकर भी मुक्त हो पाया भला क्या उसकी यादों से? क्या करूं? कहां जाऊं ?कैसे इस अपराध बोध से मुक्ति होगी ?
इन्ही बातों की सोच में डूबता उतराता विपुल बान की खरखटी खटिया पर बैठा कभी एक छेद में हाथ डालता कभी अदबाइन के सहारे सहारे अंगुलियांँ किसी और छेद में जा ठहरती । जैसे सोच के कई खाने बने हो और उनमें से किस खाने में आत्मग्लानि की भरपाई का मलहम मिलेगा अंगुलियाँ टोहकर ढूंढ़ना चाह रही हों।
“आऊच… ” कह कर उसने हाथ खींच लिया बान की फांँस अंगुली के मांस में धंस चुकी थी ।वह नाखूनो की चिमटी बना कर फाँस निकालने का भरसक प्रयत्न कर रहा था लेकिन फांँस थी कि अन्दर ही अन्दर टूटती जा रही थी ।फांँस मांस मे धंस चुकी थी बहुत दर्द और चीसन बढ गयी थी। अब तो इसके लिये बाजार से चिमटी ही लानी पडे़गी तब कही जाकर…
कहकर विपुल तर्पण के लिये जल , काले तिल , जौ , फूल की थाली , कुश की पैंती और सफेद फूल अंजुली में भर कर बैठा।
” आप पिछले कई सालों से किसका तर्पण कर रहे है भगवान की कृपा से मांँ बाऊ जी सभी कुशल मंगल से है, तो…?”
पत्नी जिज्ञासा और प्रश्न की मूर्ति सी बनी खड़ी थी।
विपुल अपनी फांँस लगी अंगुली की चीसन दबाते हुये बोला ; ” तर्पण कहांँ है यह, यह तो मन के फाँस की चिमटी है,और अंजुली भरे पानी में दो आँसु टपक गये।
सदाबहार
——-
जाने किस तानेबाने मे उलझी, मैं अपनी खिड़की पर खड़ी थी।
इतने में मैंने देखा – एक सदाबहार का पौधा जो कि खिड़की की चौखट और दीवार की संद से निकल कर लहलहा रहा था ।
उसके हरे चिकने पत्ते प्याजी रंग के फूल बरबस मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे, लेकिन दीवार में बरसात का पानी मरेगा , यह सोच कर मैंने उखाड़ने के लिये हाथ बढ़ाया ही था, कि नीचे गली से आवाज आई-
“पौधे ले लो… पौधे…”
मैंने देखा-तो ठेले पर देसी गुलाब, इंगलिश गुलाब ,बोगन वेलिया,
एरोकेरिया, एरीका पाम आदि की विभिन्न किस्में रखी हैं।
“ये इंगलिश गुलाब कैसे दिया?”
“सौ रुपये का।”
“हूँऽऽ !और ये देसी वाला ?” मैंने पूछा?”
“सत्तर का ।”
“बड़ा मँहगा बता रहे हो। इसमें करना ही क्या होता है, केवल कलम ही तो लगानी होती है।”
मैंने धौंस जमाते हुए कहा-
” हाँ लेकिन इतने दिन इसकी परवरिश, खाद-पानी देना, देख-रेख करना ,सुबह-शाम सींचना इसका कुछ नही।” ठेले वाले ने कुछ ढ़िठाई से कहा
मैंने हँसते हुए कहा ; “अच्छा तो तू बेटे का बाप हैऽऽ ।”
“और मैं अनचाही बेटी…
जिसे बोने से सींचने तक तुमने कुछ नहीं किया। हाँ आज उखाड़ कर फेंक जरूर रही हो।” फुसफुसाहट सदाबहार की थी ।
मेरा चेहरा पीला पड़ गया।
हाई ब्रीड
——-
चीनू की आँखें फटी रह गईं थीं, जब उसने अपने छठी क्लास के बेटे को पोर्न वीडियो देखते हुए पकड़ा था। एक झापड़ रसीद करते हुए उसने कहा था; “पिद्दी भर का तो तू है नहीं अभी से…! कौन सिखाता है तुझे यह…?”
“मुझे क्या? आजकल सबको पता है…, मोबाइल और नेट पर सब कुछ मिल जाता है…, मेरे दोस्तों को भी सब पता है…।”
बेटे हिंमाशु ने अकड़ भरे स्वर में कहा था ;
“मूव-आॅन मम्मी …” और हाथ छुड़ाकर तेजी से सीढ़ियाँ उतरता चला गया था।
जल्दी और जबरदस्ती खींच कर बड़ा कर देने वाले समय में जीते हुए, चीनू को लगा घड़घड़ करती उसकी यादों की बाल्टी घिर्री सहित अतीत के कुएँ में जा गिरी हो…
“अड़ाने पर बड़ा बक्सा रखा है उसमें से बर्तन निकाल दो।”
मां ने पापा से कहा।
“अब मैं तो अड़ाने पर चढ़ने से रहा चीनू को चढ़ा दो बर्तन निकाल देगी।”
कहकर पापा शेव करने लगे।
दस साल की चीनू बेड से शेल्फ, शेल्फ से अड़ाने पर यूँ चढ़ गई जैसे गौरैय्या एक डाल से दूसरी डाल पर फुदक जाये। कभी -कभार खुलने वाले बक्से बच्चों का कौतूहल तो होते ही हैं। तिस पर अड़ाने पर धरा बड़ा बक्सा, मने घोर तिलिस्म।
“ला यह परात मुझे दे-दे और यह पीतल का बड़ा लोटा भी निकाल दे।”
“माँ यह गुदड़ी सी तकिया बक्से में क्यों रखी है, इसे फेंक दें ?”
“नहीं न। तुमसे जितना कहा उतना करो और कुछ मत छुओ। बक्सा बंद कर नीचे उतर आओ।”
“माँ, देखने तो दो इसमें एक गोटा-किरन वाला लँहगा भी दिख रहा है, निकाल लूँ क्या?”
चीनू ने आशा भरी नजरों से माँ को देखा।
“बक्सा बंद करो। चुपचाप नीचे उतरो ।”
माँ ने आदेशात्मक लहज़े में कहा।
“अच्छा ठीक है, आप चलो मैं बक्सा बंद कर आती हूँ ।”
नीचे खड़ी माँ परात और लोटा लेकर कमरे से निकल गई।
उसके बालमन ने जैसे कहा; गोटा किरन वाला लँहगा एक नज़र देखने में क्या हर्ज़ है, माँ जब तक वापस आयेगी तब तक लँहगा देखकर बक्सा बंद कर देगें।
लँहगा खींचने के लिए जैसे ही गूदड़ तकिया उठाई उसमें से झरझराते हुए ताश की गड्डी अड़ाने पर बिखर गई । काहे का गोटा काहे की किरन। एक-एक पत्ते पर एक-एक मुद्रा छपी थी। डर और विस्मय से उसने उन न्यूड तस्वीरों की गड्डी जल्दी से तकिये में रख ऐसे भागी जैसे भूत देख लिया हो।
सफेद पड़े चेहरे को देख माँ ने पूछा था “क्या हुआ ?”
कोई जवाब नहीं फूटा था तब हलक़ से, आज भी स्मृति की पर्तों में दबा वह उद्वेग चित्त को गाहे-बगाहे क्लान्त कर जाता है ।
क्या आज की पीढ़ी इतनी जल्दी मूव-आॅन…?
इसके आगे वह कुछ सोच न सकी आँखें बंद कर कुर्सी की पुश्त से टिक गई।
और वह मरी नहीं….
————-
गू-मूत से सनी वह चौराहे पर बेहोश पड़ी थी , उस पर सैकड़ों मक्खियां भिनभिना रहीं थी ।
राह चलते राहगीर बता रहे थे ,थोड़ी देर पहले तक तो सही थी ।
अभी ,अचानक इसे ठोकर लगी और ….
पिछले बीस सालों से एक बात वह रोज़ बताती थी ,वह था उसका पिछला जन्म
“ना बऊ , तुमै बतावैं हम पिछले जलम में मालिन हते ,हम फूल बेंचन गये हे, रत्ता मैं हमैं ठुक्कर लगी औ हम मरि गे, जाऊ जलम में हमें , एक ठुक्कर लगैगी औ हम मरि जांगे ।”
एक दिन उसने बताया था
” बऊ जी , हम जब सात साल के हे, तो हमारो विआहु कद दओ ।
सतरा साल के हे हमाये आदिमी ।”
ठुक्कर लगैगी औ हम मरि जांगे।
फिर एक दिन उसने कहा –
” मैइने अपने आदिमी कौ औ अपनी जिज्जी कौ एक संग देखो ,
तो मैनें हल्ला काटो वानै मोय मारिके निकाद दओ, जिज्जी को अपने संग धल लौ।”
ठुक्कर लगैगी औ हम मरि जांगे।
फिर कभी उसने कहा –
” मैइने अपने बच्चन को चौका बासन करिके पालो ।
बऊ जी ,तऊ नास-पीटे लड़े मरे जाय रये।जाने केती शराब पीयत।मोय मात्त।”
ठुक्कर लगैगी औ हम मरि जांगे।
पिछले बीस सालों में पचासों बार सुनी इस पिछले जनम की कहानी को वह इतने चाव से सुनाती जैसे कोई परीकथा हो या कोई थ्रिलर।
दो दिन की छुट्टी के बाद वह बर्तन धोने आई थी ,एकदम चुप।
सुबह के अतिव्यस्त शेड्यूल के बावजूद मैंने उसे छेड़ दिया ,
” क्या बात ताई कहाँ थी, दो दिन ? आज इतनी चुप क्यों ? आज नहीं सुनाओगी अपने पिछले जनम की कहानी।”
उसकी झुर्रियों में मानो ज्वार भाटा चढ़ आया था । सारा नमक आँखो में इकट्ठा होकर उसे अँधा किये दे रहा था। मटमैले पल्ले की कोर से आँखों में जमा नमक की पर्त हटा कर बोली ;
” का बतायें बऊ, हमाओ बड़ो लड़का मरि गओ, औ छोटे ने लड़ाई के मारे बाके घरै मोय नाय जान दओ ।
मैइने बाकी लासउ नाय देखी । अब कहाँ पावौगीं फेरि बाकौ मुँह देखन ताईं।
ठुक्कर लगैगी औ हम मरि जांगे।
ठोकर लगी और वह मरी नहीं….
डाॅ सन्ध्या तिवारी
पीलीभीत
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बीते हुए दिन
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एक मॉल में अचानक उसे देखकर मैं दंग रह गया और बिना एक क्षण गँवाए बोल पड़ा, ‘‘माला, तुम यहाँ… अचानक… इस शहर में और वह भी इतने वर्षों बाद ?’’
वह हँस पड़ी। उसके साथ चल रहा युवक हैरानी से हम दोनों को देखने लगा।
अपनी हँसी संभालते हुए वह बोली, ‘‘अंकल, मैं माला नहीं, उसकी बेटी अनामिका हूँ।’’
फिर उसने युवक से परिचय कराया, ‘‘इनसे मिलिए, ये मेरे पति राजीव हैं।’’
यह सुनते ही जैसे मुझे होश आया। मैं तो गलती से पैंतीस वर्ष पूर्व की अपनी युवावस्था में पहुँच गया था।
काम-धाम
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प्लस-वन, प्लस-टू की डिंगी लाँघते हुए जैसे-तैसे खींच-खिंचाकर मनोहर सिंह कॉलेज के द्वार तक तो पहुँच गए पर उसे टाप नहीं सके और प्रथम वर्ष में ही कटी पतंग की तरह आम के गाछ में टंगा गए। फिर एक डेढ़ साल इधर-उधर धूल फाँका और अपने बाप का पैसा फाँकी मारते हुए यार- दोस्तों में उड़ाते रहे। अच्छी-खासी पुश्तैनी जमींदारी उसके वश की थी नहीं। सो, एक दिन बाबू जी ने लताड़ ही दिया, ‘‘रे मनोहरा, काहे को अपनी जिनगी मटियामेट करने पर तुला है। लौंडे-लपाड़ों के साथ जिनावर की तरह यहाँ-वहाँ मटरगश्ती करते फिरते हो। कुछ काम-धाम काहे नहीं कर लेता ? कल घर में बहूरिया भी आ जावेगी। कइसे पार लगेगा रे तेरा ? अबहूँ चेत ले। कुछ लाज-शरम बाकी रख छोड़े हो तो जा के बिनेसरिया से मिल लो। कहीं किसी नौकरी-चाकरी में टंगड़ी फँसवा देंगे। जमींदारी तो तोहरे से होने से रहा, उ तो हम देखबे कर रहे हैं।’’
मनोहर सिंह को बाबू जी की सलाह जंच गई। रिश्ते में बिंदेशरी काका इन दिनों मंत्री जी के खासमखास हैं। कहीं कोई नौकरी-वौकरी दिलवाना उनके बायें हाथ का खेल है। अतः सजधजकर एक दिन पहुँच गए राजधानी।
‘‘का रे मनोहरा, का हाल है तेरा ? देखते हैं खूबे रंग चढ़ा है तो पर। चीकन-चोपड़ हीरो बने फिर रहे हो। कहीं कोई फिलिम-विलिम में चांस तो नहीं मिल गया रे ?’’ बिंदेशरी काका ने पान का रसपान करते हुए उसे टिहोका।
‘‘अरे काका… आप भी लगे मजाक करने। फिलिम लाइन में आजकल कौन पूछता है ? शत्रुघन सिन्हा और धर्मेन्दर का टाइम कुछ और था। अब तो इस लाइन में भी साला भारी कंपटीशन है। उहाँ भी माँ-बाप का स्थान उनके बचवा लोगन के लिए आरक्षित है।’’
बात-बात में बेमतलब का ठहाका लगाने वाले बिंदशरी काका जब ग्राम-गंज का हालचाल पूछ बैठे तो मनोहर ने अपने आने की मंशा जाहिर की—
‘‘काका, हम आपके पास दरअसल नौकरी की खातिर आए हैं। आजकल आपकी मंत्री जी के साथ खूब छन रही है। कहीं एगो नौकरी दिलवा दीजिए ना… हमरी बेकारी के कारण बाबू जी भी बहुते कुढ़े हुए हैं हम पर।’’
‘‘लो, इ भी कोई कहने की बात है ? कितना पढ़े हो ?’’
‘‘बस काका, कॉलेज का मुँह देखबे किए हैं । पढ़ाई-वढ़ाई अब होने से रहा।’’
‘‘ठीक है, ठीक है। काहे चिंता करते हो। दो-एक दिन में किसी बढि़या प्राइवेट फरम में चेप देते हैं तेरे को…’’
सुनकर मनोहर सिंह हड़बड़ा गया। वह बीच में ही फट पड़ा—-
‘‘ना-ना काका, काम-वाम अपने वश का नहीं। हमरा खातिर कवनो सरकारी नौकरी देखिएगा…’’
अपना-अपना धर्म
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मुहल्ले में माली का काम करने वाला अधेड़ रामासरा शहतूत की पेड़ की बेतरतीब बढ़ी शाखाओं को काट रहा था ताकि मकान में रहने वाले लोगों को आने वाली ठंड में पर्याप्त धूप मिल सके। तभी बगल के मकान से एक महिला निकली और उस से पूछा, ‘‘हमारे घर के पिछवाड़े जमे पीपल की कुछ टहनियाँ काट दोगे ?’’
‘‘हम पीपल नहीं काट सकते बीबी जी। किसी मुसलमान से कहिए, वह काट देगा।’’
‘‘तुम्हारी जान-पहचान का है कोई?’’
‘‘हमारी जान-पहचान का तो कोई नहीं, पर कूड़ा उठाने वाले से कहिएगा, वह मुसलमान है।’’
दोपहर कसे घर-घर से कूड़ा इकट्ठा करने वाले व्यक्ति से उस महिला ने गुजारिश की, ‘‘भइया, हमारे पीछे एक पीपल का पेड़ है। उसकी कुछ शाखाएं हमारे घर की ओर झुक रही हैं, उन्हें काट दोगे क्या?’’
‘‘माली तो काटता रहता है पेड़ों की टहनियाँ। उससे क्यों नहीं कहतीं?’’
‘‘वह कहता है कि हिंदू होने के कारण वह नहीं काट सकता।’’
‘‘तो हम भला कैसे काट सकते हैं बीबीजी। ज़रा आप ही सोचिए।’’कहकर कूड़ेवाला दूसरे मकान की ओर बढ़ गया।
अखबार में चिपकी चीखें
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इस शहर के एक फ्लैट में वह रहता था। एक निजी फर्म में अच्छी-भली नौकरी करने के साथ-साथ फोटोग्राफी का भी बेहद शौक था उसे। कैमरे से उतारे गए उसके कलात्मक चित्रों की कुछ प्रदर्शनियाँ भी लग चुकी थीं। पुरस्कृत भी हुआ था और एक अलग पहचान बन गई थी उसकी। उसके छाया-चित्र पत्र-पत्रिकाओं की शोभा बढ़ाते रहे हैं।
आज मुँह अंधेरे वह कैमरा संभाले अपनी कार से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर दूर एक दूसरे ऐतिहासिक शहर में पहुँचा ही था कि धरती काँप उठी। बहुमंजिला मकान, आसमान को छूती ऐतिहासिक मीनारें और शिखराकार मंदिर उसकी आँखों के सामने हवा में डोलते नज़र आने लगे। उसके लिए यह एक अद्भुत मंजर था। अगले पल क्या होने वाला है, इससे बेखबर वह खुद भी काँपता हुआ कैमरे को क्लिक करता चला गया। थोड़ी ही देर में कैमरे की आँख के सामने मकान ताश के पत्तों की मानिन्द बिखरने लगे। वह मूर्त्तिवत् कैमरे का बटन दबाता रहा। चारों ओर से उठी लोगों की चीख-पुकार के साथ मलबों में बदलते मकानों की तस्वीरें उसके कैमरे में समाते चले गए। फिल्म की रील खत्म होने पर उसकी चेतना लौटी तो पाया कि अचानक आए भूकम्प ने उसके आस-पास बहुत कुछ लील लिया है।
अपने शहर में लौटकर उसने फिल्में प्रिंट करायीं और उनमें से कुछ तत्क्षण स्थानीय एक समाचार-पत्र में दे आया।
दूसरे दिन के समाचार-पत्र में उसके छाया-चित्र मुखपृष्ठ पर विशेष रूप से छपे थे। मलबों के नीचे दबे और चीखते-पुकारते लोग समाचार-पत्र में रंगीनी से चिपके पड़े थे।सुबह-सुबह अपने कमरे में बैठा वह इन हृदय विदारक चित्रों को आतंक की की स्थिति में निहार रहा था कि फोन की घंटी घनघना उठी। फोन पर उसके द्वारा उतारे गए चित्रों की माँग थी। उसे एक के बाद एक फोन निरंतर आते रहे। उसने सबसे एक ही बात कही—– ‘दस बजे आकर फोटो ले जाँय।’
दस बजे उसके कमरे में कई लोग जमा थे। उसके द्वारा खींचे गए रंगीन छाया-चित्र एक मेज पर बेतरतीब पड़े हुए थे और गले में फंदा लगी उसकी देह पंखे से झूल रही थी।
चमत्कार
नशा-विरोधी संस्था के संयोजक हरिमोहन जी ने एक कार्यक्रम आयोजित किया ताकि लोगों को नशे के दुष्परिणाम के प्रति जागरूक किया जा सके, उन्हें नशे से होनेवाली मानसिक और शारीरिक हानियों से अवगत कराया जाय। इस कार्यक्रम में उन्होंने विशेष अतिथियों को भी आमंत्रित किया, जिनमें हरिमोहन जी के एक पुराने मित्र भी थे जो इन दिनों राज्य में एक मंत्री-पद को सुशोभित कर रहे थे।
मंत्री जी ने नशे के विरोध में बड़ा सारगर्भित और लोगों को प्रभावित करने वाला भाषण दिया। बार-बार बजती तालियों की गड़गड़ाहट इस बात का संकेत दे रही थी।
संध्या समय अपने मंत्री-मित्र के सम्मान में हरिमोहन जी ने उन्हें अपने घर पर दावत दी। भोजन के दौरान हरिमोहन जी ने कहा, ‘‘यार, तुम्हारे कारण कार्यक्रम अत्यन्त सफल रहा। नशे के विरोध में दिए गए तुम्हारे भाषण ने अन्त तक लोगों को बाँधे रखा।’’
मंत्री महोदय चुपचाप मुस्कुराते रहे। अब वे अपने मित्र को कैसे बताएँ कि यह भी नशे का ही चमत्कार था। मंच पर पहुँचने के पूर्व ही वे दो-तीन पैग ले चुके थे।
रतनचंद ‘रत्नेश’
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