मैं अपने सरोकारों को कविता में दर्ज कर रहा हूँः
कवि लीलाधर मंडलोई के साथ ओम निश्चल की बातचीत
मुक्तिबोध की जिस पदावली से लीलाधर मंडलोई ने अपने तीन साल पहले आए कविता संग्रह ‘काल बाँका तिरछा’ का नामकरण किया है, वह इस अर्थ में उनके कल्पनाशील कवित्व को चरितार्थ करता है कि यहाँ मुक्तिबोध की तरह ही जीवन की तलछट में समाएँ सौन्दर्यशास्त्रा को अपने अनुभव के आकाश में उतारने की भरसक चेष्टा दिखती है। मंडलोई ने अपने लेखकीय जीवन की वर्णमाला अभावों और संघर्षों की पाठशाला से सीखी है, इसलिए उनकी कविताओं में जनजातियों के बे-आवाज उल्लास के साथ-साथ हाशिए पर फेंके गए समाज के आत्मसंघर्ष को सेंट्रल स्प्रेड देने की कोशिश मिलती है। घर घर घूमा, रात बिरात और मगर एक आवाज़ तथा काल बाँका तिरछा की कविताएँ इसे समय की बाँक पर रचे गए समाज विमर्श में बदल देती हैं। वस्तुनिष्ठता और संवेदना के सहमेल से रचे इस काव्यात्मक विमर्श में दुनिया-जहान के दुखों की साँवली छाया कवि के अंतःकरण को कचोटती है। इसलिए उसके इस कहे में भी एक अप्रत्यक्ष संताप दर्ज़ है जो उसके सरोकारांे को संजीदा और अर्थवान बनाता है। मैंने एक कुबड़े यथार्थ को दिया कंधा इस देश मेंµकहना उस यथार्थ को जानना और पाना है, जिस पर समय की अपार धूल अँटी है।
‘दिल का किस्सा’ में खुद मंडलोई ने अपनी प्रारंभिक जीवन यात्रा को जिन खदानों, श्रमिकों और ठेकेदारों के बीच गुज़रते देखा है उसकी थकी, ठहरी और उदास खनक से ही यह संग्रह शुरू होता है। खखरे का टोप मंडलोई के जेहन में समाई यादों का एक पाश्र्व चित्रा है, जिसे कैनवास पर उतारते हुए वे पैंतीस साल पहले के यथार्थ की गहरी खाई में उतर जाते हैं, और याद करते हैंµवह जगह जहाँ बचपन में ढोई उन्होंने मिट्टी, कुँवर ठेकेदार ने दिए रोज़नदारी में दस आने। भूले हुए अतीत का ही एक और पन्ना खोलती है- ‘पुकारते तासे की डगर’ शीर्षक कविता, जहाँ वे रुच्चा, कत्वारू और सुक्का के बेटे-बेटियों का अता-पता पूछते हैं, पर कोई सुराग नहीं मिलता। अलबत्ता एकाध को उनकी पहचान जरूर कौंधती हैµआप तो गुढी वाले लछमन के बेटे हैं न। यानी लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई, जिनकी अक्षय कीर्ति को क़ायम रखने के लिए मंडलोई ने उनके नाम पर एक युवा पुरस्कार का विधान भी किया है। पर इसी बीच कहीं से उभरता तासे (मृत्यु के समय बजने वाला शोक वाद्य) का रुदन उन्हें शोकार्त कर देता है। कठचंदन, बकौली और मौलश्री के भव्य अतीत की तुलना में भले ही मंडलोई का अतीत एक कुबड़े यथार्थ का ही पर्याय हो, पर वहाँ निश्चय ही जीवन की साझा उजास है।
दिव्य, भव्य और देदीप्यमान जीवन की सुखद और निरुद्यमी दिनचर्या से अलग रोज़-ब-रोज़ के संघर्षशील जीवन और नियति से मुठभेड़ करती अस्मिताओं की विनिर्मितियाँ मंडलोई के कवि-मन को अपनी मार्मिकता से सींचती हैं। वे गरबीली गरीबी में साँस लेते मानव की अस्तित्व-हीनता की उस दुर्लभ अनुभूतियों से रु-ब-रु होते हैं, जिनसे गुज़रते हुए सुचिक्कन जीवन शैली के अभ्यस्त कवियों को संकोच होता है। वे कविता को सुभाषितों और उद्धरणीयता में बदलने की बजाय क़िस्सागोई की प्रचलित सरणि अपनाते हुए नैरेटिव का एक ऐसा शिल्प अख्तियार करते हैं जो उनकी जीवन-दृष्टि को प्रखर और समावेशी बनाता है।
कविताओं के बीच फैली-बिखरी कवि-चिंता पर ध्यान दें तो वह सरकारी आँकड़ों के इस छद्म से वाकिफ है जो यह बताता है कि कालाहांडी में पानी बरस रहा है जरूरत से अधिक और फसलें लहलहा रही हैं हर बरसµउन्हें क्षोभ होता है कि वह कविता या एक टिप्पणी भर लिख कर अपनी भूमिका से संतुष्ट हो जाता है जो कि बुद्धिजीवियों के लिए एक आसान विकल्प है। याद आती है राजेश जोशी की वह कविता जो यह जताती है कि जब तक अपील जारी होती है, उसकी ज़रूरत ख़त्म हो चुकी होती है। एक कविता में कवि ठूँठ की तरफ पाँव बढ़ाते हुए सोचता है कि सूख चुका बहुत अधिक जहाँ/पक्षी जल के अलावा चाहिए होना मनुष्य जल कुछ। वह कन्हर-कान्हा अभयारण्य में नर और मादा चीता की जिस अद्भुत मिथुन मुद्रा का अवलोकन करता है, वह नरेश सक्सेना के शब्दों मेंµस्पेस की संपूर्णता में समाहित एक निजी स्पेस है। सृष्टि के इस अपूर्व दृश्य को पहाड़ी पर आरूढ़ होते सूर्य बिम्ब की तरह महसूसता कवि अपने भीतर की आत्महीनता के अंधकार से तुलना करता है और यह कहने में संकोच नहीं करता किµमैंने उस रोज अपना अंधकार देखा। कवि का यह अहं-विसर्जन न केवल प्रकृति के पक्ष में है, बल्कि यह प्रकृति के साथ कवि का मनुहार है। इसी तरह नई सड़क (किताबों की मंडी) पर किताब मिल जाने के बाद गाँव से आई एक स्त्राी की ‘कोमल खिस्स हँसी’ पर कवि न्योछावर हो उठता हैµवह हँसी निश्चय ही नगर-कन्याओं की नकली मुस्कानों के मुकाबले नैसर्गिक है।
कवि के सरोकारों का तेज अन्य जिन कविताओं में प्रखर है, उनमें कुछ चोखेलाल-सीरीज़ की कविताएँ हैं जो आम आदमी का प्रातिनिधिक चरित्रा है, मृत्यु का भय, कस्तूरी, पराजयों के बीच, अनुपस्थिति, मैं इतना अपढ़ जितनी सरकार, उन पर न कोई कैमरा, आपको क्यूँ नहीं दीखता, झाँकने को है एक अजन्मा फूल और अमर कोली प्रमुख हैं। ‘मृत्यु का भय’ से अचानक धूमिल की वह कविता कौंधती है जिसमें नौकरी छूटने वाले व्यक्ति की पीड़ा बयान है। ‘कस्तूरी’ में एक स्त्राी की संभावनाओं का दुखद अंत ही नहीं है, मानवीय सभ्यता की हिलती हुई शहतीरों पर प्रहार भी है। पर इन सब कविताओं के कथ्य के पीछे कवि की एक अंतर्दृष्टि सक्रिय है, जिसका संकेत पराजयों के बीच में मिलता है। यह कविता जैसे कवि का अपना मेनीफेस्टो है, जहाँ वह मुखर और प्रखर होते हुए कहता हैµईश्वर के भरोसे छोड़ नहीं सकता मैं यह दुनिया। उसके लिए छोटी-सी चींटी भी उम्मीद का दूसरा नाम है। वह कौल उठाता हैµमुमकिन है टूट पड़े कानून का कहर/कम से कम मैं एक ऐसा समाचार तो बन ही सकता हूँ/कि बंद पलकों में एक सही हरकत दर्ज हो/ बंद कपाटों में ऐसी हलचल कि सोचना शुरू होµअचरज नहीं कि ये पंक्तियाँ हमें दुष्यंत कुमार की याद दिलाती हैµमेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मंडलोई की कविता में भावुकता के विनियोग के मुकाबले तथ्यात्मकता का निवेश ज्यादा है। अनुपस्थिति में भी उपस्थिति बहुत कुछ को भाँप लेने की उनकी कविता अनुपस्थिति कुँवर नारायण के काफ्का के प्राहा में शीर्षक कविता के साथ-साथ पढ़ी जा सकती है। कुँवर जी जहाँ कहते हैं: एक उपस्थित से कहीं ज्यादा उपस्थिति हो सकती है कभी-कभी उसकी अनुपस्थिति, मंडलोई अनुपस्थिति की भयंकरता का अहसास दिलाते हुए कहते हैं, ‘मुझे होना चाहिए था संसद में/मेरी अनुपस्थिति से अब वहाँ अपराधी/अनुपस्थिति का शाप इतना भयानक/मंदिर में इन दिनों कब्जा शैतानों का।’ उनके सामने भूख से लड़ने के लिए जारी शताधिक कल्याणकारी योजनाओं की हक़ीकत है। भूखों की पहुँच से बाहर बहते पैसे से मनाए जाते अकाल-उत्सव हैंµऔर ऐसे बुद्धजीवी जो महज एक टिप्पणी लिख कर ही अपनी भूमिका से संतुष्ट हो जाते हैं। अनेक मानवीय उपस्थितियाँ कवि को कैमरे के फोकस से बाहर नज़र आती हैं जब वह देखता हैµमृत्यु सिर्फ उपभोक्ता ख़बर है दृश्य में/पहुँचती नहीं उन तक जो कभी भी तोड़ सकते हैं/ अपनी आखिरी साँस अटकी जो उम्मीद में कहीं (उन पर कोई कैमरा)
मंडलोई के काव्यात्मक गुस्से की भंगिमाएँ देखनी हों तोµ‘आपको क्यूँ नहीं दीखता’ और ‘अमर कोली’ जैसी कविताएँ जरूर पढ़नी चाहिए। तबेले में पशुवत जीवन जीते हुए मवेशियों के हालात का चित्रा खींचते हुए मंडलोई ने दुधारू पशुओं के प्रति क्रूरता का मार्मिक उदाहरण कविता के रूप में रखा है जो हमारी उत्तर आधुनिक हो रही सभ्यता की अचूक स्वार्थपरता का तीखा उदाहरण है। आश्चर्य है कि इस दुधारू-बाजारू सभ्यता में जहाँ प्राणि-प्रजातियाँ दिनों दिन लुप्त हो रही हैं, हमने अपने पालतू पशुओं को ही व्यापारिक हितों की बलिवेदी पर चढ़ा दिया है। इसी तरह अमर कोली की आत्महत्या का रूपक रचते हुए मंडलोई ने हमारे समय की मानवीय क्रूरताओं और संकीर्णताओं का जिस लहजे में खुलासा किया है, उससे यह पता लगता है कि मनुष्य मनुष्य के ही विरुद्ध किन-किन स्तरों पर व्यूह-रचना में निमग्न है।
मंडलोई की काव्य भाषा कविता की प्रचलित सौन्दर्याभिरुचि से थोड़ा अलग है। वह कई बार अनगढ़- सी दिखती और ऐसे स्थानिक शब्दों के प्रति अपनेपन का रवैया अपनाती है, जिसे देखकर सुगढ़ शिल्प के ख्वाहिशमंद पाठकों को किंचित भिन्न काव्यास्वाद का बोध हो सकता है। पर उनकी कविता में आंतरिक संगति और संगीत का सहकार उत्तरोत्तर प्रगाढ़ हुआ है जिसकी भावात्मक वेध्यता से बिंधे बिना नहीं रहा जा सकता। कविताओं के अलावा मंडलोई की शख्सियत के कई और पहलू हैं। उन्होंने आदिवासियों की लोककथाओं का संग्रह किया है। अंडमान निकोबार के आदिवासियों के बारे में विश्वसनीय जानकारियों वाले लेख लिखे हैं। हिन्दी के अनेक सुपरिचित लेखकों, कलाकारों पर फिल्में बनायी हैं तथा बीच बीच में मिले अवकाश के क्षणों में वे कविता, कहानी, उपन्यास व आत्मकथाओं, जीवनियों के सुधी पाठक भी रहे हैं। ‘कविता का तिर्यक’ समकालीन कविता पर उनकी संजीदा टिप्पणियों का संकलन है तथा ‘दानापानी’ उनकी डायरी जो अभी हाल ही में छप कर आयी है। शायरी और शायरों की सोहबत में रहकर मंडलोई ने अपनी भाषा को लगातार माँजा है। अचरज नहीं कि चुपके-चुपके मंडलोई ने अपनी शायरी का भी कोई संकलन तैयार कर रखा हो। क्योंकि वे मीडिया के आदमी हैं और मीडिया का आदमी हर फन में दखल रखता है।
मंडलोई मंडी हाउस में बैठते रहे हैं, इन दिनों आकाशवाणी निदेशालय में है जहाँ की व्यस्तताएँ अपार हैं। बैठकों और बैठकबाजियों के बीच ही उनका दिन गुजरता है। ऐसे में एक और बैठकी का स्पेस बना पाना संभव न था, किन्तु कमलाप्रसाद जी के इसरार के आगे हमारी और मंडलोई की एक न चली। लिहाजा यह बातचीतµजो पूरी बातचीत का एक लघु संस्करण है।
ओम निश्चल: सुना है, कृष्ण जन्माष्टमी के दिन पैदा हुए हैं, पर तिथि अज्ञात है। आपके भीतर का जो लीलाभाव है, उसका सम्बन्ध क्या कहीं कृष्ण जन्माष्टमी के दिन पैदा होने से तो नहीं है?
लीलाधर मंडलोई: एक कलाकार के भीतर यदि लीलाभाव नहीं है तो यह उसके जीवन की त्रासद घटना होगी। मैंने इस भाव को विकट परिस्थितियों में भी सदैव बचाया है। मेरे पिता के एक दोस्त थे चोखेलाल। उनका हर अच्छी-बुरी और मारक से मारक स्थिति में यही जुमला होता थाµ‘नाट फिकर चोखेलाल’ तो कुछ गाँव-खेड़े की मौज-मस्ती का नैसर्गिक स्वभाव हमें मिला और कुछ इस जुमले के चमत्कार ने बचाये रखा। एक सबसे अहम बात। मेरे माता-पिता शाॅ वेलेस और एन.एच.ओझा की प्राइवेट कोयला खानों में आजीवन रोज़नदारी वाले मजूर रहे सो फाका मस्ती का आलम कभी ख़त्म नहीं हुआ। माँ तब भी मस्ती में गाती थी। पिता भी मानस मंडली और आल्हा में मस्त रहते थे। इन दोनों की जिं़दादिली हमें विरासत में मिली। उनके लोकगीतों, आल्हा गायन और कबीर, रविदास, दादूदयाल, तुलसी, ईसुरी आदि के पदों में जो निर्गुण रंग था, वह मुझे भी थोड़ा-सा वरदानस्वरूप मिला।
ओम भाई, एक बात और। हम बुनकर होने की वजह से कबीर के वंशज कहे जाते हैं। हम (भाई-बहन) तो नहीं माँ, पिता, काका, मामा आदि इसी काम में लगे रहे थे। सो हमें कबीर साहब के जीवन-संघर्ष से बड़ा सबक मिला। इस तरह के औघड़पन और साफ़गोई के साथ संकटों में जीना हमारी मूल पूंजी है। इसे आप लीलाभाव भी कह सकते हैं क्योंकि मैंने कृष्ण के जीवन के अहम आयामों को थोड़ा-बहुत चुराने की कोशिश भी की है किन्तु असफल ही रहा। तो लीलाभाव यदि वह कहीं है भी तो उसमें मेरा किया-धरा कम है। उन सबकी वजह से अधिक है जिनका मैंने ज़िक्र किया। जन्माष्टमी के दिन जन्म एक संयोग ही होगा।
ओम निश्चल: अभी-अभी ‘कादंबिनी’ में प्रकाशित ‘हमारी पाठशाला’ जिो दृश्य और चित्रा आपने अपने बचपन की पाठशाला के उकेरे हैं, आज भी चालीस-पचास बरस के पहले के ग्रामीण भारत की पाठशालाएं ऐसी ही हुआ करती थीं। वही स्लेट, तख्ती, खड़िया, मिट्टी-धूल से सनी टाट-पट्टियां और दलित-पिछड़ी जातियों के बच्चों के प्रति ऐसी ही दीन हीन दृष्टियां। इस माहौल में, भेदभाव के इस वातावरण के विरुद्ध मन के कोरे स्लेट पर जो इबारतें लिख गयीं, उनका निहितार्थ क्या होता था?
लीलाधर मंडलोई: मेरी एक कविता हैµ‘दुक्ख से प्यार करो जीत होगी। इसमें छिपा है लड़ने का अमर नुस्खा।’ सो बचपन की स्मृतियों के भेदभाव को लेकर जो लगभग सनातन सत्य है यदि उसकी ‘कंडीशनिंग’ में फंस जाओ तो लड़ने की शक्ति एकायामी हो जाती है। इसका ट्रांसफर्मेशन अधिकतर घृणा और सतही विद्रोह में होता है। ‘हमारी पाठशाला’ के कुछ हिस्सों में ऐसे संकेत हैं किन्तु उन तत्वों को रचनात्मक दिशा माँ और पिता के धीरज और सीख ने दी। मुझे लगता है वह एक बेहतर रास्ता था, जिससे हम भाइयों और बहनों ने जीवन में संघर्ष करते हुए अपने को और परिवार को बदलने में तवज्जो दी। कहना न होगा कि इसके परिणाम काफी हद तक अनुकूल रहे। और भी कई हम सरीखे थे, जो साथ-साथ चले। कह सकते हैं कि यह एक सामूहिक चेतना थी। हमारे साथ हुए भेदभाव को लेकर यदि हम कंडीशंड हो जाते तो जीवन-भर उथलेपन से बाहर निकलने का रास्ता बंद हो जाता। मैंने संघर्ष के वैकल्पिक द्वार हमेशा खुले रखे। मुझे माँ की एक ‘कहनात’ सदैव याद आती रहीµ‘छै मइना की नई, बारा मइना की सोच के चलने हे।’ तो उनकी कहनात में आए ‘बारह महीनो’ का उल्लेख दरअसल दीर्घगामी काल के अर्थ में है। हमने माँ की इस ‘कहनात’ को हृदय में अंकित कर लिया। जो कुछ भी है उसमें देखा जाए तो उस आयु में समझ के स्तर पर हमारा अपना शायद कुछ न था।
ओम निश्चल
समर्पित गीतकार और समीक्षक