ऐसा क्यों होता है कि रचनाकार रचना में तो अपराजेय पात्रों की सृष्टि करते हैं लेकिन स्वयं आत्महत्या कर लेते हैं। रचना में तो उद्दाम जिजीविषा, अदम्य साहस और किसी से न डरने की सलाह देते हैं लेकिन जीवन में समझौते कर लेते हैं। रचना में तो स्वतंत्रता को चरम मूल्य स्वीकार करते हैं पर खुद तानाशाही का समर्थन कर देते हैं। रचना को तो शोषण विरोधी मानव मुक्ति का घोषणापत्र कहते हैं पर खुद सुवर्ण सिंहासन का वरण कर लेते हैं। ऐसा क्यों होता है, यह सवाल मुझे बहुत बार परेशान करता रहा। मैने सबके लिए तो नहीं, पर अपने लिए इसका एक उत्तर ढूँढ लिया और वह यह कि केवल रचना का क्षण ऐसा होता है जिसमें रचनाकार वही होता है जो कि वह अपनी रचना में होता हैः
जिस समय वह लिख रहा होगा
सबसे अच्छी कविता
जरूर होगा उस समय वह
सबसे अच्छा आदमी
वह रचना का क्षण होता है जिसे महिम भट्ट ने ‘ अपूर्व दीप्ति‘ का क्षण कहा है। इस क्षण में चीजें जितनी साफ दिखाई देती हैं उतनी कभी नहीं दिखाई देतीं। इसी क्षण में वह संघर्ष शुरु और खत्म होता है जिसे कविता रचते हुए कवि का आत्मसंघर्ष कहा जा सकता है।
क्योंकि अभिव्यक्ति व्यक्ति के माध्यम से ही संभव होती है अतः कवि अपनी सृष्टि का प्रजापति है। किंतु जैसा कि आचार्य शुक्ल ने कहा है – ‘ मनुष्य लोकबद्ध प्राणी है। उसकी अपनी सत्ता का ज्ञान तक लोकबद्ध है…संसार-सागर की रूप-तरंगों से ही मनुष्य की कल्पना का निर्माण और उसके भीतर विविध भावों या मनोविकारों का विधान हुआ है। प्रत्यक्ष अनुभव किए हुए बाहरी रूप-विधान से ही स्मृत रूप-विधान और कल्पित रूप-विधान की योजना होती है।‘ अतः काव्य रचना में जो अनिवार्य स्थिति कवि की है वही उस अनंत रूपात्मक जगत की जिसके बीच वह रहता और लिखता है। कविता कवि की अत्यंत वैयक्तिक और अत्यंत सामाजिक क्रिया है। कविता में कवि ही समाज और समाज ही कवि हो जाता है। जिस क्षण में अनंत रूपात्मक जगत कवि में सिमट जाता है और कवि अनंत रूपात्मक जगत में लय हो जाता है, वही कविता रचते हुए कवि के आत्मसंघर्ष का क्षण होता है।
‘ रचना‘ या ‘ सृजन‘ शब्द का प्रयोग हम तबी करते हैं जब कोई नई और भिन्न चीज जन्म लेती दिखाई देती हो। कारखाने में यदि कोई मशीन एक प्रकार की घड़ियां या साबुन आदि ढाल रही हो, जिनके स्वरूप, गुण आदि में कोई अंतर न हो तो हम उसे ‘ रचना‘ नहीं कहेंगे। ‘ रचना‘ के लिए ‘ नया‘ और ‘ भिन्न‘ होना शायद अनिवार्य शर्त है। काव्य-संसार वह संसार होता है जिसे कवि असली संसार के बीच भाषा में रचता है-अपनी उद्भावना शक्ति, कल्पना शक्ति, अपनी दृष्टि और अपने कौशल द्वारा। कवि असली संसार को कुछ तराशता है, कुछ छांटता है, कुछ जोड़ता है। चीजों को अपना एक क्रम और संदर्भ देता है। कभी कोई शब्द बदलता है, कभी कोई वाक्य, कभी कोई मुहावरा। वह शब्द को व्याप्ति देता है, संकोच देता है, उत्कर्ष देता है और अपकर्ष भी देता है। पानी पानी मांग रहा है हिन्दुस्तानी (रघुवीर सहाय) में ‘ पानी‘ जैसा साधारण शब्द भी कितनी व्याप्ति लिए हुए है। सब आँखों के आँसू उजले, सबके सपनों में सत्य पला ( महादेवी वर्मा) में ‘ उजला‘ शब्द अपने भीतर कितनी आभा छिपाए है। इसी को कहते हैं कि कवि शब्दों को ‘चार्ज‘ करता है, जैसे बैटरी चार्ज की जाती है, और उन्हें नई अर्थवत्ता के साथ समाज को लौटा देता है। हम जिस संसार में रहते हैं उसमें भाषा परंपरा से मिली हुई है और सबको समान रूप से मिली हुई है लेकिन कवि उस भाषा का शोभन करता है, उसमें प्राण और उर्जा फूंकता है। यह मात्र भाषा का शोध या कवि का आत्मसंघर्ष नहीं, बल्कि कवि का मोक्ष भी है। इसे प्राप्त करने के लिए कवि को असंख्य बार रोना पड़ता है- कालिदास सच सच बतलाना, अज रोया या तुम रोए थे ( नागार्जुन) एक रचनाकार हजार रूपों में हजार बार मरता है- मरा हूँ हजार मरण ( निराला)। तभी वह लिख पाता है- रवि हुआ अस्त। ज्योति के पथ पर लिखा अमर। रह गया राम-रावण का अपराजय समर। इस कविता के शब्द , उनके विन्यास, तुक, लय- किसी में कोई परिवर्तन नहीं कर सकते आप। कवि के आत्ममंथन से निकले हुए रत्न हैं ये।
अपनी मां की मृत्यु पर मैं एक कविता लिख रहा था। चिता पर मां की काया जल रही है, पैर जल गए हैं मां के, हाथ और सिर जल गया है मगर अभी उसके स्तन नहीं जले हैं। अब मेरे समस्या है–‘ स्तन ‘ के लिए कौन-सा शब्द रखूँ ? यह शब्द मुझे बार-बार खटक रहा है। मुझे कविगुरू कालिदास की याद आती है। रघुवंश के राजा दिलीप का प्रसंग है। सिंह कहता है – ‘ ये जो सामने देवदारु दिखाई दे रहा है, इसे शिव अपने पुत्र के समान मानते हैं और इसे स्वयं मां पार्वती ने अपने सोने के घट रूपी स्तनों के दूध से सींच-सींचकर इतना बड़ा किया है।‘ ‘ अद्भुत श्लोक है। सारी दुनिया के साहित्य में मनुष्य और प्रकृति का इससे प्रगाढ़ और पवित्र संबंध नहीं मिलेगा। हेम कुंभस्तन निःसृतानां। इतना सुंदर उपमान! लेकिन मेरे लिए व्यर्थ। मुझे मां के लिए ‘स्तन‘ शब्द फिर भी अपने काम का नहीं लगता। एक वर्ष तक मन में निरंतर खटकते रहने के बाद एक दिन एक दूसरा शब्द दरवाजा खटखटाता है जिससे मुझे अद्भुत संतोष मिलता है और मैं लिखता हूः
सबसे पहले पैर जले मां के
फिर सिर जला
जल नहीं रहे थे मां के
अमृत पयोधर।
‘ स्तन ‘ की जगह ‘ अमृत पयोधर ‘। भीतर का कवि जो बंधन में छटपटा रहा था, मुक्त हो जाता है और तब मुझे आचार्य आनंदवर्धन और कुंतक की याद आती है। आनंदवर्धन ने सटीक शब्द को, जिसका कोई पर्याय न हो, ‘ ध्वनि काव्य ‘ कहा है। कुंतक कहते हैं कि किसी अर्थ का वाचक कोई एक ही शब्द होता है। कवि को ऐसे ही शब्द की तलाश करनी चाहिए।
कवि अपने अनुभव को नया, वास्तविक, जीवंत और प्रासंगिक बनाना चाहता है। वह जो अनुभव करता है उसे स्वयं ठीक-ठीक पकड़ना चाहता है। इसी को टी.एस. इलियट ने यों कहा है कि कवि के भीतर एक रचना-भ्रूण पल रहा होता है जिसके लिए उसे शब्द-संधान करना होता है। कविता रचते हुए कवि को बराबर लगता है कि कुछ छूट रहा है जिसे भाषा देना जरूरी है। यह भाषा और अनुभव का द्वंद्व है- कवि की अभिव्यक्ति का संकट। सूरदास ने अपने एक पद में इस संकट को बहुत अच्छी तरह व्यक्त किया हैः
अलि हौं कैसे कहौं हरि के रूप रसहिं।
अपने तन में भेद बहुत विधि, रसना न जानै नैन की दसहिं।
जिन देखे ते आहि वचन बिनु, जिनहिं बचन दरसन न तिसहिं।
कैसे कहौं हरि के रूप रसहिं ।
यह ‘ कैसे कहने का संकट‘ ही कवि की अभिव्यक्ति का संकट है। अभिव्यक्ति की खोज कवि कर्म है और कविता अभिव्यक्त करने की क्रिया। कवि मुक्तिबोध इसी परम अभिव्यक्ति अनिवार/ आत्म संभवा की खोज में ‘ अभिव्यक्ति के सारे खतरे ‘ उठाने को तैयार हैं। कवि इसी अर्थ में अन्य मनुष्यों से विशिष्ट होता है कि ‘ वह न केवल अभिव्यक्ति के लिए संघर्ष करता है बल्कि अभिव्यक्त करने की समस्या को सुलझा लेता है- अपनी अभिव्यक्ति को पा लेता है। महसूस तो सब करते हैं पर जितनी समर्थ अभिव्यक्ति कवि या रचनाकार दे पाता है, उतनी सामान्य व्यक्ति नहीं। बल्कि सामान्य श्रोता या पाठक कवि की अभिव्यक्ति को सुन या पढ़कर स्वयं अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य प्राप्त करता है। यह कवि और कविता की सफलता है। कोलरिज ने सही कहा है कि हम किसी व्यक्ति को कवि इस तथ्य से समझते हैं कि वह हमें भी कवि बना देता है। कवि उस दुनिया का साक्षात्कार करता है जो पाठक या श्रोता के चारो ओर है पर उनकी दृष्टि से ओझल है। चीजें जो अर्थहीन लगती हैं, रचना में उजागर होकर एक नया अर्थ देने लगती हैं। कवि अर्थहीन को अर्थ देता है, शब्दहीन को शब्द देता है, मौन को मुखर करता है। कविता शब्द और अर्थ की साधना है।
भाषा की एक सीमा होती है। जैसा कि हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है, भाषा मनुष्य की संपूर्ण इच्छाशक्ति को उसके संपूर्ण रूप में कभी संप्रेषित नहीं कर पाती। कवि अपनी विशिष् अनुभूतियों का साधारणीकृत करना चाहता है किंतु पाठक उसके सामान्य अर्थ ही गृहण कर पाता है। शब्दों की यह सीमा है। भाषा समाज स्वीकृत होती है। उसमें जो व्यक्त होता है वह सामान्य अर्थ का ही बोध करा पाता है। सेव भी मीठा होता है और केला भी। दोनों की मिठास में निश्चय ही अंतर है पर दोनों के लिए हमारे पास एक ही शब्द है ‘ मीठा‘ । यह हमारी भाषा की सीमा है। कवि भाषा की इस सीमा से टकराता है। इसी को भाषा और अनुभव का द्वन्द्व कहते हैं। द्विवेदी जी के अनुसार , भाषा की सीमा को तोड़ने के लिए ही कवि अप्रस्तुतों का विधान करता है, उपमा, उत्प्रेक्षा, काकुओं और वक्रोक्तियों का सहारा लेता है। वह नए शब्दों की रचना न भी कर सके तो शब्दोंमें नया अर्थ भरना चाहता है। रचनाकार के पास भाषा के अलावा कोई दूसरा औजार नहीं होता। भाषा ही उसकी सिद्धि है। मीर अपनी वसीयत में कहते हैं – ‘ बेटा, हमारे पास माल व मताए दुनिया में कोई चीज नहीं है जो आइंदा तुम्हारे काम आए लेकिन हमारा सरमाए–नाज कानूने जबां है जिस पर हमारी जिंदगी और इज्जत दारोमदार रहा, जिसने हमको खाके-जिल्लत से आसमाने शोहरत तक पहुँचा दिया। इस दौलत के आगे हम सल्तनते आलम को हेच समझते रहे। ‘ यह है भाषा के प्रति उस कवि की श्रद्धांजलि जो उर्दू शायरी का खुदा माना जाता है।
काव्य-रचना में कवि के मनोजगत की बुनावट, उसके संस्कार, उसकी कल्पनाशक्ति और उसकी दृष्टि का बहुत योग होता है। अगर ऐसा नहीं होता तो एक परिवेश में रहने वाले रचनाकारों की रचनाएँ भी एक जैसी होतीं। लेकिन हम पाते हैं कि एक ही समय में और एक ही शहर में रहने वाले रचनाकारों की रचनाओं में न केवल अंतर होता है बल्कि प्रायः विरोध भी होता है। प्रेमचन्द और जयशंकर प्रसाद की तुलना इस प्रसंग में की जा सकती है। कवि अपने संस्कार और मनोजगत के अनुकूल परिवेश में से अपनी प्रवृत्ति की चीजें पकड़ लेता है। रचना और यथार्थ के संबंध में ध्यान रखना होगा कि यथार्थ एक दृष्टि है जो रचनाकार में होती है। इसलिए रचना का यथार्थ वह है जो रचनाकार उसे देता है अर्थात कविता की महानता इस बात पर निर्भर है कि उसे रचता हुआ कवि कितना महान है यानी कि वह अपनी कविता को कितना महान बनाना चाहता है। तुलसी जब रामकथा लिख रहे थे तो केवल राम की कथा, जो कि निश्चय ही बहुत मार्मिक है, कहना मात्र उनका लक्ष्य नहीं था। उन्हें एक और बड़ी पीड़ा मथ रही थी जो अपने समय की पीड़ा थीः
हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहि पंथ।
जिमि पाखंड विचार तें, लुप्त होइं सद्ग्रन्थ।
समुझि परहिं नहिं पंथ-कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। तृणाच्छादित भूमि पर उन्हें लोगों के चलने के लिए एक पगडंडी बनानी थी और यह एक कठिन कर्म होता है। निराला भी ठीक यही महसूस करते हैं-गहन है यह अंध कारा । और आगे – खड़ी है दीवार जड़ को घेरकर। बड़ा कवि हमेशा अपने को एक प्रकार के बंधन में पाता है। वह अपने शब्दों से ‘ अँधकार की जड़ता‘ की दीवार को तोड़ना चाहता है। एक बेहतर दुनिया का सपना देखता है। ‘ सपना ‘ शब्द से चौंकने की जरूरत नहीं है। जिसके भीतर सपना नहीं है, वह कविता नहीं लिख सकता। हर बड़े कवि और विचारक के भीतर एक सपना होता है । मार्क्स के भीतर राज्यविहीन शोषणमुक्त समाज का सपना था, तो तुलसी और गांधी के भीतर रामराज्य का।
एक बात और। कवि का आत्मसंघर्ष इस बात पर मुनहसर है कि वह जिस दुनिया को रच रहा है या कि जिस अनुभव को शब्द दे रहा है, उसके प्रति उसकी संलग्नता, उसकी प्रतिबद्धता या कि उसकी आस्था कितनी गहरी है। तुलसी की कविता प्रमाण है कि श्रद्धा या आस्था अर्थात् पूज्य बुद्धि किस प्रकार कवि के अहंकार को गला देती है और उसकी वाणी निर्झर की तरह निर्मल तरल और शीतल हो जाती है। कोई जरूरी नहीं कि आपकी आस्था राम में हो, वह सांप्रदायिक सद्भाव में या दलित जीवन या वर्ग संघर्ष या राजनीतिक पाखंड के चित्रण में या और कहीं भी हो सकती है। मगर होनी चाहिए। दूसरों के दुख को अपना बनाने की कोशिश बहुत की , मगर न हुआ (श्रीकांत वर्मा) यदि बाहर का यथार्थ कवि की भीतरी वेदना न बन सका तो कविता में जीवन संभव नहीं है। कविता में प्राण प्रतिष्ठा बाहरी यथार्थ नहीं करता, स्वयं कवि करता है। इसलिए कविता वही होती है जो कि कवि स्वं होता है। सच्ची कविता आंतरिक विवशता में लिखी जाती है। एक ऐसी विवशता में जिससे कवि, बिना लिखे मुक्त नहीं हो सकता। इस प्रकार की विवशता यदि नहीं है तो कवि का आत्मसंघर्ष शुरू ही नहीं होगा। वह केवल जगत के संघर्ष का निर्जीव चित्रण करके रह जाएगा। यदि कविता कवि की आत्मसंभवा न बन सकी तो अनेक ज्ञानपीठ पुरस्कार, व्यास सम्मान, साहित्य अकादमी आदि के पदक-अलंकरण तथा मीडिया या पार्टी के भोंपू उसे आयुष्य नहीं दे सकते। कवि ही कविता का जीवन है और कविता ही कवि का ।
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
(जन्म २० जून १९४०)
‘मैं अपनी इच्छाएँ कागज पर छींटता हूँ’
प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार और २०१३ से २०१७ तक की अवधि के लिए साहित्य अकादमी के अध्यक्ष।
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