कवि, साहित्यकार और लेखनी पत्रिका की संपादिका शैल अग्रवाल के साथ प्रीत अरोड़ा, सरस्वती माथुर और शील निगम की बातचीत- 2012
वार्ताकारः प्रीत अरोड़ाः चर्चित कवि, लेखिका
प्रश्न- शैल जी साहित्य के क्षेत्र में कैसे आना हुआ ?
उत्तर- वैसे ही, जैसे मछली जल में रहती है, बचपन से ही साहित्य और कला में ही मन रमा, यही सहज था। बचपन से ही पढ़ने और लिखने, दोनों का बेहद शौक और दार्शनिक रुझान। साथ में शिक्षक और सहपाठियों का जोशीला प्रोत्साहन । स्वतः ही स्वभाव और माहौल दोनों ही बनते चले गए। 11 साल की उम्र से ही सभी को विश्वास था और सब चाहते भी थे कि बड़ी होकर एकदिन मैं उनकी कहानी अवश्य लिखूं। बचपन के इस जुनून के बाद जो कि 18-20 की उम्र तक था; जिन्दगी ने फुरसत नहीं दी या ज्यादा रम गई। दूसरे दौर का लेखन पिता जी की मृत्यु उपरान्त, पांच साल की पूर्ण जड़ता के बाद उन्ही को समर्पित एक कविता ‘बिछुड़ते समय ‘से नवंबर 1996 में शुरु हुआ । फिर सितंबर 1997 में इस दौर की पहली कहानी ‘अनन्य’ लिखी गई। इस तरह से मैं अपने लेखन को दो हिस्सों में पाती हूं-एक जो बचपन में 11 से अठ्टारह साल की उम्र तक लिखा गया और स्कूल व कौलेज की मैगजीनों में , लोकल अखबारों में छपा व सराहा गया जो ज्यादा नहीं था- तब चित्रकला, नृत्य और सितारवादन भी पूरा वक्त लेते थे और हर शिक्षक की सलाह थी कि सिर्फ उनके विषय को ही गंभीरता से लेना चाहिए। दूसरा पिछले 13 चौदह साल में लिखा प्रौढ़ लेखन। अब जब एकबार फिर थोड़ा वक्त और ठहराव है, कलम नदी सी बह निकली है। बहुत कुछ कहना और बांटना चाहती हूं, नतीजा है करीब-करीब हर विधा में और हिन्दी व अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में लगातार लिख रही हूं।
प्रश्न- आप लेखिका होने के साथ-साथ एक सम्पादिका भी हैं .इन दोनों कार्यों में से आपका पसंदीदा कार्यक्षेत्र कौन-सा है ?
उत्तर- निश्चित रूप से लेखन। लिखना-पढ़ना छूटता जा रहा था । साहित्य से वापस जुड़ने और लिखने पढ़ने की चाह को संयम देने की बेचैनी, पाठकों तक अपनी बात पहुंचाने की ललक के तहत लेखनी पत्रिका का आरंभ हुआ। आसपास बहुत कुछ ऐसा था जो छूटता और टूटता-सा नजर आता था, क्षुब्द करता था। बदलना चाहती थी; खुद भारतीयों के मन और नजर से भी और इस देश के नागरिकों के मन और नजर से भी, जो सदा ही हमें पिछड़ा और गरीब …धन और बेहतर जिन्दगी के लालच में आए भूखे-नंगे समझते हैं । यहां तक कि अपने यहां के बढ़ते बच्चे भी, जिन्हें आज भी, भारत गर्मी-गर्दा-गरीबी वाला एक भृष्ट और लालची देश ही नजर आता है। हकीकत चाहे कुछ भी हो, किसी भी स्वाभिमानी के लिए देश और संस्कृति का…मानवीय मूल्यों का ऐसा निरादर व आघात; यह तिरस्कार कैसे स्वीकार हो पाता?
प्रश्न- आप एक साथ दोनों का कार्य-भार कैसे सभांलती हैं? कहीं कोई मुश्किलें भी आती होंगी?
उत्तर- सबसे बड़ी मुश्किल है-परिवार और मित्रों व ‘लेखनी’ के बीच वक्त का सही बटवारा कर पाना। घर के लोगों और मित्रों की उन्हें वक्त न दे पाने की शिकायतों पर एक बेचैन करने वाला अपराध बोध -अभी तक सिर्फ परिवार के लिए ही पूर्णतः समर्पित थी, उम्र के इस मोड़ पर आकर कहीं ज्यादा स्वार्थी तो नहीं हो गई-यह अहसास। दूसरा- रचनात्मक दबाव के तहत उस वक्त न लिख पाना जब कोई रचना पूरा होने के लिए या लिखे जाने के लिए सिर धुन रही होती है, परन्तु टालना पड़ता है क्योंकि पत्रिका का अंक पूरा करना है। काम के बारे में परफेक्शनिस्ट होने की वजह से, या एक कलाकार की दीवानगी के तहत, पत्रिका का हर काम जबतक खुद ही न करूं, संतोष नहीं मिलता। हद तो यह है कि लेखनी के अंक विषयोन्मुख होने की वजह से जो भी रचनाएं मन माफिक नहीं मिल पातीं, खुद ही लिखकर रिक्त स्तंभों को पूरा करता पाती हूं, भले ही 20 घंटों में अड़तालीस घंटों का काम क्यों न करना पड़े। संतोष तो बहुत है –रचनात्मक भी और कलात्मक भी। लेखनी का कलापक्ष पाठकों को उतना ही पसंद आ रहा है , जितना कि विषय और भावपक्ष।
प्रश्न– जैसाकि आज ई-पत्रिकाओं की भरमार है.तो क्या ई-पत्रिकाएँ धर्मयुग,सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान ,कादम्बरी आदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के समकक्ष ठहर सकेगी?
उत्तर- जी हां । अवश्य। पढ़ने और प्राप्ति की सहजता व सुगमता की वजह से आनेवाला वक्त इन्ही का होगा, अगर ईमानदारी और निष्ठा से पत्रिकाओं का संपादन होता रहा, तो। लचर और चुराई हुई सामग्री को परोसने के लोभ से प6काओं को बचना होगा। मुझे गर्व और संतोष है कि इस समय नेट पर वाकई में कई बहुत अच्छी और पठनीय पत्रिकाएं व ब्लौग हैं। कई-स्थापित और नई प्रतिभाओं से पाठक सहज रूप में रूबरू होते रहते हैं.
प्रश्न- आपकी पत्रिका लेखनी (ई-पत्रिका ) सोच और संस्कारों की साँझी धरोहर की क्या-क्या उपलब्धियाँ हैं ?
उत्तर-लोकप्रियता इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है। आज तीन से चार लाख तक की मासिक हिट हैं। जब शुरुआत की थी तो माह के अंत तक मात्र दस हजार हिट होती थीं। इस पांचवें वर्ष में प्रतिदिन करीब-करीब दस हजार हिट होती हैं। साहित्य और शैक्षिक संस्थाओं का ध्यान भी इसकी तरफ गया है और कुछ शिक्षण संस्थाओं ने इसे संदर्भ कोष की तरह से भी इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। साथ ही नए पुराने, एक सी सोच वाले देश-विदेश के कई अच्छे लेखक और कवियों का पूर्ण रचनात्मक सहयोग मिला है लेखनी को। नए-नए लोग जुड़ते जा रहे हैं। इसके जरिए कई बहुत अच्छे मित्र मिले हैं; जो मेरे जैसे –संकोची तो नहीं कहूंगी, मूडी व्यक्ति के लिए एक व्यक्तिगत् बड़ी उपलब्धि है। पाठकों के हर महीने मिलते प्रशंसा और प्यार भरे पत्रों को, और खुद समाज के लिए कुछ कर पाने के अपने शौक और संतोष को, मैं लेखनी की सबसे बड़ी उपलब्धि मानती हूं।
प्रश्न- शैल जी आपको लेखनी से क्या-क्या उम्मीदें हैं ?
उत्तर- मैं उम्मीद करती हूं कि यह एक स्वस्थ और रुचिकर व प्रेरक साहित्यिक पत्रिका के रूप में प्रगति करती चली जाएगी और पूरब और पश्चिम के आपसी भ्रान्ति और नफरत को …बनावटी चकाचौंध और गलतफहमियों को दूर करती, दोनों संस्कृतियां को बेहतर समझने में मदद करेगी, विश्व का अच्छा और पढ़ने लायक चुनिंदा साहित्य पाठकों तक पहुंचा पाएगी। नई प्रतिभा और नई सोच को बिना किसी दबाव के, पाठकों तक पहुंचा पाएगी। संक्षेप में थोड़ा बहुत ही सही, आज के विश्व नागरिक की बेहतर सोच और आपसी समझ को बढ़ावा देगी। रचनाओं द्वारा बनावट और छद्म का सभ्य और संयत पर्दाफाश करती , प्यार और सद्भाव को बढ़ावा देगी। शुरुवात है अभी, वक्त और भगवान ने इजाजत दी तो लेखनी के लिए और भी योजनाएं हैं मेरी।
प्रश्न-आज जीवन की रफ़्तार बहुत तेज गति से चल रही है.जिससे लोगों को पुस्तकें पढ़ने का समय नहीं मिल पाता.तो ऐसे में पुस्तकों का क्या वर्चस्व रह जाता है ?
उत्तर- पुस्तकों का वर्चस्व वही है और रहेगा-जो एक अच्छे मित्र का होता है- समर्पित शिक्षक या अभिवावक का होता है। सही जानकारी और दिशा दे पाना। प्रेरित करना और सुख-दुख में साथ देना , मन बहलाना और पोषण करना। भ्रमित अवसाद और रिक्तता से बाहर ला पाना। किसी से जो न पूछ पाएं, ऐसी गुत्थियों को भी अवचेतन और सहज रूप से सुलझा पाना।
प्रश्न- अपनी प्रकाशित कृतियों के बारे में बताएँ ?
उत्तर- यह मेरा सौभाग्य है कि बचपन से ही, करीब-करीब प्रकाशित हर कृति को पाठकों ने चाहा और सराहा है, विशेशतः कहानी और लेखों को। कुछ कविताएं भी लोकप्रिय रही हैं। संकलनों और पत्रिकाओं में कविता, कहानी और लेख के अलावा फिलहाल तीन प्रकाशित पुस्तकें हैं-समिधा –काव्य संग्रह, ध्रुवतारा-कहानी संग्रह, लंदन पाती-समसामयिकी निबंध संग्रह। इसके अलावा एक उपन्यास-शेष अशेष प्रेस में है जो इस वर्ष के अंत तक आ रहा है। अन्य छह पाणडुलीपियां कम्प्यूटर में बन्द सही वक्त के इन्तजार में हैं। जिनमें एक काव्य संग्रह, एक कहानी संग्रह, एक-एक बाल कहानी, और शिशुगीत संग्रह , एक निबंध संग्रह और एक अंग्रेजी की कविताओं का संग्रह है।
प्रश्न- आपके विचार में क्या एक लेखक की रचनाएँ स्वातःसुखाय होनी चाहिए अथवा जनहिताय? और क्यों ?
उत्तर- रचना तो वही है, जिसमें सत्यं शिवं और सुन्दरम् तीनों का ही सुखद् समिश्रण हो। वैसे कला का बहुमुखी और विविध…बहुउद्देश्यक होना भी स्वाभावाविक है क्योंकि वक्त और जीवन की तरह इसे भी बांधा तो नहीं जा सकता, परन्तु वक्त की कसौटी पर वही रचना टिकेगी जो इन तीनों को साथ लेकर चलेगी। सस्ती उत्तेजना या मनोरंजन वाली रचनाएं बुदबुदे या नशे सी होती हैं जिनकी जरूरत और स्मृति दोनों ही क्षणिक होती है।
प्रश्न- इंग्लैंड में लिखे जा रहे हिन्दी साहित्य से आप कितनी संतुष्ट हैं.इंग्लैंड के उच्चकोटि के साहित्यकारों के नाम बताएँ ?
उत्तर- अपनी तरह का और मन माफिक लोग लिख रहे हैं। कई अच्छे कवि, साहित्यकार और विचारक हैं। कई प्रचारक और संयोजक भी हैं, जो बेहद सक्रिय हैं और लिख भी रहे हैं। किसी एक को दूसरे से अच्छा कहना अनैतिक और राजनैतिक होगा। अधिकांश के नाम से पाठक भलीभाति परिचित हैं। हर रचना, संतान-सी उसके रचयिता के लिए सर्वश्रेष्ठ होती है। अच्छे-बुरे का निर्णय भी वक्त के हाथ ही छोड़ना बेहतर है।
प्रश्न- शैल जी आप आने वाले कल के बारे में क्या सोचती हैं ?
उत्तर- शायद अलग-थलग और बंटा हुआ रह पाना मुश्किल हो जाए। लोगों को भटकाना और बेवकूफ बनाना मुश्किल हो जाए। संचार सुविधा से ज्ञान के साथ –साथ पारस्परिक जानकारी और आपसी निर्भरता, दोनों ही बढ़ रही है। मेल-मिलाप बढ़ेगा तो पारदर्शिता भी बढ़ेगी। अब शायद गूढ़ कंदराओं में और पहाण की चोटियों पर भी, न एकांत रह पाएगा और ना ही अज्ञान। मानव मन की जिजिषा और जिज्ञासा दोनों ही अदम्य है। पृथ्वी पर जगह नहीं, तो चांद-सूरज, गृह-नक्षत्र हर संभावना को तलाश रहा है, वह। सारी निराश और वीभत्स घटनाओं और भविष्यवाणियों के बाद भी, सोचती हूं कि आने वाला कल और ज्यादा रोचक होगा। चुनौतियों भरा तो, परन्तु रम्य…नित नए-नए सपने, संभावनाओं और अन्वेषणों से भरपूर। …मानव मन की अच्छाई में आस्था रखनी ही होगी।
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वार्ताकारः स्व. सरस्वती माथुरः कवि, लेखिका , ब्लौगर
प्रश्न- लिखने की शुरुआत कब हुई पहले पहल जब आपने लिखा उसकी याद है आपको?
उत्तर-संवेदना की नम धरती पर ही रचनाओं के अंकुर फूटते हैं। बीज बनकर कौन सी घटना –कौनसा अनुभव इतना गहरा जा धंसे कि रचना का रूप ले ले, हमेशा से ही एक सहज और अप्रत्याशित घटना है। बचपन में पहली कविता आठ वर्ष की उम्र में और पहली कहानी 11 वर्ष की उम्र में लिखी थी। अंतिम कहानी 18 वर्ष की उम्र में फिर पचास वर्ष की उम्र तक कुछ नहीं। बचपन के छुटपुट लेखन के बाद जीवन के महासमर में तीस वर्ष तक एक मौन सेनानी की तरह ही जूझी। यह समोने और सोचने का वक्त था। गंभीर लेखन की नींव पड़ रही थी। दूसरे दौर की पहली रचना 16 नवंबर 1996 को करीब-करीब पांच वर्ष तक एक गहरे दुख से उबरने के प्रयास में जन्मी- कविता का नाम था ‘बिछुड़ते समय’ तेज हवा पर सवार पत्ती को देख समय ने कहा रुको, ….जो पिता की यादों को समर्पित थी। कविता ही नहीं, उसपर मिली प्रतिक्रियाओं ने भी उतनी ही ढाढस और तसल्ली दी। विशेषतः कविता की भांति-भांति से व्याख्या करता सुधीर शर्मा का गोवा की जेल से आया पत्र, जो मैंने आजतक संभालकर रखा है। माननीय विभूतिनरायण जी ने बताया कि वह अब बेतवा में उनका पुस्तकालय संभाल रहे हैं, उनके अन्दर छुपे संवेदनशील और नेक इन्सान का मेरे मन में विशेष आदर है। पहली कहानी अनन्य सितंबर 97 में लिखी। इसे भी पाठकों ने भरपूर स्नेह और प्रोत्साहन दिया। दोनों ही रचनाएं आज भी मेरे मन के बेहद करीब हैं। हाँ, फिर तो लेखनी जो बही तो आज भी निरंतर सृजनरत है हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में। इन दोनों ही रचनाओं को पाठक चाहें तो www.lekhni.net पर पढ़ सकते हैं।
प्रश्न-आपका नया क्या आ रहा है?
उ्तर-मेरा उपन्यास ‘शेष अशेष’ कहानी संग्रह ‘बसेरा’ और बाल-किशोर कहानी संग्रह ‘नयी-नयी कहानियाँ’ तीनों इस वर्ष के अंत तक आने की उम्मीद है और कहानी संग्रह ‘सुरताल’ , काव्यसंग्रह ‘नेति नेति’ और निबंध संग्रह ‘युगांतर’ प्रकाशक की तलाश में हैं।
प्रश्न-आज के रचनाकार की स्तिथि पर आप क्या कहेंगी?
उत्तर-आज के रचनाकार की स्थिति पहले से बहुत अच्छी है अब वह इतना अधिक प्रकाशकों का मुहताज नहीं। संचार सुविधाओं की वजह से पाठकों तक पहुँचने की उसके पास सहज सुविधाएं हैं। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि रचनाकार होना बड़ी जिम्मेदारी है और इसे उतनी ही कुशलता से धैर्यपूर्वक ही निभाना चाहिए। हलके और मशीनी अंदाज में नहीं। हृदय और मस्तिष्क में अच्छी तरह से रची-मथी रचनाएं ही पाठक तक सही माने में पहुंच पाती हैं।
प्रश्न-इन दिनों आप क्या पढ़ रही हैं ?
उत्तर-यूं तो लेखनी के अंक विषयोन्मुख होने की वजह से विषयानुसार हर महीने ही बहुत कुछ पढ़ती हूँ और आनंद भी लेती हूँ क्योंकि स्वभाव ये सदा-विद्यार्थी हूँ। और पढ़ने को लोलुप। यह दैनिक नियमितता-सी बन चुकी है। पर आराम और शान्त क्षणों में जब चैन चाहती हूँ तो मन को राहत देती किताबें ढूंढती हूँ और अपने प्रिय कवि और लेखकों की तरफ पलटती हूँ। बचपन में कभी धर्मवीर भारती की गुनाहों का देवता पढ़ी थी, वर्षों बीत गए । आजकल जब भी वक्त मिलता है उसे ही दोबारा पढ़ रही थी और पहले से भी ज्यादा अभिभूत हुई। दूसरी किताब जो कुछ दिन पहले खतम की थी चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य की महाभारत कथा और भृतहरि थे।
प्रश्न-एक रचनाकार के रूप में आपकी मानवीय और सामाजिक और राजनैतिक चिंताएं क्या हैं ?
उत्तर-मूल्यों का क्षरण न हो। दूसरों के प्रति हमारी संवेदनशीलता और जागरूकता बनी रहे। कम शब्दों में कहूँ तो हृदय की धरती नम रहे और आँख का पानी बना रहे।
प्रश्न-क्या हिंदी साहित्य में कथ्य के साथ साथ अभिव्यक्ति में भी परिवर्तन आया है?
उत्तर-हाँ कथ्य में खुलेपन के साथ-साथ अक्सर अभद्रता और अश्लीलता भी दिखती है अब, जो भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है। संभव है यह पाश्चात्य सभ्यता की विश्व-व्यापी आंधी की वजह से ही हो।
प्रश्न-साहित्य के भविष्य के बारे में आपके क्या विचार हैं ?
उत्तर-जब तक समाज है, साहित्य भी है। इसका भविष्य समाज और उसकी बदलती संस्कृति की प्रतिछाया है। समय के साथ साथ इसका रूप तो बदलेगा, पर साहित्य और दर्शन के बिना मानवता नहीं बच पाती।
प्रश्न- अपनी पत्रिका लेखनी के बारे में कुछ बताइये ,इसे शुरू करने का क्या उदेश्य था?
उत्तर-विदेशों में साहित्य की उपलब्धि का अभाव । खुद नया पढ़ने और जानने की ललक । लेखन में नियमितता का अभाव और देश-विदेश का उत्कृष्ट साहित्य पाठकों तक पहुँचना। एक सी सोच वालों को एक ही मंच पर लाना, यहाँ पल बढ़ रहे बच्चों को अपनी जड़ों से परिचित कराना …कई वजहें थीं लेखनी को शुरु करने की जो आज मेरी दिनचर्या का अभिन्न अंग बन चुकी है।
प्रश्न-आपके पसंदीदा लेखक कौन हैं ?
उत्तर-शरद, टैगोर , गांधी, विवेकानंद, हेमिंगवे, ह्यूगो, हार्डी, टौल्सटाय से लेकर, जिब्रान, प्लूटो, अमृता प्रीतम , शिबानी, धर्मवीर भारती, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, बच्चन, नागार्जुन, कबीर, रहीम और आजके प्रियंवद्, जयनंदन, वशीर बद्र, निदाफाजली, कुंवर बेचैन, गुलजार, सूर्यबाला, मनीषा कुलश्रेष्ठ बहुत से कवि लेखक हैं जिनकी कई रचनाओं ने मन गहरे छुआ है। जिसे सच्ची और सहज अनुभूति कहते हैं या जो दर्शन या जीवन का सार है या फिर साउद्देश्य रचनाएँ हैं या सोचने पर मजबूर करती हैं ऐसे रचनाएं और रचनाकार मेरे मन के करीब हैं। या फिर हंसा या रुला दें। कैथारसिस आज के जटिल समाज के लिए रामबाण ही तो है।
प्रश्न- आज का सहित्यिक माहौल बहुत बदला हुआ है ,पहले के और आज के माहौल में आप क्या महसूस करते हैं ?
उत्तर-पहले तथ्य की सार्थकता को बहुत गंभीरता से लिया जाता था या तो रचनाएं कल्पना लोक में ले जाती थीं , जीवन की तपिश से राहत देती थीं। या समाज का प्रतिबिंब ही नहीं, मार्ग-दर्शन भी करती थीं। अच्छी रचनाओं का सृजन तो हमेशा ही हर युग में होगा जैसे कि अच्छे लोग हमेशा रहेंगे परन्तु आज जो एक नई हानिकारक प्रवृत्ति पनप रही है वह है मठ और मठाधीश बनाने की। या तो छत्रछाया में रचनाकार पनप रहे हैं और समूहों की तंत्र विद्या चल रही है और आपस में ही वाहवाही लूटकर खुश हैं । या फिर विद्रोह की चादर तले मनमानी है, अराजकता है ।
संयत सोच के साथ अगल-बगल के गड्ढों से बचकर ही साहित्य भी अपनी मंजिल यानी कि पाठकों के हृदय तक पहुंच पाता है।
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वार्ताकारः शील निगमः चर्चित कवि, लेखिका
प्रश्न- शैल जी, आपने अपनी पहली कविता आठ वर्ष की आयु में और पहली कहानी ग्यारह वर्ष की आयु में लिखी जो तत्कालीन अखवार ‘आज’ में छपी. यह उम्र तो खेलने-खाने की होती है, आपमें इतनी परिपक्वता कैसे आ गयी और कैसा लगा जब आपकी पहली रचनायें प्रकाशित हुईं ?
उत्तर- परिपक्वता तो नहीं, बस संवेदना की नमी थी जो आसपास के अच्छे-बुरे अनुभवों को सोख लेती थी। पहली कविता अपनी तरफ से कुछ न कर पाने की, रोक न पाने की अक्षमता से जन्मी थी और जब भाइयों को सुना रही थी तो पिताजी ने हाथ से लेकर आज अखबार के कार्यालय में दे दी थी, ‘छपने लायक है यह तो’, कहकर. कविता भोजपुरी में थी और आज भी मुझे याद है। अपने से ढाई साल बड़े और ढाई साल छोटे दोनों भाइयों की गुत्थमगुत्था जब रोक नहीं पाई थी, तब इस कविता का जन्म हुआ था। छपने पर बहुत आश्चर्यजनक और अच्छा लगा था मुझे। बारबार देखती और पढ़ती रही थी। फिर एक दो दिन में भूल भी गई थी। पर भोजपुरी में लिखी वह बचकानी कविता आज भी याद है मुझे –
होवत आज ए काश
एक कैमरा हमरे पास
अंखियन से आंसू टपकत है
मुखवा पर घोंसा चमकत हैं
चलत जात है मुक्का लात
होवत आज ए काश
एक कैमरा हमरे पास
कहिबे को हमरे भाई हैं
देखन में लगे कसाई हैं
कइसे हो इनमें मेल मिलाप
सुनत नहीं ई हमरी बात
होवत आज ए काश
एक कैमरा हमरे पास
शैल अग्रवाल 1955.
कहानी हो या कविता द्रवीभूत होने पर ही रचना का जन्म होता है. खेलने-कूदने की उम्र तो सही कहा आपने, पर आसपास घटती घटनाएँ तब भी गहरा ही असर छोड़ती थीं. पहली कहानी ‘साइकिल’ का जन्म 11 वर्ष की उम्र में हमउम्र नौकर के बच्चे पर पड़ती डांट-फटकार से हुआ था. जो भाई की साइकिल पर जा बैठता था और ताई जी से दिनभर बुरी तरह से डांट खाता रहता था इस अपराध के लिए। यह कहानी मोहिनी भंडारी जी मेरी हिन्दी की शिक्षिका ने न सिर्फ स्कूल की मैगजीन में छापी थी अपितु उसके बाद से मेरी हर रचना यहाँ तक कि हिन्दी की अभ्यास पुस्तिकाओं तक को मांगकर अपने पास रख लेती थीं वह. उनका सौम्य चेहरा और स्नेह ही था जिसने मेरे लिखने के शौक को भी भरपूर प्रोत्साहन दिया.
दो-तीन साल बाद एक अछूत बच्चा जो भंगी के साथ कभी-कभी आ जाता था पर बोलता कुछ नहीं था बस दूर से हमें और हमारे खिलौनों को देखता रहता था. उसकी आंखों की लाचारी और आद्रता ने भी विचलित किया था. उसपर भी एक पेंटिंग बनाई थी, जिसे ‘शंकर आर्ट प्रतियोगिता’ में सम्मिलित और प्रशंसित भी किया गया था. हमारे विद्यालय के लिए यह एक उल्लेखनीय उपलब्धि थी. उस वक्त अपने पेंटिंग शिक्षक के आंखों की खुशी, जो मुझे बेटी की तरह ही प्यार और प्रोत्साहित करते थे, आज भी नहीं भूल पाती. मार्क्सवादी नहीं हूँ पर दूसरे का हो या अपना, दुख तो विचलित करता ही है, विशेषतः तब जब बात आपके हाथ के बाहर हो. ‘जिज्जी’ और ‘आम आदमी’ जो १९९८ में लिखी गईं, दो ऐसी ही कहानियाँ हैं.
प्रश्न- आपने अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. किया और हिंदी साहित्य से भी आपको उतना ही लगाव है. दोनों भाषाओं पर एक जैसा अधिकार कैसे रख पातीं है आप?
उत्तर- मातृभाषा सहज ही आती है, उसे सीखने की जरूरत नहीं पड़ती. बृज भाषा घर के सदस्यों में और नौकर-चाकर भोजपुरी में बात करते थे व स्कूल आदि में परिष्कृत हिन्दी. इसलिए हिन्दी का बचपन से ही सर्वांगणीय विकास हुआ। यही वजह थी कि हिन्दी छोड़कर संस्कृत और अंग्रेजी पढ़ी. हमारा विद्यालय दो से अधिक भाषाएँ लेने की अनुमति नहीं देता था.जबाव सहज है. अंग्रेजी सीखी और हिन्दी खून में थी.
प्रश्न- आपकी कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत हैं. लगता है जीवन के जुझारू रूप से खामोशी से लड़ता हुआ आपका मौन उन कहानियों में मुखरित हो उठा है. अपनी किसी ऐसी कहानी के विषय में कुछ बताना चाहेंगी आप?
उत्तर-‘कनुप्रिया’ और ‘भीगता पानी’ ये दोनों ऐसी ही कहानियाँ हैं। निष्ठुर समाज को बड़ी सहजता से समझती और परिपक्व होते मन की कहानियाँ।
प्रश्न- आपने हिंदी साहित्य की कई विधाओं में लिखा- कहानी,कविता,लेख, उपन्यास,लघु कथा,निबंध,मंथन,विमर्श, परिचर्चा,परिदृश्य,पर्यटन-यात्रा विवरण आदि,सभी विधाओं पर अपना एकछत्र साम्राज्य कैसे स्थापित कर पातीं हैं आप?
उत्तर-भगवान का आशीष ही कहूँगी। वैसे भी, रचनाएं अपनी विधा खुद ही चुनती हैं और सहज जनमती हैं. सप्रयास तो कुछ नहीं कर पाई, सिवाय लेखों के।
प्रश्न- आप बच्चों के लिए भी बहुत कुछ लिखतीं रहतीं है,यह प्रेरणा आपको कैसे मिली? वैसे भी साहित्य के उच्च स्तर की भाषा से उतर कर बच्चों के लिए सीधी-सरल भाषा पर आना उतना आसान नहीं होता,कैसे सामंजस्य बिठा पातीं हैं आप दोनों स्तरों में?
उत्तर- बच्चों के लिए लिखने की प्रेरणा बच्चों से ही और उनकी फरमाइश पर ही मिली। खुद मेरे अपने बच्चों को, विशेषतः बेटी को रोज रात सोने से पहले एक नई कहानी चाहिए थी, वह भी किताब से नहीं, मम्मी की कहानी। करीब दस साल की उम्र तक। सैकड़ों कहानियाँ जन्मी। फिर जब बच्चों के बच्चे हुए तो जिद करने लगे आप लिखो वह सब, जिससे यह और अन्य बच्चे भी जान पाएँ. थोड़ा बहुत जो भी याद आता है, या जिन्दगी जब भी वक्त देती है, लिख लेती हूँ। पात्र और कहानियाँ स्वयं अपनी भाषा चुनते हैं।भाषा की सहजता ही है शायद जिसकी वजह से लोग पूछ चुके हैं. क्या मेरा पंजाब या बंगाल से कोई नजदीकी ताल्लुक है या उर्दू से? ताल्लुक तो हर देशवासी से होता है। सुनकर अच्छा ही लगा था।
प्रश्न- आपकी ‘लेखनी’ पत्रिका आपकी ममता भरी गोद में जन्मी,शैशव काल से गुज़रती हुई पिछले पाँच-छह वर्षों से अपना सजा -संवरा रूप लेकर पाठकों का मन मोह रही है.ज़ाहिर है आपके दिल के भी उतनी ही करीब है यह .लेखनी में साहित्य की सभी विधाओं के रंग भरतीं हैं आप, एक मंजे हुए कुशल चितेरे की भांति .सबसे पहले ‘लेखनी’ को जन्म देने और स्वयं संपादन करने की प्रेरणा आपको कब और कैसे मिली?
उत्तर- घर-गृहस्थी के चक्कर में तीस साल से लिखने पढ़ने से बिल्कुल छूट चुकी थी। समकालीन साहित्य जरा भी पढ़ने को नहीं मिल पा रहा था। देश के युवाओं की सोच, गति और दिशा के बारे में जानना चाहती थी. इस क्षेत्र के प्रति नियमितता और प्रतिबद्धता का संयम पहली और मन लायक व एक-सी सोच के रचनाकारों और पाठकों को एक मंच पर लाने की इच्छा दूसरी वजह थी। पढ़ने और सबकुछ जानने समझने के लिए जिज्ञासु मन को संतुष्ट करना भाषा के प्रति रुझान का मुख्य कारण रहा है। बचपन से ही पिता जी १५-२० पत्रिकाएँ हर महीने लाते थे और हरेक को उलटती पलटती तो बचपन में भी जरूर ही थी। पढ़ना जो अच्छा लगा, वस वही। जबर्दस्ती आज भी नहीं पढ़ पाती। भारती, सारिका, धर्मयुग, बालभारती, चंदामामा और फैमिना व फिल्मफेयर का तो तब भी इंतजार सा रहने लगा था। फैमिना व फिल्मफेयर व ईव्स वीकली तब सिर्फ अंग्रेजी में ही आती थी। भारती , सारिका धर्मयुग और आजकल पत्रिका ने मुझे बहुत प्रभावित किया था।
प्रश्न- हिंदी और अंग्रेज़ी भाषा के अतिरिक्त आपने संस्कृत भाषा का भी अध्धयन किया है,संस्कृत सभी भाषाओं की जननी होते हुए भी आज किस मुकाम पर है?इस विषय पर अपने विचार देना चाहेंगी आप?
उत्तर-धरोहरों को संभालना अगली पीढ़ी के लिए एक बड़ी जिम्मेदारी है और संस्कृत हमारी बहुमूल्य सांस्कृतिक,साहित्यिक और वैचारिक धरोहर है. इसका दर्शन आज विश्व में हमारी गौरवमय पहचान है और इसके व्याकरण और शब्द -संरचना के आज पूरे विश्व के भाषाविद् कायल हैं। कइयों ने तो इसे सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा तक कहा है। भारतीयता का मूल…धर्म, संस्कृति और आचार-संहिता, इन ग्रन्थों से हमें आज भी मिलते है …धाती और जड़ों की तरह इसे संभालना हर भारतीय का धर्म है, वरना कड़ी-कड़ी चीजें बिखरती रहेंगी। और फिर फिसलन और टूट व बिखराव का अंत नहीं। संस्कृत को खोना अपनी जड़ों को खोना है।
प्रश्न-आपका रुझान कलात्मक है और विचार दार्शनिक,इन दोनों का सम्मिश्रण अपनी किसी रचना में किया है आपने? यदि ‘हाँ’ तो उस रचना के विषय में पाठकों कुछ बताना चाहेंगी?
उत्तर- जानबूझकर तो नहीं, पर मुझे लगता है ‘विसर्जन’ में इसका अच्छा समिश्रण खुद-बखुद हो गया है।
प्रश्न-वर्ष २००६ से लेकर २०१२ तक आपको देश -विदेश में कई सम्मानों से विभूषित किया गया कृपया इनके विषय में कुछ जानकारी दें।
उत्तर- हाँ, अवश्य -भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, साहित्य अकादमी तथा अक्षरम का संयुक्त अलंकरणः, काव्य पुष्तक समिधा के लिए लक्ष्मीमल सिंघवी सम्मान। (देहली), उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थानः उत्कृष्ट साहित्य-सृजन व हिन्दी प्रचार-प्रसार सम्मान (विदेश)। (लखनऊ),यू.के. हिन्दी समितिः हिन्दी सेवा सम्मान (लंदन),प्रवासी मीडिया सम्मान (देहली), ये अप्रत्याशित और अनायास थे, जिसके लिए मैं आभारी हूँ.सही संस्था और सही व्यक्तिओं से मिला सम्मान और कुछ नहीं, बस लोग आपको पढ़ रहे हैं और आपका लिखा पसंद कर रहे हैं यह जताता है. कुछ अच्छा बन पड़े और पाठकों के हृदय छूते पत्र आएं यह उपलब्धि मेरे लिए हर सम्मान से बड़ी है।
प्रश्न- वर्ष १९६८ से आप ब्रिटेन में रह रहीं हैं अपने परिवार के साथ. इस बीच आपने ब्रिटेन में हिंदी भाषा के प्रचार -प्रसार के कई आयाम देखे और इसमें अपना योगदान भी दिया, कृपया इस विषय में हमारे पाठकों को जानकारी दें?
उत्तर- जब आई थी १९६८ में, तो हिन्दी के शब्द तक सुनने को तरस जाती थी. पत्रिकाएं और हिन्दी की किताबें मिलने का तो सवाल ही नहीं उठता था. पहली बार जब –’अपना ही घर समझिए’- कार्यक्रम की हेडलाइन टी.वी. पर सुनी थी, तो रो पड़ी थी, इतना विचलित किया था इस पंक्ति ने. परन्तु आज स्थिति बिल्कुल विपरीत है. लगता है हिन्दुस्तान में ही हैं, सबकुछ उपलब्ध है. हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं से लेकर हिन्दी के कार्यकर्ता और हिमायती सभी खूब हैं अब तो यहाँ पर. यहाँ के पार्लियामेंट से लेकर बाजार और डिपार्टमेंटल स्टेर्स तक में हिन्दी की गूंज सुनाई देती है। पहले हिन्दी सिखाने की शुरुवात जो मंदिरों और घरों से हुई थी, आज प्रतियोगिता का रूप ले चुकी है. भाषा को ही नहीं हमारे खानपान तक का यहाँ की जीवनधारा में समावेश हो चुका है.
प्रचार-प्रसार कभी भी मेरा क्षेत्र नहीं रहा. हिन्दी के प्रति प्रेम, भारत के प्रति प्रेम और भारतीयता पर मेरे मन के गर्व की ही प्रतिछाया और विभिन्न आयाम हैं. अंतस की अभिव्यक्ति और दूसरे को समझने का सशक्त माध्यम होने की वजह से हर भाषा से प्यार रहा है. मैंने पाया है कि हर भाषा के शब्द की मूल कड़ी कहीं न कहीं आपस में जाकर जुड़ जाती है. हाँ, आज भी अपनों की भाषा होने की वजह से हिन्दी का इस्तेमाल और हिन्दी के प्रति रुझान अधिक है, इसमें भी संदेह नहीं.
प्रश्न-आप ब्रिटेन में ‘हिंदी-समिति’ से भी जुड़ी हुईं है.वहाँ हिंदी समिति द्वारा हिंदी की कौन-कौन सी साहित्यिक गतिविधियाँ होती रहतीं हैं .इसके अतिरिक्त और किन-किन संस्थाओं से जुड़ाव है आपका ब्रिटेन में?
उत्तर- पुरवाई पहली ब्रिटेन की मासिक पत्रिका के साथ-साथ कवि सम्मेलन, हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता आदि नियमित रूप से हिंदी समिति हर वर्ष करवाती आई है। और भी कई भव्य आयोजन जैसे विश्व हिन्दी सम्मेलन आदि भी हिन्दी समिति ने किए हैं। भौगोलिक दूरी के कारण मेरा बस थोड़ा-बहुत रचनात्मक सहयोग ही रहा है इसके साथ।
पहले जब किताबें वगैरह नहीं उपलब्ध थीं और नीरज, शिवमंगल सिंह सुमन, शिवानी आदि मेरे प्रिय कवि और कथाकार आए थे तो हिंदी समिति, गीतांजलि, कथा यू.के, कैनन पोएट्स, राइटर्स विथाउट बौर्डर, सेंचुरी पोएट आदि संस्थाओं से जुड़ी. परोक्ष और अपरोक्ष रूप से समय-समय पर जरूरत अनुसार जुड़ाव करीब करीब हर संस्था से रहा है मेरा. पर परिवार की पूरी जिम्मेदारी होने की वजह से हर समय भाग पाना संभव नहीं, जहाँ तक मेरा सवाल है,अब तो घर बैठे ही इंद्रजाल पर सब उपलब्ध है. संस्थाओं से जुड़ने का मुख्य कारण अच्छी रचनाओं का आस्वाद है मेरे लिए.
प्रश्न-एक स्त्री होने के नाते आज के बदलते सामाजिक परिवेश और गिरते हुए नैतिक-मूल्यों के सन्दर्भ में ‘नारी’ को आप कहाँ खड़ा हुआ पातीं हैं? क्या इस विषय को आपने अपनी किसी कहानी या लेख में स्थान दिया है ?
उत्तर- ‘विच’ और ‘एकबार फिर’ और कुछ हद तक ‘वापसी’ भी मेरी ऐसी ही कहानियाँ हैं जो नारी मन की छटपटाहट और बदलाव को दर्शाती हैं.नारी होने के नाते यह विषय बारबार उठा है मेरी रचनाओं में कविता और लेखों में तो कई बार. पहला लेख जो १९९७ या ९८ में लिखा गया था ‘वेदों से खेदों तक’ इसी विषय पर था. कविताएं और लेख बाद में भी कई लिखे. लेखनी के अंकों में भी जाने अनजाने यह विषय बार बार ही उठा है. इससे संबंधित कई मेरी रचनाओं को www.lekhni.net पर पढ़ा जा सकता है. अति के पक्ष में कभी नहीं रही. ‘ब्रा बर्निंग’ की इच्छा हुई भी तो सामूहिक प्रदर्शन मात्र भद्द उतरवाना ही है, ऐसा मेरा मानना है. बदलाव आक्रोशभरे प्रदर्शनों से नहीं, विचारों की दृढ़ता और प्रयास से आता है. जनमत जोड़ने से आता है. मुद्दा चाहे महिलाओं का हो या कोई अन्य, बात यदि सहज होगी, समझ में आएगी, और तभी मानी भी जाएगी. त्याग और संयम नारी के सहज गुण हैं. क्योंकि वह जननी भी है, अन्नपूर्णा भी और संगिनी भी. जननी-भरणी गुणों से भरपूर नारी को मैं नर का पूरक मानती हूँ. विरोधी नहीं. पर हाँ नारी न तो मनोरंजन है और न ही नर के आधिपत्य की वस्तु. नर और नारी के स्वभावजन्य गुण ही उनकी विशेषताएं हैं. उनका क्षरण न हो यह अभिवाभकों के साथ साथ समाज, शिक्षा और देश के कर्णधारों की भी जिम्मेदारी है. नारी को मात्र शरीर या सजावट की वस्तु मानने के मैं सख्त खिलाफ हूँ. हर रिश्ते में, हर व्यक्ति के साथ आदर और संवेदना का होना बेहद जरूरी है और वह स्वार्थ से बाहर निकलने पर ही संभव है. हर समाज की अपनी जरूरतें होती हैं. शिक्षा और स्वाधीनता के साथ खुद नारी को भी जीवन के साथ सही सामंजस्य करना ही होगा, जैसे कि पुरुषों को भी, तभी इक्कीसवीं सदी का सही उपयोग और आगमन संभव है. वरना तो झग़ड़े,तलाक और अस्थिरता ही है. अंधी दौड़ तो मुंह के बल ही गिराएगी.
प्रश्न- कृपया अपनी प्रकाशित कृतियों के बारे में कुछ जानकारी दें ?
उत्तर- अभी तक मेरी तीन पुस्तकें ही प्रकाशित हुई हैं। ‘समिधा’ –कविताओं की, जिसमें ९० कविताएं हैं, ‘ध्रुवतारा’- १७ कहानियों की, और ‘लंदन पाती’ ३३ लेखों की। मैं क्या कहूँ-आप… पाठक और आलोचक ही पढ़ें और मुझे बताएं तो अधिक अच्छा भी है और उपयुक्त भी.
कुछ रचनाओं के नैपाली और मराठी में अनुवाद भी हुए हैं. ‘घर का ठूँठ’, ‘कनुप्रिया’, ‘सूखे पत्ते’, ‘अनन्य’. ये चार कहानियाँ हैं.
घर का ठूँठ मराठी में और कनुप्रिया, सूखेपत्ते व अनन्य का नेपाली में।
प्रश्न- अपने विविधताओं से भरे लेखन -कार्य के इतने लम्बे अनुभवों के आधार पर हमारे आज की युवा पीढ़ी के कवियों और लेखकों को कोई सन्देश देना चाहेंगी?
उत्तर-चाहे जीवन हो या साहित्य, सच और प्रतिबद्धता को कभी नहीं छोड़ना चाहिए…सच और प्रतिबद्धता अपने साथ भी और अपनों के साथ भी।
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