कविता आज और अभीः मार्च-अप्रैल 2020

वह आदमी
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सारी खिड़कियां बंद रखता है।
आखिर कभी भी
खिड़की पर आकर
बैठ सकता है कोई घायल कपोत।

गिर सकती है टप से
खून की एक बूँद
झक्क सफेद मेजपोश पर।

खिड़की से कभी भी
प्रवेश कर सकती है
कोई बारूदी गंध या विद्रोही आवाज़
बिना इजाज़त लिए

खिड़की से घुस आए
कहीं किसी बच्चे की
उद्दंड गेंद तो

खिड़की का खुला रहना
खतरे से खाली नहीं है।

खिड़की दीवार और
दिमाग में पाई जाती है।

सुजय पाल
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पिता
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पिता के खुरदुरे रौबीले चेहरे के पीछे
छिपा है एक कोमल चेहरा
जिसे सिर्फ बेटियाँ ही
पहचान पाती हैं

पिता बेटियों के लिए हैं,
होते हैं ऐसे आदर्श
जो बेटियों का
रूप गढ़ते हैं
उनके हाथ के झूले में झूल
पा जातीं वे सारी दुनिया

विदाई के अश्रु वे नहीं बहाते कभी
घोंघे के कठोर खोल के अंदर
दबा रह जाता उनका मन
लेकिन सबसे अधिक बेटी की
आड़ी-तिरछी चपाती
नमकहीन दाल
अधपकी सब्जी
जले साग को
वे ही याद करते हैं

पापा की प्यारी, पापा की दुलारी
कुछ माँ से ज्यादा उनमें ढलती हैं
माँ की सीख पोटली में
पिता का दुलार दिल में रखतीं हैं
ये माता की नहीं
पिता की बेटियाँ होती हैं

पिता के मौन से जगतीं
पिता के मौन में सोती हैं
फिर भी कहाँ खुलते हैं
पिता अपने बेटे-बेटियों के समक्ष
मौन में घुला उनका गीला मन
न देख ले कोई इसी कोशिश में
वे हरदम हर पल रहते हैं

ऊपर से खुरदुरे, गुस्सैल, रौबीले
भीतर से कंपित मुलायम
सब पिता ऐसे ही होते हैं

आज कविता
————–

कभी कविता
गुलाब बोया करती थी
गुलाब उगाया करती थी
कविता में था समय का स्पंदन
गेंहू, धान बो कर भी
हो जाती रही समृद्ध वह
साँसों में उसकी
गुलाब-जूही की चमक
फसलों की सोंधी महक
रहती थी कभी
कविता की बातों में
सीधी-सरल लकीरें
औ आदमियत की सुगंध
रहा करती थी।

आज कविता
सरल सहज नहीं
उसने अपने रंग, चलन, ढब
बदल लिये
न जाने कब से
उसकी बातों में
सरोकारों में
बंदूक, गोली, बारुद की
धमक भर गई

याने आज कविता
आज भी कविता
अपने समय का सच बताती है,
आज वह कलम से नहीं
बंदूक की निकली
गोली से लिखी जाती है
और हमें कितना अधिक डराती है।


हमें हमारा जंगल वापस दे दो
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मत छीनो हमारे खेतों की हरियाली
बीजों का निर्दोषपन,
माटी कारी – कारी
हमारे खेत में दो उगने
मकई , मड़ुआ, जौ, कंदा,
राई , केतारी, बेर – झाड़ी
नहीं चाहिए हमें
उगते हुए बिल्डिंगों का वन उपवन
कल – कारखाने
मशीन सयाने-सयाने

हम हैं खुश अपने जंगलीपन में ही
जानते नहीं क्या तुम
हमारे ये जंगल – खेत सदा
रखते हरा हमारा मन- आँगन
जंगल का हरापन
चट्टान का कड़ापन कब
हमें अभाव महसूसने देता है
तुम क्या दोगे
वो जो देता है

कुछ देना चाहते हो
सच में देना चाहते तो
हमें हमारा खेत-पठार
औ जंगल
वापस दे दो
वैसे ही साबुत का साबुत।

किन्नरों को समर्पित –
अधूरी देह, पूरी इच्छा
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कैसे समझ लिया है तूने
माँ नहीं हूँ मैं
बस इक अधूरी देह
यही है पहचान मेरी

तुम कितना जानते
कितना जानने की
की कोशिश
हाथ की बेमेल जुँबिश से उभरी
पहचान भर नहीं मैं
पांँवों की अबूझ थिरकन,
ना ही सस्ते गीतों में
ढलती हुई कोई शाम
चाँदनी को तरसती इक
काली-अँधेरी रात

तुमने मुझे, हमें बना डाला
अछूत दूसरे जगत का प्राणी
मैं नहीं किसी और ग्रह की जीव
तुम्हारे आँगन में उतर आती
आशीषों की झोली में सूप भर
पुष्पों की सुगंध थामे हुए
अनजाने नृत्य की भाव-भंगिमाओं संग

चंद खनखनाते सिक्के मात्र
मेरा प्राप्य नहीं
गोद में लेकर जिस
नवजात बच्चे को दुलराती
आशीर्वाद अक्षत से नहलाती
कहीं ना कहीं मेरी इच्छाओं में भी
करवट लेता रहता है
वह मासूम पेटजाया बन

हाँ! सत्य है
मैं ना नर परुष और
ना ही नारी सुकोमल

अधूरी देह हूँ मैं
लेकिन
पूरी इच्छाओं से भरी ।
*****

अनिता रश्मि
anitarashmi2@gmail.com
***

हत्‍याओं से नहीं कॉंपते सत्‍ता के रोयें
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चारो तरफ सवाल
समय के भटके हुए चरण,
कौन हल करे इतने सारे
उलझे समीकरण।

गश्त कर रहे नियमों के
अनुशासन के घोड़े
सत्ता के सुख में डूबी
कुर्सियॉं कौन छोड़ें
सिंहासन तक नहीं पहुंचती
आदम की चीखें
दु:शासन के हाथ हो रहा
जिसका चीरहरण ।।

चेहरों पर जिनके नकाब
दिखता कुछ उन्हें नहीं
आम आदमी भेड़-बकरियों
से पर अलग नहीं
जिनके हाथो में
समझौतों के बासी परचम
बाँच रहे हैं कत्लगाह में
वे मंगलाचरण ।।

राजा का फरमान हुआ है
मंत्रीगण सोऍं
हत्याओं से नहीं कॉंपते
सत्ता के रोयें,
आड़ धरम की लिए सियासत
बेच रही सपने
टूट रहा है लोकतंत्र के
नट का वशीकरण ।।

ओम निश्‍चल

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नमन मेरे देश
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यह देश हमारा, यह देश तुम्हारा
दफन इसी मिट्टी में सब
राम रहीम और सिकंदर
ना मन वैरागी ना यह अनुरागी
राख मले बैठी मांग सुहागन
आग लगाए गली लगी
पर नफरत बंजारन…

सुबह के इंतजार में
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शांति के इस कमल में
बन्द हो चुका है भंवर
कुत्सित कामनाओं का
ताकत और अहंकार का
प्यार नहीं , भुनभुन है बस अब
अनगिनित विकारों की
झूठी शान-शौकत, लालच भरी बिसात
पंख फड़फड़ाते पंछियों-सी बेचैन हलचल
तम चीरती किरन की राह तकते सभी अब सुबह के इंतजार का….


गांधी के इस देश में
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गूंजता एक नारा देश हमारा
हम देश के
बस तभीतक जबतक कि
कोई कानून नहीं,
चलती रहे मनमानी
गांधी के इस देश में
धरने पर बैठ गए हैं लोग
बिना देश का, अपना हित जाने
बिना गांधी के सिद्धांत समझे
बिना उस आत्म संयम या विश्वास के
भटके और बिके ये लोग
कल मांग पूरी न होने पर
गोली चलाएंगे देश जलाएँगे
और एकबार फिर देश हमारा
लाचार अपने घाव सहलाएगा
दूसरा गाल भी आगे बढ़ाएगा
ताकि खड़ी न हो जाएँ फिर से
नफरत की वो दीवारें
जिन्हें गौतम और गाँधी ने
गिराया था घरबार तजकर
सीने पर गोली खाकर
गोडसे नही,
गांधी के इस देश में….


ढह रही हैं दीवारें
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खड़े जिनके नीचे हम पीठ लगाए
इंट गारा सीमेंट पानी सब उपलब्ध
फिर भी दलदल
समझ की कमी या सहानुभूति की
खो गई है वो धुरी शायद
अब आपसी विश्वास की
*****


शैल अग्रवाल
shailagrawal@Hotmail.com

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एक ने कहा –
हमारा धर्म खतरे में है
चलो, विधर्मियों से लड़ते हैं
देखते-देखते उसके पीछे
हजारों की भीड़ जमा हो गई

सामने से दूसरे ने कहा –
वह झूठ बोलता है
धर्म वस्तुतः हमारा खतरे में है
आओ उनसे लड़ते हैं
उसके पीछे भी
हजारों लोग लग गए

मुझे उनके धर्म की नहीं
उन सबकी चिंता थी
मैंने चीख-चीखकर कहा –
आओ, हम सब मिलकर
उनसे लड़ते हैं
जिनकी वजह से
हम सब खतरे में हैं
मेरे पीछे कोई भीड़ नहीं आई

वे दोनों हर बार
लड़-मरकर भी जिंदा रहे
और मैं बिना लड़े ही
हर बार मारा गया !


इसके पहले कि,
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इससे पहले कि पागल हो जाएं
हमारे देश के सियासतदान
हमारे बच्चे थाम लें
हाथों में किताबों की जगह
पत्थर, बंदूकें और बारूद
सड़कों पर बढ़ने लगे
पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों का जमाव
जले मकानों और स्कूलों के
मलवों से भर जाएं सड़कें
और कांच के टुकड़ों से नींद
एक-एक कर बेमानी हो जाएं
तमाम भाषाओं के मुलायम शब्द
मैं लिख छोड़ना चाहता हूं
अपने बच्चों के लिए
दुनिया का सबसे खूबसूरत प्रेमपत्र
उनके सबसे बुरे दिनों के लिए !

ध्रुव गुप्त

***

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