2006 या 7 की बात है जब पहली बार नरेन्द्र कोहली जी से लम्बी बात-चीत हुई थी राम और रामायण को लेकर। एक प्रश्न और दुविधा थी कि यदि राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे तो उन्होंने बाली को पेड़ की ओट से क्यों मारा? संतुष्ट कर दे ऐसा जबाव तो नहीं मिला था परन्तु रामायण में रुचि आपने ही जगाई थी उस दिन। उसके पहले तो रामायण बस एक ग्रंथ था मेरे लिए जिसे तोते की तरह बस बड़ों को पढ़कर सुनाया था बचपन में। 2007 में शुरु हुआ यह विचारों का आदान-प्रदान 11 तक चला। जितना ही आपको पढ़ा और जाना और पढ़ने की इच्छा हुई। आप कई कई पीढ़ियों तक हमारी प्रेरणा रहेंगे। लेखनी के पाठकों के लिए हम आपकी रचनाओं का पुनः पाठ करेंगे।
श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत है इस श्रंखला की पहली कड़ी-
हिन्दी, अन्य भारतीय भाषाएँ और हमारी सांस्कृतिक एकता
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भारतीय भाषाओं की लीपियाँ थोड़े से भेद के साथ देवनागरी के आस-पास स्थिर हो गईं। जिन भारतीय भाषाओं का देवनागरी से बहुत विरोध माना जाता है, उनके अक्षरों को यदि देवनागरी के अक्षरों से मिलाकर देखा जाए तो पर्याप्त समानता दिखाई पड़ी है। हिन्दी ने भारतीय भाषाओं की एकसूत्रता को ध्यान में रखते हुए इसी लिपि को अंगीकार किया, ताकि समान उत्तराधिकार को बिखरने न दिया जाए।
भारतीय भाषाओँ का शब्द-भंडार प्रायः संस्कृत से आया है। यदि अँतर खोजने पर आएँ तो हिन्दी की बोलियों में ही भेद दिखाकर उन्हें पृथक और स्वतंत्र भाषा का स्थान देने का आन्दोलन चलाया जा सकता हैः किंतु यदि यह देखा जाए कि उनमें यद्किचित् उच्चारण भेद ही है, किंतु शब्दावली प्रायः वही है, तो उस समान उत्तराधिकार और अपनी एकता को बनाए रखने के लिए हमें उस शब्द भंडार को बनाए रखना होगा। चाहे थोड़ा-सा उच्चारण भेद हो; किंतु वे शब्द सारे देश में समझे और पहचाने जा सकते हैं।
एक मराठी लेखिका ने अपनी एक कहानी का हिन्दी में स्वयं अनुवाद कर मुझे भिजवा दिया। मैंने उस परिवेश के अनुकूल भाषा निर्माण की दृष्टि से उनके अनेक शब्दों को बदल दिया। उस संशोधित कहानी की भाषा को देख कर उन्होंने कहा कि ये सारे शब्द तो मराठी के ही हैं। मैंने उन्हें बताया कि वे शब्द हिन्दी के भी हैं। उन्होंने कहा कि वे समझती थीं कि हिन्दी में उन शब्दों का प्रचलन नहीं है, इसलिए उन्होंने अरबी और फारसी शब्दों का प्रयोग किया ताकि वह भाषा मराठी न रह कर हिन्दी हो सके।
स्पष्टतः हिन्दी का जो अखिल भारतीय रूप होगा, वह संस्कृत निष्ठ ही होगा। क्योंकि वे ही शब्द कश्मीर से कन्याकुमारी तक और गुजरात से असम तक पहचाने समझे और बोले जाते हैं। वह शब्दावली हमारी समान सांस्कृतिक धरोहर है। यदि हम चाहते हैं कि भारतीय भाषाओं में यह एकसूत्रता बनी रहे, तो हमें उस समान शब्द-संपदा को प्रयत्नपूर्वक बनाए रखना होगा।
मैं यह नहीं कहता कि हमें अन्य भाषाओं के शब्द ग्रहण नहीं करने चाहिएँ, किंतु अन्य भाषाओं के शब्दों के अनावश्यक प्रयोगों का मैं विरोध करता हूँ। जो शब्द हमारे पास नहीं हैं , उन्हें ग्रहण करना हमारी आवश्यकता भी है और समझदारी भी। किंतु अपने शब्दों के स्थानापन्न के रूप में विदेशी शब्दों के प्रयोग का कोई औचित्य नहीं है। वे शब्द चाहे अंग्रेजी, फ्रांसिसी , पुर्तगाली, स्पेनी , अथवा डच भाषा के हों या फिर अरबी, फारसी और तुर्की के। ङम इन विदेशी भाषा के शब्दों का जितना अधिक प्रयोग करेंगे, अन्य भारतीय भाषाओं से हमारा संबंध उतना ही विछिन्न होता जाएगा।
अंग्रेजी क विरुद्ध हमारा अपना अधिकार मांगना, वस्तुतः हिन्दी के लिए ही नहीं, सारी भारतीय भाषाओं के लिए उन का अधिकार मांगना है। जब तक देश में अंग्रेजी का वर्चस्व रहेगा, तब तक किसी भारतीय भाषा का विकास नहीं हो सकता। कुछ लोगों की यह मान्यता है कि अंग्रेजी इस देश जीवन में इतनी दूर तक बैठ गई है कि उसका अस्तित्व अब समाप्त नहीं किया जा सकता। उनकी यह मान्यता भी है कि अंग्रेजी विश्व स्तर पर इतनी शक्तिशाली भाषा है कि यदि उस का अस्तित्व रहेगा तो उसका वर्चस्व भी बना रहेगा। मेरा इन दोनों ही मान्यताओं से न केवल मतभेद है, वरन् पूर्ण विरोध है। किसी समय फारसी भी इस देश के जनजीवन में इतनी गहरी पैठ गई थी कि कोई मान नहीं सकता था कि कभी उसका अस्तित्व समाप्त हो सकता है। अंग्रेजों के समय कौन कल्पना कर सकता था कि यह देश कभी ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त हो सकेगा, किंतु प्रयत्नपूर्वक उस साम्राज्य से मुक्ति प्राप्त की गई। ठीक उसी प्रकार राजनीतिक और सास्कृतिक संकल्प क आधार पर अंग्रेजी भाषा से भी हम मुक्त हो सकते हैं। रहने को उस का अस्तित्व बना भी रहे तो भारतीय भाषाओं पर उस का वर्चस्व अनिवार्य नहीं है। फ्रांस, जर्मनी, पुर्तगाल, चीन, जापान इत्यादि देशों में अंग्रेजी का प्रचलन है, किंतु उसका वर्चस्व नहीं है। कल तक रूस में अंग्रेजी की स्थिति अत्यंत नगण्य थी, किंतु राजनीतिक तथा आर्थिक कारणों ने आज उसे वहाँ महत्वपूर्ण बना दिया है।
अपनी परंपरा से आए समान उत्तराधिकार को हम अपनी अमूल्य निधि और उपलब्धि मानते हैं। उसकी रक्षा और निर्माण हमारा धर्म है। हमारी पूरी आस्था उस परंपरा में है। अतः हम अपने साहित्य में उस परंपरा का जितना प्रचार-प्रसार और चित्रण करेंगे, उतनी ही सारे देश की एकसूत्रता दृढ़ हो सकती है। अपनी भौगोलिक, राजनीतिक और सामाजिक स्थिति के कारण हिन्दी को कुछ अतिरिक्त सुविधाएँ प्राप्त हैं। इसलिए उनके कुछ विशिष्ट दायित्व भी बनते हैं। हमारी भौगोलिक स्थिति यह है कि समान उत्तराधिकार के कारण हिमाचल, जम्मू, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और दिल्ली – सर्वथा हिन्दी भाषी प्रदेश हैं। पंजाब, बंगाल, असम और गुजरात हिन्दी भाषी प्रदेश न होते हुए भी हिन्दी शब्दावली से अवगत हैं। उनकी लीपियां भी बहुत भिन्न ननहीं हैं। महाराष्ट्र भी हिन्दी से पूर्णतः अपरिचित नहीं है। आंध्र, तामिलनाडु, केरल और कर्नाटक में उनकी अपनी भाषाओं में जितनी भी संस्कृत शब्दावली है, वह उन्हें हिन्दी के निकट ले आती है। इसलिए अपनी वर्तमान स्थिति के कारण हिन्दी का लेखक अपने साहित्य में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के जीवन का चित्रण करता है। हिन्दीतर भाषाओं का हिन्दी लेखक अपने प्रदेश के जीवन का चित्रण हिन्दी में करता है। यह तो भारत की बात हुई। अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर प्रवासी भारतीयों का अपने-अपने क्षेत्रों का सामाजिक चित्रण भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इस दृष्टि से हमारी सांस्कृतिक एकता के सूत्र एशिया, अमेरिका तथा यूरोप के विभिन्न देशों तक जा पहुँचते हैं।
शाषकीय, व्यापारिक, धार्मिक अथवा सामाजिक कारणों से, अनेक भारतीय अपने प्रदेशों से बाहर, दूसरे प्रदेशों में रहकर, वहाँ की भाषा के संपर्क में आते हैं। हिन्दी प्रदेशों में रहने वाले अहिन्दी भाषी यदि अंग्रेजी का मोह छोड़ देते हैं, तो वे अच्छी हिन्दी सीख लेते हैं। अनेक बार तो उनके बच्चे हिन्दी माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर हिन्दी में निष्णात भी हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार हिन्दी भाषी लोग अहिन्दी भाषी प्रदेशों में रहने के कारण, उन प्रदेशों की भाषाओं और उनके साहित्य के संपर्क में आते हैं। उन लोगों में ऐसे अनेक लोग हो सकते हैं अथवा हैं, जिनकी रुचि भाषाएँ सीखने उनके साहित्य का परस्पर आदान-प्रदान करने में है। कुछ लोगों को भाषा का सहज ज्ञान हो जाता है, कुछ लोग प्रयत्नपूर्वक उन्हें सीखते हैं, कुछ लोग केवल अपनी रुचि के कारण अनुवाद करते हैं; और कुछ लोग उसे व्यवसाय के रूप में गृहण करते हैं। परिणाम हमारे सामने है। बंकिमचंद्र, रवीन्द्रनाथ ठाकुर और शरत् चंद्र चटोपाध्याय से लेकर आशापूर्ण देवी तथा विमल मित्र तक बंगला के प्रत्येक महत्वपूर्ण लेखक और ग्रंथ का हिन्दी में अनुवाद हुआ है। पंजाबी की अमृता प्रीतम के विषय में हिन्दी का पाठक यह जानता ही नहीं कि वे हिन्दी नहीं पंजाबी की लेखिका हैं। ठीक यही स्थिति उर्दू के कृष्णचंद्र और कुछ अन्य लेखकों को लेकर है। उनकी पुष्तकों पर यह भी लिखा नहीं होता कि मूल पुष्तक किसी अन्य भाषा में रची गई थी और हिन्दी में उसका अनुवाद हुआ है। जब मूल भाषा की ही चर्चा नहीं होती तो अनुवादक का नाम कहां से आएगा।
मराठी से खांडेकर, पु.ल. देशपांडे, शिवाजी सावंत, दुर्गा भागवत इत्यादि लेखकों को हिन्दी वालों ने अपने लेखकों के रूप में ही अपनाया है। क.मा. मुंशी और पन्नालाल पटेल जैसे लेखक हिन्दी वालों के लिए तनिक भी अपरिचित नहीं हैं। कन्नड के भैरप्पा और उड़िया की प्रतिभा राय हिन्दी में पूरी तरह से अनुदित हो चुके हैं। यदि हम खोज करेंगे तो पाएंगे कि प्रत्येक भाषा के क्षेत्र में कुछ ऐसे साधक हैं , जिन्होंने उस भाषा की प्रायः सारी महत्वपूर्ण पुष्तकोंको हिन्दी में उपलब्ध करा दिया है। एक अकेले शंकरलाल पुरोहित ने सारा उड़िया कथा-साहित्य और रवीन्द्र कुमार सेठ ने तामिल शैव भक्ति साहित्य हिन्दी में उपलब्ध करा दिया है।
हमारी रुचि केवल अनुवाद तक ही नहीं है। अमृतलाल नागर ने तो तामिल की मूल कृति से प्रेरणा पाकर ’ सुहाग के नूपुर’ की रचना की थी। इस प्रकार तामिल का मध्ययुगीन जीवन हिन्दी की मौलिक कृति के रूप में हमारे सामने आया।
अनुवाद तो विदेशी भाषाओं से भी होता है; किंतु उस साहित्य और जीवन से हमारा वैसा तादात्म्य नहीं होता, जैसा कि विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य से होता है। उसका कारण हमारी राजनीतिक एकता कम, हमारी सांस्कृतिक एकता ही अधिक है। आज तो प्रकाशन, प्रसारण, मुद्रण और यात्रा इत्यादि के उत्कृष्ट साधन उपलब्ध हैं, इसलिए आदान-प्रदान, प्रभावित होने और प्रभावित करने में, कोई कठिनाई ही नहीं है, किंतु जिस समय वे सुविधाएँ उपलब्ध नहीं थीं, उस समय भी भारत के सारे प्रदेशोंके संत, कवि और साहित्यकार एक ही सुर में गा रहे थे। विद्यापति, सूर, कबीर तथा अन्य संत कवि, जो कुछ कह और लिख रहे थे, ठीक वैसी ही रचनाएँ अन्य प्रदेशों में भी हो रही थीं।
यदि हम प्रवृत्तियों पर विचार करें तो हम पाते हैं कि हमारी संस्कृति के केन्द्र में सदा से अध्यात्म ही रहा है। इसलिए संस्कृति-पुरुषों के जीवन चरित्र, उनसे संबंधित घटनाओं, उनके विचारों तथा उपदेशों के माध्यम से अपने सांस्कृतिक मूल्यों को जीवंत करने, समझने और उनका प्रचार-प्रसार करने का ही प्रयास किया गया है। उदाहरण के रूप में राम, कृष्ण, युधिष्ठिर, बुद्ध, महावीर इत्यादि के जीवन चरित हमारे सामने हैं। संभवतः कुछ लोगों को कालक्रम की दृष्टि से ये व्यक्तित्व कुछ दूर लगें; किंतु रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, गांधी, दयानंद सरस्वती और अरविंद तो, हमारे बहुत निकट के हैं। यही कारण है कि आदि काल और भक्ति काल के साहित्य में तो इन चरित्रों पर बल है ही, आधुनिक युग में भी हम भारतेन्दु, मैथलीशरण गुप्त, हरिऔध प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, दिनकर, धर्मवीर भारती, कुँवर नारायण, भवानी प्रसाद मिश्र, बशीर अहमद मयूख, बलदेव वंशी, डॉ.विनय तथा सुनीता जैन तक को उन्ही सांस्कृतिक मूल्यों और उन्ही सांस्कृतिक पुरुषों से अभिभूत पाते हैं और उनकी रचनाओं में उन्हें चित्रित देखते हैं।
साभार लेखनी दिसंबर 2008)
( 6 जनवरी 1940 से 17 अप्रैल 2021)