हम तो तुम्हारे शहर में, आये थे कुछ कमाने
अब सोचते हैं क्या क्या ,खोया है हमने जाने
पहले तो अपना खोया, वो गाँव प्यारा प्यारा
मिट्टी में जिसके बचपन, बीता था अपना सारा
गलियाँ हरेक उसकी, अम्मा की गोद जैसी
और पेड़ ज्यूँ बापू के, काँधे का हो सहारा
पत्थर जड़ी ये सड़कें, अब तो लगी डराने
अब सोचते है क्या क्या, खोया है हमने जाने
बचपन के संगी साथी, यारों की थी वो टोली
वो खेलना, झगड़ना, करना हँसी ठिठोली
मस्ती थी, प्यार था और,कागज की कश्तियाँ थी
हर रात थी दिवाली, हर दिन था जैसे होली
अब तो हुए है मुश्किल, त्यौहार भी मनाने
अब सोचते हैं क्या क्या, खोया है हमने जाने
वो भाई बंधुओं से, भरपूर अपना घर था
मिलजुल के सब थे रहते, संतोष था सबर था
आशीष था बुजुर्गों का, सिर पे छत के जैसे
चिन्ता कोई नही थी, ना दिल में कोई डर था
अब दौड़ती दुनिया में, कोई जाने ना पहचाने
अब सोचते है क्या क्या, खोया है हमने जाने
हो कर के रह गये है, अब तो मशीन जैसे
छोटे से एक घर में, दुनिया हो तीन जैसे
सर पे जो छत है उसपे, रहता है और कोई
पैरों तले नही है, अपनी जमीन जैसे
इक दूसरे से मिलते, जैसे कोई अनजाने
अब सोचते हैं क्या क्या, खोया है हमने जाने
सोचें कि क्या कमाया, हो पाता तय नही है
परिवार के लिये भी, जैसे समय नही है
पैसा तो खूब पाया, दिल का सुकूं गंवाया
जैसे कि साज तो है, पर उसमें लय नही है
हँसने को भी पड़ते है, अब ढूँढने बहाने
अब सोचते हैं क्या क्या, खोया है हमने जाने
तय न कर पाये जिसे इंसान, इतना भी नहीं
ज़िंदगी का रास्ता वीरान इतना भी नहीं
उफ़्फ़ क़यामत,देखिये पत्थर बंधे हैं पाँव में
पर हमारा हौसला, बेजान इतना भी नही
तुमने बेशक आइने सारे छिपा कर रख दिये
अपने चेहरे से मगर, अंजान इतना भी नही
ग़र्दिशे हालात ने भूखा सुलाया हो भले
ग़ैर का हक़ लूँ मैं, बेईमान इतना भी नहीं
वो भले कितना भी हो सौदागरी का बादशाह
इल्म का सौदा करे, धनवान इतना भी नहीं
मैं सियासत से भले ही दूर रहता हूँ सदा
पर न समझूँ मैं इसे “नादान” इतना भी नहीं
शजर से टूट कर पत्ते का कोई दर नही होता
कटा जो अपनी मिट्टी से,फिर उसका घर नही होता
हजारों ख़्वाब ले कर, दूसरे के घर चले जाओ
पराई रोशनी का अपना सा मंजर नही होता
जड़ें जिसकी रही क़ायम, कभी उस पेड़ पर यारों
हजारों आँधियाँ गुजरें, असर तिलभर नही होता
हम अपने हौसलों के पंख जो पहचान लें पहले
तो फिर परवाज़ करने में कोई भी डर नही होता
लुटाये गुल मुहब्बत के,यहाँ जिस शख़्स ने हरदम
कभी उस हाथ में, नफ़रत भरा पत्थर नही होता
खुदा की राह में जो नेकियों के साथ चलता है
बगल में उसकी, कोई घात का खंज़र नही होता
सम्भालो कद जरा ‘नादान’ चादर के मुताबिक तुम
वगरना पैर ढकने पे, ढका हो सर, नही होता
बसे मग़रिब की हवा इस सिम्त को आने लगी
आँख से शर्मो हया की रोशनी जाने लगी
आ रही है धूप रिश्तों पर न जाने कौन सी
जो मरासिम की हसीं कलियों को झुलसाने लगी
ढूँढ़ने निकले थे हम किरदार की अच्छाइयाँ
पर ये दुनिया तुहमतों के तीर बरसाने लगी
जब भी हमनें नेकियों की राह पर रक्खे क़दम
रहनुमा बन कर बदी रस्ते से भटकाने लगी
चाँद बेचारा अकेलापन लगा है झेलने
गीत सूरज के चकोरी रात दिन गाने लगी
मूँद कर “नादान” आँखें बैठना भारी पडा
बाड़ इतनी बढ़ गई अब खेत ही खाने लगी
बसे मग़रिब की हवा इस सिम्त को आने लगी
आँख से शर्मो हया की रोशनी जाने लगी
आ रही है धूप रिश्तों पर न जाने कौन सी
जो मरासिम की हसीं कलियों को झुलसाने लगी
ढूँढ़ने निकले थे हम किरदार की अच्छाइयाँ
पर ये दुनिया तुहमतों के तीर बरसाने लगी
जब भी हमनें नेकियों की राह पर रक्खे क़दम
रहनुमा बन कर बदी रस्ते से भटकाने लगी
चाँद बेचारा अकेलापन लगा है झेलने
गीत सूरज के चकोरी रात दिन गाने लगी
मूँद कर “नादान” आँखें बैठना भारी पडा
बाड़ इतनी बढ़ गई अब खेत ही खाने लगी
नाम : ताराचन्द शर्मा
उपनाम : “नादान”
जन्म तिथि : 29/10/1962
जन्मस्थान: जालावास, जि. अलवर, राजस्थान
वर्तमान निवास : दिल्ली
स्थायी पता : H-54C, रामा पार्क रोड, मोहन गार्डन
उत्तम नगर, नई दिल्ली (भारत)110059
संपर्क सूत्र : मोबाइल +91 9582279345
ईमेल : taracsharma@gmail.com
शिक्षण काल : हाई स्कूल,हरियाणा
बी.कॉम, जयपुर यूनिवर्सिटी
व्यावसायिक शिक्षा: डिप्लोमा इलेक्ट्रॉनिक्स
व्यवसाय: प्राइवेट जॉब
मैनेजर-सर्विस,(Intex Technologies (I) Ltd
रुचि : लिखना, पढ़ना, गाना, बजाना, अच्छा संगीत सुनना, चित्रकारी।
लेखन: गीत, ग़ज़ल, दोहे, मुक्तक, माहिये, छंदबद्ध व छंदमुक्त कविता, क्षणिकाएँ इत्यादि विधाओं में निरंतर कोशिश।
प्रकाशन : साझा संकलन गुलदस्ता-ए-गंगो-जमुन व साझी उड़ान में गीत, ग़ज़ल, दोहे प्रकाशित।
विभिन्न साहित्यिक एवं फिल्मी पत्रिकाओं में समय समय पर रचनाएं प्रकाशित।
काव्यपाठ : दूरदर्शन व लोकसभा टीवी पर काव्यपाठ।
साहित्यिक गोष्ठियों, कविसम्मेलनों/ मुशायरों में काव्यपाठ।
अन्य : ग्रुप साहित्यिक यात्राऐं।