साहित्य में आज भयानक राजनीति है – रूपसिंह चन्देल
(रूपसिंह चन्देल के साथ डॉ.बिभा कुमारी की बातचीत)
बिभा कुमारी : आज आप किसी परिचय के मोहताज नहीं, पर क्या अपने लेखन के शुरुआती दिनों में इस मुक़ाम पर पहुँचने की कल्पना की थी?
रूपसिंह चन्देल : मैंने कभी इस विषय पर नहीं सोचा. व्यक्ति को अपने कार्य पर विश्वास होना चाहिए. उसका कार्य उसका मुक़ाम तय करता है. मैंने सदैव लेखन के विषय में सोचा.
बिभाकुमारी : आपने अपने कई साक्षात्कारों में बताया है कि लेखन का आरम्भ कविता से हुआ, परंतु आगे चलकर कविता की बजाय गद्य की लगभग सभी विधाओं में निरंतर लिख रहे हैं? ऐसा कैसे हुआ?
रूपसिंह चन्देल : अपवाद छोड़ दें तो दुनिया के लगभग सभी साहित्यकारों ने प्रारंभ में कविताएं अवश्य लिखीं. मेरी शुरूआत भी तुकबंदी से हुई. आठवीं की परीक्षा के बाद गर्मियों में एक लंबी कहानी ’नौकरी की खोज’ लिखी थी, जिसका नायक मैं स्वयं था. नवीं में कुछ जासूसी उपन्यास पढ़े और उनसे प्रभावित होकर उपन्यास लिखने का निर्णय किया. बरसात के दिनों में बरौठे में फर्श पर दरी बिछाकर ’अधूरा प्रेम’ नाम से रोमांटिक उपन्यास लिखा, जिसका नायक मेरा सहपाठी बाला प्रसाद त्रिवेदी था. एक और उपन्यास शुरू किया, लेकिन पूरा नहीं कर सका. १९७१ तक उन्हें संभाल कर रखा, लेकिन छोटे भाई ने उन्हें रद्दी में बेच दिया था. इस दौरान भी तुकबंदी जारी रही. फिर शुरू हुआ वह दौर जब यह सब पीछे छूट गए. १९७७ के बाद पुनः लेखन की ओर उन्मुख हुआ. कहानी और कविता. एक संग्रह ’यत्किंचित’ भी छपवाया, लेकिन बच्चन जी की सलाह ने कविता से मुझे मुक्त कर दिया. उन्हीं दिनों एक मुलाकात में डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल ने कहा, “लेखक को आत्मचिन्तन करना चाहिए कि वह क्या लिख सकता है. उसे वही लिखना चाहिए.” उनकी बात कभी नहीं भूला. अपने को गद्य पर केन्द्रित किया. तुमने सही कहा मैंने कहानी,बाल-कहानी,उपन्यास, किशोर उपन्यास, संस्मरण, रिपोर्ताज, समीक्षाएं—-निरंतर लिखा और लिख रहा हूं.
बिभा कुमारी :अक्सर पाठक उन रचनाकारों की रचनाओं से अधिक जुड़ाव महसूस करते हैं, जिनकी रचनाओं में मिट्टी की सुगन्ध व्याप्त है, तो क्या ग्रामीण पृष्ठभूमि और लेखन के मध्य कोई खास संबंध होता है?
रूपसिंह चन्देल : पाठक उस हर रचना से अपना जुड़ाव अनुभव करता है जिसमें वह स्वयं को पाता है. उसे कल्पना नहीं वास्तविकता की तलाश रहती है. मिट्टी की सुगंध तो नगरों में भी है, लेकिन ग्रामीण पृष्ठ्भूमि से आया साहित्यकार जमीन से जुड़ा होता है. उसका अनुभव संसार व्यापक होता है. उसके यहां मिट्टी की सुगन्ध स्वाभाविक है. प्रेमचन्द की रचनाएं आज भी पाठकों को आकर्षित करती हैं और आगे भी करती रहेंगीं. लेकिन लेखन का कोई खास संबन्ध ग्रामीण पृष्ठभूमि से है—ऎसा नहीं है. नगरों-महानगरों में रहने वाले लेखकों ने, जिन्होंने गांवो को कभी निकट से नहीं देखा अच्छा साहित्य लिखा. लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि जिनकी जड़ें गांवों से जुड़ी रही हैं उन्होंने उनसे कहीं बेहतर साहित्य रचा. इसलिए गांव और नगर की मिट्टी में कुछ तो फर्क है ही.
बिभा कुमारी : ऐसे समय में जब स्वतंत्र क़लम चलाने पर जान तक से मार दिया जाता है, आप स्वयं को तथा अन्य लेखकों -पत्रकारों को लेखन पर डटे रहने के लिए कैसे प्रेरित करेंगे?
रूपसिंह चन्देल : निश्चित ही हम एक क्रूर समय में जी रहे हैं. सलमान रुश्दी और तसलीमा नसरीन के विरुद्ध फतवे जारी हुए तो सोचा था कि वहां तो कट्टरता है, लेकिन हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों की रचनात्मक स्वतंत्रता को कोई चुनौती नहीं होगी. परन्तु सन २००० के पश्चात से स्थितियां बदलनी प्रारंभ हुईं. हालांकि इसका प्रारंभ १९९२ से ही हो चुका था. लेकिन २००० के बाद कट्टरता तीव्रता से बढ़ी. उसकी आंच साहित्यकारों और अन्य कलाकारों तक पहुंचनी ही थी. कितने ही ऎसे संगठन उठ खड़े हुए जिनकी सोच सोलहवीं शताब्दी वाली है. इन सभी संगठनों को राजनीतिक प्रश्रय प्राप्त है. ये सलमान रुश्दी और तसलीमा नसरीन के लिए फतवा जारी करने वालों से कम कट्टर नहीं. मकबूल फ़िदा हुसैन साहब को देश छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा. पिछले दिनों कई लेखकों और पत्रकारों की हत्याएं केवल इसलिए हुईं क्योंकि वे वह सब लिख रहे थे जो इन्हें स्वीकार नहीं. निकट भविष्य में इस कट्टरता के कम होने की संभावना भी नहीं दिख रही. पिछले दिनों मैंने राम के विषय में कुछ लिखा तो मुझे जान से मारने की धमकियां मिलने लगीं थीं. ये कायर लोग हैं और कलमकारों को इनसे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं. इनकी सोच और कारनामों के प्रति कलम ही समाज को जागरूक कर सकती है. कलमकारों और अन्य कलाकारों को निर्भीक होने की आवश्यकता है—- जनता भी अब सब समझने लगी है. जिस दिन जनता पूरी तरह जाग जाएगी इन्हें मुंह छुपाने की जगह न मिलेगी.
बिभा कुमारी :आज भी भारतीय समाज में लेखन को कार्य नहीं माना जाता, फिर लेखन के लिए नौकरी से स्वैच्छिक अवकाश लेने की हिम्मत कैसे की, और किन प्रश्नों का सामना करना पड़ा?
रूपसिंह चन्देल : बिल्कुल सही कहा तुमने. भारतीय लेखक लेखन के बल पर जीने की कल्पना भी नहीं कर सकता. अंग्रेजी में लिखने वालों की बात नहीं करूंगा. जो कार्य जीविकोपार्जन की सुविधा नहीं दे सकता उसे लोग कार्य कैसे मान लें. अपवाद हैं. हिन्दी में ही. विष्णु प्रभाकर, भगवती चरण वर्मा, रांगेय राघव—यशपाल और अश्क को प्रकाशन खोलने पड़े थे. राजेन्द्र यादव ने भी कभी नौकरी नहीं की, लेकिन मन्नू जी दिल्ली विश्वविद्यालय में कार्य कर रही थीं. विष्णु जी ने अपने स्वतंत्र लेखन की स्थितियों से अवगत करवाते हुए मुझसे एक बार अपने कठिन दिनों की चर्चा की थी. रांगेय राघव मसिजीवी होने के कारण दिन में साठ पृष्ठ लिखते थे. लेकिन वह दौर कुछ और था. लोगों की आवश्यकताएं सीमित थीं. जीवन की महत्वाकांक्षाएं आसमान नहीं छू रही थीं. लेखक भी कम थे और लेखकों के प्रति प्रकाशकों का व्यवहार अलग था. एक सम्मान का भाव था उनके प्रति. लेकिन आज स्थितियां बिल्कुल भिन्न हैं. लेखकों की संख्या बढ़ गयी है. कितने ही अलेखक अधिकारी लेखक बन गए हैं क्योंकि वे प्रकाशकों को लाभ पहुंचाने की स्थिति में हैं. धनाड्य वर्ग सक्रिय है—उनका लिखा भले ही कूड़ा है, लेकिन उनकी पूंजी प्रकाशक को आकर्षित करती है. आज प्रतिभाशाली युवा लेखकों के सामने अपनी पाण्डुलिपि प्रकाशित करवाने की चुनौती है. छप गयी तो रायल्टी नहीं—कुछ प्रतियों से ही संतोष करना होता है. पूंजी का खेल जारी है. पत्रिकाओं की संख्या कम है और जो हैं वे उनमें कुछ ही हैं जो पारिश्रमिक देती हैं. अखबारों से साहित्य नदारत है. ऎसी स्थिति में आज का साहित्यकार तो बिल्कुल ही लेखन के बल पर जीवित नहीं रह सकता. स्वैच्छिक सेवाकाश लेने के विषय में लेने से दस वर्ष पहले से मैं सोच रहा था, लेकिन उपरोक्त स्थितियों के कारण साहस नहीं जुटा पाया. स्थितियां जब अनुकूल प्रतीत हुईं मैंने नौकरी छोड़ने में समय नष्ट नहीं किया. जो करना चाहता था, वह किया और कर रहा हूं, लेकिन २००५ से आज तक की रायल्टी यदि जोड़ूं तो वह इतनी भी नहीं होगी कि छः माह भी सही प्रकार रह सकता.
बिभा कुमारी :आपने कभी ऐसा अनुभव किया कि ज्यों-ज्यों पाठकों के चहेते बनते गए, मित्रों ने आपसे दूरी बनानी शुरू कर दी?
रूपसिंह चन्देल : ऎसा होता है. बहुत पीड़ा होती है. एक खास मित्र ने ऎसी अड़चनें पैदा करनी प्रारंभ की कि मैं कुंठित और परेशान होकर लिखना छोड़ दूं. हाल में एक मित्र ने फेस बुक में मेरे विरुद्ध अनर्गल बाते लिखीं. ये लोग जो कर सकते थे उन्होंने वह किया और मैं जो कर सकता था वह मैं करता रहा—अर्थात उनसे अप्रभावित लिखता रहा- लिख रहा हूं. ऎसी बातों को मैं चुनौती के रूप में लेता हूं और ऎसे लोगों से दूरी बना लेता हूं.
बिभा कुमारी :लेखनी आपको नियंत्रित करती है या आप लेखनी को?
रूपसिंह चन्देल : दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं. अपनी बात करूं तो मैं अपने को लेखनी का गुलाम मानता हूं.
बिभा कुमारी : लिखते समय आपका ध्यान इनमें से किस पर सर्वाधिक होता है- विषय, पाठक या भविष्य में मिलने वाली प्रतिक्रिया?
रूपसिंह चन्देल: सर्वाधिक नहीं पूर्णतया विषय पर केन्द्रित रहता है. भविष्य में मिलने वाली प्रतिक्रिया की कभी मैंने चिन्ता नहीं की और पाठक —- हर पाठक का रचना के प्रति अपना निजी दृष्टिकोण होता है.
बिभा कुमारी : गद्य की इतनी विधाओं में सफल लेखन के बावजूद आपने कभी नाटक या एकांकी पर हाथ नहीं आजमाया, इसका क्या कारण है?
रूपसिंह चन्देल : मुझे मंच का ज्ञान नहीं. नाटक पढ़े भी कम इसलिए साहस नहीं जुटा पाया.
बिभा कुमारी : आज के साहित्यिक परिदृश्य को कैसा देखते हैं?
रूपसिंह चन्देल : अच्छा नहीं है. भयानक राजनीति है. लिखने से अधिक लोग पुरस्कारों के पीछे दौड़ रहे हैं. सक्रिय और ईमानदार लेखक को हाशिए पर धकेलने के षडयंत्र होते हैं. पद और पूंजी का खेल चल रहा है, फिर भी कुछ लोग इस सबसे निरपेक्ष अपना कार्य कर रहे हैं और ऎसे लोग सदैव रहे हैं और रहेंगे.
बिभा कुमारी : ऎसी कौन-सी बात है जिसे आप कभी भूल नहीं पाए?
रूपसिंह चन्देल : अपनों के अपमान और अजनबियों के प्रेम,आदर और स्नेह.
बिभा कुमारी : अपनों और अजनबियों से आपका आभिप्राय?
रूपसिंह चन्देल : अपने यानी घर-परिवार,रिश्तेदार और वे मित्र जिन्हें अभिन्न माना. अजनबी वे जो अकस्मात मिले और आत्मीय बन गए.
बिभा कुमारी : कुछ खुलासा करें सर!
रूपसिंह चन्देल : वह सब आत्मकथा में पढ़ना. (यह कहने के साथ ही चंदेल जी का चेहरा गंभीर उदासी में डूब गया, मानों कोई अति अप्रिय घटना उन्हें याद आ गयी थी.)
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डॉ.बिभा कुमारी – मकान नं. १४, गली नं. १, भगवानपार्क,
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