अर्चना अनुप्रिया, कृष्ण मनु, रंजना फतेपुरकर, कल्पना भट्ट

“अवकाश”
रागिनी देवी अब रिटायर हो चुकी थीं। अब उनके पास अवकाश ही अवकाश था। कभी बड़े बेटे को फोन लगातीं तो कभी छोटे बेटे को। उनके दोनों बेटे अमेरिका जाकर सेटल हो गए थे। पहले जब प्रिंसिपल के पद पर थीं तब उनके पास टाइम ही नहीं होता था। स्कूल के कार्य,घर का काम फिर कई संस्थाओं से भी जुड़ी हुई थीं। दोनों बेटे और बहुओं की अक्सर जिद रहती थी कि अब आप काम छोड़कर अमेरिका आ जाओ और हमारे बच्चों को संभालो। पर रागिनी देवी के पास टाइम ही कहाँ होता था..”हाँ..हाँ…आऊँगी….आऊँगी.. बस जरा यह काम तो निपटा लूँ….रिटायर होकर तुम सब के पास ही रहूँगी और कहाँ जाऊँगी..” फिर हंसकर फोन रख देतीं और अपने बेटे बहुओं पर गर्व करतीं… “कितना चाहते हैं सब मुझे”।
देखते देखते पाँच साल बीत गए और आज वह रिटायर होकर बच्चों के पास जाने के लिए फोन लगा रही थीं तो बच्चों के पास टाइम नहीं था।बड़े बेटे से कहा तो वह कहने लगा-” मां तुम वहीं रहो, यहां के फास्ट लाइफ में एडजस्ट नहीं कर पाओगी”… छोटा बेटा कहने लगा-” यहां का कल्चर बहुत अलग है,तुम्हें यहाँ अच्छा नहीं लगेगा… फिर हमारे इनलॉज भी साथ में आ गए हैं, तुम्हें वहीं आराम होगा… हम सब आते-जाते रहेंगे।” रागिनी देवी समझ गई थीं कि अब वहाँ मेरी जरूरत नहीं रही।
पति की मृत्यु के बाद सारे घर की देखभाल, बच्चों की परवरिश,सारी दुनियादारी.. सब अकेले ही संभाला था…बड़ा सा घर और कामकाज से अवकाश… समझ नहीं आ रहा था कि अब समय कैसे कटेगा…? पैसों की कमी नहीं थी…पेंशन भी अच्छा खासा था.. बस कमी थी तो इन अवकाश के क्षणों में किसी साथी की। वह मायूस सी होकर पति की तस्वीर के आगे खड़ी हो गयीं।तभी उनके पति की बात उनके दिमाग में कौंधी-“रागिनी अगर मुझे समय मिला और पैसे रहे तो मैं अनाथ, बेघर बच्चों के लिए कुछ करना चाहूँगा।”
रागिनी देवी मुस्कुरा उठीं…पति की तस्वीर को प्रणाम किया और निकल पड़ीं अनाथालय की ओर…। आज अपने अवकाश को सार्थक करने का बहुत नेक रास्ता दिखा दिया था पति ने।

“श्राद्ध”
ससुर जी का श्राद्ध था। कोरोना की वजह से पंडित ने पितृपक्ष में श्राद्ध के भोज के लिए घर आने से इंकार कर दिया।ऐसे में कुसुम ने टिफिन में खाना भर कर अपने ग्यारह वर्षीय बेटे राहुल को दिया और कहा…”बेटा आगे के मुहल्ले में मंदिर के पंडित जी को दे आ…।”
“पंडित जी को ही क्यों देना है मॉम..?”राहुल ने बड़ी मासूमियत से पूछा।
“क्योंकि वह भगवान की पूजा करके हम सबकी सलामती के लिए ईश्वर से दुआएँ माँगते हैं,इसीलिए उनके खाने से भगवान खुश होते हैं-” कुसुम ने टालने के लिए समझाने वाले लहजे में कहा।
छोटे राहुल ने ध्यान से मॉम की बात सुनी और घर के पिछवाड़े की मस्जिद के सामने बैठे भिखारियों को टिफिन दे आया।

“ये कैसी भक्ति ?”
बहु चारों धाम की यात्रा करके लौटी थी। हर दिन अपने दोस्तों को अपनी भक्ति-यात्रा की झलकियाँ दिखाने के लिए तरह-तरह के फोटो सोशल मीडिया पर लगा रही थी। सभी दोस्त उसकी खूब वाहवाही कर रहे थे।
उधर दूर किसी दूसरे शहर में बूढ़ी सास अकेली बाढ़ और मुसीबतों से जूझ रही थी। ससुर का देहांत हो चुका था और बूढ़ी सास हालातों से लड़ने के लिए अकेली,बेबस और लाचार थी।
मंदिर में दुर्गा माँ सोच रही थीं -“जीवित माँ जैसी सास की आँखों में आंसू देकर और मुसीबतों में साथ न देकर जो शख्स मेरे समक्ष भक्ति दिखाए, उसे क्या देना चाहिए….” आशीष या आँसू..?”

“बेचारी साईकिल”
आलोक राम जी की बड़ी सी गैराज में उनकी चमचमाती मर्सिडीज खड़ी थी।बगल में ही उनकी एक पुरानी साईकिल भी पड़ी थी। चमचमाती मर्सिडीज अक्सर धूल खाती साईकिल को देखकर हँसती और व्यंग्य करती रहती थी।
मार्सिडीज- “अपने मालिक की शान हूँ मैं… मुझ पर बैठकर वह जब बाजार में निकलते हैं तो क्या रौब पड़ता है लोगों पर… इसीलिए तो मालिक मुझे सजाधजा कर ऐसी टिपटॉप रखते हैं। तुझे देख…? तेरी तरफ तो देखते तक नहीं…” कह कर वह खूब ठठाकर हँस पड़ी।
बेचारी साईकिल का मन उदास हो गया। सोचने लगी- “सचमुच, बुरे दिनों की साथी हूँ,पर अमीर होते ही मालिक ने मुझे धूल खाने के लिए छोड़ दिया है… एक बार देखते भी नहीं मेरी तरफ..।”
तभी गैराज का दरवाजा खुला। आलोकराम अपने डॉक्टर मित्र के साथ अंदर आए और शान से अपनी मर्सिडीज दिखाते हुए उसकी तारीफ करने लगे। मार्सिडीज ने कनखियों से साइकिल की तरफ देखा और व्यंग से हँस पड़ी।
तभी डॉक्टर मित्र बोल पड़े- “दुकान और घर- दोनों ही तुम्हारे पास-पास ही हैं, फिर भी गाड़ी इस्तेमाल करते हो… तभी तो स्वास्थ्य का यह हाल है… डायबिटीज, मोटापा, रक्तचाप- सब लेकर बैठे हो। गाड़ी से जिम जाकर मशीनी साइकिल चलाते हो और घर में पड़ी साइकिल धूल खा रही है ?..मेरी मानो तो गाड़ी छोड़ो या बेच डालो…महीने दो महीने पर जब कहीं जाना हो,तो टैक्सी कर लेना… दिखावे से स्वास्थ्य ज्यादा जरूरी है।”
आलोक राम की समझ में बात आ गई और उन्होंने डॉ.मित्र की सलाह पर हाँ में हाँ मिलायी। मर्सिडीज का मुँह लटक गया और साइकिल मुस्कुरा उठी।

“उतावलापन”
घर जाने के उतावलेपन में राधेश्याम पैदल ही गाँव जाने के लिए निकल पड़ा। पास-पड़ोस के उसके दोस्तों ने उसे बहुत रोकने की कोशिश की…उसे बहुत समझाया परन्तु उसने किसी की नहीं सुनी। उत्तर प्रदेश के गांव से हरियाणा में ईंट की भठ्ठी पर काम करने के लिए राधेश्याम अपने दोस्तों के साथ आया था। इसी बीच सारा विश्व एक लंबी और खतरनाक महामारी की चपेट में आ गया…काम बंद हो गया और भूखे मरने की नौबत आने लगी… रह-रहकर उसे अपने बीवी बच्चे याद आने लगे- “न जाने वे गांव में कैसे रह रहे होंगे..? दो बेटी थी उसकी…थोड़ी बहुत जमीन भी थी गांव में,जो परिवार का पेट भरने के लिए काफी थी परंतु राधेश्याम पर अपनी बेटियों को पढ़ाने का धुन सवार था।कई लोगों से उसने सुना था कि लड़कियों को आगे बढ़ाने के लिए सरकार बहुत कुछ कर रही है…फिर वह फिल्म दंगल भी देख आया था तो उसका हौसला और भी बुलंद हो गया था। उसके मन के किसी कोने में उम्मीद थी कि बेटियों को पढ़ाएगा और ऑफिसर बनाएगा। उन्हीं के लिए पैसे इकट्ठे करने वह इतनी दूर आकर काम कर रहा था परंतु काम बंद होने पर खुद को रोक नहीं पाया और घर जाने के लिए उतावला हो गया। मालिक को डर था कि सारे मजदूर अगर देखा देखी चले गए तो व्यापार चौपट हो जाएगा… इसीलिए ,उसने सब से कह दिया कि थोड़े दिनों में अनुकूल समय आते ही काम शुरू होगा तब तक सब वहीं रहें…जो रहेगा उसे प्रतिदिन के हिसाब से पैसे मिलेंगे। अधिकतर मजदूर इस लालच में रुक गए। राधेश्याम ने घर जाने के उतावलेपन में पैसे की लालच स्वीकार नहीं की और अकेला पैदल ही निकल पड़ा।
पैदल चलते चलते वह काफी दूर निकल आया था।भूख भी लगी थी।रास्ते में एक छोटा सा ढाबा देखकर राधेश्याम ने वहाँ जाकर खाना खाया और अब बस निकलने ही वाला था कि तभी एक पुलिस की गाड़ी वहाँ आकर रुकी।गाड़ी में से एक महिला इंस्पेक्टर उतरी और वहाँ खड़े सभी लोगों को “सोशल डिस्टेंसिंग” और महामारी से बचने के उपाय समझाने लगी। साथ ही वह लोगों को ढाढ़स भी दे रही थी कि चिंता की कोई बात नहीं है…सरकार की तरफ से वह सबको जरूरत की चीजें मुहैया कराती रहेगी।वहाँ पर उपस्थित सभी लोग उससे बड़ी इज्जत से पेश आ रहे थे और उसके रौब से डर भी रहे थे। उस महिला इंस्पेक्टर को देखकर राधेश्याम के पांव ठिठक गए।उस महिला ऑफिसर में उसे अपनी बेटियों का चेहरा नजर आने लगा -“ऐसे ही ऑफिसर बने हुए वह भी तो अपनी बेटियों को देखना चाहता था”-राधेश्याम ने एक ठंडी सांस ली और उसके कदम वापस फिर ईंट की भठ्ठी की तरफ मुड़ गए।

अर्चना अनुप्रिया

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नौकरानी नहीं मिली क्या
रिसीवर कान से लगाते ही बेटे की कोमल आवाज़ कानो से टकरायी। वह किंचित् आश्चर्य चकित हुई।
उधर से आवाज़ आ रही थी- माँ, कब आ रही हो? जल्दी आ जाओ माँ । तुम्हारी बहू प्रिग्नेन्ट है।
वर्षों बाद इकलौते बेटे की आवाज पानी पानी बनकर माँ की आँखों से बहने लगा। लेकिन चेहरे की कठोरता धोने में नाकाम रहा।
-” क्यों बेटा, नौकरानी नहीं मिल रही क्या?”
फोन डिस्कनेक्ट हो जाने के बवजूद माँ रिसीवर देर तक पकड़े खड़ी रही। कमरे में खामोशी पसरी थी।#
कृष्ण मनु


भाषा सौन्दर्य
शमशान घाट का सौंदर्यीकरण हुआ था। बगल में पार्क का भी निर्माण किया गया था जिसका आज उद्घाटन था। समारोह में शामिल होने के कारण कुछ देर से घर आने पर इंतजार कर रही माँ पूछ बैठी-” कहाँ इतनी देर लगा दी, दीपक?”
दीपक जवाब देने के पहले खाट पर बैठकर चाय सुड़कती हुई दादी के बगल में बैठ गया।
एक कोने में बैठा होम वर्क करता हुआ मुन्ना बोल उठा- माँ, भैया शामशान घाट से आ रहा है। मुझसे पूछो ना।”
इतना सुनना था कि दादी का तेवर सातवें आस्मान पर चला गया-” अरे, परे हट। शमशान घाट से आकर सीधे मेरे पास बैठ गया । जा नहा-धो ले। अघोरी कहीं का। जा…।”
दीपक दादी को मनुहार करते हुए गले से लग गया -” नहीं दादी, मुन्ना झूठ बोलता है। मैं तो मुक्तिधाम से आ रहा हूँ।”
इतना सुनना था की दादी ने खुश होकर दीपक को गले लगा लिया-“मेरा दीपू। मेरा राजा बेटा। और मुन्ना को झिड़कती हुई बोली-” झूठा कहीं का !
कृष्ण मनु

माँ
आज संडे था।गौरव को सुबह से तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही थी।उसने पत्नी को आवाज़ देकर कहा-
“चित्रा!आज ज़रा मुझे माँ की तरह तुलसी अदरक की चाय तो बना दो।तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही।
चित्रा थोड़ी ही देर में चाय बनाकर ले आई।चाय माँ जैसी तो नहीं बनी थी पर हां कुछ देर बाद वह बहुत कुछ ठीक महसूस करने लगा।
थोड़ी ही देर में तैयार होकर गौरव बोला-
“चित्रा,आज तो नाश्ते में आलू के पराठे बनाना माँ जैसे।”
चित्रा बोली-“क्या बात है आज आपको माँ की बहुत याद आ रही है?”
गौरव बोला-“हां चित्रा,सच ही आज मुझे माँ की बहुत याद आ रही है।”
चित्रा बोली-“तो चलिए आज माँ से मिलकर आते है।वैसे भी पराग और पीहू कबसे वॉटर पार्क चलने को कह रहे हैं।वॉटर पार्क रास्ते में ही है।खाना भी बाहर ही खा लेंगे।लौटते वक्त माँ से भी मिल आएंगे।”
गौरव भी सहमत हो गया।वैसे भी माँ से मिले बहुत समय हो गया था।
जल्दी ही सब तैयार होकर घर से निकल पड़े।बच्चों ने वॉटर पार्क में बहुत मस्ती की,फिर होटल में खाना खाया।शाम के पांच बज चुके थे।
गौरव ने जल्दी कार आगे बढ़ाई।थोड़ी ही देर में बच्चे थककर कार में ही सो गए।चित्रा भी आधी नींद में थी।थोड़ी देर बाद गौरव ने बच्चों को जगाना चाहा पर चित्रा बोली-
“रहने दो सोने दो उन्हें।”
गौरव बोला-“चित्रा तुम तो चलो।”
चित्रा बोली-“अब आप ही जाकर माँ से मिल आइए।मुझे भी थकान हो रही है और फिर बच्चे भी तो कार में अकेले हैं।”
गौरव को भी थकान महसूस हो रही थी,पर इतनी दूर आकर लौटा भी तो नहीं जा सकता था।
गौरव ने जाकर “वृद्धाश्रम”के दरवाज़े की बेल बजाई।तभी उसकी नज़र वहां टंगी एक तख़्ती पर पड़ी,जिस पर लिखा था-“मिलने का समय शाम छः बजे तक”।गौरव ने देखा छः बजने में सिर्फ दस मिनिट बाकी थे।उसे अपराध बोध होने लगा।इतने दिनों बाद मिलने आया वो भी सिर्फ दस मिनिट के लिए!माँ क्या सोचेगी?
फिर खयाल आया।अरे वो तो माँ है।बस मुझे एक नज़र देख लेगी और आशीर्वादों की झड़ी लगा देगी।
गौरव दरवाज़ा खुलने का इंतज़ार करने लगा।


दिल
रात होते ही सारी दुनिया सपनों की दुनिया में खो गई।दिल ने देखा,असंख्य तारे नीले आसमान में झिलमिल कर रहे थे।रात की नीरवता में तारों को दिल की धड़कन स्पष्ट सुनाई दे रही थी।तारों ने टिमटिमा कर दिल का स्वागत किया।
दिल भी मुस्करा दिया और बोला-
“प्यारे तारों!रात में तुम्हें झिलमिलाते देखना मुझे बहुत अच्छा लगता है।तुमने रात के सौंदर्य को कई गुना बढ़ा दिया है।पर दुःख होता है जब कोई तुम्हें टूटता देख अपनी हसरतों को पूरा करने तुमसे ही मन्नतें मांगने लगता है।”
तारों ने मुस्कराकर कहा-
“हमें टूटकर भी लोगों की हसरतें पूरी करने का सुख तो है।पर यह सोचकर ज्यादा दुःख होता है कि लोग तो अपनी हसरतें पूरी करने के लिए कई बार दिल ही तोड़ देते हैं।”

सागर
इठलाती नदी,झूमती,बलखाती,बही जा रही थी।कलकल करता नदी का जल जैसे खुशी से छलछला रहा था।किनारे पर कभी वह पेड़ों को,लताओं को भिगोता तो कभी पनिहारिनों की मटकी में प्यास बुझाने का मीठा स्त्रोत बन जाता।
आज नदी अपने गुण दोषों को तिरोहित कर स्वयं सागर के अस्तित्व में विलीन होना चाह रही थी।लम्बा रास्ता तय कर,अनेक बाधाओं को पार कर आखिर नदी सागर तक पहुंच ही गई।
सागर का अभिमान उच्छल तरंग बन आकाश छूने का यत्न कर रहा था।वह गर्व में डूबी आवाज़ में नदी से बोला-
“नदी,आज तक तुम एक छोटी सी नदी थीं,लेकिन मुझ में मिलकर तुम भी विशाल सागर ही कहलाओगी।तुम जैसी कितनी ही छोटी-छोटी नदियां मुझमें मिलकर सागर कहलाने लगती हैं।तुम्हें सागर का रूप देने के लिए तुम्हें मेरा ऋणी होना चाहिए।”
सागर की अभिमान भरी बातें सुन समर्पण की भावना में आकंठ डूबी नदी का आत्मसम्मान आहत हो उठा।नदी के समर्पण को अनदेखा कर उसे अपमानित कर सागर उसे तुच्छ साबित करने की कोशिश कर रहा था।
नदी ने शांत स्वर में उत्तर दिया-
“हां सागर,तुम बहुत विशाल हो,तुम्हारा ओर-छोर तक दिखाई नहीं देता,तुम उस क्षितिज तक को छू लेते हो जहां धरती अम्बर से मिलती है, तुम्हारे हृदय की गहराई में अनेक मूल्यवान रत्न बिखरे हुए हैं।पर एक बात बताओ क्या तुम्हारी अथाह जलराशि का सिर्फ एक चुल्लू पानी भी किसी प्यासे की प्यास बुझा सकता है?”

फर्क
ऑफिस का काम ख़त्म करके असीम ने घड़ी देखी।नौ बजे रहे थे।उसे काफी थकान महसूस हो रही थी,पर क्या करता?सॉफ्टवेयर कंपनी का यही कायदा था।कभी आठ बजते तो कभी नौ।आज तो असीम ने सोच रखा था,घर जाएगा,खाना, खाएगा और सो रहेगा।घर लौटते समय जगह-जगह खुदे रास्तों और अव्यवस्थित ट्रैफिक व्यवस्था ने उसकी झुंझलाहट को कई गुना बढ़ा दिया।
घर पहुंचते ही पत्नी मोना को खाना लगाने को बोल असीम शॉवर लेने चला गया।ठंडी-ठंडी पानी की शीतल फुहारों ने कुछ तो राहत दी,पर थकान तो थी ही।वह आकर डायनिंग टेबल पर बैठ गया।
उसने पूछा-“माँ कहाँ है?”
मोना बोली-“किचन में आपके लिए पालक पनीर बना रही है।”
तभी माँ किचन से आँचल से हाथ पौंछते हुए बाहर निकली,और असीम को देखते ही बोली-“बेटा, तुम्हारा सर पूरा भीगा हुआ है और तुम पंखे के नीचे बैठे हो,सर्दी लग जाएगी।ज़रा बाल पौंछ लो।”
असीम तुरंत पास खड़ी मोना के दुपट्टे से बाल पौंछने ही वाला था कि मोना चीखी….”अरे….अरे….क्या करते हो,मेरा दुपट्टा खराब हो जाएगा।”
असीम उठकर माँ के पास गया और बोला-“लाओ माँ, तुम्हारे आँचल ही से बाल पौंछ लूं।”
माँ बोली-“अरे बेटा, मेरा आँचल गंदा है,कहीं तुम्हारे बाल न खराब हो जाएं।”
लेकिन असीम ने माँ के आंचल से ही गीले बाल पौंछे।
असीम की सारी थकान दूर हो चुकी थी।

लहर
जैसे ही चंचल लहर,मचलती साहिल पर आकर पल भर ठिठकती,उसका भीगा सौंदर्य साहिल के हृदय को छू लेता।
साहिल ने कई बार रेत पर अपना प्रणय निवेदन लिखा पर वह प्रेम की इबारत के बार या तो पवन का वेग मिटा देता या लहर के छूते ही इबारत अनपढ़े ही बह जाती।साहिल रोज़ ही अपना प्रणय निवेदन रेत पर लिखता पर वह लहर के पढ़ने के पहले ही मिट जाती।
आखिर उदास हो साहिल ने पास ही स्थित अपने मित्र पत्थर से पूछा-
“ऐ मित्र!तुम्हीं बताओ,मैं कैसे लहर से अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करूँ?मैंने कई बार रेत पर अपने प्रेम की इबारत लिखी पर वह इबारत पढ़ने के पहले ही मिट जाती है।”
साहिल को यूं उदास देख पत्थर ने कहा-
“साहिल!मेरे दोस्त उदास न हो।रेत पर लिखी इबारत का अस्तित्व क्षण भर का ही होता है।तुम कोशिश करो और इबारत मेरे शरीर पर लिखो।पत्थर पर एक बार लिखी इबारत सदियों तक पढ़ी जा सकती है।”
साहिल ने प्रयत्नों की पराकाष्ठा की और पत्थर पर लहर के नाम अपना प्रणय निवेदन लिख दिया।
लहर आई और उसने रेत पर लहराते हुए साहिल को तो भिगोया ही साथ-साथ पत्थर को भी भिगो दिया।लेकिन आज लहर ने पत्थर पर लिखे उस अमिट प्रणय निवेदन को पढ़ा और शरमा कर चूर-चूर हो गई।उसने अपने चिर प्रतीक्षित प्यार को स्वीकार किया और साहिल की विशाल बाहों में खो गई।
साहिल और लहर के प्रणय के साक्षी बने पत्थर की मुस्कराहट भी इबारत की तरह युगों-युगों तक अमिट हो गई थी।

रंजना फतेपुरकर
इंदौर
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नदी, पुल और आदमी
नीचे बहती नदी और ऊपर उसके दोनों किनारों को जोड़ता हुआ पुल | पुल पर से रात और दिन धड़धड़ाते हुए गुजरते तरह-तरह के वाहनों को देखकर एक दिन नदी पूछ ही बैठी, “दिन भर तुम पर इतना वजन लदा रहता है, तुम्हें परेशानी नहीं होती ?”
“पागल हो तुम, यह भी कोई बात हुई ! मुझ पर से वाहन नहीं गुजरेंगे तो लोग तुम्हें पार कैसे करेंगे ? मेरा तो निर्माण ही इसलिए हुआ है बहन |” पुल ने सहजता से कहा |
पुल की इस बात पर नदी खिलखिलाकर हँस पड़ी |
उसकी हँसी से खिन्न पुल ने कहा, “इसमें हँसने की क्या बात है बहन ! तुम वर्षों से बहती आ रही हो | यहाँ पर तुम्हारा पाट विशाल है और प्रवाह अति तीव्र | और हाँ, जब तुम हँसती हो तो मुझे कभी-कभी बहुत डर लगता है |”
“डर और मुझसे, लेकिन क्यों ?”
“बरसात में जब तुम अपना पाट फैलाकर विकराल रूप धारण करती हो तो मुझे लगता है कि न जाने कब तुम मुझे अपने में समाकर बहा ले जाओ |” पुल की आवाज में आशंका थी |
“डरो मत, ऐसा नहीं होगा | लेकिन जितनी संख्या में और जिस गति में गाड़ियाँ तुम पर से गुजरती हैं मुझे तो उससे भय लगता है कि कहीं तुम मुझ पर ही न गिर पड़ो | भीड़ कितनी बढ़ गई है, तुम कब तक सहन करोगे ? कभी ऐसा हुआ तो गाड़ियों के साथ ही न जाने कितने आदमी मुझमें समाकर अपनी इहलीला समाप्त कर जायेंगे |” नदी ने आशंका प्रगट की |
धड़धड़ाकर गुजरते एक ट्रक से पुल सचमुच ही काँप उठा |
“बहन, यदि कभी ऐसा हुआ तो इसमें दोष तो मानव का होगा मगर कसूरवार मैं ठहरा दिया जाऊँगा | मैं कमजोर नहीं हूँ मगर मेरी भी सहने की एक सीमा तो है ना !”
“मानव का लालच बढ़ता ही जा रहा है और उसी लालच के वशीभूत वह तेज गति से दौड़ता जा रहा है | मैं चाहती हूँ कि वह कुछ पल के लिए अपनी अन्धी दौड़ को छोड़कर मेरे किनारों पर बैठकर मेरे शीतल जल से अपनी आँखों पर छींटे मारे |” नदी ने अपनी इच्छा व्यक्त की |
“मैं भी चाहता हूँ बहन, मनुष्य कुछ देर के लिए अपनी रफ्तार भूलकर मुझ पर खड़ा हो जाए और तुझे और नीले आसमान को निहारने का आनन्द ले |” नदी की इच्छा सुनकर पुल ने भी अपने मन की बात कह दी |
उन दोनों ने एक-दूसरे की इच्छा पूरी होने के लिए ‘आमीन’ तो कहा, लेकिन पुल पर तेज गति से दौड़ते वाहनों के शोर में उसे किसी ने न सुना | *

गुमशुदा ख़ुशी
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चौक में अखबार बेचने वाले कई और भी थे, लेकिन बेरोजगार सुधीर बहुत अरसे से 11-12 वर्षीय छोटू से ही रोज़गार समाचार खरीदा करता थाI लेकिन आज वह बच्चा कहीं नज़र नहीं आ रहा थाI सुधीर की आँखें उस बच्चे को ढूँढ ही रही थीं कि एक अधेड़ सी औरत अखबार लेकर उसकी तरफ बढ़ी:
“ये लो बाबू जी आपका अख़बार।”
“लेकिन मैं तो हमेशा छोटू से..” वह इतना ही बोल पाया था कि उसकी बात काटते हुए वह महिला बोली:
“मुझे पता है बाबू जी! छोटू मेरा ही बेटा है” उसने सुधीर को अखबार थमाते हुए कहाI
“लेकिन आज वो खुद कहाँ है?”
“उसे नौकरी मिल गयी है साहिब, लाला की दुकान पर” उस महिला के स्वर में गज़ब का उत्साह था और आँखों में चमकI
“नौकरी? इतनी छोटी उम्र में?” सुधीर ने आश्चर्य से पूछाI
“ये सब ऊपर वाले की दया है बाबू जी कि मेरा बेटा कमाने लग पड़ाI” सुधीर की बात का अर्थ समझे बिना उसने हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा में आसमान की तरफ देखते हुए कहा I
उस महिला के चेहरे पर प्रसन्नता की लाली देखकर मन ही मन बेरोजगार सुधीर बुदबुदाया: “ऐसा सुख मेरी माँ को कब मिलेगा भगवान?”

निर्जीव वेदना
“ओह माँ! मेरी तो हड्डी पसली तोड़ दी इस लड़के ने! नासपीटा अबजो वयस्क भी नहीं हुआ है और इसके बाप ने मुझे इसको सौंप दिया | अब तुम ही कुछ करो मेकेनिक भाई…ओह माँ…!”
गैरेज में सब तरफ मोटर बाइक थी, कुछ तो टूटी-टाटी और कुछ में छोटी-मोटी रिपयेरिंग के लिए| आरिफ के अलावा वहाँ और कोई न था, फिर ये किसने कहा? आरिफ ने चारों नज़र घुमाई पर उसको कोई नज़र नहीं आया | उसे लगा कोई भ्रम हुआ है और वह दुबारा अपने कार्य में लग गया |
कराहने की आवाज़ और तेज हो गयी, आरिफ ने इधर-उधर देखा तो करीब ही रखी हुई एक बाइक से उसने आवाज़ सुनी, “ अरे भाई! मैं ही बुला रही हूँ, देखो न मुझे, कितनी बेरहमी से मुझसे बर्ताव किया है, मैं तो पूरी तरह से टूट गयी हूँ…|”
“तुम को दर्द हो रहा है…? पर…तुम तो निर्जीव हो…नहीं! नहीं ! तुम बोल नहीं सकतीं, जरूर मुझे ही कुछ हुआ है…और आरिफ ने पास ही रखे मटके से एक मग्गे से पानी निकाला और मुँह पर मारा और उसने पानी पीया|
पर करहाने की आवाज़ ने उसका पीछा नहीं छोड़ा, “पहले मुझको देखो न, बहुत दर्द हो रहा है…|”
अब तो आरिफ के माथे पर से पसीना बहने लगा, पर हिम्मत से वह उस बाइक के पास गया और पूछा, “आखिर तुम्हारी यह दशा कैसे हुई…”
उस बाइक ने कहा, “दस वर्ष का बच्चा था, खुली सड़क पर मुझे लेकर दौड़ रहा था, आगे टैंकर था, और वह बच्चा …घुस गया टैंकर के नीचे…|”
“उस बच्चे का क्या हुआ….?”
“मर गया बेचारा…पर मैं…तुमने सच कहा मैं तो निर्जीव हूँ…मेरी मौत…!”
अब आरिफ के हाथ औजार लिए बाइक को पुनर्जीवन देने हेतु सक्रिय हो उठे थे|


कठपुतली
“हुँह…कठपुतली…” मीना ने व्यंग्य और पीड़ामिश्रित स्वर में कहा और मेज पर रखे अपने निजी सचिव के मोबाइल में चल रहे वीडियो को देखने लगी | स्क्रीन के मंच पर कठपुतली का तमाशा चल रहा था |
एक छोटी बच्ची-सी कठपुतली मंच पर आई और नाचते हुए कहने लगी, “बापू ! मैं आगे पढूँगी और उसके बाद नौकरी भी करूँगी…”
नेपथ्य से पुरुष की भारी आवाज आई, “अरी छोरी ! पढ़-लिखकर का करेगी ? आखिर तो तुझे चौका-चूल्हा ही देखना है | हमारे घरों की लड़कियाँ इत्ता ना पढ़तीं, तूने तो फिर भी दस पास कर लिया है…| अब अपनी माँ के कामों में हाथ बँटा |”
थोड़ी देर में ही वह कठपुतली फिर मंच पर अवतरित हुई | अब वह एक हाथ में बेलन और दूसरे हाथ में झाडू लिए नाच रही थी |
“मैं अभी बहुत छोटी हूँ…अभी मेरी शादी मत कराओ…” वह कठपुतली नाचते हुए गुहार लगा रही थी |
इस बार नेपथ्य से एक पुरुष का प्रेमभरा स्वर आया, “मैं खुद पढ़ा-लिखा हूँ और मेरा अच्छा-ख़ासा व्यापार है…मैं शादी के बाद तुझे खूब पढ़ने की इजाजत दूँगा…खूब पढ़ना…”
इतना सुनते ही कठपुतली हर्ष से नाचने लगी | उसके मुख से हर्ष और आल्हाद के स्वर निकल रहे थे | नाचते-नाचते वह ऊपर उठी और नेपथ्य में चली गई |
इस बार वह नाचते हुए मंच पर आई तो उसके पहनावे पर लिखा था—पढ़ी-लिखी घरेलु स्त्री और वह नाचते-गाते घर के कार्य कर रही थी |
कुछ समय तक वह कठपुतली मंच पर आती रही और अलग-अलग तरीके से नाच दिखाकर नेपथ्य में जाती रही | लेकिन यह क्या ! इस बार वह कठपुतली मंच पर आई तो उसके शरीर पर विधवा का सफेद लिबास था | वह जमीन पर सिर पटक-पटककर रो रही थी | नेपथ्य से भी रुदन के स्वर आ रहे थे |
कुछ समय तक वह विलाप करती रही लेकिन तभी नेपथ्य से एक नारी स्वर उभरा, “खुद को सँभाल पगली, अब सब कुछ तुझे ही देखना और करना है…तू एक पढ़ी-लिखी स्त्री है…तू स्वयंसिद्धा है…तुझे इस भँवर से निकलना है…”
कठपुतली के नेपथ्य में जाते ही खेल समाप्त हो गया |
“मैम, आपने जो स्क्रिप्ट लिखकर दी थी, क्या उसके अनुसार यह फिल्म सही बनी है ?” निजी सचिव पूछ रहा था |
“हाँ, बिलकुल सही बनी है |” मीना ने कहा और सोफे से उठकर अपने पति की कुर्सी पर बैठ गई | *

पार्षदवाली गली
“क्यों कमलाबाई, आज तूने उस गली में सफाई नहीं की ?” सफाई दरोगा ने पूछा |
“मैंने तो अपनी सभी गलियों में झाडू लगाईं है साब ! आप कौनसी गली की बात कर रहे हो साब ?” कमला ने हैरानी से पूछा |
“कल ही तो तुम्हें वो गली दिखाई थी, वो अपने पार्षद के पासवाली गली |” दरोगा के स्वर में झुंझलाहट आ गई |
“पर वो तो मेरे हिस्से की गली ना है साब, वहाँ तो पीछे साल से ही सोहन जाता है |”
“मैंने कल बताया तो था, तेरा तबादला उस तरफ के इलाके में कर दिया है |”
“पर क्यों साब ?”
“पार्षद साब तेरे काम से भोत खुश हैं, उनके कहने पर ही तेरा तबादला वहाँ किया है |”
“अच्छा, अब समझ में आया | कल ही तो मैंने उनके चौकीदार को चप्पल मारी थी, साला हरामजादा ! मुझसे बेतमीजी कर रहा था |”
दरोगा हो-हो करके हँसने लगा |
“साब ! सफाईवाली हूँ, आपके और सबके इशारे खूब समझती हूँ | पर याद रखना साब ! मेरा नाम कमला है, किसीकी बलि न चढ़ जाए !” उसके चेहरे की गर्मी और आँखों के अंगारों ने दरोगा को सिर से पाँव तक पसीने से तर-बतर कर दिया | *

कल्पना भट्ट

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