सन्नाटे की उस शिला पर खड़ी शैली खुद हैरान, ठगी हुई सिर्फ़ शून्य को देख सकती थी. यह वही जगह थी, उसका अपना ससुराल, जहाँ उसने भूतकाल की ज़मीन पर भविष्य के बीज बोए थे. वही भविष्य उसका ‘आज’ बन कर खड़ा है और वह खुद सोच की गहराइयों में गुम-सुम, अपने अतीत की परछाइयों से आती उन सिसकती आवाज़ों को सुन रही है-
‘बहू आओ यहाँ मेरे पास आकर बैठो. ’ दशहरे के अवसर पर पंडाल की उस भीड़ में अपने पास कुछ जगह बनाते हुए रोचना ने अपनी बहू शैली को आवाज़ दी।
“मम्मी मैं यहीं पीछे खड़ी हूँ, ये भी मेरे साथ है।” कहकर शैली आगे बढ़ गयी और तारीकियों के साये में घिरी रोचना बहू को जाते हुए देखती रही. उसे न जाने क्यों आभास होने लगा कि वह जब भी अपनी बहू को पास लाने की कोशिश करती है, वह उतने ही वेग से रोचना से दूर चली जाती है. यादों की उन खाइयों में उसके साथ रह जाती हैं सिर्फ़ कुछ परछाइयां जो एकान्त में उसे कचोटती रहती है और उस नाज़ुक रिश्ते की चुभन को कम करने के लिए वह कुछ अनदेखे आँसू बहा लेती है।
यह दर्द भी अजीब है, अपने इज़हार के ज़रिये ढूँढ ही लेता है। वरना एकांत के इस कोहरे की घुटन में जीना मुहाल होता। “माँ
हम ‘माल’ जा रहे है, आप भी हमारे साथ चलिए !” सुनते ही रोचना के दिल की दहलीज़ पर आशा के दिए झिलमिलाने लगे. हर्षो-उल्लास की भावनाएँ मन ही मन में लिए वह बहू-बेटे के साथ माल पहुंची। पर वहाँ पहुँचकर शैली एक ट्रॉली लेकर न जाने दुकानों के किस भूल भुलैया में खो गई और साथ देने के लिये बेटा रोहित भी चला गया। बस एक बार फिर उस शोर में वह भीड़ का हिस्सा बनकर रह गयी। यह पहली बार नहीं हुआ था, पहले भी कई बार वे उसे यूं भीड़ में अकेला छोड़कर घंटों ग़ायब हो जाते। इस बार-बार के छलावे से उचाट होकर रोचना उनके आने के इंतज़ार में एक बेंच पर बैठ गई। उस दिन जब घर लौटी तो तन के साथ-साथ उसका मन भी बीमार सा हो गया।
मन भी कब किसी का खाली बैठा है, साथ देने के लिये सोचों के खज़ाने लुटा देता है. रोचना का मस्तिष्क भी तेज़ रफ्तार से उसके चोट खाये हुए मन को घेरे हुए था। उसे पता ही नहीं पड़ा कि वह कब सोचों की सेज पर सो गई. उठी तो शफ़ाक़ सोच उसके साथ थी। अब उसे बाहर जाने की बजाय घर की तन्हाई में पड़े रहना ज़्यादा गवारा लगा. अब जब कभी भी बेटा आकर साथ चलने के लिये कहता तो वह, न जाने का कोई न कोई बहाना बताकर घर में रह जाती। कम से कम अनचाही चोट के आघात से तो बची रहती।
“माँ कभी हमारे साथ भी बाहर चला करों, हमेशा घर में बैठी रहती हो।” एक दिन बेटे ने आकर कहा। जवाब में रोचना का फिर वही एक नया सबब रहा। अब शैली को अहसास हुआ जा रहा था कि उसकी सास जो उसकी हाँ में हाँ मिलाने के लिए हमेशा आतुर रहती थी, जाने किस कारण बहुत कहने पर भी उनके साथ कहीं आती जाती नहीं।
एक दिन शैली ख़ुद सास के पास जाकर उनको साथ चलने के लिए अनुरोध करने लगी। लेकिन रोचना का मन अब एकांत में ठहराव पाने लगा था। अब मन की भावनाओं में हलचल के उतार-चढ़ाव से किनारा करने की आदी होने लगी थी। इसलिए शैली की ओर देखते हुए शांत स्वर में कहने लगी- “नहीं बेटे तुम और राहुल दोनों हो आओ। मैं तुम दोनो के पीछे चलते-चलते बहुत थक जाती हूँ।” सूनी आँखो से अपने बेटे रोहित की ओर निहारते हुए कहा, जो उसी वक़्त आकर शैली के पीछे खड़ा हुआ था। रोचना को लगा जैसे वह अपने आप से बात करती रही, ख़ुद कहती रही, ख़ुद सुनती रही.
“माँ चलिये न!” अब रोहित ने शैली के सुर में सुर मिलाया।
“बेटे न जाने क्यूँ इस चार दीवारी में मुझे सुकून सा मिलता है।” और अपनी सोच की भीड़ में गुम सुम रोचना अपने आप सिमटती चली गई। शायद वह बखूबी जान गई थी कि बाहर की भीड़ में अकेली पड़ जाने से घर में अकेला रहना बेहतर है।
अनकहे शब्दों की गूँज शैली के दिल पर दस्तक देती रही. वह इतनी भी नासमझ नहीं थी, जो बात की गहराई में लिपटे नंगे सच को न जान पाती. अपने आचरण की उपज के बोए बीजों के कोंपल देख रही थी, अपने नादान रवैये की उपज को देख रही थी, जो लहलहाने की बजाइ , सूखकर, मुरझाकर, कुम्हला रही थी. वही भाव नागफनियों की तरह उग रहे थे उसकी आँखों में, उसके जेहन में। अब वह जब कभी अपने पति और नन्हे बचे के साथ शॉपिंग माल में जाती, तो उसका मन उसे इस क़दर कचोटता कि वह उस डंक से खुद को बचा न पाती. अपनी हो सोच के तानों से बुने हुए जाल में वह फंस गई थी। उसे आभास होने लगा जैसे उसकी सास रोचना अब उसकी आवाज़ सुनती ही नहीं या सुनना नहीं चाहती. उसके मन के चक्रव्यूह में घुसना उसके लिये मुश्किल हुआ जा रहा था.
एक दिन रोचना ने एक थैले में कपड़े और ज़रूरत का सामान रखते हुए शैली से कहा-“बहू आज मैं अपनी सहेली कान्ता के घर कीर्तन के लिए जा रही हूँ, दो दिन उसके पास रहकर लौटूँगी.” शैली ने खाली नज़रों से उनकी ओर देखा पर कुछ कहे उससे पहले रोचना ने अपने कपड़ों का थैला उठाया और थके हारे क़दमो से घर के बाहर जाने लगी। शैली को लगा जैसे वह अपना भविष्य दरवाज़े से बाहर जाता हुआ देख रही है, “माँ रुकिए, में आपको कार में छोड़कर आती हूँ।” अध खुले अधर कहकर भी न कह पाये।
उसकी धीमी आवाज़ रोचना के कानों तक न पहुँच पाई। इस एकाकी दुख ने उसके कलेजे में खलल पैदा कर दिया, जहां घुटन के सिवा कुछ न था, और उस घुटन का धुआँ धीरे धीरे उसके अस्तित्व को घेरता रहा। धुंध के इस चक्रव्यूह को वह तोड़ना चाहती थी। पर रोचना ने अपने आपको इस क़दर शांत और एकाकी माहौल में ढाल लिया था कि उसे परिवार की हलचल में भी सन्नाटा लगने लगा। उसे तन्हाई से लगाव हो गया था और वह अकेले रहने के मौक़े को तलाशती, बहू से दूर, अपने बेटे से भी दूर, जहाँ उसकी आँखे कभी उनमें अपनेपन की आस न टटोले। वे अपने जो उसे कहीं भी किसी भी जगह अकेला छोड़कर चले जाने की हिमाकत कर सकते हैं। यह सिलसिला कई महीने चलत रहा। रोचना आए दिन अकेली कभी कीर्तन में चली जाती, कभी बाहर बगीचे में घंटो जा बैठती और कुदरत की सुंदरता की अनुपम छवि के साथ घुलमिल जाती. अब शैली को सास का इस तरह घर में होकर भी न होना खलने लगा. उसकी गैर मौजूदगी और भी ज़्यादा खलने लगी. उसे अहसास हुआ कि सास को वह कभी भी अपनी माँ समझ नहीं पाई। यही सोच शायद दूरिया बढ़ाने में मददगार हुई थीं। हालांकि रोचना हमेशा घर के काम में, रसोई में उसका हाथ बंटाया करती, गैर मौजूदगी में खाना बनाकर रखती थी। काम वह अब भी करती रही और फिर हो जाने पर अपने कमरे में अकेली पड़ी रहती। घर में इन्सान हो और न हो, कोई आस-पास हो और न हो, तो कैसा महसूस होता है? शैली को इस बात का पूरी तरह आभास हुआ. अपनी नदानियों के नतीजा सामने सर उठाकर उसका मुंह चिढ़ा रहा था।
एक दिन अचानक वह अपनी सास रोचना के कमरे में चले गई, जो कहीं कीर्तन पर जाने की तैयारी में लगी हुई थी।
“माँ आज मैं भी आप के साथ कीर्तन में चलूंगी।” और रोचना उसकी नम आवाज़ सुनकर चौंकी। सर उठाकर उपर देखा, शैली का पूरा अस्तित्व भीगा भीगा सा था. वह चुनरी के कोने को लपेटते हुए जवाब की प्रतीक्षा में खड़ी रही. कुछ सोचकर रमा ने कहा ‘अच्छा बहू मुन्ने के कपड़े मुझे ला दो, मैं उसे तैयार करती हूँ और तुम जाकर जल्दी तैयार हो आओ. समय हो गया है।’
कीर्तन स्थान पर पहुंच कर रोचना ने एक उचित स्थान ग्रहण किया तो बिल्कुल पास में ही शैली भी बैठ गयी। अपने बेटे को सास के पास बिठाने की कोशिश की तो रोचना ने झट से पोते को बाहों में लेकर अपनी गोद में बिठा लिया। एक अनकही, अनसुलझी उलझन ने जैसे निशब्दता में खुशगवार समाधान पा लिया!
देवी नागरानी जन्म: 1941 कराची, सिंध (पाकिस्तान), 8 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, (एक अंग्रेज़ी) 2 भजन-संग्रह, 8 सिंधी से हिंदी अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। श्री मोदी के काव्य संग्रह, चौथी कूट (साहित्य अकादमी प्रकाशन), अत्तिया दाऊद, व् रूमी का सिंधी अनुवाद. NJ, NY, OSLO, तमिलनाडू, कर्नाटक-धारवाड़, रायपुर, जोधपुर, महाराष्ट्र अकादमी, केरल व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। साहित्य अकादमी / राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद से पुरुसकृत।
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